९ जिल हज्जा १० हिजरी में हुजूर (ﷺ) ने मैदाने अरफ़ात में एक लाख से ज़ियादा सहाब-ए-किराम के सामने आखरी खुतबा दिया, जो इल्म व हिकमत से भरा हुआ था और पूरी इन्सानियत का जामे दस्तूर था।
इसमें आप (ﷺ) ने फर्माया : ऐ लोगो! मेरी बातें गौर से सुनो ! शायद आइन्दा साल मेरी तुमसे मुलाक़ात न हो सके। लोगो ! तुम्हारी जानें, इज्जत व आबरू और माल आपस में एक दूसरे पर हराम है, मैंने जमान-ए-जाहिलियत की तमाम रस्मों को अपने पैरों तले रौंद दिया है, देखो ! मेरे बाद गुमराह न हो जाना के एक दूसरे को क़त्ल करने लगो, मैं तुम्हारे लिये अल्लाह की किताब छोड़कर जा रहा हूँ, अगर तुम इस को मजबूती से पकड़े रहोगे, तो कभी गुमराह नहीं होंगे, तुम्हारा औरतों पर और औरतों का तुम पर हक है, किसी औरत को अपने शौहर के माल में से उसकी इजाजत के बगैर कुछ देना जाइज नहीं है, और क़र्ज़ वाजिबुल अदा है जो चीज़ माँग कर ली जाए उस को लौटाना जरूरी है और जामिन तावान का जिम्मेदार है,
लोगो! क्या मैं ने अल्लाह का पैगाम तुम तक पहुँचा दिया? सब ने जवाब दिया बिलाशुबा आपने अमानत का हक़ अदा कर दिया और उम्मत को खैर ख्वाही की नसीहत फ़रमाई, फिर आपने आसमान की तरफ उंगली उठा कर तीन मर्तबा अल्लाह तआला को गवाह बनाया और कहा: ऐ अल्लाह! तू गवाह रहना, ऐ अल्लाह! तू गवाह रहना, ऐ अल्लाह ! तु गवाह रहना।
To be Continued …
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