Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 28
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मुसलमानों में आपसी समझौते का हुक्म
हुजूर (ﷺ) हजरत अबू अय्यूब के मकान में ठहरे थे।
चूँकि उनके मकान के सामने एक बंजर जमीन पड़ी हुई थी, इस लिए मुसलमान रोजाना उस मैदान में जमा होते और हुजूर (ﷺ) उस के पास पहुँच कर वाज व नसीहत फ़रमाते थे।
जो लोग मक्का से अपने वतन, अपने घरों को छोड़ आए थे, वे मुहाजिर कहलाते थे और जो लोग यसरब (मदीने) के रहने वाले थे, वे मुसलमान होकर मुहाजिरों की मदद कर रहे थे, वे अन्सार कहलाने लगे।
मुहाजिरों और अन्सार में ऐसी मुहब्बत कायम हो गयी थी, जैसी हकीकी भाइयों में भी नहीं देखी गयी।
यह हिजरत का पहला साल था। सन हिजरी साल से शुरू हुवा, जो इस्लामी दुनिया में आज तक जारी है और इन्शाअल्लाह कियामत तक जारी रहेगा।
अगरचे हुजूर (ﷺ) ने देख लिया था कि मुहाजिर और अन्सार एक रूह दो कालिब बन गए हैं और एक दूसरे के दुख-दर्द का एहसास रखते हैं, मगर जरूरत इस बात की थी कि तमाम मुसलमान समझ लें कि हकीक़ी भाईचारा क्या चीज है?
एक दिन, जबकि तमाम मुसलमान मुहाजिर और अन्सार अबू अयूब अंसारी (र.अ) के मकान के मैदान में जमा थे, हुजूर (ﷺ) ने एक वाज फ़रमाया और बताया कि –
“तमाम मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं। सगे भाइयों से ज्यादा आपस में मुहब्बत होनी चाहिए। जो मुसलमान आपस में अपने भाई यानी मुसलमान की मदद न करेगा, उस के दुख-दर्द में शामिल न होगा, किसी मुसलमान से हसद करेगा या किसी मुसलमान से दुश्मनी करेगा या किसी मुसलमान को तक्लीफ़ देगा या नुक्सान पहुंचाएगा, उस पर कहरे इलाही नाजिल होगा। क़ियामत के दिन मैं उस की सिफ़ारिश न करूंगा। उस के तमाम अमल जाया हो जायेंगे और वह दोजख की दहकती हुई आग का इंधन बनने के लिए डाल दिया जाएगा।
तकम्बूर और घमंड शैतानी वसवसा है। अपने किसी मुसलमान भाई को अपने से कमतर समझना किसी गरीब मुसलमान को खस्ता हाल होने की वजह से हकीर ख्याल करना निहायत बुरी बात है, इस से अल्लाह नाराज होता है। कियामत के दिन दौलतमंदी या खानदान न पूछा जाएगा, बल्कि अमल के बारे में सवाल होगा, रोजा, हज, जकात, नमाज के बारे में पूछा जाएगा।
मुसलमानों को हकीरं समझने वाले मुसलमानों के अमल भी जाया हो जायेंगे और वे भी दोजख की दहकती आग में डाल दिये जायेंगे।
मुसलमान भाई-भाई हैं और उन्हें भाई-भाई ही बन कर रहना है।
एक खुशहाल और असरदार मुसलमान का फर्ज है कि वह अपने से ग़रीब की हर मुम्किन मदद करे। जब कोई मुसलमान किसी मुसलमान की मदद करता है, तो अल्लाह उस से खुश होता है। फ़रिश्ते उस के हक में दुआ-ए-खैर करते है।
अल्लाह अपने मुकर्रब फ़रिश्तों से फ़रमाता है कि तुम गवाह रहो कि मैं ने आज फला मुसलमान के तमाम गुनाह इस लिए माफ़ कर दिए कि उस ने फला गरीब और मुसीबतज़दा अपने मुसलमान भाई की मदद की है, किस कदर खुशी की जगह है कि जब कोई मुसलमान किसी मुसलमान की मदद करता है, तो खुदा उस से इस कदर खुश होता है कि उस के तमाम पिछले गुनाह माफ़ कर देता है।
इस लिए मुसलमानो! आपस में मुहब्बत और ताल्लुक बनाए रखो, किसी मुसलमान को हकीर और जलील न समझो, वरना तुम्हारे भले अमल जाया कर दिए जायेंगे और तुम बड़े घाटे में रहोगे।
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जंब तमाम मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं, तो हर तबके के मुसलमान आपस में बराबरी का दर्जा रखते हैं। एक मुसलमान की दूसरे मुसलमान पर कोई बरतरी नहीं है।
अल्लाह का यही हुक्म है कि मुसलमान आपस में मुहब्बत करें, हमदर्दी रखें, बराबरी का बर्ताव करें और मिल-जुल कर रहें।
मुसलमानों का यह फ़र्ज है कि अपने गरीब भाई की हर मुम्किन तरीके से मदद करें।
जो मुसलमान किसी मुसलमान को जंग या मुसीबत से बचाता हुआ मारा जाएगा, वह शहीद कहलाएगा, शहीद मरते नहीं, बल्कि जिंदा रहते हैं।
मुसलमानो ! अल्लाह की खुशी हासिल करना चाहते हो, तो आपस में मुहब्बत और भाईचारा पैदा करो। कभी किसी मुसलमान से दुश्मनी न रखो।
इस तकरीर को तमाम मुसलमान बड़े गौर और शौक़ से सुन रहे थे। उन के दिलों में हर-हर लफ्ज़ बैठता चला जा रहा था। चुनांचे जब आप ने तकरीर खत्म की, तो तमाम मुसलमानों के दिलों में मुहब्बत व प्यार का दरिया लहरें लेने लगा। वे कुछ इतने मुतास्सिर हुए कि अन्सार ने उसी वक्त मुहाजिरों से भाई-भाई के ताल्लुक कायम कर लिए और उन्हें सगे भाई से ज्यादा समझने लगे।
चुनांचे जिन अन्सार के दो-दो और तीन-तीन बीवियां थीं, उन्होंने उसी वक्त एक-एक, दो-दो को तलाक दे कर, उन का मुहाजिरों से, जिन के पास बीवियां नहीं थीं, निकाह कर दिया।
इस के बाद हजूर (ﷺ) ने पूछा, क्या जमीन का यह हिस्सा, जिस में हम सब बैठे हैं, किसी की मिल्कियत है?
मुआज बिन अफ़रा एक खुशहाल और दौलतमंद अन्सारी थे, उन्हों ने पूछा, ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ)! यह जमीन मेरे रिश्तेदारों की है। दो यतीम बच्चे इस के मालिक हैं।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मैं चाहता हूं कि यहां एक मस्जिद बनायीं जाए और मस्जिद के करीब ही मैं भी मकान बना लूं।
मुआज (र.अ) ने कहा, इस नेक काम के लिए यह जमीन हाजिर है। हुजूर(ﷺ) आप तामीर शुरू करा दें। मैं अपने अजीजों की रजामंदी हासिल कर लूंगा।
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हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मैं इसे खरीदना चाहता हूं। इस लिए किमत ते कर दीजिए।
इत्तिफ़ाक़ से उस मज्मे में वे दोनों यतीम बच्चे भी मौजूद थे। दोनों खड़े हो गये। उन्होंने कहा, ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! हम इस जमीन को आप की नज्र करते हैं। आप जो चाहें शोक से बना लें।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मेरे प्यारे बच्चो ! तुम्हारी इस दरियादिली का शुक्रिया। मगर मैं चाहता हूं कि तुम कीमत ले लो और उन पैसों को मुआज (र.अ) की मारफ़त तिजारत में लगा दो।
दोनों बच्चों ने कहा, अगर हुजूर (ﷺ) का यही हुक्म है, तो हमें यह भी मंजूर है।
चुनांचे कुछ आदमियों ने कीमत तज्वीज की। हुजूर (ﷺ) ने हजरत अबू बक्र सिद्दीक (र.अ) को कीमत अदा करने का हुक्म दिया।
हज़रत अबू बक्र (र.अ) ने फ़ौरन कीमत अदा कर के बैनामा लिखवा दिया।
उस मैदान में कुछ खजूरों के पेड़ थे, कुछ मुश्रिकों की कब्र थी, हुजूर (ﷺ) ने उसी वक्त पेड़ों के कटवाने और कब्रों को हमवार करने का हुक्म दे दिया और मस्जिद की तामीर का काम शुरू हो गया।
हुजूर (ﷺ) खुद मस्जिद की तामीर के काम में लगे। मुहाजिर और अन्सार भी पूरे जोक और शौक से इस काम को अन्जाम दे रहे थे। इस 8 तरह उम्मीद के खिलाफ़ मस्जिद बहुत जल्द बन कर तैयार हो गयी।
मस्जिद की दीवारें पत्थर और गारे से बनायी गयीं। छत खजर की लकड़ियों और खजूर के पत्तों से बनायी गयी। मस्जिद तैयार होने पर यसरव के तमाम मुसलमान उसी मस्जिद में आ कर नमाज पढ़ने लगे।
मस्जिद की तैयारी के बाद हुजूर सल्ल.का मकान तामीर होने लगा।
फिर हुजूर (ﷺ) ने जैद बिन हारिस और अबू राफेअ को मक्का -मुअज्जमा इस लिए रवाना कर दिया था कि वे हजरत प्रातमा, हजरत कुलसूम, हजरत सौदा बिन्त जमजा, हजरत उमामा बिन जैद, उन की वालिदा हजरत ऐमन, हजरत अबूबक्र के अजीजों और उन मुसलमानों को, जो मक्का में रह गये हैं, अपने साथ ले आएं।
हुजूर (ﷺ) ने यसरब में आ कर देखा कि यसरब और उसके आस पास के इलाकों में काफ़िरों और यहदियों का तूती बोल रहा है। उन के मुकाबले में मुसलमान कमजोर और थोड़े हैं।
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हजुर(ﷺ) ने समझ लिया कि यसरब में अम्न व अमान उस वक्त तक कायम नहीं हो सकता, जब तक कि मुश्रिक, यहूदी और मुसलमान तीनों में कोई समझौता न हो जाए। हुजूर (ﷺ) को यह भी डर था कि कुफ्फारे मक्का यसरब वालों को मुसलमानों के खिलाफ उभार करके खानाजंगी न करा दें। इस लिए आप ने यही मुनासिब समझा कि इन तीनों ग्रुपों में एका कायम हो जाए और ये तीनों फ़िकें एक दूसरे के साथी बन जाएं।
दूसरों से समझौता
एक दिन आप (ﷺ) ने यहुदियों और मुश्रिकों के तमाम बड़ों को जमा किया। मुश्रिकों में सब से ज्यादा हर दिल अजीज़ अब्दुल्लाह बिन उबई था। यह आदमी निहायत तजुर्बेकार, होशियार और चालाक था। औस और खजरज के तमाम कबीलों पर उसका असर था और तमाम कबीले मुत्तफ़िक्का तौर पर उस की सरदारी को मानते थे।
यसरब वाले उसे बादशाह बनाने पर तैयार थे। उस के लिए सुनहरा ताज तैयार करा लिया गया था। लोग शानदार जलसा तर्तीब दे कर उस की शाही का एलान करने वाले थे कि उन्हीं दो दिनों में हजूर (ﷺ) यसरब तशरीफ़ ले आए। औस व खज़रज के बा इज्जत लोग मुसलमान हो गये। इस तरह अब्दुल्लाह बिन उबई की शाही अधर में लटक कर रह गयी।
अब्दुल्लाह बिन उबई को मुसलमानों और मुसलमानों के हादी का दाखिला निहायत नागवार गुजरा। उन के आने से उस की तमाम उम्मीदों पर पानी फिर गया।
वह हजूर (ﷺ) को अपना रक़ीब और दुश्मन समझने लगा। पर चूंकि वह चालाक भी बहुत था, इस लिए जमाने के रुख को देखते हुए अपनी दुश्मनी को छिपाये भी रहा और ऊपरी दिल से मुसलमानों का हमदर्द बना रहा।
हजूर (ﷺ) ने समझौते की फ़िज़ा बनाने के लिए एक मजलिस बुलायी।
अब्दुल्लाह बिन उबई भी इस में शरीक हुआ और यहूदी कबीलों के लोग और दूसरे बड़े भी उसमें शरीक हुए।
जब तमाम लोग आ चुके, तो हुजूर (ﷺ) ने सब से मुखातब हो कर फ़रमाया, यसरब वालो! तुम इस बात को अच्छी तरह जानते हो कि किसी शहर या किसी मुल्क की खुशहाली उसी वक्त हो सकती है, जबकि उस शहर या मुल्क में अम्न व अमान रहे, लोग बे-फ़िक्री से खेती करें, तिजारत करें, और अपने कारोबार में लगे रहें।
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लडाई-झगडे अम्न व अमान को खत्म कर देते हैं। लड़ाई किसी हाल है में अच्छी नहीं होती। जो लोग किसी लड़ाई में शरीक हो चुके हैं, वे उसके कड़वे तजुर्बो को खूब जानते हैं। लड़ाई मजबूरी की हालत में उस वक्त लड़नी चाहिए, जब कोई रास्ता न रह जाए। जो लोग तहजीब व तमद्दुन के एतबार से तरक्की करना चाहते हैं, उन्हें लड़ाई से परहेज करना चाहिए।
लड़ाई कौमों को कमजोर कर देती है, शहरों और मुल्कों को तबाह कर देती है। लोगों को मुफ्लिस और परेशाने हाल बना देती है। जो मजा मिल-जुल कर रहने में है, लड़ने-झगड़ने में वह बात नहीं है।
इस वक्त यसरब में तीन कौमें आबाद हैं- एक बुतपरस्त, दूसरे यहूदी, तीसरे मुसलमान। ये तीनों ताकतें करीब-करीब एक दूसरे की टक्कर की हैं। अगर ये तीनों ताक़तें एक दूसरे से लड़ती-झगड़ती रहीं, तो तीनों ताकतें कमजोर हो जाएंगी, बाहर की कोई भी ताक़त आ कर इन को नुक्सान पहुंचा सकती है, लेकिन अगर ये तीनों ताक़तें मिली-जुली रहीं, तो कोई उन की तरफ़ आंख उठा कर न देख सकेगा।
मिल-जुल कर रहने में बड़ी बरकत है। इस लिए मैं चाहता हूँ कि तुम तीनों खुशी से रजामंद हो कर एक अहद नामा तैयार कर लो।
सब लोग हुजूर (ﷺ) की बातें बड़े ध्यान से सुनते रहे, चूकि बात माकूल थी, इस लिए किसी को रद्द करने की हिम्मत न हुई। सब ने अहदनामे पर इत्तिफ़ाक कर लिया। अगरचे अब्दुल्लाह बिन उबई इस अहदनामे के खिलाफ़ था, साथ ही यहूदी भी दिल से न चाहते थे, पर वे देख रहे थे कि मुसलमानों की ताक़त दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है, इस लिए न चाहते हुए वे भी राजी हो गये।
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अहदनामा लिखा जाने लगा। हुजूर (ﷺ) ने लिखवाना शुरू किया। हर शर्त पर पहले बहस होती, जब सब की राय बन जाती, तो अहदनामें में लिख दी जाती। इस अहदनामें की अहम शर्त ये थी –
१. यसरब की तमाम कौमें, सारे कबीले और कुल खानदान मिलजुल कर रहेंगे।
२. यसरब के रहने वाले अपने झगड़े खुद तै करेंगे, पर जो झगड़े कौमी होंगे और उन्हें कौमें न तै कर सकें, तो उन का फ़ैसला हजरत मुहम्मद (ﷺ) करेंगे और आप का फैसला आखिरी होगा।
३. यसरब के रहने वाले, यसरब के बाहर के लोगों से किसी कौम के खिलाफ कोई साजिश न करेंगी।
४. अगर कोई यसरब पर हमलावर होगा, तो तीनों कौमें मिल कर दुश्मन का मुकाबला करेंगे।
५. यसरब के लोग कुरैशे मक्का या मुसलमानों के दुश्मनों को पनाह न देंगे।
६. लड़ाई के फ़ायदों में भी तीनों कौमे बराबर की हिस्सेदार होंगी।
७. लड़ाई के खर्चे तीनों कौमें बराबर-बराबर अदा करेंगी।
८. जो कौम या कबीले यसरब के यहुदियों के दोस्त हैं, मुससमान भी उन के दोस्त रहेंगे और जो कौमें या कबीले मुसलमानों के दोस्त हैं, यसरब के यहूदी भी उन से दोस्ताना सुलूक करेंगे।
९. मुसलमानों से कभी न लड़ेंगे।
१०. यसरब के अन्दर खून-खराबा हराम समझा जाएगा।
११. मजलूम की मदद सब पर फ़र्ज होगी।
१२. इन शर्तों की खिलाफवर्जी करने वाली कौम नतीजे की जिम्मेदार होगी।
इस अहदनामे पर सब ने दस्तखत किये। जब अहदनामा पूरा हो गया, तो सब लोग उठ-उठ कर चले गये। सिर्फ मुसलमान बैठे रह गये।
जोहर की नमाज का वक्त हो गया। सब जोहर की अदाएगी में लग गये।
अज़ान की इब्तेदा
जब सब नमाज से फ़ारिग़ हो चुके, तो साद बिन मुआज (र.अ) ने कहा, ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! तमाम कौमें जब इबादत का वक्त होता है, तो लोगों को जमा करने के लिए ऐसी चीजें बजाती हैं, जिस से लोग जमा हो जाते हैं, जैसे कोई शंख बजाता है, कोई घंटी, कोई तालियां, पर मुसलमानों में कोई ऐसी चीज नहीं बजायी जाती, जिसे सुन कर तमाम मुसलमान जमा हो जाया करें। इस वजह से लोगों को नमाज के वक्तों की खबर नहीं होती। अगर हम भी कोई चीज बजाने लगें, तो सारे मुसलमान वक्त पर जमा हो जाया करें।
हजरत अबू बक्र (र.अ) ने कहा, मुझे भी अक्सर इस का ख्याल हुआ है। बेशक कोई ऐसी चीज़ होनी चाहिए, जिसे सुनकर मुसलमान जमा हो जाया करें।
हुजूर (ﷺ) ने फरमाया, तुम्हारा यह ख्याल मुनासिब है। इस वक्त तमाम मुसलमान मौजूद हैं सब सोचें कि मुसलमानों के जमा करने का क्या तरीका अख्तियार किया जाए?
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हजरत अली बोले, किसी धातु का एक बड़ा घंटा बना कर लटका दिया जाए। जब नमाज का वक्त हो तो घंटा लटका दिया जाए।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, यह कुफ्फार से मिलती-जुलती चीज है, जो मुनासिब नहीं है।
हजरत मिक्दास ने कहा, दफ़ कोई कौम नहीं बजाती, हम दफ़ बजाया करेंगे।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, दफ़ खेल-तमाशे में शामिल है। यह भी मुनासिब नहीं है।
हजरत उमर ने कहा, कोई आदमी ऊंची आवाज में नमाज की आवाज लगा दिया करें।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, हां, यह मुनासिब है। इस आवाज का नाम अजान रखो। आवाज देने वाले को मुअज्जिन कहा जाए।
सब ने इस राय से इत्तिफ़ाक जाहिर किया।
हजरत बिलाल की आवाज बुलन्द और प्यारी थी। उन के जिम्मे यह काम कर दिया गया।
चूंकि अस्र का वक्त आ गया था, इस लिए हजरत बिलाल (र.अ) ने अजान दी। लोगों पर इस अजान का खासा असर हुआ। अजान के बाद नमाज पढ़ी गयी। उस दिन से पांचों वक्त की अजान दी जाने लगी।
अजान होते ही तमाम लोग काम छोड़ कर आ जाते, जमाअत से नमाज पढ़ते और बिखर कर फिर कारोबार में लग जाते।
अंसारी सहाबा की दरयादिली
अन्सार ने मुहाजिरों के सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिस खुलूस, कुर्बानी और एहतियात से उन्होंने भाईचारे के अहद को निभाया, तारीख में इस की मिसाल नहीं मिलती।
उन्होने मुहाजिरों को अपना सगा भाई समझा, इस तरह से उन की मदद की। पहले उन्हें खाना खिलाया, फिर खुद खाया, पहले उन की तक्लीफ़ दूर की, फिर अपनी तरफ़ तवज्जोह दी। पहले उन को आराम पहुंचाया, फिर खुद आराम किया।
चूंकि अन्सार इस बात को जानते थे कि मुहाजिरों ने सिर्फ़ दीन की खातिर मक्के में इंतिहाई तकलीफें बर्दाश्त की हैं। अपने घर, अपने वतन, (नाते-रिश्तेदार, माल व जर, खानदान और बिरादरी वगैरह सब को छोड़ कर यसरब चले आए हैं, इसी लिए वे ख्याल रखते थे कि मुहाजिरों का किसी भी तरह दिल न टूटने पाये, इस वजह से उन्होंने उन की दिलदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी।
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दूसरी तरफ मुहाजिर अन्सार के बड़े शुक्रगुजार थे, वे इस बात की कोशिश करते कि अंसार पर अपना बोझ न डालें। वे निहायत मेहनत और मुस्तैदी से मजदूरी करते, दुकानदारी और तिजारत में लगे रहते, यहां तक कि थोड़े ही दिनों में अन्सार की मदद से बेनियाज हो गये।
जब मुसलमानों को रोजी की तरफ़ से बेफ़िक्री हुई, तो उन्होंने इस्लाम की तब्लीग शुरू की।
अल्लाह ने इस्लाम में इतना खिचाव और कुरआन शरीफ़ में ऐसा असर रखा है कि जिस के सामने इस्लाम की तालीम पेश की जाती है, कलामे पाक की आयतें पढ़ी जाती है, उस का दिल असर लिये बिना नहीं रहता।
चुनांचे कुफ़्फ़ार अब गिरोह के गिरोह मुसलमान होने लगे। मुसलमानों की तायदाद दिन दोगुनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। यों तो सैंकड़ों मुश्रिक मुसलमान हुए, लेकिन दो आदमी ऐसे मुसलमान हुए जिन की वजह से यसरब के लोगों पर खास असर पड़ा। इन में से एक अब्दुल्लाह बिन सलाम थे।
यह यहूदी थे, निहायत जबरदस्त आलिम थे। तौरात पर बड़ी गहरी नजर रखते थे। यहुदी दुनिया में वह बहुत मशहूर थे, उन के इस्लाम कुबूल करने से यहूदी हैरान रह गये। दूसरे सलमान फ़ारसी थे।
सलमान फ़ारसी (र.अ) इस्लाम के इंतज़ार में
सलमान फ़ारसी मजूसी थे, फारस के रहने वाले थे, आग के पुजारी थे, लेकिन आग की पूजा से परेशान हो कर हिदायत की तलाश में ईसाई हो गये थे। फ़ारस से शाम चले आये थे। शाम से नसीबन गये। वहां एक बूढ़ा राहिब था। जब वह मरने लगा, तो उस ने सलमान को हिदायत की कि बहुत जल्द तिहामा के शहर उम्मुल कुरा में आखिरी पैग़बर आने वाले हैं और वे अपनी कौम के जुल्म से तंग आ कर यसरब में हिजरत करेंगे। उन का मजहब इस्लाम होगा।
तुम इस्लाम कुबूल कर के मुसलमान हो जाना।
चुनांचे सलमान फ़ारसी यसरब में आ गये थे और हुजूर (ﷺ) के आने का इन्तिजार कर रहे थे। सलमान मजुसी और यहुद व नसारा की किताबे पढ़े हुए थे। बहुत बड़े आलिम समझे जाते थे। हर फ़िरका और हर तबका उन की इज्जत करता था। वह भी मुसलमान हो गये।
उनके मुसलमान होने से तमाम फिरको पर असर पड़ा।
To be continued …
इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
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