सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 41

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 41

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 41

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70 सहाबा के शहादत का बदला

यह बात एक हक़ीक़त है कि हुजूर (ﷺ) या मुसलमानों ने लड़ाइयों में कभी पहल नहीं की, बल्कि जिस हद तक बचा जा सकता था, बचने की कोशिश की।

अलबत्ता मुश्रिक, बूतपरस्त और यहूदियों का हाल यह था कि वे इस्लाम और मुसलमानों को मिटाना चाहते थे, इस लिए बेवजह, किसी माकूल वजह के बिना मुसलमानों से जा उलझते थे। 

हजुर (ﷺ) के जमाने में जितनी लड़ाइयां हुईं, सब की शुरूआत कुफ़्फ़ार की तरफ़ से हुई और मजबूरन मुसलमानों को भी अपनी हिफ़ाजत में लड़ना पड़ा।

जब बनू नजीर का क़िला जीत लिया गया और मुसलमान मदीना वापस आ गए, तो खबर सुनी कि बनू मुहारिब और बनू सालवा के क़बीले शरारत और फ़साद पर तुले बैठे हैं और वे बहुत जल्द मदीने पर हमला करने वाले हैं।

ये दोनों क़बीले गतफ़ान की शाखें थीं, जो इलाक़ा नज्द में आबाद थीं। चूंकि नजदियों के क़बीले बनू सलीम ने सत्तर बे गुनाह मुसलमानों को कत्ल कर डाला था, इस लिए तमाम मुसलमानों को रंज था।

अब जबकि यह खबर आम तौर पर सुनी गयी कि बनू मुहारिब और बनू सालबा लड़ाई की तैयारियां कर रहे हैं, तो हुजूर (ﷺ) ने भी लड़ाई की तैयारियां शुरू कर दीं और बहुत जल्द सिर्फ़ चार सौ की फ़ौज नज्द की तरफ़ ले गए।

चूंकि अब मदीना मुनव्वरा में इस्लामी हुकूमत क़ायम हो चुकी थी, इस लिए हुजूर (ﷺ) ने उस्मान बिन अफ़्फ़ान (र.अ) को मदीने का जिम्मेदार बना कर फ़ौज को ले कर सफ़र शुरू कर दिया। 

फ़ौज नज्द के इलाक़े में दाखिल हुई और एक पहाड़ी को तै करने लगी। न मालूम उस पहाड़ो के पत्थरं किस किस्म के थे कि उन पर चलने की वजह से मुसलमानों के जूते टूट गए। मुजाहिद नंगे पैर चलने लगे, पर जब पांव जख्मी होने लगे, तो उन्होंने पांवों पर कपड़े लपेट कर सफ़र का मरहला तै किया।

मुसलमान अब एक नख्लिस्तान में दाखिल हो चुके थे।

इस नख्लिस्तान में कुछ मुश्रिक मौजूद थे, जो इधर-उधर कुछ तलाश करते फिर रहे थे। वे मुसलमानों को देख कर बहुत घबराये और उन्हों ने भाग जाने का इरादा किया।

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मुसलमान उन के चेहरों से उन के इरादों को भांप गए। वे दौड़ कर उनके पास पहुंचे और उन्हें गिरफ़्तार कर उनके हालात मालूम करने लगे।

अभी उन मुश्रिकों ने कुछ बताया भी नहीं था कि हुजूर (ﷺ) भी उस जगह पहुंच गए।

तुम कौन लोग हो ? हजूर (ﷺ) ने उन से पूछा।

हम क़बीला बनू सलीम के लोग हैं, उन में से एक आदमी ने बताया। 

आप के चेहरे पर कुछ सख्ती आ गयी, पूछा- उसी क़बीला बनू सलीम के, जिस के लोगों ने सत्तर बेगुनाह मुसलमान शहीद कर दिए हैं?

जी हां, उसी क़बीले के उस आदमी ने सर झुका कर कहा, लेकिन हुजूर (ﷺ) ! हम बेगुनाह हैं। हम क़सम खा कर कहते हैं कि हम उस बुजदिलाना और वहशियाना क़त्ल में शरीक न थे।

जब मुसलमानों को मालूम हुआ कि ये उस क़बीले के लोग हैं, जिस ने सत्तर बेगुनाह मुसलमानों को निहायत बेदर्दी से कत्ल कर डाला था, तो सब जोश व ग़जब में भर गए और ग़जबनाक निगाहों से उन्हें देखने लगे। 

बनू सलीम के इन आदमियों ने मुसलमानों की ग़ैज भरी निगाहें देखीं, वे अपनी जिंदगियों से मायूस हो गए।

हुजूर (ﷺ) ने पूछा, तुम यहां क्या कर रहे थे ?

हुजूर (ﷺ) ! एक आदमी ने कांपती आवाज में जवाब दिया, यहां बनू मुहारिब और बनी सालबा की फ़ौज मौजूद थी, जो मुसलमानों के आने की खबर सुन कर फ़रार हो गयी। हम यहां इस लिए आए थे कि शायद वे लोग कुछ चीजें छोड़ गए हों, उन्हें पा सके, लेकिन !

लेकिन क्या – ? हुजूर (ﷺ) ने पूछा।

लेकिन नहीं जानते थे कि मौत हमें नखिलस्तान में लिये जाती है, उस आदमी ने कहा, ऐ मुसलमानों के हादी ! ऐं मदीने के बादशाह ! हम सब बेक़सूर हैं, हमें माफ़ कर दो, यह कहते ही वह आदमी रोने लगा और उस के साथी भी रोने लगे।

बद बख्त बुजदिलो ! हजरत उमर (र.अ) ने जोश में आ कर कहा, अब मौत को क़रीब देख कर रोते हो। जब तुम्हारी क़ौम मुसलमानों को क़त्ल कर रही थी, उस वक्त अंजामेकार की खबर न थी।

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एक आदमी ने सिसकियां भरते हुए कहा –

आह, हम खबरदार न थे, फ़ौरी जोश ने हमें अंधा कर दिया था। आमिर ! हां बद-बख्त और बदमाश आमिर ने हमारे क़बीले को भड़का दिया था और हम ने नासमझी से सत्तर बेगुनाह मुसलमानों को क़त्ल कर डाला, मंगर हुजूर (ﷺ) ! हमारे क़बीले में फोड़े वाली बीमारी फ़ूट पड़ी और हर वह आदमी मर गया, जो मुसलमानों के क़त्ल में शरीक था। 

मनहूस आमिर भी उसी मूजी मरज का शिकार हो गया।

उस आदमी का गला भर आया। उस ने आगे कहा –

उस खुदा ने जिस की तुम पूजा करते हो, मुसलमानों का बदला ले लिया। तुम हम पर रहम करो। आह ! हमारे छोटे-छोटे बच्चे।

हज़रत अबू बक्र रजि० को तैश आ गया, बोले – बद-बख्तो ! अब रोते हो, मौत क़रीब आ गयी है।

नहीं सिद्दीक़ ! हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, इन्हें कुछ न कहो, इन के कत्ल करने से क्या फ़ायदा? इन के बच्चे यतीम हो जाएंगे।

हुजूर सल्ल० ! इस क़दर ख़ुदा तरसी ? हजरत अली (र.अ) बोले। 

हर उस आदमी पर जो रहम की तलब करता हो, मेहरबानी करो, खास तौर से उन दुश्मनों पर जो आजिजी दिखायें। यह भी ईमान का एक हिस्सा है, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया –

करो मेहरबानी तुम अहले जमीं पर

खुदा मेहरबां होगा अशें बरीं पर!

हम हुजूर (ﷺ) के फ़रमांबरदार हैं, हजरत अली (र.अ) ने कहा, जो हुक्म होगा, हम उस की तामील करेंगे।

इन्हें आजाद कर दो, हुजूर सल्ल० ने फ़रमाया।

बनू सलीम वालों को फ़ौरन छोड़ दिया गया। वे दुआएं देते हुए चले गए।

चूंकि यह मालूम हो गया था कि बनू मुहारिब और बनू सालबा फ़रार हो गए हैं, इस लिए इस्लामी फ़ौज वापस हो गयी।


बद्रे सुग़रा

जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि उहद से चलते वक़्त बनूं सुफ़ियान बद्र पर लड़ाई की दावत दे गया था, चूंकि साल खत्म हो चुका था, इस लिए मक्का से खबरें आने लगीं कि कुरेशे मक्का लड़ाई की बड़ी तैयारियां कर रहे हैं, इस लिए हुजूर (ﷺ) ने भी तैयारियां शुरू कर दीं।

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कुछ ही दिनों बाद मालूम हुआ कि मक्का के बेहतरीन बहादुर और जंगजू लोग अबू सुफ़ियान की सरकरदगी में बद्र की तरफ़ चल पड़े हैं। साथ ही यह खबर गर्म हुई कि इस बार कुफ़्फ़ारे मक्का बड़ी सज-धज और भारी साज व सामान के साथ आये हैं और उन का इरादा फ़ैसला कर देने वाली लड़ाई का है, या तो इस लड़ाई में इस्लाम और मुसलमानों का खात्मा हो जाएगा या मक्का के मुशरिको का।

इन खबरों को कुफ़्फ़ारें मक्का बढ़ा-चढ़ा कर बयान करते थे।

अब्दुल्लाह बिन उबई मुनाफ़िक़ मुसलमानों को डराता फिर रहा था। यहूदी भी बग़लें बजा रहे थे।

मक्का से एक आदमी नईम बिन मसऊद आया था। वह मदीने का रहने वाला था। उसे अब्दुल्लाह बिन उबई ने मक्का भेजा था, ताकि वह अबू सुफ़ियान को लड़ाई पर उभारे। उस ने बयान किया कि सारा मक्का और मक्का के पड़ोस के तमाम क़बीले उमड आए है। इतनी भारी फ़ौज और इतने साज व सामान से लदी हुई फ़ौज अरब की धरती पर कभी न आयी होगी, जैसा कि बद्र के तरफ़ से आ रही है।

यह कुदरती बात थी कि मुसलमान इन खबरों को सुनकर फ़िक्र व तरद्दुद में पड़ जाते।

चुनांचे मुसलमान कुछ फिक्रमंद होने लगे।

हजरत उमर (र.अ) मुसलमानों की चिन्ता देख कर बिगड़ गए। वह हुजूर (ﷺ) की खिदमत में हाजिर हुए, अलैक-सलैक के बाद बैठ गए और कुछ देर बाद बोले –

क्या आपने तमाम वाकिए सुन लिए, जो मदीना के कूचे -कूचे में मशहूर हो रहे हैं।,

कैसे वाकिए ? हुजूर (ﷺ) ने पूछाI

कुफ़्फ़ारे मक्का की हमलावरी, हजरत उमर (र.अ) ने कहा।

सुनते तो हैं, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, पर तुम्हारी इस से मंशा क्या है?

मैं जानना चाहता हूं कि हुजूर (ﷺ) खुदा के रसूल हैं ? हजरत उमर रजि ने कहा।

हां, मैं खुदा का रसूल हूं, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया।

फिर मुसलमान चिन्ता में क्यों डूब रहे हैं ? हजरत उमर ने फ़रमाया। 

क्या पिछली लड़ाइयों में अल्लाह ने मुसलमानों की मदद नहीं की है ? क्या अब ख़ुदा हमारी मदद नहीं करेगा ?

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उम्र के हिसाब से भी और यों भी तबीयतें अलग-अलग होती हैं, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, कमजोर तबीयत के लोग वहशतनाक खबरों से जल्द मुतास्सिर होते हैं, लेकिन मजबूत दिल वाले किसी बात से मृतास्सिर नहीं होते।

क्या हुजूर (ﷺ) ने लड़ाई का इरादा बदल दिया है ? हजरत उमर ने पूछा।

उमर ! अगर कोई एक आदमी भी मेरे साथ न चलेगा, मैं जब भी तन्हा वायदे के मुताबिक़ पहुंच जाऊंगा, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया।

हजरत उमर (र.अ) अपना इत्मीनान कर के चले आये। उन्होंने आते ही एलान कर दिया कि मुसलमानो ! लड़ाई की तैयारी करो, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमा दिया है कि अगर तुम में से एक आदमी भी न जाएगा, तब भी मैं कुफ़्फ़ारे मक्का के मुक़ाबले बद्र नामी जगह पर जाऊंगा।

यह कैसे मुम्किन था कि हुजूर (ﷺ) लड़ाई के लिए तशरीफ़ ले जाते और आपके सहाबा पीछे रह जाते, इस लिए सब ने इस एलान के सुनते ही तैयारियां शुरू कर दीं। जब हुजूर (ﷺ) ने फ़ौज को रवानगी का हुक्म दिया, तो डेढ़ हजार मुजाहिद इस्लामी झंडे के नीचे जमा हो गए। 

मुसलमानों की इतनी बड़ी फ़ौज इस से पहले कभी न गयी थी। 

मदीने के कुफ़्फ़ार और यहूदी इस भारी फ़ौज को देख कर हैरान रह गए।

अब्दुल्लाह बिन उबई मुनाफ़िक़ इस लड़ाई में शरीक न हुआ, बल्कि उस ने साफ़ कह दिया कि बद्र में मरने के लिए कौन जाए।

इस्लामी फ़ौज बड़ी शान से कूच करती हुई बद्र में पहुंची।

इस शानदार फ़ौज की तमाम अरब में धूम मच गयी। जिस तरफ़ से यह फ़ौज गुजरी, क़बीलों ने खौफ़ व हरास की नजरों से उसे देखा।

इस फ़ौज की तायदाद और सामान की खबरें अबू सुफ़ियान और उस की फ़ौज वालों को भी पहुंच गयीं। अबू सुफ़ियान की हिम्मत छूट गयी और वह अस्कान तक आ कर निहायत खौफ़ व हरास की हालत में मक्का की तरफ़ भाग गया।

जब यह फ़ौज मक्के में दाखिल हुई, तो औरतों ने ताना दिया कि सिर्फ़ सत्तू पीने गए थे, लड़ने के लिए नहीं गए थे, वरना मर जाते, लेकिन मुसलमानों से डर कर बग़ैर लड़े-भिड़े हर गिज न आते। 

मुसलमान एक हफ्ते तक कुफ़्फ़ारे मक्का का इन्तिज़ार करते रहे।

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आठवें दिन एक आदमी माबद खुजाई ने आ कर इतिला दी  किं मुशरिकों की फ़ौज अस्फ़ान से वापस लौट गयी है, मजबूरन इस्लामी फ़ौज भी लौट आयी।

इस लड़ाई का नाम बद्रे सुग़रा है। यह आखिरी महीने रजब सन् ४ हिजरी का वाक़िया है।

बद्र से वापस आ कर मुसलमान पढ़ने-पढ़ाने और तब्लीग़ में लग गए। 


ईसाइयों का धावा – दोमतुल जुन्दल की लड़ाई

माह रबीउल अव्वल सन् ०५ हि० में हुजूर (ﷺ) को इत्तिला मिली कि शाम की सरहद पर दौलतुल जुन्दल का ईसाई बादशाह मदीना मुनव्वरा पर हमला करने की तैयारियां कर रहा हैं।

अब तक जो लोग मुसलमानों के खिलाफ़ थे, वे अरब के मुश्रिक और मदीने के यहूदी थे, लेकिन एक तीसरा दुश्मन और पैदा हो गया था।

हालांकि न मुसलमानों ने ईसाइयों को सताया था, न किसी ईसाइयत पर हमला किया था और न ईसाइयों पर हमला करने का इरादा था। 

हुजूर (ﷺ) गौर करने लगे।

आखिरकार हुजूर (ﷺ) ने इस नये दुश्मन से निमटने के लिए फ़ौज को जमा करना शुरू कर दिया।

थोड़े ही अर्से में हजार मुजाहिदों की फ़ौज तैयार हो गयी।

हुजूर (ﷺ) ने सबाह बिन अर्तफ़ा ग्रिफ़ारी को मदीने का गवर्नर बनाया और खुद जमा की हुई फ़ौज ले कर दोमतुल जुन्दल की तरफ़ रवाना हुए। 

क़बीला बनी उज्रा का एक आदमी रहबर के तौर पर साथ लिया। राहबर बड़ा होशियार और शाम के तमाम रास्तों को जानता था। 

इस्लामी फ़ौज रात को सफ़र करती और दिन को पड़ाव डालती।

चूकि हुजूर (ﷺ) ने ख्वाहिश जाहिर की थी कि नक्ल व हरकत की इत्तिला दुश्मन को न हो, इस लिए तमाम एहतियाती तदबीरें अख्तियार की जा रही थीं।

एक दिन राहबर ने हुजूर (ﷺ) से कहा, या सय्यिदी ! दोमतुल जुन्दल यहां से एक मंजिल दूर रह गया है, लेकिन दुश्मनों की चरागाह इस जगह से बिल्कुल क़रीब है। अगर आप फ़रमाएं तो चरागाह पर हमला कर के उन के मवेशियों पर कब्जा किया जा सकता है।

मुनासिब है, हजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, इस से दुश्मनों पर हमारा रौब बैठ जाएगा। 

रात को इशा की नमाज पढ़ कर फ़ौज चली और अभी दो तीन मील ही चली थी कि एक हरे-भरे इलाक़े में जा पहुंची। यहां छोटे-बड़े पेड़ बड़ी 

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तायदाद में खड़े थे। मवेशी इधर-उधर बैठे थे, कुछ चर रहे थे, कुछ जुगाली कर रहे थे।

मवेशियों के निगरां पड़े खर्राटे ले रहे थे।

यह थी ईसाइयों की चरागाह।

मुसलमानों ने मवेशियों पर क़ब्ज़ा करना शुरू किया।

मवेशी घबरा कर इधर-उधर दौड़ने लगे, तो निगरानी करने वालों की आंख खुल गयी।

वे हड़बड़ा कर उठे। उठते ही मुसलमान नजर आये। वे कांप गये और घबरा कर भागने लगे।

मुसलमानों ने उन को तलवारों की धार पर रख लिया। तमाम निगरानी करने वाले क़त्ल कर दिये गये, सिर्फ़ एक दो आदमी भाग कर अपनी जानें बचा सके।

चूंकि अब रात आधी से ज्यादा गुजर चुकी थी और यह भी मालूम हो गया था कि दोमतुल जुन्दल बहुत क़रीब रह गया इसलिए हुजूर (ﷺ) ने फ़ौज को पड़ाव डालने का हुक्म दे दिया।

इस्लामी मुजाहिद कमरें खोल कर हरी घास पर पड़ रहे। कुछ सामान और मवेशियों की निगरानी पर मुक़र्रर कर दिये गये। वे हाथों में नेजे ले कर पहरे देने लगे।

बह सूरज निकलने से पहले हुजूर (ﷺ) उठे, तमाम मुसलमान जागे, सब ने जरूरतों से फ़रागत होने के बाद नमाज पढ़ी और नमाज पढ़ने के बाद कमर कसी ओर चल दिये।

दोपहर के वक्त दौमतुल जुन्दल में पहुंच गये।

मसलमानों को ख्याल ही नहीं, बल्कि यक़ीन भी था कि ईसाई शहर या किले से बाहर इस्तिक्बाल या मुक़ाबले के लिए तैयार मिलेंगे, लेकिन उनकी हैरत की इन्तिहा न रही, जब कि उन्हों ने किसी एक ईसाई को भी शहर से बाहर न देखा।

ईसाई शहर को छोड़ कर भाग गये थे।

मुसलमान मकानों के सामने से गुजर रहे थे कि उन्हों ने एक मकान की छत से एक ईसाई को झांकते हुए देखा।

फ़ौरन एक आदमी मकान के अन्दर घुस गया और थोड़ी देर में एक ईसाई को साथ लाया, जो शक और उम्मीद की नज़र से लोगों को देख रहा था।

यह आदमी हुजूर (ﷺ) के सामने पेश किया गया।

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हुजूर (ﷺ) ने उस से पूछा, तुम्हारा बादशाह अकीदर बिन अब्दुल मलिक कहां है?

हुजूर (ﷺ) ! वह दमिश्क की ओर भाग गया है, ईसाई ने जबाब दिया।

क्या उसे हमारे आने की इत्तिला हो गयी थी ? हजूर (ﷺ) ने पूछा। 

हां हुजूर (ﷺ) ! ईसाई ने कहा, उस के जासूसों ने आप के आने की खबर कई दिन पहले ही दे दी थी। 

उस ने शहर वालों को शहर खाली करने का हुक्म दे दिया था। चुनाचे परसों ही तमाम शहर वाले, अपना-अपना सामान ले कर चले गये, सिर्फ फ़ौज बाक़ी रह गयी थी। 

रात को चरागाह से दो आदमी आए, उन्हों मे मुसलमानों के आने की खबर दी। बादशाह घबरा गया और उसी वक़्त फ़ौज ले कर भाग गया। 

तुम क्यों नहीं भागे ? हुजूर (ﷺ) ने ईसाई से पूछा। 

इसलिए कि मौका नहीं मिल सका। ईसाई ने जवाब दिया। 

अच्छा, तुम को आजाद किया जाता है। जहां जी चाहे जाओ, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया।

ईसाई ने हुजूर (ﷺ) का शुक्रिया अदा किया और वहां से चला गया। मुसलमान घरों के भीतर घुस गये।

घरों में मिट्टी के टूटे-फूटे बरतन थे, या वह सामान था, जो ईसाई अपने साथ न ले जा सकते थे। कुछ गल्ला भी था।

मुसलमानों ने तमाम सामान और ग्रहले अपने कब्जे में कर लिये।

हुजूर (ﷺ) ने शहर से बाहर मुसलमानों को ठहरने का हुक्म दिया। मुसलमान एक बाग़ में ठहर गये।

अब हुजूर (ﷺ) ने कुछ छोटे-छोटे दस्ते इधर-उधर रवाना फ़रमाये। ईसाई मुसलमानों से कुछ ऐसा डर गये थे कि वे अपने देहात और कसबे वगैरह छोड़ कर दमिश्क़ की तरफ़ भाग गये थे।

किसी एक जगह भी कोई मुसलमानों के मुकाबले में न आया, इस वजह से शाम की सरहद पर मुसलमानों का रौब व दाब बैठ गया। 

कुछ दिन दोमतुल जुन्दल में ठहर कर हजूर (ﷺ) वापस लौटे। 

एक दिन, जबकि एक बाग़ में मुसलमान ठहरे हुए थे, एक आदमी, जिस का नाम उऐना बिन हुसैन था हुजूर (ﷺ) की खिदमत में हाजिर हुआ।

यह अपने क़बीले का सरदार था।

इस ने निहायत अदब से हजूर (ﷺ) को सलाम किया। एक तरफ़ बैठ गया।

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हुजूर (ﷺ) ने उस से पूछा, अरब भाई ! तुम्हारा नाम क्या है ? 

मेरा नाम उऐना है, उस ने जवाब दिया, मेरे बाप का नाम हुसैन है और मैं अपने क़बीले का सरदार हूं।

तुम किस लिए आए हो उऐना ? हुजूर (ﷺ) ने फिर पूछा।

हुजूर (ﷺ) ! उऐना ने बताया, मेरे पास मवेशी बहुत ज्यादा हैं। ऊंटों, बकरियों, तेज घोड़ों की इतनी तायदाद है कि मैं इस इलाके में मवेशियों का बादशाह कहलाता हूं। हर साल यहां इतनी बारिश होती है, जिस से मवेशियों के लिए चारा काफ़ी हो जाया करता है, लेकिन इस साल बारिश नहीं हुई, चारे का अकाल पड़ गया है। पिछले साल चारे का जो भंडार था, सब खत्म हो गया है, अब मैं सख्त परेशान हूं।

तुम मुझ से क्या चाहते हो ? हुजूर (ﷺ) ने पूछा।

मैंने सुना है कि मदीना में खूब बारिश होती है, उऐना ने कहा, वहां चारे की बहुतात है। चरागाहें हरी-भरी हैं। मेरी आरजू है कि हुजूर (ﷺ) मेरे मवेशियों को मदीने की चरागाहों में चरने की इजाजत दे दें। मैं इस के मुआवजे में माकूल रक़म हुजूर (ﷺ) की नजर करूंगा।

उऐना ! तुम को इजाजत है, हुजूरे अकरम (ﷺ) ने मुस्करा कर फ़रमाया, जितने मवेशी चाहो, मदीने की चरागाहों में भेज दो। कोई तुम को रोकेगा नहीं और न तुम से कोई मुआवजा लिया जाएगा।

उऐना ने शुक्र गुजार की शक्ल में आप के चेहरे को देखा, बोला- हुजूर (ﷺ) की इस जबरदस्त इनायत का हजार बार शुक्रिया। उऐना उठ कर चला गया।

हुजूर (ﷺ) ने भी फ़ौज को रवानगी का हुक्म दिया।

मुजाहिदों ने तमाम सामान और खेमे ऊंटों पर लादे और मदीना मुनव्वरा की तरफ़ रवाना हो गये।

इस मुहिम का नाम दोमतुल जुन्दल की लड़ाई है।

To be continued …

इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर हमारा हौसला अफ़ज़ाई में तावूंन फरमाए।

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