सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 29

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 29

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मक्का के जालिमो के खिलाफ जिहाद का हुक्म

हुजूर (ﷺ) जब से यसरब में तशरीफ़ लाये थे, उस वक्त से इस्लाम और मुसलमानों की चर्चा होने लगी थी। अब यसरब का नाम भी बदल गया था। तमाम लोग उसे मदीनतुन्नबी (नबी का शहर) कहने लगे थे। 

मदीनातुन्नबी से सिर्फ मदीना रह गया था और सारी दुनिया उसे इसी नाम से जानने लगी थी।

हुजूर (ﷺ) मदीना के कुफ्फार की हरकतें देख कर समझ रहे थे कि वे जरूर बद-अहदी करेंगे। वे खुब जान रहे थे कि इस्लाम और मुसलमानों की तरक्की उन की निगाहों में खटक रही है और वे उन से दुश्मनी करने ही पर तैयार हैं।

हुजूर (ﷺ) की दिली पारख थी कि न सिर्फ मदीने में, बल्कि सारे अरब में अम्न व अमान कायम रहे, क्योंकि अम्न की हालत में तब्लीग के जरिए इस्लाम का दायरा जितना फैल सकता है, वैसा लड़ाई के जमाने में नहीं हो सकता।

चुनांचे आप (ﷺ) कुफ्फार की मज्लिसों में तशरीफ़ ले जाते और उन्हें अम्न व सुकून से रहने और किये गये वायदे की पाबन्दी करने की हिदायत करते, पर कुफ्फ़ारे मदीना भी कुफ्फारे कुरैश की तरह ही थे, जिन्हें न वायदों का ख्याल था और न इंसानियत का। वे आप (ﷺ) के सामने तो सुकून से रहने का इकरार कर लेते, लेकिन हुजूर (ﷺ) के जाते ही मुसलमानों को सताने और नुक्सान पहुंचाने का मंसूबा बनाते।

इन शरीर शैतानों का सरदार अब्दुल्लाह बिन उबई था। वह चाहता था और दिल से चाहता था कि किसी तरह मुसलमान मदीने से निकल जाएं। वही शैतानी साजिशें तैयार करता और सब को उन पर अमल करने की तरग़ीब  देता।

समझौते के कुछ ही दिनों बाद कुरैश का एक वफ्द उस शैतान के पास आया। इस वफ्द को मक्का के मुशिरकों ने उस के पास भेजा था।

वफ्द ने आ कर उस से कहा कि मक्का के तमाम बड़े लोगों ने मदीना वालों के नाम यह पैगाम भेजा है कि तुम ने मक्का के उन तमाम बाशिंदों को जो मुसलमान हो गये हैं, मदीने में आबाद किया है, या तो तुम सब मिल कर उन्हें निकाल दो, वरना हम पूरे साज व सामान के साथ मदीने पर हमला करेंगे और तुम्हारे मर्दों और लड़कों को कत्ल कर के तुम्हारी औरतों को गिरफ्तार कर लेंगे और मक्का में ला कर बेच देंगे।

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अब्दुल्लाह बिन उबई उस पैगाम को सुन कर बड़ा खुश हुआ।

उस ने एक बड़ी मज्लिसे शूरा बुलायी। हर तबके, हर क़बीले खानदान को इकट्ठा किया।

जब लोग आ गये, तो उस ने मक्का के मुशरिको का पंगाम सुनाकर कहा, 

ऐ यसरब वालो ! तुम जानते हो कि हम मक्का वालों का मुकाबला किसी तरह भी नहीं कर सकते। हमारे लिए यही मुनासिब है कि हम मुसलमानों को यहां से निकाल दें। अगर वे आसानी से न निकलें तो उन से लड़ें और लड़ कर उन्हें शहर निकाला दें।

एक बूढ़े आदमी ने कहा,
लेकिन हम मुसलमानों के साथ समझोता कर चुके हैं। समझौतों का खत्म करना हमारी कौमी रिवायत के खिलाफ़ है। दुनिया हमें बद-अहद कहेगी, मेरे ख्याल में बद-अहदी मुनासिब नहीं है।

अब्दुल्लाह बिन उबई ने कहा,
अहद नामा कोई चीज नहीं होता। अहदं (वायदे) की पाबन्दी आपस में जरूरी है। दूसरों के साथ जो समझौता किया जाए, उसे सिर्फ उस वक्त निभाना चाहिए, जब तक समझौता तोड़ने की ताकत न पैदा हो। देखो ! अगर हम ने मुसलमानों को अपने शहर से निकाल न दिया तो वे सारे मदीने पर कब्जा कर लेंगे, सारे शहर को मुसलमान बना  लेंगे, तुम्हारे माबूदों को तोड़ डालेंगे। क्या तुम इसे गवारा कर लोगे ?

हर ओर से आवाजें आयीं, कभी गवारा न करेंगे।

अब्दुल्लाह बिन उबई ने कहा, अगर गवारा नहीं करना चाहते, तो मुसलमानों को अपने शहर से निकाल दो। 

कुछ आवाजें आयीं, जरूर निकालेंगे।

एक पुर जलाल आवाज़ आयी, कभी न निकाल सकोगे।

सब इस पुर जलाल आवाज को सुन कर हैरान हुए। सब ने एक साथ नजरें उठा-उठा कर उसी तरफ़ देखा, जिस तरफ़ से यह आवाज आयी थी।

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इस तरफ़ से हुजूर (ﷺ) बड़े शान व वकार के साथ तरी लाते नजर आए। आप तन्हा आ रहे थे, अब्दुल्लाह बिन उबई के करीब आ कर आप ने कुछ ऊंची आवाज में फ़रमाया –

यसरब वालो! कुरैशे मक्का तुम्हें धोखा दे कर मुसलमानों से लड़ना चाहते हैं। सोचो ! तुम मुसलमानों से अहद व इकरार कर चुके हो कि कभी तुम उन से न लड़ोगे। अगर तुम मक्का वालों के फ़रेब में आ गये और कोल व करार तोड़ कर मुसलमानों से लड़े, तो एक तो सारे अरब में बद अहद मशहूर हो जाओगे, फिर कोई तुम्हारी किसी बात का एतबार न करेगा।

हर क़बीला, हर खानदान और हर आदमी तुम को हिकारत की नजर से देखेगा। दूसरे अगर तुम मुसलमानों से लड़े तो तुम्हारे ही भाई तुम्हारे ही वतन के लोग, तुम्हारे ही कबीले के लोग मुसलमान हो चुके है। 

तो गोया तुम अपने ही लोगों से लड़ोगे, वे तुम्हें या तुम इन्हें कत्ल करोगे, इस तरह तुम सब बर्बाद हो जाओगे और फिर मक्का वाले या और लोग तुम्हारे शहर पर कब्जा करेंगे, तुम्हें गुलाम बना लेंगे, क्या तुम इस जील्लत को गवारा कर लोगे? मेरे ख्याल में कभी न कर सकोगे। तुम्हारे लिए मुनासिब यही है कि जो इकरार कर चुके हो, उस पर कायम रहो। 

अगर मक्का वाले मदीने पर हमला करें, तो मुसलमानों के साथ मिल कर उनका मुकाबला करो। अगर तुम ने मिल कर मुकाबला किया तो यकीनन जीत तुम्हारी होगी।

तमाम लोग बड़े गौर और तवज्जोह से हुजूर (ﷺ) की तकरीर सुन रहे थे।

जब हुजूर (ﷺ) खामोश हो गये, तो कुछ होशमंद लोगों ने कहा, बेशक, आप (ﷺ) ने बहुत-ठीक कहा, हमें आपस में क़त्ल  व खून करके अपनी कौम को इतना कमजोर न बना लेना चाहिए, जिस से दूसरे लोगों में हमें गुलाम बनाने का लोभ पैदा हो। हमें अहदनामा की पाबन्दी करनी चाहिए।

अब्दुल्लाह बिन उबई की उम्मीदों पर एक बार फिर ओस पड़ गयी। शाही का स्याल फिर हवा हो गया। उस ने हिम्मत कर के कहा, लोगो! तुम मक्का वालों का मुकाबला कर सकोगे?

कुछ जोशीले नव जवानों ने कहा, क्यों न कर सकेंगे? हम बुजदिल नहीं हैं, हमारी रगों में भी वही खून दौड़ रहा है, जो हमारे बुजुर्गों की रगों में दौड़ता था। हम लड़ेंगे और आखिरी वक्त तक लड़ेंगे या तो हम जीतेंगे या लड़ाई के मैदान में मर्दानावार लड़ कर जान दे देंगे। गुलामी की चिदमी से मौत हजार दर्जे बेहतर है।

अब्दुल्लाह बिन उबई समझ गया कि अब उस का जादू नहीं बोलेगा। वह खामोश हो गया। लोग तो उठ-उठ कर चल दिये।

हुजूर (ﷺ) भी चले आये। मक्के का वफ्द नाकाम वापस लौट गया।

इस वाकिए के कुछ दिनों के बाद ही हुजूर (ﷺ) पर वह्य आयी जो लोग घर से बेघर किये गये, वतन से निकाले गये, उन पर कुछ गुनाह नहीं कि वे कुफ्फ़ार से जिहाद करें। जिहाद में बड़ा सवाब है।

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मुसलमान वह्य नाजिल होने से बहुत खुश हुए। अब तक हुजूर (ﷺ) उन्हें लड़ाई की इजाजत न देते थे, सब्र का सबक सिखाते रहते थे, अब मुसलमान समझ गये कि उन्हें लड़ने की इजाजत दी जाएगी और जो लोग उन्हें सताएंगे, उन को ईट का जवाब पत्थर से दिया जाएगा।

सच तो यह है कि अब तक मुसलमान जूल्म व सितम बरदाश्त कर रहे थे। बे-वतन, बे-घर बन गये थे, अजीज व अकारिब छूट गये थे, उन्हें देख कर कुफ्फार के जुल्म बढ़ गये और वे मुसलमानों को बुजदिल समझने लगे थे। 

मुसलमान और तमाम मुसीबतें बरदाश्त कर सकते थे, लेकिन बुजदिली के इलजाम को बरदाश्त न कर सकते थे, इसलिए उन की रूह को खास सदमा होता था। अब इस नामनिहाद इल्जाम का मौक़ा आ गया था। वे खुश हो गये, अब बराबर का जवाब दे सकेंगे। 

एक दिन हुजूर (ﷺ) हजरत अबू बक्र, हमजा, अली, जैद, मुआज, उसैद और कुछ दूसरे सहाबियों के साथ मस्जिद में बैठे थे कि एक मुसलमान अरब परेशान हाल मस्जिद में आए और हुजूर (ﷺ) को सलाम कर के बोले, ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! कुर्ज बिन जाबिर मक्का के मशहूर सरदार ने हमारी चारागाह पर छापा मारा और बहुत से ऊंट ले कर चल दिया।

हुजूर (ﷺ) ने मालूम किया, उस के साथ कितने आदमी थे?

अरब ने कहा, लगभग तीन सौ तजुर्बेकार नवजवान थे। 

हुजूर (ﷺ) ने कहा, मक्का वालों का जुल्म हद से आगे बढ़ गया है। तीन सौ मील चल कर मुसलमानों की चरागाह पर हमला कर के एलाने जंग करना चाहते हैं। दुनिया को दिखाना चाहते हैं कि मुसलमान पस्त हिम्मत, बुजदिल और कमजोर हैं। खुदा की कसम ! यह बात नहीं है। वे नहीं जानते कि मुसलमान किस क़दर बहादुर और निडर होते हैं। 

वह वक्त करीब आ रहा है, जबकि दुनिया मुसलमानों की बहादुरी का लोहा मानने लगेगी। दुनिया के बादशाह मुसलमानों का नाम सुन कर कांपने लगेंगे। दुनिया की बहादुर कौमें मुसलमानों के सामने हथियार डाल देंगी।

हुजूर (ﷺ) का मुबारक चेहरा लाल हो गया। 

यह पहला मौका था कि सहाबा ने आप (ﷺ) को किसी कद्र गुस्से की हालत में देखा, लेकिन यह गुस्सा बहुत जल्द दूर हो गया।

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आप (ﷺ) ने हजरत हमजा (र.अ) को खिताब कर के कहा –
चचा! आपने सुना होगा कि मक्के वालों का एक काफ़िला अबू सुफ़ियान की सरदारी में शाम मुल्क़ से आ रहा है।

हां, मैं ने सुना है, हजरत हमजा (र.अ) ने कहा, तमाम मदीना में यह मशहूर हो गया है।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मैं नहीं चाहता कि मुसलमान लड़ाई लड़े, लेकिन कुफ्फार के जुल्मों ने मजबूर कर दिया है। 

अब बिना लड़ाई के रास्ता नहीं रह गया है। कुर्ज बिन जाबिर ने हमारी चरागाह पर हमला कर के एलाने जंग कर दिया है। हमें इस एलान को कुबूल कर लेना चाहिए।

आज तक कभी हुजूर (ﷺ) ने लड़ाई का इरादा न फ़रमाया था, न सहाबा किराम को लड़ाई की इजाजत दी थी, पर उस वक्त की हुजूर (ﷺ) की बातों से साफ जाहिर हो रहा था कि आप लड़ाई का इरादा रखते हैं।

सहाबा किराम लड़ाई के लिए तुले बैठे थे। उन पर इतने जुल्म हुए थे कि वे बहुत तंग आ गये थे। बदला लेना इंसानी फ़ितरत में दाखिल है। 

एक गैरतमंद इंसान यह कभी गवारा नहीं कर सकता कि कोई आदमी उस के एक गाल पर तमांचा मारे, तो वह दूसरे गाल को उस के सामने पेश करे और पिटने के लिए खामोश खड़ा रह जाए।

इंसानियत का तकाजा है कि कोई आदमी एक मुक्का मारे, तो जवाब में एक ही मुक्का उस को मारा जाए। इस्लाम की तालीम भी यही है।

मुसलमान हुजूर (ﷺ) को लड़ाई पर तैयार देख कर बहुत खुश हुए।

सब से पहले हजरत उमर रजि० बोले, क्या हमें हुजूर (ﷺ) इजाजत देते हैं कि हम कुफ्फ़ारे मक्का का एलाने जंग कबूल कर लें? 

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, हां, हमें एलाने जंग कुबूल कर लेना चाहिए।

अब तक हम ने जुल्म व सितम बरदाश्त कर के दुनिया में सब्र व इस्तिकामत की नजीर कामय कर दी है। अब हमें बहादुरी और दिलेरी की भी नजीर कायम करनी चाहिए। दुनिया की तारीख में ऐसी मिसाल छोड़नी चाहिए, जिस का जिक्र कियामत तक होता रहे, लेकिन इस का ख्याल रखना जरूरी है कि बहादुरी जुल्म के दर्जे पर न पहुँचने पाये। 

मुसलमानों की तलवारें मासुमों और बेकसों पर न उठे, हमेशा जालिमों और घमंडियों का सर कुचलें। 

हजरत अबू बक्र (र.अ) ने कहा, ऐसा ही होगा। 

हजरत हमजा ने पूछा, आप ने अबू सुफ़ियान और उस के काफ़िले का जिक्र किया था?

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हुजूर (ﷺ) ने कहा, हां मैंने इसका जिक्र इसलिए किया था कि हमें अबू सुफियान और उस के काफिले पर हमला करना चाहिए। इस हमले से मेरा मंशा सिर्फ डराना-धमकाना है, ताकि मक्के वाले समझ लें कि अगर वे हम पर जुल्म करेंगे, तो हम उन की तिजारत शाम देश से बन्द कर देंगे। अगर वे अपनी जालिमाना हरकतों से बाज आ जायेंगे, तो हमें उन से कोई छेड़खानी नहीं करनी चाहिए, लेकिन अगर वे बाज न आए ओर बराबर अपनी कोशिशों में लगे रहे, तो फिर हम को भी जारिहाना जिहाद के लिए तैयार रहना चाहिए।

हजरत साद बिन मुआज रजि० बोले, हजूर (ﷺ) ! मक्का वालों से यह उम्मीद रखना कि वे जुल्म व सितम से रुक जायेंगे, सिर्फ धोखा है। वे ऐसे सरकश और जिद्दी हैं कि अपनी जिंदगी की आखिरी सांस तक मुसलमानों को सताने की कोशिश करेंगे। हम अब तक अल्लाह और उसके रसूल के हुक्म के इन्तिजार में थे, आज हम को जिहाद का हुक्म हो गया है। अब दुनिया देख लेगी कि मुसलमान बुजदिल हैं या बहादुर ?

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया,
याद रखो, मुसलमान कभी बुजदिल नहीं हो सकता। जो आदमी मौत और जिंदगी को खुदा की तरफ़ से समझता है, उस का बुजदिल होने का कोई मतलब ही नहीं। बुजदिल तो वे होते हैं, जो मौत से डरते हैं। जो लोग मौत से नहीं डरते, वे बुजदिल नहीं होते। 

हजरत अली (र.अ) ने कहा, हुजूर (ﷺ) ! हमें अबू सुफ़ियान और उस के काफिले पर हमला करने की इजाजत अता की जाए।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, हां, मैं हमले की इजाजत देता हूँ, लेकिन इस मुहिम पर सारे मुसलमान न रवाना हों, सिर्फ थोड़े से मुहाजिर और अंसार जायें।

हजरत हमजा (र.अ) ने कहा, जितने मुजाहिदों को आप इजाजत देंगे, उतने कही जायेंगे।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, सिर्फ साठ आदमी चुन लो।

मुसलमानों को यह न मालूम था कि अबू सुफ़ियान के कितने आदमी हैं, पर यह जानते हैं कि जितने भी आदमी होंगे, सब हथियारबन्द और लड़ने वालें होंगे। इस का भी अन्दाजा था कि उस के साथ काफ़ी आदमी होंगे, और अगर ऐसा हुआ तो साठ आदमी उस काफ़िले का मुकाबला न कर सकेंगे। 

मगर उन में इतना जोश और जिहाद का जज्बा था कि उन्हों ने तायदाद की कमी-बेषी को न देखते हुए जिहाद पर रवाना होने का एलान कर दिया।

इस पर खास बात यह थी कि हर मुसलमान ने जिहाद पर जाने की तमन्ना की। 

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आप (ﷺ) ने जब यह हाल देखा तो खुद ही साठ लोगों को चुन कर उबैद बिन हर्स (र.अ) को उन पर सरदार मुकर्रर कर के हरे रंग का झंडा अता फ़रमा कर अबू सुफ़ियान के काफ़िले की तरफ़ रवाना कर दिया।

इस इस्लामी फ़ौज की रवानगी को कुफ्फारे मदीना और यहूदियों ने हैरत की नजरों से देखा। चूँकि यह फ़ौज अबू सुफ़ियान पर हमला करने के लिए रवाना हुई थी, इसलिए आम तौर पर इस की शोहरत हो गयी। 

अबू सुफ़ियान को भी मालूम हो गया इसलिए वह रास्ते से कतरा कर अपने क़ाफ़िले को निकाल ले गया और जमजम बिन अम्र को मक्का की तरफ़ दौड़ाया और कहला दिया कि मुसलमानों के हमले का खतरा है, कुमक रवाना की जाए। 

राबिग़ में पहुंच कर मुसलमानों को मालूम हुआ कि काफ़िला रास्ते से बच कर निकल गया। चूंकि उन्हें काफ़िले का पीछा करने का हुक्म न था, इसलिए वे लौट आए।

अगरचे इस मुहिम से इस्लाम और मुसलमानों को कोई फायदा या नुक्सान न हुआ, लड़ाई की नौबत न आयी, पर एक बात जरूर हुई कि मुसलमानों का रौब कुफ्फार पर कायम हो गया।

इस टुकड़ी की वापसी के कुछ ही दिनों बाद मालूम हुआ कि मक्का से एक जबरदस्त फ़ौज मुसलमानों से लड़ने के लिए मदीना आ रही है। इस फौज के आने का हाल सुन कर मुसलमानों को चिंता हुई। 

हुजूर (ﷺ) ने एक मज्लिसे शूरा बुलायी। तमाम मुहाजिरों और अंसार को तलब किया। जब सब आ गये, तो आप (ﷺ) ने फ़रमाया – मुसलमानो ! कुफ्फार नहीं चाहते कि मुसलमान अम्न व अमान से रहें, इस्लाम की तरक्की उन की आंखों में कांटा बन खटक रही है। मालूम हुआ है कि कुफ्फारे मक्का ने मुसलमानों को फ़ना कर डालने का पक्का  इरादा कर लिया है। उन की भारी फ़ौज बड़े सामान के साथ सामने आ रही है, गोया मक्का ने अपने जिगरगोशों और चुने हुए बहादुर लोगों को तुम्हारी तरफ़ भेजे हैं। सोच समझ कर बताओ कि उन का मुकाबला करने के सिलसिले में तुम्हारी क्या राय है ?

ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! हजरत उमर रजि. ने कहा, हम लड़ाई की तमन्ना कर रहे थे। अल्लाह ने जिहाद की इजाजत दे दी है। हजूर सल्ल. ने लड़ाई की इजाजत दी। मक्का वाले लड़ने के लिए आ रहे है। हम मुकाबला करने के लिए तैयार हैं। हमारी तलवारें और हमारे मजबूत बाजू उन्हें बता देंगे कि मुसलमानों से लड़ना कोई हंसी-खेल नहीं है।

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जुल्म के खिलाफ लड़ाई का मैदान तो बहादुरों के लिए सुकून की चीज है, हजरत अबू बक्र (र.अ) ने कहा। मक्के वालों को बहुत जल्द मालूम हो जाएगा कि मुसलमान कितने बहादुर हैं।

मक्के वालों को अपनी बहादुरी पर नाज है, हजरत मिक्दाद ने बताया, तो बहुत जल्द उन्हें मालूम हो जाएगा कि मुसलमान शेर हैं और शेरों का मुकाबला लोमड़ियां नहीं कर सकतीं। आप हम को मुकाबले की इजाजत दें।

ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! हजरत अब्दुल्लाह बिन अबू बक्र (र.अ) ने कहा, हम बनी इस्राईल की तरह नहीं हैं, जिन्हों ने हजरत मूसा से कह दिया था कि आप और आप का रब दोनों कुफ्फार से लड़ो, हम तो यहीं बैठ कर तमाशा देखेंगे। हम तो आप के हुक्म के इन्तिजार में हैं। हम को मुकाबले को इजाजत दीजिए। हम इस्लाम के दुश्मनों से आखिरी दम तक लड़ेंगे।

ये तमाम लोग, जिन्हों ने अपनी राय जाहिर की, महाजिर थे।

हुजूर (ﷺ) ने उन की बातें सुन कर फ़रमाया, मुसलमानो ! बताओ, कुफ्फ़ार से लड़ाई के बारे में तुम्हारा क्या मश्विरा है?

चूंकि अन्सार में से उस वक्त तक किसी ने अपनी राय न दी थी, इसलिए हुजूर (ﷺ) के दोबारा पूछने पर वे समझ गये कि हुजूर (ﷺ) किन लोगों की राय जानना चाहते हैं।

चुनांचे हजरत साद बिन मुआज (र.अ) ने कहा, शायद आप हमारी राय जानना चाहते हैं ?

हां, हुजूर (ﷺ) ने फरमाया।

हम आप पर ईमान लाये हैं, आप को अल्लाह का रसूल यकीन करते हैं, हजरत साद (र.अ) ने फ़रमाया, यह कैसे मुम्किन है कि अल्लाह के रसूल, हमारे हादी, इस्लाम का अलमबरदार कुफ्फार के मुकाबले के लिए जाए और हम घरों में बैठे कुफ्फ़ारे मक्का अगरचे हमारी तरह इंसान हैं, अगरचे उन की तायदाद ज्यादा है, लेकिन हम उन से डरने और मरऊब होने वाले नहीं। हम उन से लड़ेंगे और आखिरी सांस तक लड़ेंगे, लड़ना तो कोई बात ही नहीं, सब हुजूर (ﷺ) के फ़िदाई हैं, अगर आप का थोड़ा सा इशारा पायें तो समुन्दर में कूद पड़ें।

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क्या हम लड़ाई से इसलिए डर कर पीछे रह जाएंगे कि हम कमजोर हैं, खुदा की क़सम ! नहीं, हजरत अबू अय्यूब अंसारी (र.अ) ने कहा, हम मुसलमान हैं और मुसलमान कभी लड़ाई से पीछे नहीं रह सकता। लड़ना तो हमारी तमन्ना है। जिस बुजदिल और मक्कार कौम ने अल्लाह के रसूल और मुसलमानों को सताया है, हम उस से उस वक्त तक लड़ेंगे, जब तक दम में दम है।

यह सोच लो कि तुम कमजोर हो, कम हो, पूरी तरह हथियारबन्द भी नहीं हो सकते, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, तुम्हारे पास न जिरह बकतर हैं, न सब के पास तमाम हथियार हैं, न घोड़े हैं, न किसी मदद की उम्मीद है। बे सर व सामानी की हालत में अपनी ताकत के भरोसे और खुदा की मदद के सहारे दुश्मनों से लड़ना होगा, क्या तुम तैयार हो?

हम खुदा परस्त हैं, हम खुदा पर भरोसा रखते हैं, हजरत उमर (र.अ) ने कहा, उस की मदद के भरोसे पर हम सिर्फ मक्का वालों ही का नहीं, बल्कि सारे अरब का मुकाबला करने को तैयार हैं। हम लड़ेंगे और इन्शा अल्लाह दुश्मनों को कत्ल कर के उन पर गालिब आ जाएंगे।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, अल्लाह का शुक्र है कि मुहाजिर और अंसार लडाई के लिए तैयार हैं। मुसलमानो! जाओ, जल्दी तैयारी करो और सुबह चलने के लिए तैयार हो कर आओ।

मुसलमान उठ-उठ कर चले गये। हुजूर (ﷺ) भी अपने घर तश्रीफ़ ले गये। 

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तमाम मुसलमान जौक और शौक के साथ लड़ाई की तैयाररियां करने लगे। 

कुफ्फारे मदीना ने भी मक्का वालों के हमले का हाल सुन लिया था। वे मुसलमानों के साथ मिल कर नहीं लड़ना चाहते थे, बल्कि इस बात की तमन्ना थी कि जल्द मुसलमानों को हार का मुह देखना पड़े और इस्लाम दुनिया से रुखसत हो।

तमाम दिन और सारी रात मुसलमानों ने तैयारी की। दूसरे दिन सुबह की नमाज पढ़ते ही सब तैयार हो कर मदीने से बाहर कुबा के करीब आ-आ कर जमा हुए।

हुजूर (ﷺ) इराक की नमाज पढ़ कर तशरीफ़ लाये।

आप ने मुसलमानों के मज्मे को देखा। उस में बहुत से ऐसे कमसिन लड़के देखें जिन की मसे भी न भीगी थीं। वे तेरह-तेरह, चौदह-चौदह साल के थे। वे शोके जिहाद में लड़ाई की धधकती आग में कूद पड़ने के लिए घरों से निकल आए थे।

आप (ﷺ) ने इन कमसिन बच्चों को देख कर कहा, छोटे बच्चे वापस लौट जायें। ऐसे कमसिन बच्चों का लड़ाई में जाना मुनासिब नहीं है।

वे कमसिन बच्चे हुजूर (ﷺ) का यह इर्शाद सुन कर बेचैन हो गये।

उन में से एक लड़के ने कहा, ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! क्या हम जिहाद के सवाब से महरूम रह जायेंगे?

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, तुम अभी कमसिन हो। तुम नहीं जानते कि लड़ाई की आग कैसी सख्त और कितनी तेज होती है। जब वह भड़कती है, तो हर वह आदमी, जो उस के करीब आ जाता है, उसे जला डालती है। 

हुजुर ! हम खुदा की खुश्नदी के लिए लड़ाई की आग में कुदना चाहते हैं। अगर हम लड़ कर शहीद हो जायें, तो क्या हम को जन्नत न मिलेगी? लड़के ने पूछा। 

जरूर मिलेगी, हुजूर (ﷺ) फ़रमाया, शहादत औरत, बूढ़े, बच्चे सब को जन्नत में ले जाएगी, लेकिन मेरे बच्चो! मुझे डर है कि शायद तुम लड़ाई की आग देख कर डर जाओ।

लड़के ने सुन कर कहा, हुजूर (ﷺ) यह इत्मीनान रखें। हम डरने वाले नहीं। खुदा की कसम! शहादत के जोश ने हमारी नसों में खून दौड़ा कर हम को शेरेदिल और निडर बना दिया है। मरते दम तक भी हम डरेंगे नहीं। 

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एक और लड़के ने कहा, ऐ शहनशाहे दीन ! हम और लड़ाई की आग से डर जायें; नामुम्किन है। हमारी तो तमन्ना ही लड़ने की रहती है, बल्कि हम तो यह चाहते हैं कि हुजूर (ﷺ) और हमारे बुजुर्ग मदीने में आराम से बैठे रहें और हमें इजाजत दें कि मक्का के कुफ्फार का मुकाबला करने के लिए लड़ाई के मैदान में निकलें। 

मेरे नौनिहालो! हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, तुम्हारा यह जोश काबिले तारीफ़ है। हर मुसलमान मर्द व औरत और हर मुस्लिम बच्चे के दिल में जिहाद का ऐसा ही शौक होना चाहिए जैसा तुम्हारे दिलों में है। यह ईमानी ताकत की रोशन दलील है, लेकिन जिस लड़ाई पर हम जा रहे हैं, यह पहली लड़ाई है। नहीं कहा जा सकता कि नतीजा क्या हो, इसलिए तुम वापस ही चले जाओ, तो अच्छा है। 

कुछ लड़कों ने कहा, हम फरमाबरदार हैं, हजूर (ﷺ) का हुक्म मानेंगे, लेकिन हम को बड़ा सदमा होगा।

हुजूर (ﷺ) ने हैरत से बच्चों के शौके जिहाद को देखा। आप खामोश हो कर कुछ सोचने लगे।

कुछ देर के बाद आप (ﷺ) ने नेजा लिया, उस पर निशान लगाया और लड़कों से कहा, अच्छा, मेरे जोशीले बच्चो ! तुम में से जिस का कद इतना ऊंचा होगा, जितना नेजो पर निशान लगा हुआ है, तो वह मुजाहिदों की जमाअत में शरीक कर लिया जाएगा और जिस का कद इस से छोटा होगा, उसे वापस लौटना पड़ेगा।

हुजूर (ﷺ) ने तमाम बच्चों को आगे बढ़ने का इशारा किया। सब आप (ﷺ) के पास आ गये। ये बच्चे तायदाद में साठ थे। आप (ﷺ) ने उन का कद नापना शुरू किया।

चूंकि ये सब छोटी उम्र के थे, इसलिए इन के कद भी छोटे थे, छोटे कद वालों को अलग खड़ा करते जाते थे।

जब ४०, ५० बच्चे नापे जा चुके, तो एक लड़के ने नेजा हुजूर (ﷺ) से लेकर अपना हाथ निशान पर रख कर खुद ही अपना कद नापा।

वह एक मुट्ठी छोटा था, इसलिए जल्दी से पंजों पर खड़ा होकर उसने कहा, देखिए हुजूर (ﷺ) ! मेरा कद पूरा है।

हुजूर (ﷺ) ने उस की इस होशियारी को देखा, मुस्कराये और मुस्कराकर बोले, तुम्हारी होशियारी तारीफ़ के काबिल है। तुम्हारे जोशे जिहाद ने तुम्हें यह होशियारी सिखायी है, इसलिए तुम्हें इजाजत है। तुम मुजाहिदों की जमाअत में शरीक हो जाओ।

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यह लड़का इतना खुश हुआ, जैसे उसे कोई दौलत मिल गयी हो। वह खुशी-खुशी मुजाहिदों में जा मिला।

उस लड़के का नाम राफेल बिन खदीज था।

इस के बाद और लड़कों ने भी ऐसा किया, लेकिन पंजों पर खडे होने के बावजूद कोई नेजे पर बनाये हुए निशान तक न पहुंच सका। 

मजबूरन तमाम लड़के लौट गये।

अब हुजूर (ﷺ) ने मुजाहिदों के लश्कर का जायजा लिया, तो कुल तीन सौ दस आदमी थे, सत्तर ऊंट और सिर्फ दो घोड़े थे। जिरह बक्सर एक भी न थी, किसी भी मुजाहिद के पास पूरे हथियार न थे। अगर किसी के पास तलवार थी, तो नेजा न था, नेजा था तो तलवार न थी। तीर कमानें भी बहुत कम थीं। 

हुजूर (ﷺ) ने एक-एक ऊंट पर तीन-तीन, चार-चार आदमी सवार कराये। खुद अपने ऊंट पर भी दो-तीन आदमी सवार कर लिए। फिर भी बहुत से लोग अब भी पैदल थे।

इस बे सर व सामानी के साथ लश्कर ने दोपहर से पहले मक्के की तरफ़ कूच किया, हजरत अबू बक्र सिद्दीक रजि. ने वह झंडा, जो हुजूर (ﷺ) ने अबू उबैदा के लिए बनाया था। अपने हाथ में ले कर फरेरा उड़ा दिया।

To be continued …

इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
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