Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 30
बद्र की लड़ाई
अबू सूफ़ियान ने मुसलमानों के आने की खबर सुन कर जमजम बिन अम्र को इसलिए मक्का भेजा था, ताकि वे उस की मदद के लिए आ जाएं।
जमजम ने मक्का में जा कर अबू सुफ़ियान का पैगाम मक्का वालों तक पहुंचा दिया। फ़ौरन कुफ्फारे कुरैश ने मज्लिसे शूरा बुलायी।
चूँकि कुरैश की खुशहाली और कूवत का राज शाम मुल्क से तिजारत ही में था, और मुसलमानों के हमले से इस तिजारत के बन्द हो जाने का डर था, इस लिए मज्लिसे शूरा ने तै कर दिया कि फ़ौरन अबू सुफ़ियान की मदद और मुसलमानों के मुकाबले के लिए एक शानदार फ़ौज तैयार की जाये इसलिए बड़ी धूम-धाम और जोर-शोर से तैयारियां होने लगी। तमाम मक्का में हलचल मच गयी।
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एक दिन और एक रात को बेपनाह कोशिशों से एक हजार कुफ्फार की फ़ौज तैयार हो गयी। इस फ़ौज का सिपहसालार अबू जहल को बनाया गया।
इस फ़ौज में मक्के के तमाम सरदार शामिल थे, जैसे उत्बा, शैबा, हंजला, उबैदा, हर्स, जमआ, अकील, अबुल बख्तरी, मसऊद वगैरह। ये वह लोग थे जिन की बहादुरी की पूरे अरब में पाक थी।
इस फ़ौज में सौ घोड़े और सात सौ ऊंट थे। सैकड़ों लड़ने वाले जवान जिरह बक्तर पहने थे और तमाम लोग हथियारों से लैस थे।
यह फ़ौज बड़ी शान से रवाना हुई।
कुफ्फ़ारे मक्का ने समझ लिया था कि यह शानदार फ़ौज मुसलमानों की जड़ें काट कर के बहुत जल्द वापस आ जाएगी।
यह फ़ौज जब डेढ़ सौ मील का फासला तै कर चुकी, तो मालूम हुआ कि अबू सुफ़ियान अपने काफिले के साथ खैरियत से पहुंच गया। इस फ़ौज का मक्सद अबू सुफियान की हिमायत थी, इसलिए कुछ लोगों की राय हुई कि वापस लौटना चाहिए, लेकिन अबू जहल ने कहा, हमें मुसलमानों को फ़ना कर के ही लौटना चाहिएं।
चुनांचे सब इस पर एक राय हो गये और फौज बराबर आगे बढ़ती रही, यहां तक कि मदीना से दो मील की दूरी पर बद्र नामी जंगल पर पहुंच गई।
बद्र एक कुएं का नाम था। कुएं के करीब एक गांव आबाद था। उस गांव का नाम भी बद्र था। मक्का से मदीना और मदीने से मक्का जाने वाले इस जगह ठहरा करते थे, बद्र मक्का से अस्सी मील की दूरी पर था।
बद्र से मयके की तरफ़ जमीन का जो हिस्सा था, वह बुलंद और हमवार था, और मदीने की तरफ़ वाला हिस्सा नशेबी और रेतीला था।
कुफ्फार की शानदार फौज ने मक्के की तरफ़ ऊँची हमवार जमीन पर पड़ाव डाल दिया कि कुंआं फ़ौज के बीच में आ गया।
इस फ़ौज के साथ अरब की हसीन गाने और नाचने वाली औरतें भी थी, ताकि नाच-गाने की महफ़िल सजायी जा सकें और शराब का दौर चलता रहे।
चूँकि उस फौज ने लगभग सवा दो सौ मील का फासला तै कर लिया था, इसलिए सिपाही थक गये थे। उन्होंने कई दिन तक बद्र की जगह पर सुस्ती दूर करने के लिए पड़ाव डाला था।
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जिस दिन बद्र से फौज रवाना होने की तैयारियां कर रही थी, उसी दिन एक ऊंट सवार दौड़ा हुआ आया और उस ने पुकार कहा, ऐ कुरैश वालो! इस्लामी मुजाहिदों की फौज आ गयी है। होशियार हो जावो अपनी हिफाजत करो।
कुफ्फारे मक्का ने रवानगी का इरादा मुलतवी कर दिया और तमाम सरदार और रईस इस्लामी फ़ौज के आने का नजारा करने के लिए उसे टीले पर चढ़ गये।
यह रेत का टीला इतना ऊंचा था कि उस के चारों तरफ़ के दूसरे टीले उस से नीचे थे। जब इन लोगों ने मदीना मुनव्वरा की तरफ़ नजर की तो उस तरफ़ से इस्लामी फ़ौज बड़ी शान से आती नजर आयी। सबसे आगे हजरत अबू बक्र सिद्दीक (र.अ) इस्लामी झंडा उठाये आ रहे थे। झंडा बड़ी शान से हवा में लहरा रहा था।
इस्लामी फ़ौज कुछ दूरी पर आ कर रुक गयी और बद्र के निचले और रेतीले हिस्से में पड़ाव डाला। बद्र में सिर्फ एक कुंआ था और उस कुएं पर कुफ्फारे मक्का का कुनबा हो गया था।
सबसे पहले मुसलमानों को पानी की कमी महसूस हुई।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, तयम्मुम कर के नमाज पढ़ लो और खुलूसे दिल के साथ रहमत की बारिश की दुवा करो।
तमाम मुसलमानों ने तयम्मुम कर के नमाज पढ़ी और सच्चे दिल से गिड़गिड़ा कर दुआ मांगी।
रहमते खुदावन्दी को जोश आया, दुआ मकबूल हुई और जुहर के बाद ही से हल्की-हल्की बदलियां उठ-उठ कर फिजा में तैरने लगी।
अस्र के वक्त तमाम बदलियां मिल कर घटा बन गयीं। ठंडी हवा चलने लगी।
हुजूर (ﷺ) ने मुसलमानों को एक साफ़-सुथरे नशेबी जगह पर एक बड़ा तालाब खोदने का हुक्म दिया।
तमाम मुसलमान तालाब खोदने में लग गये। थोड़ी ही देर में तालाब तयार हो गया।
तालाब तैयार होते ही बारिश शुरू हो गयी। बारिश इतनी हुई कि तालाब पूरी तरह भर गया। यह बारिश इशा तक हुई।
मुसलमानों ने इशा की नमाज खेमों में ही पढ़ी, बारिश का पानी पिया और अल्लाह की रहमत व मेहरबानी का शुक्रिया अदा कर के सो गए।
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सुबह जब वे उठे, तो आसमान साफ़ था। बादल का कहीं निशानं न था। रेतीली जमीन पानी पड़ने से कड़ी हो गयी थी। अभी वे नमाज से फारिग भी न हुए थे कि कुफ्फार हथियारों से लैस हो कर मैदान में आ गये। जिस मैदान में कुफ्फार ने लाइनें बनायी थीं, बारिश होने की वजह से उस में दलदल हो गयी थी। घोड़ों के सुम दलदल में से जा रहे थे।
मुसलमान भी नमाज से फ़ारिग हो-हो कर मैदान में लाइनें बनाने लगे।
हुजूर (ﷺ) नमाज पढ़ कर खेमे के अन्दर तशरीफ़ ले गये और सज्दे में सर रख कर अल्लाह के हुजूर (ﷺ) दुआ करने लगे
“ऐ पैदा करने वाले ! ऐ पालनहार ! मुसलमान सिर्फ तेरे भरोसे पर तेरे हुक्म के मुताबिक़ घरों से निकल कर लड़ाई के मैदान में आए हैं। अल्लाह ! तुझे पूजने वाले, तेरा नाम लेने वाले ! तेरे नाम पर मर मिटने वाले तायदाद में कम और ताक़त में कमजोर हैं। ऐ अल्लाह ! यह पहली लड़ाई है। इस लड़ाई में मुसलमानों को हरा कर शर्मिन्दा न करना, ऐ कुदरत वाले ! इज्जत और बड़ाई तेरे हाथ में है। ऐ अल्लाह ! तू गरीब बेचारे मुसलमानों को जिता, उन की हिमायत कर। परवरदिगार ! मुसलमानों को सिर्फ तेरा सहारा है, तुझ से उम्मीद है, तू उन्हें मायूस न करना। अल्लाह ! अगर तू ने इस छोटी सी जमाअत को हलाक कर दिया तो जमीन पर तेरी इबादत करने वाला कोई बाकी न रहेगा।”
हुजूर (ﷺ) सज्दे में पड़े हए रो-रो कर दुआ मांग रहे थे। दुआ मांगने से आप को कुछ तस्कीन हो गयी।
कुछ देर बाद आंख खुली, आप उठे और मुस्कराते हुए खेमे से बाहर निकले।
मुसलमान आप (ﷺ) के आने का इन्तिजार कर रहे थे। आप को आते देख उन्हों ने अल्लाहु अकबर का जोरदार नारा लगाया। आप धीरे-धीरे चल कर निहायत इत्मीनान से इस्लामी फ़ौज में पहुंचे।
आप (ﷺ) ने फरमाया, मुसलमानो! जीत मुबारक हो। खुदा का हुक्म नाजिल हो गया कि कुफ़्फ़ार हार कर भागेंगे और मुसलमान जीत जायेंगे। आप का यह इर्शाद सुन कर मुसलमानों को बड़ी खुशी हुई।
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हजूर (ﷺ) ने जीत की खुशखबरी उस वक्त सुनायी थी, जब कि अभी लड़ाई शुरू न हुई थी। मुसलमान कुफ्फ़ार के मुकाबले में तायवाद के लिहाज से तिहाई थे और हथियारों के लिहाज से सौ में से एक हिस्सा भी न थे।
कुफ्फार तमाम जिरापोश, जवान, मजबूत, तजुर्बेकार और लड़ने वाले थे और हथियारों से लैस थे और मुसलमान फ़ाका जदा, कमजोर, बीमार और बेसर व सामान थे जिरहपोश एक भी न था मामूली हथियार भी सबके पास पूरे न थे।
मुसलमानों और कूफ्फ़ार का मुकाबला किसी भी तरह बराबर का न था। इस हालत में भी जीत की खुशखबरी एक अजीब व गरीब बात थी।
हुजूर (ﷺ) ने लड़ाई के मैदान में आ कर सब से पहले सफें दुरुस्त की।
जब सफें ठीक हो गयीं तो हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मुसलमानो ! लड़ाई में शुरूआत न करना, कुफ्फार की ज्यादा तायदाद से न घबराना। खुदा ने तुम्हारी मदद का वायदा कर लिया है, इसलिए तुम्हारी जीत होगी।
दोनों फ़ौजें आमने-सामने आ कर खड़ी हो गयीं। दोनों झंडे हवा में लहरा रहे थे।
थोड़ी देर बाद फ़ौजें कुफ्फ़ार में से तीन तजुर्बेकार जवान मैदान में सामने निकल कर आए।
इन तीनों में उत्बा और शैबा दो भाई थे और तीसरा वलीद था। तीनों बड़े बहादुर, जोशीले और लड़ने वाले थे। तीनों ने “’है कोई मुकाबले का?” का नारा बुलन्द किया।
इन तीनों का मुक़ाबला करने के लिए इस्लामी फ़ौज में से अन्सार के तीन जवान निकले। इन में से औफ, मुअव्वज़ दो सगे भाई थे और तीसरे अब्दुल्लाह बिन रिबाह (र.अ) थे।
जब ये तीनों कुफ़्फ़ार के सामने खड़े हुए, तो उत्बा ने उन से पूछा। तुम कौन हो ?
हम अंसार हैं, हजरत औफ़ ने जवाब दिया।
हम को तुम से लड़ने की जरूरत नहीं, उत्बा ने बुरा सा मुंह बना कर और घमंड में चूर हो कर कहा, ऐ मुहम्मद ! हमारे मुकाबले के लिए हमारी कौम के लोगों को भेजो।
हुजूर (ﷺ) ने हजरत हमजा, हजरत उबैदा और हजरत अली रजि. की तरफ इशारा किया।
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ये तीनों पूरे जोश के साथ निकल कर कुफ्फार के मुकाबले में खड़े हो गये।
ओफ़, मुअव्वज और अब्दुल्लाह वापस लौट गये।
इन तीन नए जवानों को देख कर उत्बा ने कहा, हां, हम तुम से लड़ेंगे, लेकिन क्या तुम हमारी ताक़त को नहीं देख रहे हो? क्या तुम को ख्याल है कि हम से लड़ कर जीत जाओगे? हबल की कसम ! कभी न जीत सकोगे या तो लड़ाई के मैदान में कत्ल हो जाओगे या गिरफ्तार हो कर गुलाम बनोगे?
हजरत हमजा को उत्बा की यह बकवास बहुत बूरी लगी। बोले, उत्बा ! ताकत पर घमंड न करो। खुदा में वह ताकत है कि वह कमजोर को भी ताक़तवालों पर ग़लबा दे देता है। मच्छर जैसी नाचीज हस्ती से नमरूद बादशाह को हलाक कर देता है। तुम्हारी ताक़त है ही क्या ? बहुत जल्द तुम अपने घमंड का बरा अंजाम देखोगे।
वलीद को हज़रत हमजा की बातें सुन कर गुस्सा आ गया। उस ने ग़जबनाक लेहजे में कहा, खुदा एक फ़र्जी हस्ती है, जिसे किसी ने कभी नहीं देखा, वह हमारा क्या बिगाड़ सकता है ? तुम्हें, तुम्हारी कौम को और तुम्हारे हिमायतियों को जल्द मालूम हो जाएगा कि पहाड़ में सर मारने से पहाड़ का कुछ नहीं बिगड़ता, सर ही का नुक्सान होता है।
वलीद हद से आगे न बढ़ो, हजरत अली (र.अ) ने कड़क कर कहा, बातें बनाने से कोई फायदा नहीं, तलवार निकालो और मुकाबले में आ जाओ। फ़ौरन उत्बा, शेवा और वलीद ने तलवारें निकाल-निकाल कर हवा में लहरायीं।
हज़रत हमजा, हजरत उबैदा और हजरत अली ने भी तलवारें निकालीं। एक-एक शख्स को चुन लिया और हर शख्स अपने दुश्मन की तरफ़ लपका। वलीद, उत्बा और शैबा को अपनी-अपनी बहादुरी पर नाज था, वे बडे जोश व खरोश से आगे बढ़े।
हजरत अली वलीद के मुकाबले में थे। वलीद बहादुर भी था और तजुर्बेकार भी और हजरत अली नव-उम्र थे, किसी लड़ाई में शरीक न हुए थे, इसलिए किसी तरह भी बराबरी का मुकाबला न था।
वलीद को ख्याल ही नहीं, बल्कि यकीन था कि वह हजरत अली को कत्ल कर डालेगा, शेरे खुदा का खात्मा कर देगा, चुनांचे उस ने निहायत: जोश और पूरी ताकत से मुकाबला किया। हजरत अली ने बहादुरी से उसे रोका और अल्लाहु अकबर का नारा लगा कर खुद भी जोरदार हमला कर दिया।
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वलीद ने तलवार उठते और अपनी तरफ़ झुकते देखा। उस ने जल्दी से ढाल सामने कर दी। तलवार ढाल काट कर खूद पर आयी। खुद का कुछ हिस्सा उड़ा कर उठी।
यह बड़ी ताकत और बहादुरी का काम था। फौलादी ढाल काट लोहे के खुद को तलवार से काट डालना मामूली बात न थी। मगर हजरत अली (र.अ) शेरे खुदा थे। शेरों से ज्यादा ताकत उन में थी।
वलीद इस हमले से घबरा गया।
अभी वलीद हैरानी ही में था कि हजरत अली की तलवार फिर उठी, बूलन्द हुई। इस बार तलवार की झलक में वलीद को भयानक चेहरा नजर आया।
वलीद की ढाल नाकारा हो चुकी थी। उस ने जल्दी से ढाल फेंक कर तलवार पर वार रोकना चाहा, मगर अपनी तलवार उठाने भी न पाया था कि हजरत अली की तलवार उस की गरदन पर पड़ी और वह वहीं ढेर हो गया।
इधर जिस वक्त हजरत अली लड़ रहे थे, उस वक्त हजरत हमजा (र.अ) उत्बा पर हमला कर रहे थे।
उत्बा भी बड़ा बहादुर और लड़ाकु था।
उस ने पूरे जोश और ताकत से हजरत हमजा पर हमला किया।
हजरत हमजा ने निहायत सब्र और इस्तक्लाल से उस के हमले को रोका और जब वह दूसरे हमले की तैयारियां कर रहा था, तो इसी बीच हजरत हमजा ने बढ़ कर तलवार से हमला कर दिया।
उत्बा हजरत हमजा के हमले को रोकने के लिए तैयार न था। हजरत हमजा की तलवार उस की गरदन पर पड़ी और शहेरग काट कर हवा की तरह दाहिनी तरफ़ से बायीं तरफ निकल गई। सर कट कर दूर जा गिरा, जिस्म धरती पर गिर कर तड़पने लगा।
इसी बीच शैबा ने हजरत उबैदा पर हमला किया।
शैबा बड़ा बहादुर और तजुर्वेकार लड़ाकु था। उस ने पूरी ताकत से हमला किया। उबैदा ने डाल पर उस का वार रोका। शैबा की तलवार ने ढाल को काट डाला।
हजरत उबैदा (र.अ) पीछे हटे।
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शैबा ने बढ़ कर एक और हमला किया।
हजरत उबैदा (र.अ) उस हमले को न रोक सके। तलवार बायीं तरफ़ से कंधे को काटती हुई गरदन के एक चौथाई हिस्से तक तैरती चली गयी। हजरत उबैदा घायल हो कर गिरे।
शैबा उन्हें क़त्ल करने के लिए घोड़े से कूदा। हजरत अली (र.अ) ने देख लिया।
उन्हों ने उस की तरफ़ लपकते हुए डपट कर कहा, खबरदार शैबा! तेरी क़ज़ा आ पहुंची है।
शैबा फ़ौरन घायल शेर की तरह गरज कर हजरत अली (र.अ) की तरफ़ पलटा और पलटते ही उस ने एक जोरदार वार किया।
हजरत अली (र.अ) ने उस का हमला रोक कर खुद हमला किया। तलवार की बिजली की-सी चमक देख कर वह घबरा गया। उस की आँखे भपक गयीं। अभी आंखें अच्छी तरह खुलने भी न पायी थीं कि तलवार उस की गरदन पर पड़ी और सर कट कर दूर जा गिरा।
कुफ़्फ़ार के तीन बहादुर और शेरेदिल लड़ाकु, कमजोर मुसलमानों के हाथों से मारे गये। उन के मारे जाने से कुफ्फार को बेहद रंज और दुख हुआ और मुसलमानों को खुशी हुई।
हजरत उबैदा (र.अ) बहुत ज्यादा घायल हो गये थे। जख्म से बराबर खून बह रहा था। वह इतने निढाल हो गये थे कि उठना और उठ कर चलना ना-मुम्किन हो गया था। हजरत अली ने उन्हें गोद में उठाया और चले। हुजूर (ﷺ) के सामने ले जा कर लिटा दिया। हुजूर (ﷺ) ने नजर डाली। हजरत उबैदा ने आंखें खोली। हुजूर (ﷺ) को देखा, इशारे से सलाम किया और फिर आंखें बन्द कर ली।
हजरत उबैदा (र.अ) का आखिरी वक्त आ गया था।
हुजूर (ﷺ) उन के ऊपर झुक गये। आप को उबैदा की जुदाई से तकलीफ़ हो रही थी।
आखिरकार आपने कहा, ऐ इस्लाम के फ़िदाई, आखिरत के मुसाफिर! अल-विदा । लोग समझ गये कि उबैदा का आखिरी वक्त आ पहुंचा।
हजरत उबैदा (र.अ) ने फिर आंखें खोलीं, हुजूर (ﷺ) को देखा, मुस्कराये, कुछ कहना चाहा, मगर मौत ने कुछ कहने न दिया, जुबान बन्द हो गयी, हिचकी आयी और जान निकल गयी।
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तमाम मुसलमानों को बड़ा अफ़सोस हुआ। हुजूर (ﷺ) भी बहुत गमगीन थे।
आप (ﷺ) ने फ़रमाया,
मुसलमानो ! मुझे और खुदा को मुसलमानों के खून का एक कतरा तमाम दुनिया से ज्यादा अजीज है। काश! कुफ्फार हम पर हमला न करते, लेकिन खुदा को अपने नेक बन्दों की आजमाइश है। बहिश्त का रास्ता तलवारों के साये में से है। शहीदों के तमाम गुनाह माफ़ होते हैं, जन्नत तो शहीदों के लिए है।
अभी हुजूर (ﷺ) की बातें पूरी भी न हुई थीं कि कुफ़्फ़ार की फ़ौज को हरकत हुई, पैदलों और सवारों के दस्ते बढ़े।
हुजूर (ﷺ) ने उबैदा की लाश एक ओर रखवा दी और मुसलमानों को भी बढ़ने का इशारा किया।
मुसलमान जोश में आगे बढ़े, अल्लाहु अक्बर के जोरदार नारों के साथ कुफ्फार भी बड़े जोश व खरोश से बढ़े चले आ रहे थे।
दोनों फ़ौजें भिड गयीं। तलवारें चमकने लगीं और घमासान की लड़ाई शुरू हो गयी। दोनों तरफ के लोग पूरे जोश से लड़ने लगे।
जब लड़ाई की आग जोर-शोर से भड़की हुई थी, हुजूर (ﷺ) एक तरफ खड़े लड़ाई का नजारा कर रहे थे। हुजूर (ﷺ) देख रहे थे कि मुसलमान कम हैं और दुश्मन ज्यादा हैं, दुश्मनों ने मुसलमानों को घेरे में ले लिया है। आप खुदा की मदद का इन्तिजार कर रहे थे।
अभी आप लड़ाई का नजारा करने में लगे हुए थे कि दो आदमियों ने आ कर सलाम किया।
आप ने उन की तरफ देखा। एक उन में हुजैफा (र.अ) और दूसरे अबूजबल (र.अ) थे।
ये दोनों मक्का के रहने वाले थे। हुजूर (ﷺ) ने सलाम का जवाब देकर पूछा तुम दोनो कब और कैसे आए ?
हुजैफा (र.अ) ने जवाब दिया –
हुजूर (ﷺ) ! हम छिप कर मक्का से निकले और मदीना को तरफ़ चल दिये। रास्ते में कुफ्फार ने हमें रोका और वापस मक्का जाने पर जोर दिया। हम ने जब कहा कि लडाई में शिरकत के लिए नहीं जा रहे हैं, तब उन्हों ने इजादत दी, इसलिए अब हाजिर हुए हैं। हमें भी लड़ाई की इजाजत दीजीए।
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हुजैफा तुम कुफ्फार से अहद कर चुके हो कि लड़ाई में शरीक न होंगे, इस अहद को निभाना चाहिए। इस्लाम और मुसलमानों की शान यही है कि अपना अहद पूरा किया जाए। अगरचे इस वक्त मुसलमानों को मदद की बहुत ज्यादा जरूरत है, लेकिन मैं इसे पसन्द नहीं करता कि तुम बद-अहदी करो। तुम दोनों यहां से हट कर दूर खड़े हो जाओ, हुजूर (ﷺ) ने हिदायत दी।
हुजूर (ﷺ) ! हुजैफा (र.अ) ने कहा, कोई क़ौम किसी जमाने में भी लड़ाई के दिनों में किसी अहद की पाबन्दी नहीं करती, इसलिए हम भी क्यों करें?
खुदा ने मुसलमानों को वायदा निभाने की हिदायत की है, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मुसलमानों पर खुदा के हुक्म की पाबन्दी जरूरी है।
हुजैफा (र.अ) खामोश हो गये।
फिर हुजैफा, और अबूजबल दोनों वहां से फ़ासले पर जा कर खड़े हो गये।
उस वक्त लड़ाई पूरे जोर से चल रही थी। तलवारों की झंकार, कौमी नारों की आवाज, घायलों की चीख-पुकार से तमाम मैदान गूंज रहा था।
चूंकि रात में बारिश हुई थी, इसलिए रेत में नमी मौजूद थी। तलवारें चमक रही थीं, सर कट रहे थे और खून की नदियां बह रही है थीं।
इस हंगामे में हुजूर (ﷺ) ऊंची आवाज में फ़रमाया- .
मुसलमानो! अब तुम्हारी जीत में कोई शक नहीं है, लेकिन देखो आले हाशिम और अबुल बस्तरी को कत्ल न करना। आले हाशिम अपनी खुशी से नहीं आए हैं, मजबूर कर के लाये गये हैं। रहा अबुल बख्तरी, तो उस ने अहदनामा फाड़ा था, यह उस का मुसलमानों पर बड़ा एहसान है।
जो मुसलमान करीब थे, उन्हों ने आप (ﷺ) का यह हुक्म सुना और जो दूर थे, उन तक मुसलमानों ने यह हुक्म पहुंचा दिया।
इत्तिफ़ाक से महजर बिन जियाद (र.अ) के मुकाबले में अबुल बस्तरी आ गया।
महजर (र.अ) ने कहा, अबुल बख्तरी ! मेरे सामने से हट जाओ। तुम से लड़ने का हुक्म नहीं है।
महजर! तुम मुझ से डरते हो, अबुल बख्तरी ने कहा, बहादूर मुकाबले में आ जाओ।
महजर (र.अ) को बड़ा गुस्सा आया, मगर नाफरमानी के ख्याल से उन्होंने जब्त किया और कहा –
अबुल बख्तरी ! मुसलमान खुदा के अलावा किसी से नहीं डरता। अगर हमें तुम से लड़ने का हुक्म होता, तो मेरी तलवार तुम्हारे सर पर पड़ती।
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यह कहकर महजर एक और काफ़िर पर मुतवज्जह हुए। उन्होंने तलवार उठा कर उस पर हमला किया। काफिर ने ढाल सामने कर दी। बिजली की तरह लपकने वाली तलवार ने ढाल को काट कर माथे को फांक कर दी, जिस से खून की धार बहने लगी।
अबुल बस्तरी ने यह हालत देख कर महजर पर हमला किया। हजरत महजर (र.अ) तलवार ऊपर उठा चुके थे, वह उस काफ़िर को कत्ल करना चाहते थे, जिस की पेशानी फट गयी थी। उन्हों ने उस पर हमला कर दिया था। अबुल बस्तरी बीच में आ गया। तलवार उस के सर पर पड़ी। सर की फांक खुल गयी।
अबुल बस्तरी मुर्दा हो कर गिरा।
महजर को उस के कत्ल पर बड़ा अफ़सोस हुआ।
जिस वक्त अबुल बख्तरी क़त्ल हुआ, ठीक उसी वक्त उमैया और उस का बेटा अली दोनों लड़ाई से तंग आ कर जान बचाने के लिए घबराये घबराये फिर रहे थे।
हजरत बिलाल (र.अ) ने उन दोनों को देख लिया। वह उन की तरफ लपके। कई और मुसलमान भी उन के साथ लपके। हजरत बिलाल (र.अ) ने ऊंची आवाज में कहा –
“ऐ तागुत की पूजा करने वालो! ठहरो, आज तुम हमारे हाथों से नहीं बच सकते। अपनी मदद के लिए आज तुम अपने उन माबूदों को पुकारो, जिन्हें तुम पूजते रहे हो।”
उमैया ने हजरत बिलाल (र.अ) को देखा, वह घबराया और मारे.खौफ़ के उस का चेहरा पीला पड़ गया।
उमैया वह आदमी था, जिस ने मुसलमानों पर आम तौर से और हजरत बिलाल (र.अ) पर खास तौर से बड़े जुल्म किये थे। एक जमाने में बिलाल उस के गुलाम थे। उस ने उन को रस्सी में बांध कर पिटवाया था। गरम रेत पर लिटा कर भारी पत्थर सीने पर रख कर तरह-तरह के जुल्म किये है वह हजरत बिलाल को देख कर समझ गया कि आज वह उससे बदला लेंगे। बदले के डर ने उसे और उस के बेटे को और ज्यादा डरा दिया।
हजरत बिलाल (र.अ) तलवार लेकर बढ़े। उन के साथी भी तलवारें सोत सोत कर लपके। उमैया और अली ने भी तलवारें खींच लीं। एक ने दूसरे पर तलवार से हमला किया।
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हजरत बिलाल (र.अ) जोश में भरे हुए थे। उनकी बेपनाह तलवार उमैया के सर पर पड़ी। सर के दो टुकड़े करके हलक तक उतर गयी। उस ने चीख मारी और मुर्दा होकर गिरा।
उधर एक अंसारी ने उस (उम्मैया) के बेटे अली को कत्ल कर डाला।
जिस वक्त इन दोनों की लाशें जमीन पर गिरी, घोड़ों की टापों के नीचे कुचल कर रह गयीं।
लड़ाई अब भी बड़े जोर शोर से चल रही थी।
इसी बीच एक सहाबी उमैर बिन हम्माम अंसारी (र.अ) हुजूर (ﷺ) की खिदमत में आए। वह खजूरे खाते आ रहे थे।
उन्हों ने आते ही हुजूर (ﷺ) से पूछा, ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! अगर मैं कुफ्फार से लड़ता हुआ मारा जाऊं, तो क्या मैं जन्नत में जरूर जाऊंगा?
हाँ, तुम ही क्या, जो मुसलमान भी लड़ाई में शहीद होगा, उसे जन्नत मिलेगी, अल्लाह तआला का यह इनाम जारी रहेगा, हुजूर (ﷺ) ने जबाब दिया।
उमेर (र.अ) ने उसी वक्त खजूरे फेंक दी और तलवार खींच कर दुश्मनों पर जा पड़े। इतने जोश से लड़े कि दुश्मन की सफें बिखर गयीं। जो सामने पड़ा, उसी को कत्ल कर डाला। हर्स और जमआ सामने आये और दोनों ने एक साथ उन पर हमला कर दिया। उमैर (र.अ) बहुत फुर्तीले और तजुर्बेकार थे। उन्हों ने पैंतरा बदल कर हर्स पर हमला किया। तलवार हर्स की गरदन काट कर उठी।
उमैर (र.अ) जल्दी से कूद कर पीछे हटे और फ़ौरन उछल कर जमा पर जा टूटे।
अभी जमवा संभलने भी न पाया था कि तलवार उस के सिर पर पड़ी और उस के सर के दो टुकड़े कर के हलक चीरती हुई निकल गयी।
कुफ्फारे मक्का उमैर (र.अ) की यह फुर्ती और बहादुरी देख कर हैरान रह गये।
उमैर (र.अ) ने इन दोनों को कत्ल कर के सामने की सफ़ में हमला कर दिया। पहले ही हमले में सामने वाले को और फिर बायीं तरफ वाले को क़त्ल कर डाला।
उमैर (र.अ) बड़ी फुर्ती से तलवार चलाते हुए आगे बढ़ रहे थे। वह एक काफ़िर पर हमलावर हुए। उन की पीठ की तरफ़ से तीन आदमियों ने उन पर एक साथ तलवारें मारी, उन के पास न जिरह थी, न खुद।
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तीनों तलवारें उन के सर पर पड़ी, सर टुकड़े-टुकड़े हो गया। खून की धार बहने लगी, वह निढाल हो गये, मगर इस हालत में भी पलट कर उन्हों ने हमला किया और तीन हमलावरों में से एक को मार गिराया, साथ ही खुद भी गिरे। लेकिन गिरते-गिरते भी एक दूसरे काफ़िर को गिरा कर सीने पर चढ़ गये और इस जोर से उस की गरदन को दांतों से काटा कि उस की रूह परवाज कर गयी।
अब उमैर (र.अ) में उठने की हिम्मत न रही। सांस रुक-रुक कर चलने लगी।
इस मजबूरी से फायदा उठा कर तीसरे काफ़िर ने इस जोर से तलवार मारी कि वह शहीद हो गये।
अबू जहल का सामना
लड़ाई अब भी जोर-शोर से हो रही थी। हवा में तलवारें चमक रही थीं, सर कट रहे थे, धड़ गिर रहे थे, खून के फ़व्वारे छूट रहे थे और चीखें उभर रही थीं। हर आदमी जोश में भरा हुआ था। अबू जहल भी बड़े जोश से लड़ रहा था। वह खूद ओढ़े था। जिरह पहने था। एक हाथ में तलवार और एक हाथ में ढाल लिए पूरे जोश और गजब से लड़ रहा था।
वह बहादुर था, इसलिए पूरी बहादुरी से लड़ रहा था। हजरत मुआज रजि० ने अबू जहल को देखा। वह बढ़ कर उस के मुकाबले में आ गये।
अबू जहल ने मुआज (र.अ) पर हमला किया।
अबू जहल घोड़े पर सवार था। मुआज (र.अ) पैदल थे। वह उछल कर अलग जा खड़े हुए।
अबू जहल का वार खाली गया।
चूँकि अबू जहल जोशीला था, इसलिए वार खाली जाने पर उसे गुस्सा आ गया। उस ने घोड़ा बढ़ा कर वार किया।
मुआज (र.अ) ने उस का वार ढाल पर रोक लिया और जल्दी से खुद हमला कर दिया। तलवार बिजली की तरह कौंदी और अबू जहल की पिंडुली में जा घुसी, बल्कि पिंडुली काटती हुई घोड़े के पेट में जा घुसी।
अबू जहल घोड़े से नीचे गिर पड़ा। उस के गिरते ही मुआज (र.अ) ने खुश हो कर बड़े जोर से अल्लाहु अक्बर का नारा लगाया।
अभी यह खुशी मना रहे थे कि उन के बायें कंधे पर तलवार पड़ी।
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बाजू कट कर अलग हो गया। उन्हों ने पलट कर तलवार मारने वाले को देखा। उस तरफ़ अबू जहल का बेटा इक्रिमा तलवार तौले खड़ा नजर आया।
इक्रिमा ने कहा, मुआज! मैं ने तुम से बाप का बदला ले लिया।
बुजदिल मक्कार ! मुआज ने कहा, बदला इस तरह नहीं लिया जाता, अगर तू बहादुर होता तो सामने से आ कर लड़ता। तू नामर्द है, तू ने तो बेखबरी में हमला किया है, लेकिन जख्मी हो कर भी मुझे तुझ से बदला लेना है। ले संभल और वार संभाल!
यह कहते ही मुआज इक्रिमा पर झपट पड़े। इक्रिमा ने ढाल सामने कर दी।
तलवार ढाल पर पड़ी, ढाल को फाड़ती हुई निकली। गरदन पर आ कर रुकी और गरदन में गहरा जख्म लगा गयी। इक्रिमा बद-हवास हो कर भागा।
जंग में फ़रिश्तो की शिरकत
लड़ाई अब भी बहुत तेज हो रही थी।
धूप में तेजी आ गयी थी, हुजूर (ﷺ) पूरी बेचैनी के साथ इस पूरे मंजर को देख रहे थे।
आप (ﷺ) ने आसमान की तरफ़ चेहरा उठाया और जलाल भरी आवाज में कहा –
“ऐ खुदा ! तेरी मदद कहां है ? वह मदद कर जिस का तू ने वायदा फ़रमाया है। ऐ खुदा ! मुसलमान थक चुके हैं। अगर तू ने मदद न की, तो अजब नहीं कि हार खानी पड़े। मेरे माबूद ! मुसलमानों की मदद कर। मजलूमों, बेकसों, कमजोरों की खबर ले।”
अभी हुजूर (ﷺ) यह फ़रमा ही रहे थे कि पूरब की तरफ़ से बादल उठा और बद्र की पहाड़ी पर छा गया। कुछ कुफ्फ़ार पहाड़ी पर बैठे लड़ाई का तमाशा देख रहे थे, उन्हों ने अपने सर के करीब से बादल को गुजरते देखा।
बादल धीरे-धीरे गुजर रहा था और लड़ाई के मैदान की तरफ बढ़ रहा था।
बादल के अन्दर से घोड़ों के हिनहिनाने की आवाजें आ रही थीं। तमाम कुफ्फार हैरत से बादलों की ओर देखने लगे। उन्होंने सुना कि कोई कह रहा था, बढ़ो और जल्दी आगे बढ़ो।
इस आवाज ने कुफ्फार के दिलों में हलचल पैदा कर दी। वे मारे डर के कापने लगे। उन की आंखें मारे दहशत के झुक गयीं।
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मगर एक आदमी बादल की तरफ़ देखता रहा। इत्तिफ़ाकन एक जगह से बादल फट गया। उस ने एक सब्ज पोश सवार को बेहतरीन सब्ज रंग के घोड़े पर सवार जाते देखा।
उस सब्ज पोश को देख कर उस आदमी का दिल कांपने लगा। चेहरा पीला पड़ कर स्याह हो गया। उस ने जोर से चीख मारी और धम्म से जमीन पर गिर पड़ा।
उस के साथ के लोग उस की चीख सुन कर चौके, उस की तरफ और उसके ऊपर जा झुके।
जब उन्हों ने उसे टटोल कर देखा तो वह मर चुका था। लड़ाई उस वक्त भी जोर-शोर से चल रही थी। तलवारें चमक कर बुलंद हो रही थीं और गरदनों पर गिर कर सर कलम कर रही थीं।
मुसलमानों में पूरा जोश मौजूद था। सहाबा किराम जिस पर हमला करते, उसे क़त्ल किये बिना नहीं रहते।
हजरत मुआज (र.अ) का हाथ कटकर लटक रहा था, सिर्फ एक तस्मे से उलझ रहा था। हाथ कट जाने से तकलीफ हो रही थी, पर उन्हें तकलीफ़ की परवाह न थी। वे बराबर लड़ रहे थे और बगैर ढाल के बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे।
चूंकि लटका हुआ हाथ हमला करने में रुकावट डाल रहा था, इस लिए उम्हों ने अपने पांव के नीचे दबा कर उसे बड़ी जोर से झटका दिया। तस्मा टूट कर हाथ नीचे गिर गया।
धीरे-धीरे बड़ी तायदाद में अपने जवानों को कत्ल होते देख कर कुफ्फार के हौसले पस्त होने लगे और मुसलमानों के ताबड़-तोड़ हमलों से परेशान होकर उन्हों ने भागना शुरू किया। उन को भागता देख मुसलमानों ने और जोश से उन का पीछा किया। यहां तक कि या तो कत्ल किया या गिरफ्तार कर लिया।
इस तरह थोड़ी ही देर में लड़ाई खत्म हो गई। मुसलमानों ने लड़ाई जीत ली और काफिरों को जबरदस्त मुंह की खानी पड़ी।
जब कुफ्फार भागने लगे और उन की एक बड़ी तायदाद गिरफ्तार हो गई, तो हुजूर (ﷺ) सज्दे में गिर पड़े। आप (ﷺ) ने कहा – ऐं रब ! तेरा शुक्र किस मुंह से अदा किया जाए। आज तूने मुसलमानों की लाज रख ली, इस्लाम का बोल बाला कर दिया। मैं और तमाम मुसलमान तेरा शुक्र अदा करते हैं।
हुजूर (ﷺ) ने सज्दे से सर उठाया, देखा मुसलमान कैदी कुफ्फार को बांधे-खींचे चले आ रहे हैं।
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हुजूर (ﷺ) के पास उस वक्त अब्दुल्लाह बिन मसऊद रजि० खड़े थे। आप (ﷺ) ने उनसे कहा – अब्दुल्लाह ! लड़ाई के मैदान में घूम-फिर कर देखो कि अबू जहल की लाश मैदान में मौजूद है या नहीं ?
अबू जहल का खात्मा
हजरत अब्दुल्लाह (र.अ) ने हुक्म के मुताबिक़ लाशों का मुआयना शुरू किया। बहुत देर तक तलाश करने के बाद अबू जहल बेहोश हालत में पड़ा हुआ मिला। उसका पूरा जिस्म खाक व खून में लिथड़ा हुआ था।
अब्दुल्लाह ने ऊंची आवाज से पुकार कर कहा, “ऐ खुदा के दुश्मन ! तूने देखा कि खुदा ने तुझे कितना जलील किया।” अबू जहल ने आंखें खोल दी। उसके होंठ सूख रहे थे। उस ने कमजोर आवाज में पूछा, क्या मुसलमान हार गये?
नहीं, मुसलमानों को उन के खुदा ने जिता दिया, अब्दुल्लाह ने जवाब दिया।
अबू जहल की आँखे हैरत और ताज्जुब से डूब गयीं, उस ने जोर देकर कहा- नहीं, कभी नहीं, यह गैर-मुम्किन है। हमारी तायदाद ज्यादा थी, हमारे सरदार ज्यादा थे, हमारे जिरह पोश ज्यादा थे, इस लिए जीत हमारी हुई होगी।
अब्दुल्लाह ने तलवार बुलन्द करते हुए कहा, मर्दूद! तेरे साथ के लोग हारे हैं। ले संभल ! अब मैं तुझे दोजख में भेजता हूँ। काफ़िर ! तूने मुसलमानों पर जुल्म किया है, जा अब दोजख में आग का इंधन बन।
अबू जहल डूब गया। मौत उस की आंखों के सामने फिर गयी। होंठ डर से सिकुड़ गये।
अब्दुल्लाह (र.अ) ने तलवार का एक हाथ मारा। अबू जहल की गरदन धड़ से अलग हो गयी।
यह खबर हुजूर (ﷺ) को पहुंचायी गयी, तो आप (ﷺ) ने फ़रमाया –
“अफ़सोस अबू जहल! तु न खुद चैन से रहा और न मुसलमानों को तूने चैन से रहने दिया। काश, तू मुसलमान हो जाता या मुसलमानों से न जलता।”
इस के बाद हुजूर (ﷺ) ने तमाम शहीदों को एक जगह जमा कराया और उन्हें बड़े एजाज के साथ दफ्न करा दिया। कुफ़्फ़ार की लाशों को भी एक बड़े गड़े में दफ्न करा दिया।
इन तमाम कामों से फ़ारिग़ हो कर इस्लामी फ़ौज मदीना मुनव्वरा की तरफ रवाना हुई।
To be continued …
इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
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