सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 42

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 42

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 42

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बनी मुस्तलिक़ की खूंरेज़ लड़ाई

जब हजूर (ﷺ) शाम की सरहद से वापस लौटे, तो मुशरिक अरबों और मुसलमानों से दुश्मनी रखने वाले यहूदियों को बड़ा अफ़सोस हुआ।

वे समझ रहे थे कि तमाम मल्क शाम में ईसाई टिड्डी दल की तरह बिखरे पड़े हैं। ये ईसाई मुसलमानों को अपना दुश्मन समझते हैं, इस लिए उन से नफ़रत करते हैं, यक़ीनन वे मुसलमानों को फ़ना के घाट उतार देंगे और 

एक मुसलमान को भी जिंदा न छोड़ेंगे। अगर कोई वापस भी आएगा, तो मुसलमानों की तबाही की दास्तान सुनाने आएगा। पर जब उन्हों ने सुना कि दोमतुल जुन्दल के ईसाई बे-मुक़ाबला फ़रार हो गये, तो उन्हें उन की बुजदिली पर बड़ा गुस्सा आया।

अब उन्हों ने फिर मुसलमानों के खिलाफ साजिश शुरू कर दी। दूसरी तरफ़ यहूदियों और अरबों ने अरब के जरें – जर्रे को इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ भड़का रखा था।

फिर यहूदियों ने ईसाइयों को भी उभारा।

यहूदियों का मशहूर क़बीला बनू नजीर जब से मुल्क निकाला पा करं शाम और खैबर की तरफ़ चला गया था, उस ने मुसलमानों के खिलाफ़ बराबर साजिशें करनी शुरू कर दी थीं।

तमाम यहूदियों और सारे अरब क़बीलों को मुसलमानों की जड़ काटने पर तैयार करने के लिए एक जबरदस्त वफ्द, जिस में हुय्य बिन अख्तब, सलाम बिन अबिल हक़ीक़, सलाम बिन कनाना वग़ैरह जैसे यहूदी सरदार शामिल थे, रवान हुआ, ताकि कुरैश को मदीने पर हमला करने पर उभारा जा सके।

जब मुसलमान दोमतुल जुन्दल से वापस आए, तो उन्हों ने नयी-नयी अफ़वाहें सुनीं।

कभी मक्का के मुशरिको के हमलावर होने की खबर सुनी। कभी ईसाइयों के धावे की अफ़वाह सुनी। कभी यहूदियों के लड़ने की खबरें आयीं।

कभी यमन और नज्द के क़बीलों के हमले की खबर सुनी।

मुसलमान ऐसे मुस्तकिल मिजाज थे कि इन खबरों के सुनने के बाद भी वे हरास न होते थे, बल्कि निहायत इत्मीनान से तब्लीना फ़रमा रहे थे। मदीना और उस के आस-पड़ोस में जिस तेजी से इस्लाम फैल रहा था, उसे देख कर मुशरिको और काफ़िरों के सीनों पर सांप लोट रहे थे।

चूंकि अम्न व इत्मीनान के जमाने में मुसलमानों को तब्लीग करने का ज्यादा मौका मिलता था, इसलिए कुफ़्फ़ार कोशिश करते थे कि मुसलमान अम्न व इत्मीनान से न रहें, हमेशा और हर वक़्त लड़ाइ के माहौल में फंसे रहें।

चुनांचे उन्हों ने बनू मुस्तलिक़ के यहूदियों को उभारा।

बनू मुस्तलिक़ का बादशाह हारिस बिन जुरार एक तजुर्बेकार, चालाक और खूंखार आदमी था, उस ने अपने क़बीले को मुनज्जम कर के अरब क़बीलों को मिल-जुल कर हमला करने की दावत दी।

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बहुत से क़बीले उन के साथ हो गये और थोड़े ही दिनों में उस ने भारी फ़ौज तैयार कर ली।

हुजूर (ﷺ) को इस के इरादे की खबर हुई, तो आप ने हजरत बुर्रदा बिन खुजैब को हालात की पड़ताल के लिए रवाना फ़रमाया।

उन्हों ने वापस आ कर बयान किया कि हारिस बिन जुरार ने जबरदस्त फ़ौज जमा कर ली है। हजारों यहूदी और मुश्रिक उस के झंडे के नीच जमा हो गये हैं और वह बहुत जल्द मदीना मुनव्वरा पर हमलावर होने वाला है।

हुजूर (ﷺ) ने भी मुसलमानों को तैयारी का हुक्म दे दिया।

जब मुसलमान तैयार हो गये, तो आप ने जैद को मदीने का जिम्मे दार बनाया और खुद इस्लामी मुजाहिदों को लेकर हारिस का सर कुचलने के लिए रवाना हो गये।

इस इस्लामी फ़ौज में तीस घोड़े थे, जिसमे दस मुजाहाजिरों के और बीस अंसार के थे।

और इस बार हुजूर (ﷺ) ने मुहाजिर और अंसार के अलग-अलग झंडे बना दिये थे।

अंसार का झंडा साद बिन उबादा के हाथ में था और मुहाजिरों का झंडा हजरत अबू बक्र सिद्दीक़ (र.अ) लिए हुए थे।

हजरत उमर रजि० को आगे की असल टुकड़ी का जिम्मेदार बनाया गया था।

इस मुहिम पर हजरत आइशा (र.अ) को हुजूर (ﷺ) साथ ले कर गये थे।

इस बार ग़नीमत के माल के लालच में अब्दुल्लाह बिन उबई मुनाफ़िक़ भी अपने मुनाफ़िक साथियों के साथ शरीक हो गया था।

मुसलमानों की फ़ौज जब और जिस तरफ़ से भी गुजरती थी, गैर-मुस्लिमों पर रौब व दबदबा और डर छा जाता था। चुनांचे हर फ़ौज के आने की खबर सुन कर ही घुमक्कड़ अरब अपने खेमे डेरे लाद कर चले गये थे। तमाम नखलिस्तान खाली पड़े थे।

क़बीला बनू मुस्तलिक मदीने से नौ मंजिल के फ़ासले पर आबाद था। इस्लामी फ़ौज मंजिल-मंजिल कर के आगे बढ़ रही थी।

एक दिन अस्र के वक़्त हजरत उमर ने, जो सामने की टुकड़े के जिम्मेदार थे, एक अरब को देखा कि वह कभी टीलों के पीछे छिप जाता है, कभी किसी टीले की आड़ ले कर झांकने लगता है। हज़रत उमर (र.अ) रेत के एक बड़े टीले की आड़ ले कर उस तरफ़ बढ़े, यहां तक कि उस टीले के पास पहुंच गए, जिस के पीछे अरब छिपा हुआ था।

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उन्हों ने अचानक बढ़ कर उस की गरदन दबोच ली।

इस अचानक आफ़त से वह घबरा गया।

तू कौन है और टीले के पीछे छिप कर क्या देख रहा है ? हजरत उमर ने उस से पूछा।

मैं एक मुसाफ़िर हूं, फ़ौज से डर कर इस जगह आ छिपा था, उसने बताया।

डरने की वजह ?

शायद मुसलमान मुझे नुक्सान पहुंचा दें।

क्या मुसलमानों ने कभी बेवजह किसी को नुक्सान पहुंचाया है ?

नहीं।

फिर तुम क्यों डरे ?

यह मेरी ग़लती थी ।

हज़रत उमर (र.अ) ने गौर से अरब को देख कर कहा –

ग़लती नहीं, चालाकी थी, तुम्हारा ताल्लुक़ क़बीला बनू मुस्तालिक से तो नहीं है ?

अरब ने हजरत उमर की पैनी निगाहों को देखा, मरऊब हो गया। उस ने कहा –
हां, मैं उसी क़बीले से हूं।

ओ, हारिस के जासूस ! हजरत उमर ने घूरते हुए कहा।

अरब बेअख्तियार बोल पड़ा –

जी हां, लेकिन मैं अपनी खुशी से जासूसी करने नहीं आया, बल्कि मुझे जबरदस्ती भेजा गयाI

हजरत उमर ने उस की गरदन छोड़ कर कहा-

अच्छा, तुम रसूलुल्लाह (ﷺ) के पास चलो।

अरब के पास बात मान लेने के अलावा और कोई रास्ता भी न था। वह साथ हो लिया।

हजरत उमर (र.अ) उसे ले कर हुजूर (ﷺ) के पास पहुंचे और उन्हें पूरी बात बता दी और कहा –

हजुर (ﷺ) ! यह जासूस है और अरब में जासूस की सजा क़त्ल है, इसलिए इस के क़त्ल का हुक्म दीजिए।

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बेशक अरब का क़ानून जासूसी के लिए क़त्ल की सजा तज्वीज करता है, लेकिन अगर यह मुसलमान हो जाए, हुजूर सल्ल० ने फ़रमाया, हां, अगर यह इस्लाम कुबूल करे तो रिहाई पा सकता है ?

कहो, हारिस के जासूस ! क्या तुम इस्लाम कुबूल करने पर तैयार हो ? हजरत उमर ने जासूस को खिताब कर के कहा। 

नहीं, मैं कभी मुसलमान नहीं हो सकता, जासूस ने तन कर जवाब दिया।

हज़रत उमर (र.अ) ने फ़ौरन एक मुसलमान को इशारा किया, उसने तलवार खींची और जासूस का सर उड़ा दिया।

जासूस को क़त्ल कर के हजरत उमर (र.अ) अपनी टुकड़ी में आ गए।

लगभग एक हफ़्ता सफ़र करने के बाद फ़ौज मरीसी के किनारे जा कर ठहरी।

उसी दिन शाम के वक़्त हारिस भी अपनी भारी फ़ौज को ले कर दूसरे किनारे पर उतरा।

रात के वक्त दोनों फ़ौजें दोनों किनारों पर खामोशी से ठहरी रहीं। चूंकि दोनों को अंदेशा था कि कोई फ़रीक़ नदी को पार कर के शबखून न मार दे, इसलिए दोनों ने जबरदस्त पहरे का इन्तिज़ाम किया था।

पहरे वाले सारी रात जागते रहे और जागते रहो की आवाज लगाते रहे।

सुबह हुई । मुसलमान फ़ौज ने नमाज पढ़ी, फिर हजरत मुहम्मद (ﷺ) ने हजरत उमर (र.अ) से फ़रमाया –

उमर ! तुम नदी पार कर के हारिस के पास जाओ और उस की फ़ौज को इस्लाम की दावत दो, लेकिन नरम लफ़्ज़ों में याद रखो नसीहत अगर सख्त लफ्जों में की जाए, तो कभी असर नहीं करतीं।

हजरत उमर (र.अ) की बहादुरी

हजरत उमर ने हुक्म के आगे सर झुका दिया।

अगरचे वह जानते थे कि नदी के उस पार दुश्मनों की भीड़ है, उन दुश्मनों की, जो उन के भी दुश्मन और उन के मजहब के भी दुश्मन हैं।

दुश्मनों की भीड़ में तंहा जाना बड़े दिल-गुर्दे का काम है, पर हजरत उमर की वह हस्ती थी, जो सिवाए खुदा के किसी का डर दिल में न आने देती थी। वह बिना किसी झिझक के नदी के किनारे पहुंचे और उसे पार कर दूसरे किनारे पहुंच गये।

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आप को देख कर हारिस, कुछ दूसरे बड़े सरदारों के साथ आप के क़रीब आया, पूछा उमर ! किस लिए आए हो ?

मैं एक बात कहने आया हूं, हजरत उमर ने कहा, 

सुनो, गौर से सुनो, ठंडे दिल से सुनो, तुम खूब जानते हो कि मैं, मेरा खानदान, मेरा क़बीला, मेरी कौम लात और उज्जा और हुबल को पूजते थे।

खुदा ने जो कायनात का पैदा करने वाला, मालिक और हाकिम है, उसने अपनी मख्लूख की हिदायत के लिए अपना एक रसूल भेजा।

रसूल ने खुदा की तौहीद का एलान किया। नेक रूहें खिच खिच कर इस्लाम की तरफ झुकने लगीं।

मैं भी मुसलमान हो गया ।

हारिस ! आज मैं तुम्हें और तुम्हारी क़ौम को, तुम्हारी फ़ौज को इस्लाम की दावत देता हूं। आओ, तौहीद के साए में आ जाओ, इस्लाम की पनाह लो और तमाम मुसलमानो के भाई बन जाओ।

उमर ! तुम जानते हो कि हम यहूदी हैं, हारिस ने कहा, हजरत मूसा अलैहिस्सलाम के उम्मती हैं, हमारी किताबों में एक नबी के भेजे जाने की पेशीनगोई लिखी हुई है, मगर वह नबी यह नहीं है, जिनकी तुम पैरवी करते हो।

वह हमारी क़ौम में होंगे। मैं तुम्हारे नबी को शाइर व काहिन तो कह सकता हूं, पर नबी नहीं मान सकता और जब मैं उन्हें नबी नहीं मानता, तो इस्लाम कैसे क़ुबूल कर सकता हूं। अब तुम, तुम्हारी क़ौम, तुम्हारा नबी मेरे मुक़ाबले में आ गये हो, समझ लो कि तुम में से एक को भी जिंदा नहीं जाने दूंगा।

हारिस ! हम खूरेंजी को पसन्द नहीं करते, हजरत उमर (र.अ) ने कहा, चाहते हैं कि तुम भी अम्न व अमान से रहो और हमें भी चैन से रहने दो। बेकार लड़ाई से क्या फ़ायदा है ? हम खुदापरस्ती की तालीम देते हैं, उस तालीम को क़बूल कर लो।

नामुम्किन है कि हम तुम्हारी तालीम कुबूल कर ले, हारिस ने झुंझला कर कहा, हम तुम से लड़ेंगे, और उस वक्त तक लड़ेंगे, जब तक एक मुसलमान भी जिन्दा बाक़ी रहेगा।

मालूम होता है अब तुम्हारा खात्मा करीब आ गया है, हजरत उमर ने कहा, अच्छा तुम लड़ो, और उस वक़्त तक लड़ो, जब तक कि एक मुसलमान भी जिन्दा है कि खुदा हक़ की हिमायत करेगा।

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हज़रत उमर (र.अ) वापस लौट आए और हुजूर (ﷺ) की खिदमत में पहुंच कर पूरी बात बता दी।

हुजूर (ﷺ) ने फ़ौज को नदी पार करने का हुक्म दे दिया। इस्लामी फ़ौज नदी में कूद पड़ी।

एक छोटासा दस्ता तीरंदाजी करने वाला नदी के किनारे खड़ा कर दिया गया, ताकि अगर दुश्मनों की फ़ौज मुसलमानों को रोकने की कोशिश करे, तो उन पर तीरों की बारिश कर के उन्हें अपनी तरफ़ मुतवज्जह कर लें। 

हारिस ने मुसलमानों को नदी में कूदते हुए देखा।

उस ने अपनी फ़ौज को किनारे से दूर हटा कर जमाया।

मुसलमान भी दूसरे किनारे पर पहुंच कर अपने को जमाने लगे। तीरंदाजों का दस्ता भी आ कर सफ़ में शामिल हो गया।

सब से आगे हज़रत उमर के दस्ते ने सफ़ बनायी, उन के पीछे सीधे हाथ पर हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (र.अ) और बायें हाथ पर हजरत साद बिन उबादा अपने दस्तों में खड़े हो गये।

बीच में हुजूर (ﷺ) थे। आप के साथ हजरत अली, हज़रत बिलाल और कुछ दूसरे सहाबी थे।

हुजूर (ﷺ) ने हजरत उमर से  कहला भेजा कि जब तक दुश्मनों की तरफ़ से लड़ाई की शुरूआत न हो उस वक़्त तक अपनी तरफ़ से शुरूआत न करें। 

दोनों फ़ोजें एक दूसरे के सामने हथियारों से लैस खड़ी थीं। हारिस फ़ौज के बीच में था।

हारिस की बेटी जुवैरिया

उस के क़रीब एक खूबसूरत हसीना चेहरे पर जालीदार नक़ाब डाले खड़ी थी।

यह उस की परीजाद बेटी जुवैरिया थी।

जुवेरिया जितनी खूबसूरत थी उतनी ही शेरदिल और बहादुर भी थी। वह अपने बाप के साथ मुसलमानों से लड़ने आयी थी।

हारिस ने अपनी फ़ौज को इशारा किया। उस की टिड्डी दल फ़ौज आगे बढ़ी।

मुसलमान भी धीरे-धीरे आगे बढ़े।

कुछ ही देर में दोनों फ़ौजें आपस में भिड़ गयीं।

हवा में नेजे लहराए और एक दूसरे पर हमले शुरू हो गये।

नेजों की अनियां धूप में चमकी, इंसानों के गोश्त पोस्त में घुसीं।

हर आदमी जोश व ग़जब से भर गया। अपनी ताकत से ज्यादा टकराने लगा।

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होते-होते यह जोश इतना बढ़ा कि नेजे फेंक कर तलवारें बिजली की तरह कौंदती हुई बढ़ीं, उठीं और इंसानों के सरों पर बुलन्द हुई।

फ़ौरन काली ढालें फ़िज़ा में ऊंची हुई और तलवारें ढालों के ऊपर पड़ीं।

लड़ाई शुरू हो गयी। बड़ी तेज और खूंरेज लड़ाई थी यह।

हर फ़ौजी पूरे जोश से लड़ रहा था। सर कट रहे थे, धड़ गिर रहे थे और खून बह रहा था।

हारिस की फ़ौज ने हजरत उमर के दस्ते पर हमला कर दिया।

जिस जोश के साथ हमला किया गया था, लगता था मुसलमानों का दस्ता पसपा हो जाएगा। मगर मुसलमानों के इस दस्ते ने न सिर्फ़ यह कि जोरदार मुकाबला किया, बल्कि ऐसे जोश से लड़ा कि दुश्मन हैरान रह गये।

हर मुजाहिद लोहे का पुतला बन गया, जो न मरना जानता था, न पीछे हटना, बल्कि आगे बढ़ना और बढ़ कर हमला करना जानता था। जो आदमी भी उस मुजाहिद के सामने आ गया बगैर क़त्ल किये हुए जाने न दिया। 

मुसलमान पूरे जोश के साथ लड़ रहे थे, खास तौर से हजरत उमर (र.अ) इस फुर्ती और तेजी से पैंतरे बदल-बदल कर लड़ रहे थे कि हैरत होती थी।

वह जिस पर झपट कर हमला करते, जिस को उछल कर तलवार मारते, उसे क़त्ल किये बिना न छोड़ते, उन्हों ने थोड़ी ही देर में बारह काफ़िरों को मौत की गोद में पहुंचा कर हमेशा की नींद सुला दिया। 

कुफ़्फ़ार पर उन का रौब व दबदबा छा गया। वे उन से बचने और उन के सामने आने से कतराने लगे।

हारिस और उस की बेटी जुवैरिया घोड़ों पर सवार इधर-उधर दौड़-दौड़ कर अपने साथियों को उभार-उभार कर जोश दिला रहे थे।

सूरज बहुत जोरों से चमक रहा था।

लड़ने वालों के जिस्म पसीने में डूबे हुए थे। माथे से पसीने की बूंदें टपक रही थीं। लेकिन तलवार और खून से खेलने वाले गर्मी और तेज धूप की परवाह न करते थे। वे बड़े जोश और पूरी ताक़त से लड़ रहे थे।

हारिस की पूरी फ़ौज मुसलमानों पर हमलावर थी और मुसलमानों का अगला हिस्सा उन से लड़ रहा था। अभी तक सारी इस्लामी फ़ौज ने शिरकत न की थी।

अचानक हजूर (ﷺ) ने अल्लाहु अकबर का जोरदार नारा लगाया।

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पूरी फ़ौज ने उसी जोरदार आवाज में उसे दोहरा दिया। पूरी फ़िज़ा में नारा गूंजा, लगा जैसे भूचाल आ गया हो। 

हज़रत उमर (र.अ) ने जल्दी से पीछे पलट कर देखा, तो उन्हें इस्लामी फ़ौज बढ़ती हुई नजर आयी।

हजरत उमर (र.अ) ने बुलन्द आवाज से कहा, मुसलमानों ! सारी इस्लामी फ़ौज हमला करने के लिए बढ़ रही हैं।

यह बड़ी गैरत की बात है कि हम दुश्मन को पसपा नहीं कर सके।

इस से हमारी बुज़दिली साबित होती है।

कसम है उस खुदा की, मैं इसे बरदाश्त नहीं कर सकता। बढ़ो और मुसलमानों के हमलावर होने से पहले इन काफ़िरों को क़त्ल कर डालो या पसपा कर के भगा दो, बढ़ो और खूब हिम्मत से बढ़ो।

हजरत उमर रजि० की इस तकरीर ने उन के दस्ते के लोगों में जोश की रूह फूंक दी।

उन्हों ने जोश से भर कर हमला किया और इस ग़जब से हमला किया कि कुफ्फ़ार के रोकने के बावजूद उन्हें मारते-काटते हारिस और उस की बेटी जुवेरिया की तरफ़ बढ़ने लगे।

बड़ी खूंरेज लड़ाई शुरू हो गयी। तलवारें निहायत फुर्ती से बुलंद हो-हो कर इंसानों के खून में तैरने लगीं। हाथ-पैर, सर और घड़ कट-कट कर गिरने लगे और खून की नदी बहने लगी।

हज़रत उमर ग़ज़ब में भरे हुए, काफ़िरों को मारते-काटते कुफ़्फ़ार के अलमबरदार की तरफ़ बढ़े। 

सफ़वान हारिस का अलमबरदार था, बहुत ही बहादुर और तजुर्बेकार उसने हलफ़ उठाया था कि वह जिन्दगी की आखिरी सांस तक अलम (झंडे) की हिफ़ाजत करेगा।

हर क़ौम को अपना अलम प्यारा होता है। लड़ाई के मैदान में जिंदगी से ज्यादा अलम की हिफ़ाजत की जाती है। 

कुफ़्फ़ार भी अलमबरदार को घेरे अलम की हिफ़ाजत कर रहे थे।

जो मुसलमान उधर बढ़ता था, या तो उसे शहीद कर देते थे कि वह पीछे हटने पर मजबूर हो जाता था।

कई मुसलमान अलमबरदार की तरफ़ बढ़ चुके थे, लेकिन जख्मी हो कर वापस लौटने पर मजबूर हुए थे।

हजरत उमर बड़ी बहादुरी से आगे बढ़े थे। उन्हें हर-हर क़दम पर कुफ़्फ़ार ने रोका, लेकिन उन्हों ने हर उस आदमी को मार डाला जो रास्ते में आया।

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वह मारते-काटते, सफ़वान अलमबरदार के क़रीब जा पहुंचे।

कुफ़्फ़ार ने देखा, वे सब तड़प-तड़प कर उन की तरफ़ लपके और चारों तरफ़ से हमलावर हुए। बहुत सी तलवारें उन के सर पर उठीं। कैसा ही बहादुर, कैसा ही निडर और कैसा ही जांबाज आदमी क्यों न होता, लेकिन ऐसे खौफनाक मंजर को देख कर झिझक जाता, मगर न झिझके तो हज़रत उमर (र.अ) ना झिझके।

उमर ने बहुत फुर्ती से तलवारें चलायीं और काटते-पीटते सफ़वान की तरफ़ बढे।

सफ़वान ने भी तलवार निकाली। हज़रत उमर ने उस पर हमला किया उसी वक्त उसने भी हमला किया। पर उस की तलवार हजरत उमर की ढाल पर पड़ी और हजरत उमर तलवार उस के सर पर पड़ी।

उस ने एक दिल हिला देने वाली चीख मारी और नीचे लुढ़क गया। उस के गिरते ही झंडा जमीन पर आ रहा।

कुफ़्फ़ार अपना झंडा नीचे गिरता देख कर डर और सहम गये। हारिस और जुवैरिया के दिल डूब गये। उसी वक्त इन ताजादम मुसलमानों ने हमला कर दिया जो हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (र.अ) और हजरत साद के साथ आगे बढ़ रहे थे।

कुफ़्फ़ार की फ़ौज में भगदड़ मच गयी।

हारिस और जुवेरियो दोनों भागे।

इत्तिफ़ाक़ से जुवैरिया के घोड़े ने ठोकर खायी और वह मुंह के बल जमीन पर आ रही। कुछ मुसलमान उस के क़रीब पहुंच गये। उन्हों ने उसे गिरफ़्तार कर लिया।

तारीख में इस लड़ाई का नाम बनी मुस्तलिक़ की लड़ाई है। यह लड़ाई सन ०५ हि० में हुई थी।

To be continued …

इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
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