Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 44
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पाकदामनी की खुदाई गवाही
चूंकि उम्मुल मोमिनीन हज़रत आईशा सिद्दीक़ा रजि० दिन भर तेज धूप और गर्म हवा में सफ़र करती रही थीं, इस लिए शाम के वक्त उन्हें बुखार हो गया और ऐसा तेज़ बुखार हुआ कि ग़ाफ़िल हो गयी।
रात को फ़ौज ने कूच किया, तो उन्हें महिमल में लिटा कर सफ़र शुरू किया गया।
अब्दुल्लाह मुनाफ़िक़ और उस के साथियों ने इस वाक़िए का इस तरह प्रोपगंडा किया कि हुजूर (ﷺ) पर भी उस का जादू चल गया और आप भी हज़रत आइशा रजि० से कुछ खिचे खिचे रहने लगे।
चूंकि अब मदीना क़रीब आ गया था, इस लिए दूसरे ही दिन यह फ़ौज मदीने में दाखिल हो गयी।
मदीने के लोगों ने फ़ौज का शानदार इस्तकबाल किया।
जिस वक्त इस्लामी फ़ौज मदीने में दाखिल हो रही थी, अब्दुल्लाह मुनाफ़िक के बेटे अब्दुल्लाह रास्ता रोक कर खड़े हो गये। उन्होंने अपने बाप से कहा –
ऐ मुनाफ़िक़ों के सरदार ! तुम मदीने में दाखिल नहीं हो सकते। अब्दुल्लाह मुनाफ़िक को यह सुन कर बड़ा गुस्सा आया।
उस ने ग़जबनाक हो कर कहा, ना-खलफ़ ! तू मुझे रोकता है, किस वजह से ?
इस वजह से कि तुम मुनाफिक हो, अब्दुल्लाह बोले, तुम्हारे दिल में कुछ और है और जुबान पर कुछ और। तुम इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ़ साज़िशें करते रहे हो।
अपनी बादशाही के ख्वाब देखते हो। तुम्हारी जात से किसी बड़े फ़ितने के पैदा होने का खतरा है।
बद बख्त! अगर तू मेरा बेटा न होता, तो मैं तेरा सर उड़ा देता, अब्दुल्लाह मुनाफ़िक गरजा ।
तुम मुझे क़त्ल कर डालो, लेकिन इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ़ साजिशें न करो, अब्दुल्लाह ने कहा, तुम्हारी साजिशों से रसूले खुदा के दिल को तकलीफ़ पहुंची, तुम ने अंसार और मुहाजिरों में बे-लुत्फ़ी पैदा कर दी है। तुम को और तुम्हारी जमाअत को हरगिज़ मदीने में दाखिल न होने दूंगा।
मेरे गुमराह बेटे ! अब्दुल्लाह मुनाफ़िक़ ने कहा, तुझे मालूम है कि तमाम मदीना वाले मुझे अपना बादशाह बनाने पर तैयार थे। मेरे लिये ताज बनवाया जा चुका था। मुझे हुकूमत मिलने वाली थी। इन मुसलमानों की वजह से मेरी बादशाही अधर में लटक कर रह गयी। अगर मैं शाही हासिल करने की कोशिश न करूं, तो दुनिया मुझे पस्त हिम्मत इंसान कहेगी।
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बेटे में कहा-
मुसलमानों और खुदा के रसूल (ﷺ) को नुक्सान पहुंचा कर हुकूमत हासिल करना हिमाक़त नहीं तो और क्या है।
जगह और सलतनत हासिल करने के लिए कोई कोशिश करना हिमाक़त नहीं है, अब्दुल्लाह मुनाफ़िक़ ने कहा।
इस बीच बहुत से मुसलमान वहां जमा हो गये।
मुनाफ़िक़ों का दस्ता अब्दुल्लाह मुनाफ़िक़ के साथ हो गया।
किसी तरह हुजूर (ﷺ) को भी इस वाक़िए की इत्तिला हो गयी। आप फ़ौरन वापस तश्रीफ़ लाये।
आप ने सूरते हाल से बाखबर होने के बाद फ़रमाया, अब्दुल्लाह तुम अपने बाप और साथियों को मदीना में दाखिल होने से न रोको, ये सब मुसलमान हैं।
या रसूलल्लाह (ﷺ) ! हजरत अब्दुल्लाह ने अर्ज किया, ये मुनाफ़िक़ हैं, इस्लाम और मुसलमानों की हमदर्दी चाहने वाले नहीं हैं।
लेकिन अब्दुल्लाह ! हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, ये लोग कलिमा पढ़ते हैं, नमाज अदा करते हैं, मुसलमान कहलाते हैं। मुसलमानों की भलाई न चाहें, लेकिन अपने को मुसलमान कहते हैं। इस लिए इन्हें वे तमाम हुक़ूक़ हासिल हैं, जो दूसरे मुसलमानों को हैं, इन का रास्ता न रोको।
हुजूर (ﷺ) ! ये फ़रेबी और दगाबाज हैं, मुसलमानों में फूट डालना चाहते हैं। ऐसे मुनाफ़िक़ों को मदीना मुनव्वरा में रहने का कोई हक़ नहीं है, कुछ मुसलमानों ने अपनी राय दी।
मुसलमानो ! सुनो ! हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, जो आदमी मुसलमान है और अपने आप को मुसलमान कहता है, हम उसे अपनी जमाअत से अलग नहीं कर सकते। तुम रास्ते से अलग हट जाओ और अब्दुल्लाह और उसके साथियों को मदीना मुनव्वरा में दाखिल होने से न रोको।
अब किस की चूं व चरा की हिम्मत न थी, सब लोग अलग हो गये। हुजूर (ﷺ) चले और आप के पीछे अब्दुल्लाह और उस के साथी मदीना मुनव्वरा में दाखिल हुए।
हज़रत आइशा रजि० को बुखार हो गया था। वह महिमल में आराम फ़रमा रही थीं।
महिमल हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रजि० के मकान पर जा कर रुका। हज़रत आइशा को उतारा गया।
ख्याल था कि थकान उतरेगी तो बुखार भी उतरेगा, लेकिन एक हफ़्ता गुजरने के बाद भी बुखार न उतरा।
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इस से पहले भी हज़रत आइशा को बुखार आया था और हुजूर (ﷺ) तीमारदारी और देखभाल फ़रमाया करते थे और घंटों बैठ कर तसल्ली भरी बातें किया करते थे, लेकिन इस बार हुजूर (ﷺ) दो घडी के लिए भी पास न बैठे। बीमारपुर्सी के लिए तशरीफ़ लाते, घर वालों को सलाम कहते और मकान के आंगन में खड़े हो कर पूछते-
ऐ सिद्दीक़ के घर वालो ! अब तुम्हारी बीमारी कैसी है ?
लोग जो हालत होती बयान कर देते।
आप वापस तशरीफ़ ले जाते ।
हजरत आइशा सिद्दीक़ा रजि० को कुछ खबर न थी कि उन पर क्या बुहतान बांधा गया है, वह हैरान थीं कि हुजूर (ﷺ) की यह बे-इल्तिफाती क्यों हैं ?
एक तो बीमार, दूसरे बे-इल्तिफाती, उन की बीमारी बढ़ती गयी और गम में भी इजाफा होता गया।
कमजोर तो थीं ही, एक दिन रात को हाजत पूरी करने की गरज से मकान से निकल कर मैदान की तरफ़ चलीं, वापस लौटी, इत्तिफ़ाक़ से उम्मे मिस्तह (मिस्तह की माँ) का पांव चादर में उलझ गया और वह गिर पड़ीं। उठते-उठते उनके मुंह से बे-अख्तियार निकला, मिस्तह हलाक हो।
ऐ उम्मे मिस्तह! हजरत आइशा ने फ़रमाया, बड़ी बुरी बात है कि तुम उस आदमी को बुरा कहती हो, जो बद्र की लड़ाई में शरीक हुआ हो।
नादान आइशा ! उम्मे मिस्तह ने जवाब दिया, तुझे वाक़िआत का इल्म नहीं है, भोली और ना तजुर्बेकार खातून ! क्या तू नहीं देख रही है कि हजूर (ﷺ) तुझ से रंजीदा हैं ?
हाँ, देख तो रही हूं, लेकिन इस का मिस्तह से क्या ताल्लुक ?
ग़रीब और कम बोलने वाली आइशा ! उम्मे मिस्तह ने कहा, जब तू बनू मुस्तलक़ की लड़ाई से वापस आते हुए एक रात को पीछे रह गयी थी और सफ़वान के साथ आयी थी, तो इसी मिस्तह और उसके साथियों ने तुझ पर बोहतान बांधा था। हुजूर (ﷺ) और तमाम मुसलमान तुझ से बद-गुमान हैं।
यह सुनते ही हजरते आइशा के दिल पर बिजली-सी गिरी। वह थर-थर कांपने लगीं। बड़ी ही बेचैनी में आवाज़ निकली, मेरे खुदा ! यह रुसवाई, ऐ अल्लाह ! अगर मैं कुसूरवार हूं, तो मुझे दुनिया से उठा ले। इतना कहते ही बेहोश हो कर गिर पड़ीं।
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उम्मे मिस्तह उन की यह कैफ़ियत देख कर घबरा गयीं ओर बे-अख्तियार रोने लगीं। उन्हों ने कहा, ऐ खुदा ! ऐसी नेक और भोली खातून को अभी मौत की गोद में न जाने दीजियो !
वह उन के पास बैठ कर आंचल से हवा देने लगीं।
हज़रत आइशा देर तक बेहोश पड़ी रहीं। होश आया तो आंखें खोलीं। तबियत कुछ और ठिकाने हुई तो उठ कर बैठीं और रोने लगीं। उन्हों ने सिसकियां भरते हुए कहा, मेरे अलीम और बसीर खुदा! तू खूब जानता है कि मैं ने कोई कुसूर नहीं किया, बे-क़सूर बदनाम हो गयी और बदनाम की जा रही हूं। अब तू ही मुझे बेक़सूर साबित कर सकेगा और तू ही मेरी पाकदामनी का सबूत दे सकेगा।
हज़रत आइशा रो रही थीं और उन के साथ उम्मे मिस्तह भी।
उम्मे मिस्तह ने कहा, आइशा ! रोओ नहीं, मुझे यक़ीन है कि खुदा तुम्हारी बेगुनाही साबित कर के रहेगा।
हज़रत आइशा ने अपने दूपट्टे के आंचल से आंसू पोंछे और उम्मे मिस्तह का सहारा ले कर खड़ी हुईं। कमजोरी से पांव डगमगाने लगे तो उम्मे मिस्तह का सहारा ले लिया।
किसी तरह मकान पर पहुंचीं और मकान में जाते ही बिस्तर पर पड़ कर फिर बेहोश हो गयीं।
जब उन्हें होश आया तो सूरज चमक रहा था, सारे सेहन में धूप फैली हुई थी। पास में बहुत से लोग बैठे हुए थे।
हज़रत आइशा रज़ि. ने आंखें खोलीं, इशारे से पानी मांगा।
पानी दिया गया, आप ने पानी पिया। पानी पीने से कुछ तबियत संभली।
उसी वक़्त हुजूर (ﷺ) तश्रीफ़ ले आये। आज आप कमरे के अन्दर आ गये। आप ने दरवाज़े के क़रीब खड़े हो कर उम्मे मिस्तह से पूछा- उम्मे मिस्तह ! अब तुम्हारी मरीज कैसी है?
हज़रत आइशा रज़ि० ने हुजूर (ﷺ) की आवाज सुनी, बे क़रार हो कर हुजूर (ﷺ) की तरफ़ करवट ली, हुजूर (ﷺ) के चेहरे पर हसरत से नजर डाली और बे-अख्तियार आप की आंखों से आंसू जारी हो गये।
हुजूर (ﷺ) ने उन की तरफ़ से मुंह फेर लिया और जल्दी से कमरे से बाहर निकल आये, सेहन तै कर के मकान से बाहर चले।
रास्ते में हज़रत अली और हज़रत उसामा मिल गये। आप उन्हें साथ लेकर मस्जिद में पहुंचे और एक कोने में बैठ कर हज़रत उसामा से पूछने लगे।
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उसामा ! तुम्हारा उन बातों के बारे में क्या ख्याल है, जो हज़रत आइशा से मुताल्लिक़ मशहूर हैं ?
मैं इन बातों को बुहतान समझता हूं, उसामा ने जवाब दिया, हज़रत आइशा जैसी पाकदामन खातून से ऐसी उम्मीद की ही नहीं जा सकती।
हुजूर (ﷺ) ने हज़रत अली से पूछा –
अली ! तुम क्या कहते हो ?
हुजूर ! उसामा ने जो कुछ कहा, वह बिल्कुल सही है, हजरत अली का जबाब था। हज़रत आइशा हजरत अबू बक्र की बेटी हैं, रसूले खुदा की बीवी हैं, उन के बारे में किसी गुनाह की बात सोचना भी गुनाह है।
फिर बोले, लगता है आप इसी वजह से वहशत जदा नजर आते हैं ?
हाँ, मुझे बहुत ज्यादा फ़िक्र है। समझ में नहीं आता, क्या करू, क्या न करू ? हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया।
हुजूर (ﷺ) फ़िक्र न करें, हज़रत अली ने फ़रमाया, हज़रत आइशा के अलावा और बहुत सी औरतें हैं जो आप की हमनशीनी को फख्र समझती हैं।
मगर आइशा सिद्दीक़ा ? हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया।
वह बिलकुल बेगुनाह मालूम होती है, हज़रत अली ने फ़रमाया, और इत्मीनान के लिए उन की खादिमा हजरत बरीरा से मालूम कर लीजिए।
हुजूर (ﷺ) खामोश हो गये।
कई दिन बाद आप ने बरीरा को तलब किया।
जब वह आयीं तो हुजूर (ﷺ) ने पूछा, बरीरा ! आइशा के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है ?
बारीरा कहने लगी-
हुज़र (ﷺ) ! क़ियामत के दिन मुझे आप की शफाअत और खुदा का दीदार नसीब न हो, अगर मैं ज़रा भी ग़लत कहूं या झूठ बोलूं। हज़रत आइशा निहायत पाकदामन और ग़ैरतमंद हैं। उन पर बदमाशों ने बेबुनियाद इलजाम लगाया है।
हुजूर (ﷺ) ने बरीरा को विदा कर दिया।
अगरचे इन गवाहियों से आप को तसल्ली हो गयी थी, लेकिन आप ऐसी गवाही चाहते थे जो हजरत आइशा की पाकदामनी की भरपूर गवाही दे सके, जिसे रद्द ही न किया जा सके।
कई दिन के बाद हुजूर (ﷺ) के पास एक दिन ऐसा भी आया कि हजरत उस्मान, हजरत उमर और हज़रत अली तीनों बैठे थे। आप ने
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तीनों से पूछा –
तुम्हारा आइशा के बारे में क्या ख्याल है ?
तीनों ने एक जुबान हो कर कहा, हजरत आइशा रज़ि० की पाकदामनी के बारे में किसी काफ़िर ही को शक होगा।
हुजूर (ﷺ) अब भी खामोश रहे।
थोड़ी देर भी न गुजरी थीं कि हुजूर (ﷺ) पर एक कैफियत तारी हो गयी। आप का चेहरा मुबारक लाल हो गया, आंखें चमकने लगीं, जिस्म पसीने में डूब गया। सब समझ गये कि हुजूर (ﷺ) पर वह्य नाजिल हो रही है।
वह्य का सिलसिला खत्म हुआ, तो आप ने बताया –
अल्लाह ने आइशा की पाकदामनी की तस्दीक़ कर दी है।
तीनों बुजुर्ग एक साथ बोले –
खुदा का शुक्र है, हम ने इस बोहतान पर कभी यक़ीन न किया और हम खुदा के ग़जब से बच गये।
हजूर (ﷺ) ने उसी वक़्त तमाम मुसलमानो को जमा करने का हुक्म दे दिया।
जब तमाम मुसलमान मस्जिदे नबवी में जमा हो गये, तो हजूर (ﷺ) मिंबर पर तशरीफ़ लाये और एक निहायत ही असरदार तक़रीर की। हजरत आइशा रजि० के सिलसिले की वह्य पढ़ कर सुनायी।
वे भोले-भाले मुसलमान, जो मुनाफ़िक़ों की चाल के शिकार हो गये थे, बहुत शर्मिन्दा हुए। उन्हों ने उसी वक्त तौबा की।
हुजूर (ﷺ) हज़रत अबू बक्र के मकान की तरफ रवाना हुए। आप मकान में दाखिल हो कर सीधे हज़रत आइशा सिद्दीक़ा के मकान में पहुंचे।
हजरत आइशा पर गफ़लत तारी थी। वह तेज बुखार में पड़ी हुई थीं। उम्मे मिस्तह अब भी उन के पास बैठी थीं।
हुजूर (ﷺ) ने उम्मे मिस्तह से पूछा –
अब हजरत आइशा सिद्दीक़ा का क्या हाल है ?
उम्मे मिस्तह ने आंसुओं की कुछ बूदों को गिराते हुए कहा, कोई दम की मेहमान हैं।
हुजूर (ﷺ) यह सुन कर घबरा गये। आप ने पूछा –
क्या मरज का जोर है या कोई और भी शिकायत है ?
मरज तो ऐसा तेज नहीं मालूम होता, कोई रूहानी तकलीफ़ है, उम्मे मिस्तह ने जवाब दिया।
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क्या खाती-पीती हैं ? हुजूर (ﷺ) ने पूछा।
कई दिन से कुछ नहीं खाया है, सिर्फ़ पानी के कुछ क़तरों पर ज़िदगी गुजार रही हैं। उम्मे मिस्तह ने बताया।
बेहोश कब से हैं ? हुजूर (ﷺ) ने पूछा।
रात से, उम्मे मिस्तह ने बताया।
हुजूर (ﷺ) बढ़े, ज्योंही हुजूर (ﷺ) ने चादर पकड़ कर खींचना चाहा, फ़ौरन ही हजरत आइशा सिद्दीका को होश आ गया। हुजूर (ﷺ) को देखा और कमजोर आवाज में बोलीं-
मेरे हुजूर (ﷺ) ! क्या मेरा कुसूर माफ़ कर दिया ?
हुजूर (ﷺ) वहीं पर बैठ गये। मुस्करा कर कहा —
तुम को मुबारक हो, तुम्हारी पाकदामनी की गवाही खुदा ने दे दी है। हजरत आइशा का चेहरा खिल उठा। उन्हों ने कहा, ख़ुदा का हजार- हजार शुक्र है कि मेरी रूहानी तक्लीफ़ दूर हो गई।
हुजूर (ﷺ) ने कहा, आइशा ! मैं ने तुम्हारे दिल को तक्लीक़ पहुंचाई है, मैं शर्मिन्दा हूं। यह मेरा कुसूर है। क्या तुम मेरे इस अनजाने कुसूर को माफ़ करोगी ?
हजरत आइशा बोलीं ! मेरे सरताज ! आप का कैसा कुसूर ? आप को तो वाक़ियात ने यक़ीन करने पर मजबूर कर दिया।
खैर जो भी हो अब खुश जाओ। अल्लाह ने तुम्हारी पाकदामनी की गवाही दी है।
हजरत आइशा रजि० खुश तो हुईं और सुकून मिलने की वजह से अब वह तेजी से सेहतमंद होने लगीं
To be continued …
इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई में तावूंन फरमाए।