सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 23

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 23

कत्ल का मंसूबा

वतन और घर-बार छोड़ना आसान नहीं होता, फिर ऐसी हालत में कि जो कुछ पूंजी हो, दिन दहाडे लूट ली जाए, बच्चे छीन लिए जाएं, बीवी जबरदस्ती जुदा कर दी जाये। मुसलमानों की हिजरत सच तो यह है कि बड़ी हिम्मत का काम ही था।

धीरे-धीरे तमाम मुसलमान मक्का से यसरब को हिजरत कर चूके थे, सिर्फ बूढ़े और कमजोर मुसलमान ही बाकी रह गये थे या हुजूर (ﷺ) अबू बक्र सिद्दीक़ और हजरत अली (र.अ) बाकी रह गये थे।

जब तमाम मुसलमान यसरब पहुंच गये, तो कुफ्फ़ारे मक्का की बड़ी चिंता हुई और जब उन्हें यह मालूम हुआ कि हुजूर (ﷺ) के चचा हजरत अब्बास (र.अ) ने भी इस्लाम कबूल कर लिया है, तो उन की चिंता और बढ़ गई।

चुनांचे उन्हों ने एक शानदार जलसा किया। इस जलसे में हर क़बीले और हर खानदान के बड़े सरदारों को बुलाया गया, बाहर से भी कुछ लोग बुलाये गये और कड़े पहरे में खुफ़िया अन्दाज में कार्रवाई शुरू हुई। 

सदारत की कुर्सी पर एक नज्दी बूढ़े तजुर्बेकार शख्स को बिठाया गया।

यह निहायत चालाक और होशियार आदमी था। अबू जहल ने जलसे की कार्रवाई शुरू करते हुए कहा गैरतमन्द अरबो ! अफ़सोस है कि इस्लाम हम लोगों के लिए एक मुसख्खल खतरा बन गया है। जितना ही हमने इस्लाम को मिटाने की और मुसलमानों को अपने मजहब में लौटाने की कोशिश की, उतनी ही हम को नाकामी हुई। इस्लाम फैलता रहा और मुसलमानों में से एक आदमी भी अपने बाप-दादा के मजहब में न लौटा।

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आप को अच्छी तरह मालूम है कि मुसलमानों की एक बड़ी तायदाद हब्शा को हिजरत कर के चली गयी है और वे वहां अपने मजहब की तब्लीग़ कर रहे हैं और दूसरी बड़ी जमाअत यसरब पहुंच गयी है। यसरब के ज्यादातर लोग मुसलमान हो गये हैं। 

अब इस्लाम की ताक़त बढ़ गयी है। अगर इस ताकत को न तोड़ा गया, तो हमारे माबूदों को, हमारी कौम को, हमारे मजहब को अरब से जलील होकर निकलना पड़ेगा या हम को मुसलमानों का महकूम बन कर जिल्लत व पस्ती की हालत में रहना होगा। 

मेरे ख्याल में हम में से कोई भी आदमी इस जिल्लत को गवारा न करेगा। आज हम सब इस लिए जमा हुए हैं कि मुस्तकबिल के इस खतरे का कोई ऐसा इलाज करें कि जिस से यह खतरा जाता रहे।

अबू जहल खामोश हो गया। उस के खामोश होने पर अबू लहब खड़ा हुआ। उस ने कहा, ऐ बुत के पुजारियो ! मेरे भाई ने जिस खतरे का जिक्र किया है, यह कोई मामूली खतरा नहीं है, बल्कि निहायत ही जबरदस्त खतरा है। सोचना यह है कि हम किस तरह इस खतरे से अपने आप को बचा सकते हैं।

मेरे ख्याल में खतरे की वजह मुहम्मद (ﷺ) का वजूद है। जब तक वह हैं, खतरा रहेगा, इस लिए कोई ऐसा उपाय बताइए, जिस से तो मुहम्मद (ﷺ) हमारे मजहब में लौट आएं या वह इतने बेबस और मजबूरे कर दिये जाएं कि नये मजहब की तब्लीग न कर सकें।

अबू सुफ़ियान ने कहा, यह ख्याल कि मुहम्मद (ﷺ) हमारे मजहब में लौट आएंगे, फ़िज़ूल है। उन्हें हर मुम्किन लालच दे कर समझाया गया, हर तरह से कहा गया, लेकिन वह हमारे मजहब में तो क्या दाखिल होते, अपने मजहब की तब्लीग से भी हाथ न खींच सके। इस ख्याल को छोड़ दो और कोई ऐसी तज्वीज सोचो कि जिस से यह खतरा हमेशा के लिए ख़त्म हो जाए।

वलीद बोला,
इस में कोई शक नहीं कि खतरा हजरत मुहम्मद (ﷺ) की तरफ़ से है, इसलिए उन पर ही काबू हासिल करना चाहिए। मेरी राय में तो उन्हें पकड़ कर, जंजीरों में जकड़ कर एक कोठरी में बन्द करो और इतनी जिस्मानी तक्लीफ़ पहुंचाओ कि मुहम्मद (ﷺ) का खात्मा ही हो जाए। (नौउज़बिल्लाह)

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सदर की राय थी कि यह तज्वीज मनासिब नहीं है, क्यों कि जब उन के रिश्तेदारों और उन के मानने वालों को यह हाल मालूम होगा, तो उन्हें छूड़ाने की कोशिश करेंगे और इस तरह से फसाद और बढ़ जाएगा।

लड़ाई शुरू हो जाएगी। कोई नहीं कह सकता कि इस लड़ाई का अंजाम क्या होगा और यह कब तक जारी रहेगी। 

अब्दुल बस्तरी बोला, बेशक ऐसा करना खतरे से खाली नहीं। मेरी राय में उन्हें देश निकाला दे दीजिए और कोशिश कीजिए कि वह या और कोई मुसलमान कभी मक्के में दाखिल न होने पाये।

मक्कार सदर बोला, सब से ज्यादा खराब और नुक्सान देह तज्वीज यही तज्वीज है। मुसलमान खुद वतन छोड़ रहे हैं, मुहम्मद (ﷺ) भी जरूर हिजरत करेंगे, शायद वह भी यसरब ही जाएगे। वहां जा कर वह आजादी से अपनी ताकत बढ़ायेंगे और अपने मजहब की तब्लीग करेंगे। इस लिए यह तज्वीज किसी तरह भी मुनासिब नहीं है।

उत्बा ने कहा, मेरे ख्याल में मुहम्मद (ﷺ) को उनके मकान ही में नजरबंद कर दिया जाए, लेकिन न उन्हें मकान से बाहर निकलने दिया जाये न मिलने दिया जाए।

उन्हें मकान से बाहर मकान ही में सदर ने इस तज्वीज़ की भी मुखालफ़त की और कहा, इस तज्वीज से कोई फायदा नहीं हो सकता। शोबे अबी तालिब में तीन साल तक तो कैद रखा गया था, लेकिन उस का उल्टा ही असर हुआ और लोगों को आम तौर से उन के साथ हमदर्दियाँ हो गयीं।

अब अबू जहल उठा और उस ने कहा –

इस वक्त मेरे जेहन में एक चीज़ आयी है, उम्मीद है आप लोग इसकी ताईद करेंगे। हम को मुहम्मद (ﷺ) को क़त्ल कर देना चाहिए। उन के क़त्ल में जो अंदेशा है, वह यही तो है कि आले हाशिम उन का इंतिक़ाम उन्हें क़त्ल करने वाले से ले लेंगे तो कोई एक आदमी उन्हें कत्ल न करे, बल्कि हर एक कबीले से एक-एक जवान चुना जाए और ये लोग मुहम्मद (ﷺ) को अपने घेरे में ले कर हर ओर से एकदम उन पर तलवार की बारिश शुरू कर के उन्हें कत्ल कर डाले। (नऊज़ुबिल्लाह)

चूंकि यह कत्ल तमाम कबीलों की तरफ़ से होगा, इसलिए बनू हाशिम तमाम कबीलों से इंतिकाम न ले सकेंगे, बल्कि दियते मंजूर कर लेंगे और दियत में वे जो कुछ मांगेंगे, सब आसानी से मिल कर अदा कर सकेंगे।

सदर ने कहा, बेशक यही वह तज्वीज है, जो अव्वल ही मेरे दिमाग में आयी थी, सुनो, फ़साद की वजह मुहम्मद (ﷺ) ही की जात है। उस के मिटाने से ही तमाम फ़ित्ना व फसाद मिट सकता है। इस बड़े फसाद को मिटाने के लिए इस से बेहतर कोई तज्वीज नहीं हो सकती, जो आप के सामने भाई अबू जहल ने पेश की है। आप इस तज्वीज की ताईद करते हैं?

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हर तरफ़ से आवाजें आयीं, बेशक यह तज्वीज निहायत मुनासिब है। इस पर अमल करने से फ़साद और फ़साद की बुनियाद का खात्मा हो जायेगा।

तमाम मज्मे ने इस तज्वीज की ताईद की, तो हर क़बीले से एक-एक होशियार तजुर्बेकार और बहादुर जवान चुन लिया गया। जब लोगों को चुन लिया गया, तो सदर ने कहा, अब वक्त तज्वीज करो कि किस वक्त हमला किया जाए।

अबू लहब ने कहा, कल सुबह जिस वक्त हुजूर (ﷺ) अपने मकान से बाहर निकलें, तो तुरन्त हमला कर के उन्हें कत्ल कर दिया जाए।

सदर ने पूछा, क्या दिन में?

अबू लहब ने कहा, हां दिन में। क्यों इस में कोई परेशानी है ?

बूढ़े ने संजीदगी से कहा, वही किसास की परेशानी है। यह सही है कि तमाम लोगों की तलवारें एक साथ पड़ेंगी, फिर भी बनु हाशिम उस आदमी के कबीले से किसास लेगें, जिस की तलवार पहले पड़ेगी। यह बात कि पहले किस की तलवार पड़ी, दिन में मालूम हो सकती है, लेकिन रात के अंधेरे में इस का भी डर नहीं रहता, इसलिए इस काम के लिए दिन नहीं, रात ही बेहतर है।

बस तो अभी चल कर क्यों न खात्मा कर दिया जाए? अबू जहल बोल पड़ा।

मैं यह चाहता हूं कि यह बात भी न हो कि हम ने जान-बूझकर उन्हें क़त्ल कर दिया है। सदर ने कहा, बल्कि इस हैसियत से कत्ल करना चाहिए, जैसे कि इत्तिफ़ाकिया कत्ल कर दिये गये, इसलिए आज की रात मुनासिब नहीं है, क्योंकि इस वक़्त रात ज्यादा हो चुकी है, कल सुबह सवेरे ही उन को क़त्ल करने की कोशिश करनी चाहिए और जब भी मौका हाथ लगे, बिला तकल्लुफ़ उन्हें क़त्ल कर डालना चाहिए।

सब ने सदर की इस राय से इत्तिफ़ाक़ किया, चुनांचे चुने हुए लोगों को हिदायत की गयी कि वे आने वाली रात को हुजूर (ﷺ) के घर का घिराव कर लें और जिस वक्त वे अपने मकान से बाहर आएं, फ़ौरन उन्हें क़त्ल कर डालना चाहिए।

फिर मज्लिसे शरा बरखास्त कर दी गयी।

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हिजरत का इरादा

दूसरे दिन हुजूर (ﷺ) अपने मकान में आराम फरमा रहे थे। दोपहर का वक्त था धूप बहुत तेज थी। हवा बन्द थी, गर्मी  की तेजी से हर जानदार , बौखलाया हुआ था। लोग धूप से बचने के लिए अपने-अपने घरों में छुपे हुए थे, किसी को बाहर निकलने की हिम्मत न होती थी। 

हुजूर (ﷺ) की अचानक आंख खुल गई। आप उठ कर बैठ गये। हजरत फातमा (र.अ) जाग रही थीं। हुजूर (ﷺ) को मामूल के खिलाफ़ उठ कर बैठते देख कर आपके पास आ गयी, बोलीं, अब्बा ! आप मामूल के खिलाफ़ क्यों उठ बैठे?

हुजूर (ﷺ) ने हजरत फातमा को अपने पास ही बिठा लिया, फिर बताया, बेटी! आज मुझे हिजरत का हुक्म हुआ है। मैं रात को किसी वक्त यसरब चला जाऊंगा।

हजरत फातमा (र.अ) ने बड़ी मासूम निगाहों से आप (ﷺ) को देखा, बोली, अब्बा जान ! मुझे भी अपने साथ ले चलेंगे?

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, नहीं, मैं तुम को नहीं ले जा सकता। तुमको बाद में बुलाया जायेगा। 

बोलीं, अच्छा, अब्बा जान ! मुझे जल्द ही बुलाइएगा। आप की याद से मैं बेकरार रहूंगी।

हुजूर (ﷺ) ने उठते हुए फ़रमाया, बहुत जल्द बुलाऊंगा, घबराना मत। 

यह कह कर हुजूर (ﷺ) मकान से बाहर आये और धूप की तेजी के बावजूद आंखें नीची किये हजरत अबू बक्र सिद्दीक (र.अ) के मकान की तरफ़ चल दिये। वहां पहुंचे, दरवाजा खटखटाया। 

हजरत अबू बक्र (र.अ) बाहर निकले। सलाम किया और मुसाफ़ा करते हुए कहा, क्या हिजरत का हुक्म हो गया है?

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, अबू बक्र! तुम्हारा ख्याल बिल्कुल सही है, मगर यहां इस किस्म की बातें मुनासिब नहीं हैं। यहां तुम्हारी लडकियां भी हैं, चलो, अन्दर तंहाई में बातें करें।

फिर दोनों मकान के भीतर जा कर खजूर की चटाई पर बैठ गये। आप (ﷺ) ने फ़रमाया, ऐ अबू बक्र! अल्लाह की तरफ़ से मुझे यह इत्तिला दी गयी है कि रात मक्का के कुरैश ने यह तज्वीज़ किया है कि वे आज रात मेरे मकान का घेराव कर लें और जब मैं मकान से बाहर निकलू तो मुझे फौरन कत्ल कर दिया जाये। 

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हजरत अबू बक्र (र.अ) गुस्से से सुर्ख हो गए, बोले, बदमाश इतने दलेर हो गये हैं।

हुजूर (ﷺ) ने बताया, मुझे हुक्म मिला है कि मैं रात ही को उन के बीच से हो कर निकलूं, ताकि उन्हें मालूम हो जाये कि अल्लाह अपने चुने बन्दों की हिफ़ाजत किस तरह करता है और जिस की हिफाजत खुदा करे उसे कोई मार नहीं सकता।

हजरत अबू बक्र (र.अ) ने फ़रमाया, सही कहा आप ने। लेकिन यह तो बताइये, आप के साथ कौन होगा?

तुम ! आप (ﷺ) ने जवाब दिया।

हजरत अबू बक्र (र.अ) मारे खुशी के फुले न समाये। बोले खुदा का हजार-हजार शुक्र है कि उस ने मेरी तमन्ना पूरी कर दी है। हुजूर (ﷺ) ! मैं ने कई महीने पहले दो ऊंटनियां खरीद कर बबूल के जंगल में छोड़ दी थीं। वे खा-पी कर मोटी हो गयी हैं। उन में से एक ऊंटनी आप की नज्र है।

हुजूर (ﷺ) मुस्करा दिये, बोले अबू बक्र ! तुम्हारा शुक्रिया! मैं जानता हूं कि तुम को अल्लाह और उस के रसूल और इस्लाम से कितना लगाव है, मगर मैं चाहता हूं कि ऊंटनी की कीमत मुझ से ले लो।

कीमत हजरत अबू बक्र (र.अ) चौंके, मेरे हुजूर ! मैं ने ऊंटनी आप ही के लिये खरीदी थी। जानता था कि अचनाक हिजरत का हुक्म होगा, सवारी भी जरूरी होगी, इसलिये उस वक्त अपनी तरफ़ से आप को यह ऊंटनी नज्र करूंगा। अब आप हैं कि कीमत देने पर इसरार है, बताइये, कीमत कैसे लू?

मैं खुशी से कीमत देता हूं, तुम भी खुशी से कुबूल करो, आप (ﷺ) ने फ़रमाया।

हुजूर की खुशी मेरी तमाम खुशियों पर निछावर है। अगर आप की यही खुशी है, तो मैं दिल व जान से तैयार हूं। हुजूर (ﷺ) ने ऊंटनी की कीमत अदा करने के बाद फ़रमाया, हमें आज ही रात में चलना होगा। इसलिये तैयारी कर लेना एक रहबर की भी जरूरत है। रहबर को आज साथ न लेना, जब जरूरत होगी, बुला लेंगे। 

हजरत अबू बक्र (ﷺ) बोले, मुझे रहबर का पहले ही से ख्याल था। 

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इसलिये मैं ने अब्दुल्लाह बिन उरकत को इस काम के लिये तैयार कर लिया है। 

हजूर (ﷺ) ने पूछा, लेकिन वह तो मुश्रिक है, क्या उस पर भरोसा: किया जा सकता है?

बेशक वह मुशिरक है, लेकिन अरब होने के नाते वह वायदे का पक्का है, हजरत अबू बक्र (र.अ) ने बताया।

जब तुम्हें एतमाद है, तो मेरे एतमाद न करने का कोई सवाल ही नहीं है पैदा होता। हुजूर (ﷺ) ने कहा, अच्छा मैं अब जा रहा हूं। तुम खुफ़िया तरीके से तमाम तैयारियां रात से पहले-पहले पूरी कर लो। 

मैं पूरी राजदारी से काम करूंगा, आप बे-फ़िक्र और मुतमईन रहे। अबू बक्र (र.अ) ने कहा।

रात को सो न जाना, न जाने किस वक्त आऊं? हूजूर (ﷺ) ने चलते-चलते फ़रमाया।

चाहे जब तरीफ़ लाइये, मुझे इन्तिजार करता ही पायेंगे, हजरत अबू बक्र (र.अ) ने जवाब दिया।

इस के बाद हुजूर (ﷺ) उठे और उस चिलचिलाती धूप में सर पर चादर रखे अपने मकान की ओर चल पड़े। फिर सारा दिन आप मकान ही पर रहे, बाहर न निकले। दिन गुजर गया, शाम हुई, रात में इशा की नमाज से फारिग भी हो गये।

इसी बीच हजरत अली (र.अ) आ गये। उन्हों ने सलाम किया, आपने दुआ दी और फ़रमाया अच्छा हुआ, तुम इस वक्त आ गये हो, आओ, बैठो। 

हजरत अली करीब ही बैठ गये, फिर एक सवाल किया, हुजूर (ﷺ) बांज काफ़िरों और मुश्रिकों ने हमारे घर को घेर लिया है, यह नई बात क्यों है?

फ़रमाया, चचा के बेटे ! इन्हों ने आज मेरे कत्ल की साजिश की है। ये चाहते हैं कि इस तरह हम इस्लाम को मिटा देंगे। ये बेवकूफ़ हैं, इतना भी नहीं समझते कि इस्लाम मिटने वाला नहीं है।

इस्लाम की फ़ितरत में कुदरत ने लचक दी है
उतना ही यह उभरेगा, जितना कि दबा देंगे।

हजरत अली (र.अ) ने बताया, मगर आप ने बाहर निकल कर नहीं देखा। सैकड़ों बदमाश तलवार लिए मकान के चारों तरफ़ खड़े हैं। मुझे डर है कि कहीं वे अपने इरादे में कामियाब न हो जाएं।

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हज़र (ﷺ) ने फ़रमाया,
तुम खौफ़ न करो, इत्मीनान रखो, अल्लाह मुझे उन की शरारत से बचाये रखेगा। अगर आज मैं कत्ल हो जाने वाला होता तो मुझे हिजरत का हुक्म न होता। मैं मुतमइन हूं कि खुदा मेरी हिफाजत करेगा।

हजरत अली (र.अ) ने पूछा, हुजूर (ﷺ) ! आप कब हिजरत करेंगे? 

आज ही नहीं, बल्कि इसी वक्त रवाना हो जाऊंगा। रात को तुम मेरे बिस्तर पर आराम करना।

क्या आप मुझे अपने साथ न ले जाएंगे? हजरत अली ने पूछा।

नहीं, इसलिए कि कुफ्फार की अमानतें मेरे पास मौजूद हैं। तुम सुबह तमाम अमानतें उन के मालिकों के सुपूर्द कर के यसरब आ जाना, आप (ﷺ) ने फ़रमाया।

क्या हुजूर ! आप यसरब तशरीफ़ ले जाएंगे ? हजरत अली ने पूछा।

हां, मुझे यसरब ही जाने का हुक्म हुआ है ?

तन्हा तशरीफ़ ले जाएंगे? हजरत अली ने पूछा।

नहीं, मेरे सफ़र के साथी अबू बक्र सिद्दीक (र.अ) होंगे, आप (ﷺ) ने बताया और कहा, अब तुम आराम से मेरे बिस्तर पर लेट जाओ।

हज़रत अली (र.अ) बिस्तर पर लेट गये। हुजूर (ﷺ) ने हजरत अली को अमानतों की फेहरिस्त दी और खुद मुसल्ले से उठ कर हजरत फातमा (र.अ) के पास गये।

चूंकि रात ज्यादा हो चुकी थी, इसलिए हजरत फातमा (र.अ) सो गयी थीं। आप ने थोड़ी देर खड़े हो कर मुहब्बत भरी नजरों से उन्हें देखा और चुपके से फ़रमाया, मेरी मासूम बेटी! मेरी नूरे नजर ! अल विदा ! अपने बाप से मुहब्बत करने वाली बेटी ! बाप पर कुफ्फ़ार के जुल्मों को देख कर रोने वाली बेटी! रुख्सत। मैं तुझे आज खुदा के सुपुर्द करता हूं। उस खुदा के जो पूरे कायनात का निगहबान है, वही तेरी हिफाजत करेगा और ऐ मेरी मुहब्बत की दुनिया ! वही फिर तुझ से मुझ को मिलायेगा।

यह कहते हुए हुज़ूर (ﷺ) की ओखें भीग गयीं। आप (ﷺ) रुरुसत होकर दरवाजे पर आये। दरवाजे से झांककर देखा, तो देखा कि अनगिनत कुफ्फार नंगी तलवारें लिये दरवाजे के सामने निहायत मुस्तैदी से खडे दरवाजे की तरफ़ देख रहे हैं। उस वक्त आधी रात बीत चुकी थी।

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चूँकि रात अंधेरी थी, इसलिए हर तरफ़ अंधेरा छाया हुआ था। हुजूर (ﷺ) ने मुट्ठी भर खाक उठायी और सूरः यासीन की शुरू की आयतें पढ़ना शुरू कर दी। पढ़ कर हुजूर (ﷺ) ने खाक पर दम किया और खाक कुफ्फार की तरफ फेंकी। अगरचे यह खाक मुट्ठी भर थी, पर हवा ने उस को चारों तरफ़ फैला दिया, ऐसा फैलाया कि आंखों पर परदा पड गया।

हुजूर (ﷺ) बिस्मिल्लाह कह कर मकान में बाहर निकले और कुफ्फार के सामने से गुजर गये और किसी की नजर न पड़ी और सब के सब जहां और जिस हालत में खड़े थे, उसी तरह खड़े रहे।

हुजूर (ﷺ) निहायत इत्मीनान से चल कर हजरत अबू बक्र (र.अ) के मकान पर पहुंचे, धीरे से दस्तक दी। दस्तक देते ही दरवाजा खुला। हुजूर (ﷺ) ने पूछा, अबू बक तैयार हो?

बिल्कुल तैयार हूं, हजरत अबू बक्र (र.अ) ने कहा, दोनों उटनियाँ और रहबर को ले कर अभी हाजिर होता हूं।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, अभी न ऊंटनियों की जरूरत है और न रहबर की। मैं ने रास्ते में देखा है कि कुफ्फ़ारे कुरैश जगह-जगह खड़े निगरानी कर रहे हैं। अगर हम ऊंटों पर सवार हो कर चलेंगे, तो वे जान जायेंगे कि हम जा रहे हैं। मुनासिब यह मालूम होता है कि हम दोनों तन्हा चलें।

जैसी आप की मर्ज़ी, हजरत अबू बक्र (र.अ) ने कहा, क्या मैं अब्दुल्लाह से कह आऊ कि वह ऊंटनियों को ले कर मक्के से बाहर आ जायें ?

इस की भी अभी जरूरत नहीं, हुजुर (ﷺ) ने फरमाया, मैं ने अभी यह तय किया है कि मक्का के नशेब में जो पहाड़ है, जिसे कोहे सौर कहते हैं, उस के किसी गार में छिप रहेंगे। कुफ्फार ढूंढते-ढूढते जब अपने घरों में थक कर बैठ जाएंगे, तो फिर हम वहां से निकलेंगे और यसरब का रास्ता तै कर लेंगे। 

बड़ी अच्छी तज्वीज है, हजरत अबू बक्र (र.अ) ने कहा, पर यह नहीं कहा जा सकता कि हमें कब तक गारे सौर में ठहरना पड़े, इसलिए आप की मंशा हो, तो मैं अपने बेटे अब्दुल्लाह को हिदायत कर आऊं कि वह रात को खाना ले कर कोहे सौर पर आ जाया करे और साथ ही दिन भर की खबरें भी हम को सुना जाया करे।

निहायत मुनासिब तज्वीज है, आप (ﷺ) ने फ़रमाया। और अपने गुलाम आमिर बिन फ़हरा से कह दूँ कि वह बकरियों का रेवड़ कोहे सौर के करीब ही चराया करे, ताकि जरूरत के वक्त हम दूध भी पी लिया करें और अब्दुल्लाह और मेरी बेटी अस्मा जो वापस जाया करेंगे, तो उन के कदमों के निशान और बकरियों के रेवड़ के चलने से मिट जाया करेंगे, हजरत अबू बक्र (र.अ) ने दूसरी राय रखी। 

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यह राय भी बहुत बेहतर है, आप (ﷺ) ने फ़रमाया।

हजरत अबू बक्र (र.अ) मकान के भीतर गये। उन के वालिद अबू कहाफ़ा जाग रहे थे। वह अंधे थे। उन्हों ने कदमों की चाप सुन कर कहा, यह मकान के आंगन में कौन फिर रहा है?

अबू कहाफ़ा अभी तक मुसलमान नहीं हुए थे। हजरत अबू बक्र (ﷺ) चाहते थे कि उन्हें भी उन की हिजरत का इल्म न हो, पर उन के टोकने पर बताना ही पड़ा। आप उन के पास गये और धीरे से बोले, मैं हूं अबू बक्र! 

पूछा, तुम आधी रात को सेहन में क्या कर रहे थे?

हजरत अबू बक्र रजि० ने कहा, प्यारे बाप ! आज मैं यहां से हिजरत कर रहा हूं।

क्या मुहम्मद (ﷺ) के साथ जा रहे हो? उन्हों ने पूछा।

जी हां। अच्छा जाओ! लेकिन शायद मक्के वाले तुम को जाने न दें, अबू कहाफ़ा (र.अ) ने कहा।

हजरत अबू बक्र (र.अ) ने जोश में आ कर कहा, उन की मजाल नहीं जो रोक सकें। 

नर्मी से अबू कहाफ़ा ने समझाया, प्यारे बेटे ! मक्का वालों से लड़ न पड़ना।

हजरत अबू बक्र (र.अ) ने कहा, जहां तक मुम्किन होगा, नहीं लड़ेगा। अबू कहाफ़ा ने दुंबा दे कर हजरत अबू बक्र (र.अ) को विदा किया।

आप बढ़ कर वहां पहुंचे, जहां आप के बेटे अब्दुल्लाह और बेटी अस्मा और आप के गुलाम आमिर बैठे जाग रहे थे। ये तीनों मुसलमान हो चुके थे।

हजरत अबू बक्र रजि० ने.अब्दुल्लाह से मुखातब हो कर कहा,
हमारे बेटे! हम कोहे सौर पर जा रहे हैं और वहीं, रहेंगे, तुम कुफ्फार से मिल कर उन के इरादों की रात में जा कर इत्तिला दे आया करना और बेटी अस्मा ! तुम रोजाना खाना पका कर अपने भाई अब्दुल्लाह के साथ ले आया करना और आमिर ! तुम रोजाना आधी रात तक कोहे सौर पर बकरियां चराने लाया करना और जिस तरफ़ से अब्दुल्लाह और अस्मा आएं या जाएं, उसी तरफ़ बकरियां ले जाया करना, ताकि उन के कदमों के निशान मिट जाया करें।

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तीनों ने अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को निभाने का वायदा किया।

उन्हें हिदायत कर के हजरत अबू बक्र (र.अ) वापस लौटे और हुजूर (ﷺ) के पास आ गए।

आप (ﷺ) ने पूछा, क्या सब लोग जाग रहे थे, जो तुम इतनी जल्द हिदायत कर के चले आए ?

हजरत अबू बक्र (र.अ) ने जवाब दिया, हां हुजूर (ﷺ) ! तमाम लोग जाग रहे थे। मैं ने सब को उन की जिम्मेदारियां बता और समझा दी हैं।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, आओ, चलो।

दोनों रात के अंधेरे में गुम हो गये। खाना काबा पहुंच कर उस का तवाफ़ किया। जब मक्का के आखिरी हिस्से को तै करने लगे, तो आप ने पलट कर देखा और कहा –

“ऐ मक्का शहर! तू मुझे बहुत महबूब है, लेकिन अफ़सोस कि मैं आज तुझ से जुदा हो रहा हूं। तेरे बेटों ने मुझे इस जगह न रहने दिया।”

हजरत अबू बक्र (र.अ) ने पूछा, क्या हुज़र (ﷺ) ! आप को मक्का से बहुत ज्यादा मुहब्बत है?

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, बहुत ज्यादा इसलिए नहीं कि यह मेरा वतन है, बल्कि इस लिए कि इसे इब्राहीम खलीलुल्लाह ने बनाया है और यहां अल्लाह का पसन्दीदा घर है।

क्या इस शहर में हम फिर दाखिल न हो सकेंगे? अबू बक्र (र.अ) ने पूछा।

जरूर दाखिल होंगे, पर उस वक्त जब कि यह (मक्का) खुदापरस्तों का घर बन जाएगा।

जब तो कुछ फ़िक्र नहीं, तब तो हमारी औलाद ही यहां आकर आराम करेगी।

तुम रहोगे, न मैं रहूँगा, न अली रजि० रहेंगे, न उमर रहेंगे, न उस्मान रहेंगे। कोई न रहेगा, हम यसरब में रहेंगे और वहीं मरेंगे, अलबत्ता हज करने के लिए यहा आते रहेंगे।

जिस जगह हुजूर (ﷺ) रहेंगे, हम सब वहीं रहेंगे। हम को वह जगह बहिश्त से बढ़ कर अजीज है।

हुजूर (ﷺ) खामोश हो गये। अब ये दोनों मक्का से बाहर निकल कर खुले मैदान में आ गये थे। हर ओर अंधेरा फैला हुआ था। अगरचे सितारे चमक-चमक कर अंधेरों को दूर करने की कोशिश कर रहे थे, पर अंधेरा कहां दूर होता था। 

थोड़ी दूर चल कर दोनों रात के अंधेरे में गायब हो गये।

To be continued …

इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा ….
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे और अपनी राय भी दे … 

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