हज़रत मुआज़ बिन जबल (र.अ) ने जवानी में हज़रत मुस्अब बिन उमैर (र.अ) के हाथ पर इस्लाम कबूल किया, जब हुजूर (ﷺ) मदीना मुनव्वरा पहुंचे,तो हज़रत मुआज़ (र.अ) हुजूर (ﷺ) की खिदमत में हर वक़्त रहते, आप उन छे सहाबा में से थे, जिन लोगों ने हुजूर (ﷺ) के ज़माने में पूरा कुरआन जमा कर लिया था।
उन की इल्मी सलाहियत की वजह से हुजूर (ﷺ) ने फतहे मक्का के बाद मक्का में दीन सिखाने के लिए उन को मुअल्लिम मुकर्रर किया, इस तरह जब अहले यमन ईमान दाखिल हुए, तो उन की तालीम व तरबियत के लिए उन्हीं को रवाना फर्माया।
हुजूर (ﷺ) ने एक मर्तबा फर्माया : “मुआज़ बिन जबल हलाल व हराम को ज़ियादा जानने वाले हैं” हज़रत मुआज़ (र.अ) को हज़रत उमर (र.अ) ने अपनी खिलाफत में शाम रवाना किया, ताके वह लोगों को दीन सिखाएं, जब मौत का वक़्त क़रीब हुआ,आप किब्ला रूख हो गए, फिर आस्मान की तरफ देखा और फर्माया : ऐ आल्लाह ! तुझे मालूम है के मैं दरख्त लगाने और नहरें खोदने के लिए दुनिया में लम्बी उम्र नहीं चाहता था, बल्के रोजे की प्यास की सख्ती बर्दाशत करने, मुसीबत झेलने और उलमा के साथ हल्क-ए-ज़िक्र में मुज़ाकरा करने के लिए चाहता था। ऐ अल्लाह! मुझे कुबूल फ़र्मा, उस के बाद आप की रूह परवाज़ कर गई। यह वाकिआ सन १८ हिजरी में पेश आया, उस वक्त आप की उम्र तकरीबन ३८ साल थी।