सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 40

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 40

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बनू नज़ीर की लड़ाई

आमिर बिन तुफ़ैल के कहने से बनू सलीम ने सत्तर मुसलमानों को बेगुनाह नमाज पढ़ते हुए बड़ी बेदर्दी से शहीद कर दिया था। उन में से सिर्फ़ अम्र बिन उमैया बाक़ी बच गये थे।

अम्र बीरे मऊना से पैदल ही चल पड़े। उन्हें अपने साथियों के शहीद हो जाने का गम व मलाल और सदमा था।

जो लोग शहीद किये गये थे, वे सब हाफ़िज़ व क़ारी थे।

अम्र को इन सब साथियों के शहीद होने का बड़ा मलाल था। रास्ता चलते रोते रहते, क़लक़ से निढाल हो गये थे।

चूकि वह गम सहते-सहते कमजोर और निढाल हो गये थे, इसलिए क़दम जल्द-जल्द न उठते थे, मुश्किल से सफ़र कर पा रहे थे। रास्ते में हर वक़्त यह अंदेशा था कि कहीं कोई जालिम उन्हें भी शहीद न कर दे।

यह सही है कि अम्र को मौत की परवाह न थी, न वह किसी जालिम से डरते थे, हां, वह यह जरूर चाहते थे कि हुजूर (ﷺ) को मुसलमानों के अंजाम की जरूर खबर हो जाए, इसलिए वह वहशी बुतपरस्तों की नजरों से बचते हुए सफ़र कर रहे थे।

कई दिन के बाद उन्हों ने बनू आमिर और बनू सलीम के इलाक़े पार किये।

अब कुछ अंदेशा कम हुआ और वह बेफ़िक्री से सफ़र करने लगे। वक़्त गुजरने के साथ-साथ हजरत अम्र का ग़म भी कम हो गया। 

एक दिन अम्र एक ऐसी जगह पहुंचे, जहां रेत के टीले बिखरे पड़े थे। वह टीलों के दामन में धीरे-धीरे चले जा रहे थे कि उन्हें बातें करने की आवाज आयी।

वह चौंक पड़े, उन्हों ने आवाज की तरफ़ अपने कान लगा दिये।

कोई कह रहा था कि मुसलमानों की तायदाद हर दिन बढ़ती चली जा रही है, अब वे हमारी क़ौम के लिए मुस्तकिल खतरा बन गये हैं। बद्र और उहद की लड़ाई ने उन्हें पूरे अरब में मशहूर कर दिया है। अगर उन की तरक्की की यही रफ़्तार रही, तो यक़ीनन वे तमाम मजहबों को अपने अन्दर जज्ब कर लेंगे और हमारा मजहब मिट जाएगा।

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इस में कोई शक नहीं, दूसरी आवाज़ आयी, न मालूम अरबों को क्या हो गया है कि वे अपना मजहब छोड़ कर इस्लाम में दाखिल होते चले जा रहे हैं। वह तो कहिए, लड़ाई छिड़ गयी है, वरना अगर मुसलमानों को अम्न व आफ़ियत से तब्लीग़ का मौक़ा मिल जाता, तो कुछ ही दिनों में सारे अरब को मुसलमान कर लेते और फिर हमारी क़ौम को भी मुसलमान होना पड़ता।

तुम बिल्कुल ठीक कहते हो, पहले आदमी ने कहा, लड़ाई की वजह से हमारी क़ौम में मुसलमानों की तरफ से नफ़रत व हिकारत के जज्बे बढ़ गये हैं और इन जज्बों ने उन्हें मुसलमान होने से रोक दिया है।

अम्र ठिठक कर खड़े हो गये।

यह जगह जहां अम्र खड़े थे, रेत के एक टीले का दामन था। इस जगह से रास्ता अरब की तरफ़ घूम गया था।

अम्र निहत्थे थे, तन्हा थे, बातें करने वालों की आवाज से उन्हों ने अन्दाजा लगा लिया था कि आने वाले दो आदमी थे और चूंकि हर मुसाफ़िर या अरब का हर आदमी हर वक़्त तलवार और नेजा अपने पास रखता था, इस लिए अम्र ने भी समझ लिया था, कि आने वाले अरबों के पास तलवार और नेजे जरूर होंगे।

यह उन दोनों की बात से पता चल गया था कि आने वाले बुतपरस्त हैं। कुछ ही क़दम के फ़ासले पर रेत के टीले का कुछ हिस्सा घूंघट की तरह आगे को बढ़ा हुआ था।

अम्र जल्दी से लपक कर घूंघट की आड़ में खड़े हो गये।

कुछ ही देर में दो अरब तलवारें लटकाये और नेजे हाथों में लिये हुए आये और अम्र के बराबर से हो कर निकले।

दोनो बातें करते हुए जा रहे थे।

एक कह रहा था कि हमारा क़बीला बनी साद फिर भी ग़नीमत है, इस कबीले तक इस्लाम का असर नहीं पहुंचा।

दूसरे ने कहा, मगर क़बीला बनी नजीर, जिस की शाख हमारा कबीला है?

पहले ने कहा, मगर यह क़बीला अपने बाप-दादा के मजहब पर क़ायम है। यह और बात है कि वह मुसलमानों से समझौता कर के उन का दोस्त बन गया है।

पर वह परदे के पीछे से इस्लाम और मुसलमानों की जड़ उखाड़ने की जद्दोजेहद में लगा हुआ है, दूसरे ने बताया।

हां, हम देख रहे हैं, पहले ने कहा कि किस वक्त मुसलमानों का खात्मा कर दें। अगर मुसलमानों का हादी, जिसे वे लोग ख़ुदा का रसूल कहते हैं, किसी तरह से मारा जाए (नउजुबिल्लाह), तो इस्लाम का खात्मा हो जाए।

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वे दोनों बातों-बातों में अम्र से आगे बढ़ गये। उन्हों ने अम्र को नहीं देखा।

अम्र ने बढ़ने का इरादा किया।

अभी वह एक क़दम भी आगे न बढ़े थे कि कुछ सोच कर पलटे और दबे क़दमों मुसाफ़िरों की तरफ़ चले। उन के क़रीब पहुंच कर उछले और उन में से एक की कमर पर लात मारी।

चूंकि दोनों मुसाफ़िर बेफ़िक्री से चले जा रहे थे, इस लिए अम्र के लात से दोनों खौफ़ व दहशत से उछल पड़े।

जिस के लात लगी थी, वह तो गिर पड़ा और दूसरा डरी-हरी निगाहों से अम्र की तरफ़ देखने लगा।

अम्र ने इन दोनों की हैरत और खौफ़ से फ़ायदा उठाया।

उन्हों ने जल्दी से बढ़ कर उस आदमी के हाथ से, जो डरी निगाहों से उन्हें देख रहा था, नेजा छीन लिया और इंतिहाई तेजी से उस के सीने पर नेजा मारा। नेजा सीना तोड़ कर पीठ के पार निकल गयी। वह एक दिल हिलाने वाली चीख के साथ गिरा।

इस बीच दूसरा मुसाफ़िर उठ कर खड़ा हो गया। खौफ़ और हैरत से वह भी भौंचक्का सा हो रहा था।

अम्र ने जल्दी से नेजा खींच कर फिर ताना।

उस अरब ने देख लिया।

उस ने भी नेजा उठाया, लेकिन इस से पहले कि वह नेजा मारता, उस के सीने पर भी नेजा लगा। अनी सीना तोड़ कर पीठ के पार निकल गयी। वह भी एक दिल हिला देने वाली चीख के साथ गिरा और नेजे पर गिर कर घूमने लगा।

अम्र ने नेजा निकाला, दोनों के हथियार लिये और चल खड़े हुए। कई दिन लगातार चलने के बाद मदीना पहुंचे।

मस्जिद नबवी में आए, हुजूर (ﷺ) कुछ साथियों के साथ मस्जिद में रौनक़ फ़रमा थे।

अम्र को देखते ही हुजूर (ﷺ) कुछ परेशान से हो गये।

जब अम्र ने क़रीब पहुंच कर सलाम किया, तो हुजूर (ﷺ) ने सलाम का जवाब दे कर पूछा, अम्र ! तुम तन्हा कैसे आए?

तुम्हारे और साथी कहां हैं ?

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अम्र की आंखों में आंसू छलक आए। उन्हों ने कहा –

ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! जालिम और दग़ाबाज़ों ने बड़े जालिमाना अन्दाज में उन्हें शहीद कर दिया।

हुजूर (ﷺ) इस बुरी खबर को सुन कर बहुत ज्यादा बेकरार हुए। आप ने बहुत बेचैन हो कर पूछा, क्या हुआ अम्र?

अम्र ने गम की पूरी दास्तान सुना दी।

तमाम सहाबा और खुद अल्लाह के रसूल (ﷺ) को बड़ा रंज व क़लक़ हुआ। सब के चेहरे गम व हसरत में डूब गये।

हजूर (ﷺ) ने ठंडी सांस लेते हुए कहा, इन्नालिल्लाहि व इन्ना इलेहि राजिऊन

हुजूर (ﷺ) के पास बैठने वालों में हज़रत अबू बक्र, हजरत उमर, हज़रत उस्मान, हजरत अली और कुछ दूसरे सहाबा थे। हज़रत अली रजि० को जोश आ गया। आप ने कहा –

ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! बनू आमिर और बनू सलीम ने ग़द्दारी की है, बड़ी दरिंदगी का सबूत दिया है, इन वहशी कमीनों का सर कुचलने के लिए मुझे इजाजत दीजिए।

हुजूर (ﷺ) खामोश रहे।

दर असल हुजूर (ﷺ) के दिल पर इस खबर ने जो सदमा पहुंचाया था, आप उस पर ग़लबा पाने की कोशिश कर रहे थे।

हज़रत उमर रजि० के चेहरे से जलाल टपक रहा था। आप ने कहा,

खुदा के मोहतरम रसूल (ﷺ) ! यह ऐसा बड़ा हादसा हुआ है, जिस ने हमारे दिल फाड़ दिये हैं। हमारे सब्र का पैमाना भर चुका है। हम को इजाजत दीजिए कि हम इन दगाबाज मक्कारों से इंतिक़ाम लें।

तमाम सहाबा के चेहरे लाल हो रहे थे, आंखों से चिंगारियां निकल रही थीं। जोश व ग़ज़ब में भरे हुए थे।

हुजूर (ﷺ) ने सब के चेहरों पर सरसरी नजर डाली और कुछ देर के बाद आप ने फ़रमाया,

“ख़ुदा इन दग़ाबाजों को खुद सजा देगा ! मुसलमानो ! यह हादसा वाकई बर्दाश्त के क़ाबिल नहीं है, मगर तुम को सब्र व जब्त भी सीखना चाहिए, इस लिए सब्र करो, क्योंकि अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।”

अब अम्र (र.अ) बैठ गये।

हुजूर (ﷺ) ने उन से सफ़र की तफ्सील पूछी।

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उन्हों ने पूरे सफ़र की तफ्सील बता दी। क़बीला बनी साद के दो काफ़िरों को मार डालने का वाक़िया भी कह सुनाया।

आप (ﷺ) ने इस वाक़िए को सुन कर कहा, अम्र ! अनजाने में तुम से ग़लती हो गयी।

हुजूर (ﷺ) ! क्या ग़लती हुई? अम्र ने पूछा।.

वे दोनों आदमी क़बीला बनी साद के थे, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, और हम से समझौता कर गये थे।

ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! अम्र ने अर्ज किया, तब तो वाक़ई मुझ से ग़लती हो गयी, लेकिन में बेक़सूर हूं, क्योंकि मुझे उन के समझौते का इल्म न था। खुदा मेरी इस ग़लती को माफ़ करे।

हाँ, तुम से अनजाने में ग़लती हुई, हुजूर (ﷺ) नें फ़रमाया, हमें इन के क़बीले को इन दोनों का खून बहा अदा करना चाहिए। क़बीला बनी साद, क़बीला बनू नजीर की एक शाखा है। चलो, बनू नजीर से मश्विरा कर के खून बहा अदा करें।

क़बीला बनी नजीर यहूदी था। क़बीला बनू साद भी यहूदी था। बनू नजीर क़बीला मदीना मुनव्वरा से एक मील की दूरी पर अपने क़िले में रहता था। 

हुजूर (ﷺ) उसी वक़्त उठ खड़े हुए। हजरत अबू बक्र, हजरत उमर, हज़रत अली और हज़रत उस्मान को साथ लिया और बनी नजीर के क़िले की तरफ़ तशरीफ़ ले चले।

हुजूर (ﷺ) बनू नजीर से क़बीला बनू साद को खून बहा अदा करने के लिए मश्विरा करने तशरीफ़ ले गये थे। जब आप क़बीला बनू नजीर में पहुंचे तो तमाम सरदार यहूदी हुजूर (ﷺ) की पेशवाई के लिए बाहर निकले।

सलाम व दुआ के बाद आप (ﷺ) ने फ़रमाया,

मुअजज यहूदियो ! तुम मुसलमानों से अहद कर चुके हो?

बनू नज़ीर के सरदार हुजूर (ﷺ) से यह सुन कर बहुत घबराये। वजह यह थी कि वे लोग रात दिन हुजूर (ﷺ) और मुसलमानों को नुक्सान पहुंचाने के मंसूबे बांधा करते थे। उन्हें डर हुआ कि शायद हुजूर (ﷺ) को उन के मश्विरे की इत्तिला हो गयी है और हालात मालूम करने के लिए तशरीफ़ लाये हैं।

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चूकि मुसलमानों की ताकत हर दिन बराबर बढ़ती जा रही थी और कबीला बनू नजीर में उन के मुक़ाबले की ताब न थी, इस लिए वे बहुत घबराये। उन में से एक आदमी ने कहा –

हाँ, हम ने हुजूर (ﷺ) से समझौता किया है और हम अपने समझौते पर क़ायम हैं।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, ऐ बनू नजीर के मोहतरम लोगो ! एक मुसलमान ने अनजाने में क़बीला बनी साद के दो आदमी क़त्ल कर डाले हैं। हम चाहते हैं कि आप हमारे और क़बीला बनी साद के दर्मियान हो कर मक्तूलों के वारिसों को खून बहा अदा करा दें।

यह सुन कर क़बीला बनू नजीर ने इत्मीनान की सांस ली। उन्हों ने कहा,

हुजूर (ﷺ) ! यह कौन-सी बड़ी बात है? क़बीला बनी साद हमारी एक शाख है। हम जिस तरह उन से कहेंगे, वे राजी हो जाएंगे, आप मुतमइन रहें, हम यह मामला तय करा देंगे।


नबी (ﷺ) और सहाबा के क़त्ल की साजिश 

बातें करते हुए ये लोग क़िले के दरवाजे पर जा पहुंचे।

एक यहूदी ने यहां पहुंच कर कहा –

हुजूर (ﷺ) ! हम एक अर्से से आप के तशरीफ़ लाने का इन्तिजार कर रहे थे। हमारी आरजू है कि हमारी दावत क़बूल कर लें।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, कोई हरज नहीं, मुझे तुम्हारी दावत मंजूर है।

यहूदी आप को और आप के साथी मुसलमानों को साथ लेकर एक बड़े मकान में पहुंचे। उस मकान के पीछे की दीवार किले की फ़सील थी। फ़सील की मुंडेर पर एक बड़ा पत्थर रखा हुआ था, जो आधे के क़रीब दीवार से लटक रहा था।

मकान के मालिक ने जल्दी से कालीन ला कर फ़सील के नीचे इस अन्दाज से बिछा दिया, जिस से अगर किसी तरह पत्थर उस जगह से सरक कर गिरे, तो नीचे बैठने वालों के ऊपर आ कर पड़े और उन्हें कुचल डाले।

हुजूर (ﷺ) और आप के चारों साथी क़ालीन पर बैठ गये।

कुछ लोग उन के सामने उन से कुछ दूरी पर इस तरह बैठ गये, गोया कि वे हजूर (ﷺ) का अदब व एहतिराम कर रहे हैं।

कुछ यहूदी वहां से चले गये। वे बराबर वाले मकान में पहुंचे और राजदाराना तरीक़े से मश्विरे करने लगे।

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उन में से एक अधेड़ उम्र के आदमी ने कहा –

किस्मत ने साथ दिया है। हमारा और हमारी क़ौम का दुश्मन हमारी इज्जत व हश्मत, साथ ही हमारे मजहब का दुश्मन खुद ही हमारे पास चला आ रहा है।

ऐसा मौक़ा फिर नहीं आएगा। यह खुदा की मेहरबानी है। आज हमें उस का और उसके साथियों का, जिन पर उसे भरोसा है, खात्मा कर के अपनी क़ौम और अपने मजहब को आने वाले खतरों से बचाना है, मश्विरा देने वाले ने मश्विरा दिया, कोई ताकतवर और होशियार आदमी फ़सील के ऊपर चढ़ जाए और पत्थर को, जो फ़सील के आगे निकला हुआ है, लुढ़का दे, तो मुसलमानों और उस के नबी का खात्मा हो जाए।

खूब तज्वीज सूभी है, एक नवजवान यहूदी ने ताली बजा कर कहा, निहायत मुनासिब तज्वीज है। मैं अभी उस पत्थर को जा कर गिराये देता हूं।

मेरे ख्याल में यह मुनासिब नहीं है, एक बूढ़े यहूदी सलाम बिन मुश्कम ने कहा, सोचो, एक मुसलमान से दो यहूदी अनजाने में क़त्ल कर दिये गये हैं, मुसलमान इन दोनों का खूंन बहा अदा करने के लिए आए हैं। अपने क़ौल के पक्के और अहद के पाबन्द हैं। हमें ऐसे लोगों के साथ दग़ा न करना चाहिए। हो सकता है कि हमारा फ़रेब हम पर ही न उलट पड़े। 

सलाम ! बुजदिली की बातें न बातें न करो, एक ताक़तवर नवजवान यहूदी ने कहा।

उस का नाम अम्र बिन मुहासिन था।

वह कड़कदार आवाज़ बोलता ही चला गया, इस्लाम यहूदियों के लिए सब से बड़ा खतरा है। इस वक्त इस खतरे को मिटा देने की क़ुदरत रखते हैं, तो क्यों न इसे मिटायें।

सुनो, सलाम बिन मुश्कम ने कहा, हमारी मजहबी किताबों में एक नबी के आने की पेशीनगोई मौजूद है। अरबों में उन के आने की बात लिखी हुई है। 

वह नबी हमारी क़ौम में होंगे, अधेड़ उमर के एक और यहूदी ने कह-कहा लगा कर कहा, बुतपरस्तों में से न होंगे।

सुनो सलाम ! अम्र बिन मुहासिन ने कहा, अगर वाक़ई यह नबी हैं, तो खुदा इन्हें किसी जरिए से हमारे इरादे की खबर कर देगा और वह बच जाएंगे। अगर नबी नहीं हैं, तो कुचले जाएंगे और अरब एक फ़ितने से छुटकारा पा जाएंगे।

लेकिन यह भी जानते हो, सलाम ने कहा, कि अगर ये वाक़ई नबी हुए और खुदा ने इन्हें बचा लिया, तो हमारा इस किले में रहना दूभर हो जाएगा।

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इसकी परवाह न करो, अम्र बिन मुहासिन ने कहा, अब्दुल्लाह बिन उबई ने, जो ज़ाहिरी तौर पर मुसलमान हो गया है, मुझ से और कुछ दूसरे लोगों से कहा है कि मैं क़ौम या क़बीले का साथ दूंगा, अगर हजरत मुहम्मद (ﷺ) कत्ल कर डाले गये। अगर यह बच गए और इन्हों ने हम पर हमला किया, तो अब्दुल्लाह बिन उबई और उस का क़बीला, साथ ही उस के क़बीले के दोस्त साथ देंगे और फिर हम मुसलमानों से लड़ कर उन्हें मदीना मुनव्वरा से निकाल देंगे।

अगर यह बात है, तो जाओ, क़िस्मत आजमाई करो।

यह सुनते ही अम्र बिन मुहासिन मकान की छत पर चढ़ कर फ़सील की मुंडेर पर जा पहुंचा और झुका हुआ पत्थर सरकाने के लिए बढ़ा। हुजूर (ﷺ) और आप के जां निसार सहाबा निहायत इत्मीनान से बैठे हुए थे। 

यहूदी आप को बातों में उलझाए हुए थे और आप खुले दिल से बातें कर रहे थे।

यकायक आप (ﷺ) के चेहरे पर नागवारी के निशान उभरे। आप फ़ौरन उठ खड़े हुए।

आप के उठते ही सहाबा भी उठ खड़े हुए।

यहूदी भी उठे। एक बूढ़े यहूदी ने आप से पूछा –

कहां चले मुहम्मद !, क्या जरूरी काम याद आ गया ?

दगाबाज यहूदियो ! हुजूर (ﷺ) ने थोड़ा मुंह बना कर फ़रमाया, तुम ने मेरे और मेरे साथियों के क़त्ल की साजिश की थी, अपने एक आदमी को हमारे ऊपर पत्थर के गिराने के लिए फ़सील पर चढ़ा दिया था, खुदा ने मुझे तुम्हारे मंसूबे की इत्तिला दे दी है। अब या तो तुम दस दिन के अन्दर- अन्दर अहदनामा को नये सिरे से करो या इस क़िले से निकल जाओ।

सुनो मुहम्मद ! एक इज्जतदार यहूदी ने कहा, हम तुम से या तुम्हारी क़ौम के लोगों से बिल्कुल ही नहीं डरते। हम मानते हैं कि हम ने तुम को मार डालने की तदबीर की थी, तुम को किस तरह खबर हुई कि अब तुम बच गए। पर याद रहे कि जब भी हमारा क़ाबू चलेगा हम तुम को मार डालेंगे।

इत्मीनान रखो, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, खुदा मेरी और मुसलमानों की हिफ़ाजत करेगा। अगर नया समझौता करने या क़िला से निकल जाने पर तैयार नहीं हो, तो लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ। कल मुसलमान तुम्हारे क़िले का घेराव कर लेंगे।

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यहूदी ने मजाक़ उड़ाने के तौर पर कहा, जरूर घेराव कीजिए, मगर याद रखिए, बनू नजीर का क़िला मुसलमानो का क़ब्रस्तान बनेगा। 

य हू*दी कुत्ते ! हज़रत उमर (र.अ) ने ग़जबनाक हो कर कहा, कल मालूम हो जाएगा कि यह किला किस क़ौम का क़ब्रस्तान बनता है।

इसके बाद हुजूर (ﷺ) अपने साथियों के साथ तशरीफ़ ले गए। यहूदियों ने मशहूर कर के लड़ाई की तैयारियां शुरू कर दीं। एक क़ासिद अब्दुल्लाह बिन उबई के पास मदद के लिए भेज दिया गया।

शाम के वक़्त अब्दुल्लाह का जवाब आया कि अगर तुम क़िले से बाहर निकल कर मुसलमानों से लड़ो, तो तुम्हारी मदद की जा सकती है।

यहूदी देख और सुन चुके थे कि मुसलमानो ने उहद और बद्र की लड़ाइयों में कुफ़्फ़ारे मक्का को बुरी तरह हरा दिया था, वे मैदान में निकल कर लड़ने को तैयार न हुए।

दूसरे दिन अभी सूरज बहुत ऊपर नहीं आया था कि इस्लामी फ़ौज पूरी शान के साथ क़िला बनू नजीर की तरफ़ बढ़ती हुई नजर आयी। मुजाहिद अल्लाहु अकबर का नारा लगाते हुए इस्लामी झंडे के साये के नीचे बड़े जोश व खरोश से बढ़े चले आ रहे थे। 

यहूदियों ने क़िले का दरवाजा बन्द कर लिया और फ़सीलों पर जवानों को चढ़ा दिया। पत्थरों के टुकड़े और संगबारी के तमाम सामान फ़सील पर पहुंचा दिये।

इस्लामी फ़ौज ने क़िले का घेराव कर लिया और चारों तरफ़ से आगे बढ़ने लगी।

यहूदियों ने फ़सील के सुराखों से तीरंदाजी शुरू कर दी इतने ज्यादा और इतने तीर फेंके कि मुसलमानों का एक क़दम बढ़ना भी मुश्किल हो गया, इस लिए वे रुक गए और तीरों का जवाब तीरों से देने लगे, पर यहूदी फ़सील की ऊंची दीवार के पीछे ओट में खड़े थे, सूराख से झांक-झांक कर तीर बरसा रहे थे, उन्हें मुसलमानों के तीरों से कोई अन्देशा भी न था।

वे निहायत इत्मीनान से खड़े तीरों की वर्षा कर रहे थे।

मुसलमान खुले मैदान में खड़े थे। उन के पास न कोई आड़ थी न पनाह।

उन्हें यहूदियों के तीरों से नुक्सान पहुंच रहा था। कई मुसलमान, घायल होने के बावजूद भी खड़े रहे और तीर बरसाते रहे।

हज़रत उमर (र.अ) ने पूरब, हजरत अबू बक्र (र.अ) ने पच्छिम और हजरत अली (र.अ) ने उत्तर की टुकड़ियों को अपने हाथों में ले रखा था। इस में से हर आदमी का यही इरादा था कि वह बढ़ कर सब से पहले क़िले की दीवार के नीचे पहुंच जाए, लेकिन उन पर इतने ज्यादा तीर बरसाये जा रहे थे कि उन का उस जगह खड़ा रहना भी मुश्किल हो रहा था, फिर भी वे बड़े इस्तिक्लाल से खड़े तीरों का जवाब दे रहे थे।

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दक्खिन में खुद हुजूर (ﷺ) तशरीफ़ फ़रमा थे और वह भी आगे बढ़ने की जद्दोजेहद में लगे हुए थे।

मुसलमान बहुत होशियारी से तीर चला रहे थे। उन्हों ने ताक-ताक कर तीर मारना शुरू किये।

जो तीर भी सूराखों में घुस जाते, वे यहूदियों के चेहरों में घुस जाते, आखों में घुस जाते, नाक को छेद डालते। घायल यहूदी चिल्ला उठते थे। वे तड़प कर हट जाते थे और उन की जगह नये यदूदी आ जाते थे। सारे दिन जोरदार लड़ाई होती रही, लेकिन नजदीक न पहुंच पाये।

दूसरे दिन फिर लड़ाई शुरू हुई, लेकिन आज भी तमाम दिन की लड़ाई का कोई नतीजा न निकला।

इसी तरह लड़ते-लड़ते पन्द्रह दिन बीत गए।

इस बीच यहूदियों की रसद का सामान खत्म हो गया और वे भूखों मरने लगे।

आखिरकार उन्हों ने तंग आ कर समझौते की दरखास्त की।

हुजूर (ﷺ) ने इस शर्त पर समझौता मंजूर किया कि यहूदी क़िला छोड़ कर बाहर चले जाएं और हथियारों के अलावा नक़दी और सामान वग़ैरह जो चाहें ले जाएं।

यहूदियों ने इस शर्त को मंजूर कर लिया, लड़ाई बन्द कर दी गयी। उन्होंने सामान इकट्ठा कर के ऊंटों पर लादा, जो सामान वे न ले जा सकते थे, उसे तलफ़ किया, मकान ढा दिये, ताकि मुसलमान किले में आ कर आबाद न हो सकें और निहायत हसरत से किले के दर व दीवार को तकते हुए विदा हो गए।

किले का दरवाजा खोला गया, यहूदियों के झुंड के झुंड, जिन में औरतें, मर्द और बच्चे सभी शामिल थे, माल व असबाब से लदे हुए निकले और दर्रे खैबर की तरफ़ रवाना हुए।

जब तमाम यहूदी चले गए, तो इस्लाम के फ़िदाई किले में दाखिल हुए, वहां ढहे मकानों का मलबा था और बस, जैसे यहां कभी आबादी रही ही न हो।

यह देख कर मुसलमानों ने सबक लिया, उन्हों ने हथियार जमा किये और शाम के वक़्त मदीने की तरफ़ रवाना हो गए।
इस लड़ाई को बनू नजीर की लड़ाई के नाम से जाना जाता है।

To be continued …

इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर हमारा हौसला अफ़ज़ाई में तावूंन फरमाए।

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