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Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 18
तायफ़ वालों की गुस्ताखियां
मक्का के सरदार कुफ्र व शिर्क में हद से ज्यादा बढ़े हुए थे। वे उन गरीबों को जिन के दिल इस्लाम की तरफ़ झुक गये थे, मुसलमान होने से रोकते थे और जो मुसलमान हो गये थे, उन्हें लालच देकर, धमकी दे कर अपने बाप-दादा के मजहब में वापस लाने की कोशिश करते थे।
मगर जो लोग मुसलमान हो गये थे, वे किसी डर या लालच से भी डगमगाने वाले न थे। मुसलमान होने के बाद तो वे और पक्के हो जाते थे।
इन हालात में हुजूर (ﷺ) ने एक बार सोचा कि तायफ़ जाकर इस्लाम की तब्लीग की जाए।
तायफ़ मक्का से सिर्फ तीन मंजिल यानी ६० कोस की दूरी पर आबाद एक शहर था। मक्के के मुकाबले में वहां की आब व हवा अच्छी थी।
मक्के के ज्यादातर धनी-मानी लोग गर्मियों में तायफ़ चले जाते थे।
हजूर (ﷺ) ने हजरत जैद को साथ लिया और नंगे पांव तायफ़ रवाना हुए।
हुजूर (ﷺ) को यह उम्मीद न थी कि तायफ़ वाले ईमान लाएंगे, इस लिए कि तायफ वाले मक्के वालों से कम कुफ्र व शिर्क में मुब्तेला न थे। वे लात के पुजारी थे। बीच शहर में एक बड़ा मंदिर था। उस मंदिर में लात का बुत रखा हुवा था, पर हुजूर (ﷺ) को चूंकि खुदा का यह हुक्म हो चुका था कि खुदा का पैगाम खुदा के बन्दों तक पहुंचाओ, चाहे वह कहीं का हो चुनांचे आप तायफ़ वालों को अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाने के लिए रवाना हुए।
रास्ता बहुत कठिन था, गर्मी का मौसम था। सूरज निकलते ही हर चीज तपने लगती। हवा के गर्म गर्म झोंके सुबह से शुरू होते, तो दिन छिपे तक चलते रहते। ऐसी हालत में दिन में सफर करना बहुत मुश्किल होता था, पर हुजूर (ﷺ) हर कठिनाई पर ग़ालिब आना चाहते थे।
चुनांचे आप पैदल दिन में सफर करते थे, रात को अगर कोई नखलिस्तान
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मिल जाता तो खुले मैदान में कियाम फरमाते।
एक दिन आप (ﷺ) दोपहर को चिलचिलाती हुई धूप में रेगिस्तान में सफर कर रहे थे, हवा बन्द थी, गर्मी सख्त पड़ रही थी, हुजूर (ﷺ) के माथे पर पसीने के कतरे चमक रहे थे। पाक जिस्म पसीने से शराबोर था। रेत के सफ़ेद जरों की
चमक आंखों को तकलीफ़ दे रही थी। साथ में जैद (र.अ) भी पसीने में थे और गर्मी से परेशान थे।
उन्हों ने हुजूर (ﷺ) से अर्ज किया, ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! मैं बहुत ज्यादा थक गया हूं। गर्मी ने अलग परेशान कर रखा है और इजाजत हो तो कहीं बैठकर थोड़ी देर आराम कर लें।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मुझे मालूम है कि तुम थक गये हो और प्यास ने तुम्हें बे-हाल कर दिया है, लेकिन यहां कोई ऐसी जगह नहीं नजर आती, जहां बैठ कर हम ज़रा सस्ता लें। थोड़ी देर और चलें, शायद आगे कोई ऐसी जगह मिल जाए, जहा ठहर कर दम ले सकें।
चलिए, जैद ने कहा और दोनों रवाना हुए।
कुछ दूर चल कर एक खुले मैदान में पहुंचे, जहां हर तरफ़ रेत ही रेत बिखरी हुई थी। अलबत्ता सामने कुछ फ़ासले पर खजूरों के पेड़ के साए में कुछ खेमे नजर आए।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, जैद ! देखो, वह सामने नखिलस्तान है। जल्द वहां पहुंच कर कुछ आराम करेंगे।
दोनों तेज-तेज कदमों से आगे बढ़े। जब नखलिस्तान क़रीब रह गया, तो भेड़ों के रेवड़ चरते नजर आए। कुछ लड़के और औरतें इन रेवड़ों की निगरानी कर रही थीं।
हुजूर (ﷺ) उन रेवड़ों के पास से निकलते चले गये और नखलिस्तान में दाखिल हुए। नखलिस्तान क्या था, कुछ खजूरों के पेड़ खड़े थे। एक ओर एक कुंवा था। पेड़ों के नीचे कुछ खेमे लगे हुए थे। खेमों से कुछ दूरी पर ऊंट बैठे जुगाली कर रहे थे। कुछ मर्द ऊंटों के पास बैठे ऊन साफ़ कर रहे थे।
औरतें खेमों के सामने मेठी काम-काज कर रही थीं। इन दोनों को देखते ही तमाम मर्द खड़े हो गए और सब आप के पास आ गये।
एक आदमी बोला, ऐ दोनों मुसाफ़िर ! अर्से से बन बक्र कबीले में कोई मुसाफ़िर न आया था। हम सब आप दोनों का भरपूर स्वागत करते है। आप हमारे मेहमान बन जाइए।
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चूँकि हुजूर (ﷺ) और जैद (र.अ) पसीने से भीग रहे थे, इस लिए वह अरब हैं इन दोनों को लेकर खेमे में पहुंचा, खेमे के अन्दर कम्बल का फ़र्श बिछाया था।
दोनों फर्श पर बैठ गये। काठ के प्याले में दूध पाया। दोनों ने दूध पी कर अपनी-अपनी प्यास बुझायी। अरबों की खुबी शुरू ही से है कि वे मेहमानों की खातिर खूब करते हैं। चुनांचे इन दोनों की खूब खातिर हुई।
जब हुजूर (ﷺ) ने कुछ देर आराम कर लिया, तो आप ने कबीले के लोगों को जमा कर के फ़रमाया “ऐ बनू बक्र कबीले के गैरतमंद अरबो ! तुम ने मुझे पहचाना कि मैं कौन हूँ?”
कुछ लोगों ने कहा, हम ने आप को कभी नहीं देखा, इसलिए हम आप को नहीं जानते।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मैं मुहम्मद हूं, खुदा का रसूल। खुदा के बंदों को हिदायत का रास्ता बताने पर मुकर्रर हुआ हूं।
एक आदमी बोला, हम समझ गये कि आप हमारे माबूदों की बुराइयां करते हैं और हमारे मजहब की तौहीन करते हैं। मालूम होता है कि मक्के वालों ने आप को निकाल दिया है, इस लिए आप का जब तक जी चाहे, हमारे यहां मेहमान की हैसियत से रहें पर हमारे मजहब के खिलाफ़ एक लफ़्ज़ भी न कहें। हम आप की खिदमत करेंगे और जब तक बनू बक्र एक आदमी जिंदा है, आप को आप के दुश्मनों से बचायेगा, पर यह गवारा न करेंगे कि आप हमारे माबूदों को बुरा-भला कहें।
हज़र (ﷺ) ने फ़रमाया, मैं जो कुछ कहता हूं, वह सुन लो।
एक बढ़े आदमी न कहा, नहीं, हम नहीं सुनेंगे।
हुजूर (ﷺ) ने बहुत चाहा कि वे लोग आप की बातें गौर और तवज्जोह से सुनें, पर कोई सुनने पर तैयार न हुआ। मजबूर होकर हुजूर (ﷺ) उठे, जैद (र.अ) को साथ लिया और तायफ़ की तरफ़ चल दिये। कबीला बनु बक्र के लोगों ने बहुत कहा कि आप हमारे यहां मेहमान की हैसियत से कुछ दिन कियाम करें, लेकिन आप (ﷺ) ने कह दिया कि जब तुम लोग मेरी बात सुनने से इंकार करते हो, तो मैं कैसे तुम्हारे यहाँ कियाम कर सकंगा।
आप (ﷺ) ने दो दिन रास्ते में कियाम किया और तीसरे दिन दोपहर से पहले ही तायफ़ पहुंच गये।
तायफ बड़ा शहर था। बड़े मन्दिर का कलश मीलों से नजर आता था।
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इस शहर में कबीला बनी सकीफ़ की हकूमत थी। बन सकीफ़ के सदार तीन भाई अब्द या लैल, मसऊद और हबीब थे, तीनों बड़े घमंडी और सरकश थे। अपने से ज्यादा किसी को शरीफ़ समझते ही नहीं थे।
जिस दिन हुजूर (ﷺ) वहां पहुंचे, उस दिन तमाम तायफ़ वाले लात के बड़े मन्दिर में बड़े बुत की पूजा के लिए जमा हो रहे थे।
हुजूर (ﷺ) जैद के साथ मंदिर में आ गये।
आपने देखा कि मन्दिर के बीच में एक बड़ा बुत, जो तेरह फुट से भी ज्यादा ऊंचा था, एक बड़े और ऊंचे चबूतरे पर गड़ा हुआथा, बहुत बड़ा और भयानक है। तमाम लोग उस के चारों तरफ सज्दे में पड़े थे। पुजारी जोर-जोर से घंटे बजा रहे थे।
हजूर (ﷺ) बुतपरस्ती के इस मंजर को देख कर बहुत कुड़े। आप ने धीरे से कहा काश ! ये लोग अपने हक़ीक़ी माबूद को पहचानें, उस के सामने झुंके और उस की इबादत करें।
कुछ देर के बाद पूजा खत्म हो गयी। लोग उठ-उठ कर मन्दिर से निकल कर अपने घरों की तरफ रवाना हुए। सब के बाद तायफ़ के तीनों सरदार चले। इन के आगे-आगे कुछ अरब सवार घोड़ों पर बैठे, इन के पीछे तीनों रईस चले और उन के पीछे ढाई सौ सवारों का दस्ता चला।
हजर (ﷺ) एक तरफ़ खड़े होकर तायफ़ के रईसों की सवारी का जुलूस देखते रहे। जब वे दूर निकल गये, तो आप भी जैद के साथ मन्दिर से निकले और जैद से बोले –
जैद ! ये तीनों सरदार मालूम होते हैं।
आप का ख्यालं सही लगता है, हुजूर ! जैद ने कहा।
अगर ये सरदार मेरी बात मान लें, तो पूरा तायफ़ मुसलमान हो जाए। आप (ﷺ) ने फ़रमाया, आओ, इन के महल पर चलें।
जैद और हुजूर (ﷺ) इन सरदारों के महल पर पहुंच गये। सब से पहले अब्द या लेल का महल था। हुजूर (ﷺ) ने उस के पास चलने का इरादा किया। जब आप उस के दरवाजे पर पहुंचे, तो चार अरबों को नंगी तलवार लिए पहरे पर खड़ा देखा। पहरे वालों ने उन को दूर से टोका।
हज़र (ﷺ) ने करीब आ कर कहा, अपने सरदारों से कहो, मुहम्मद मक्का से आया है और आप से कुछ कहना चाहता है।
एक पहरे वाला महल के अन्दर गया और थोड़ी ही देर में वापस आ कर बोला, चलिए, हमारे मालिक ने आप को तलब किया है।
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हुजूर (ﷺ) उस के साथ चले, जैद भी चले। दोनों महल में दाखिल हुए। उस कमरे में पहुंचे, जिस में अब्द या लेल और उसके दोनों भाई मसऊद और हबीब बैठे खाना खा रहे थे। हजूर (ﷺ) को देखते ही तीनों भाई हैरान भी हुए और मरऊब भी।
तीनों ने एक साथ हुजूर सल्ल. को दस्तरखान पर आने और खाने के लिए कहा।
हजर (ﷺ) एक ओर बैठ गये और फ़रमाया, ऐ तायफ़ के सरदारो! में आप की इस मेहरबानी का शुक्रिया अदा करता हूं। मैं आप की खिदमत में इसलिए हाजिर हुआ हूं कि आप के सामने वे बातें बयान करूं, जिनको आप के कानों ने आज तक न सुना होगा।
तीनों ने हैरत से आप (ﷺ) को देखा और थोड़ी देर बाद अब्द या लेल ने कहा, वह क्या बात है, मेरे भाई ?
हजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, ऐ अरब के सरदारो! मैं और आप अरब में रहते हैं। इस अरब को, दूसरे देशों को और पूरी कायनात को, कायनात की हर चीज को उस खुदा ने पैदा किया है, जिस की खुदाई में कोई शरीक नहीं, जो हवाएं भेजता है, बादल लाता है, पानी बरसाता है, फल और फूल उगाता है, बागों को हरा-भरा करता है। वह हर जानदार को खिलाता है, पिलाता है। मौत और जिंदगी, बीमारी और सेहत भी उसी के हाथ में है। वह हर चीज़ पर कुदरत रखता है, इस लिए उसी की इबादत और बन्दगी होनी चाहिए।
खुदा की इस तारीफ़ को सुन कर तीनों सरदारों को गुस्सा आ रहा था और उन के चेहरे मारे गुस्से के लाल हो रहे थे।
अब्द या लेल बर्दाश्त न कर सका, बात काटते हुए बोला, खुदा ? क्या हम खुदा को पूजें ? और अपने माबूदों को छोड़ दें, उन माबूदों को, जिन को हम और हमारे बाप-दादा पूजते चले आ रहे हैं। लात की कसम! यह कभी न होगा।
मसऊद भी बिगड़ कर बोला, तुम मक्का से इतनी दूर सिर्फ यह कहने आये हो। यकीनन तुम्हारे दिमाग में कोई खराबी पैदा हो गयी है। हबीब ने मजाक उड़ाने के अन्दाज़ में कहा, तुम ऐसी वाहियात तब्लीग करते फिरते हो, तुम कौन हो?
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मैं खुदा का रसूल हूं। मुझ पर खुदावन्द करीम ने अपना कलामे पाक नाजिल फ़रमाया है।
अब्द या लेल यह सुन कर खूब हंसा और कहा, आप गोया रसूल हैं।
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अगर तुम को खुदा अपना रसूल बनाता और खुदा ऐसा ही होता, जैसा कि तुम कहते हो कि वह हर चीज पर कुदरत रखता है, तो तुम्हें यों ही पैदल जूतियां चटखाने की जरूरत न होती।
मसऊद ने कहा, खुदा को भी कोई और आदमी न मिला, एक गरीब और अनपढ़ को रसूल बना दिया, क्या तुम अनपढ़ नहीं हो ?
हुजूर (ﷺ) ने फरमाया, बेशक मैं पढ़ना नहीं जानता। उम्मी हूँ लेकिन यह खुदा की मर्जी है कि उस ने मुझे अपना रसूल बनाया। मेरे रसूल होने और खुदा के एक होने का इन्कार न करो।
हबीब बिगड़ कर बोला, सुनो ! अगर वाकई तुम खुदा के रसूल हो, तो तुम्हारी बात रद्द करना खतरनाक है और अगर तुम झूठ बोलते हो, तो झूठे आदमी से कलाम करना हम-पसन्द नहीं करते।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मुझे झूठ बोलने से क्या फ़ायदा ? मैं आप से किसी चीज का तलबगार नहीं हूं। मेरी निजी कोई गरज नहीं। मैं खुदा का पैग़ाम उस के बन्दों तक पहुंचाने पर लगाया गया हूं। तुम अक्लमंद हो, सोचो कि पत्थरों के बुत भी खुदा हो सकते हैं ?
अब्द या लेल ने गजबनाक हो कर कहा, तो हम ख्याली खुदा की पूजा क्यों करें? आप तश्रीफ़ ले जाइए। अगर पूरा अरब आप का साथ दे, तब भी हम आप के ख्याल और अक़ीदे का साथ नहीं दे सकते।
हुजूर (ﷺ) ने कुछ और कहना चाहा।
मसऊद बिगड़ गया, बस कुछ न फरमाइए, खैरियत चाहते हैं, तो चुप चाप यहां से चले जाइए। हुजूर (ﷺ) गम से लदे उठे। महल से बाहर आए।
आप के पीछे ही तीनों रईस भी आए। महल के सामने जो लोग जा रहे थे, अब्द या लैल ने उन को रोकते हुए कहा, यह देखो, मक्के से दो आदमी आए हैं, हमारे माबूदों को बुरा कहते हैं, जरा इनकी खबर तो लो।
अरबों को भड़काने के लिए सिर्फ इतना कह देना ही काफ़ी था। तमाम लोग हुजूर (ﷺ) के पीछे लग गये।
उन्हों ने शोर-हंगामा कर के बहुत से आदमियों को जमा किया और हुजूर (ﷺ) की पिंडलियों पर कंकर-पत्थर मारना शुरू कर दिये।
जैद इस बात की कोशिश में लगे हुए थे कि पत्थर हुजूर (ﷺ) के न लगें, अपने हाथ और पैर कंकर-पत्थर के सामने कर देते थे। इस के बावजूद हुजूर (ﷺ) की पिंडलियां लहूलुहान हो गई। खून इतना बहा कि आपकी
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जूतियां खून से भर गयीं।
हजरत जैद (र.अ) बचाने में जख्मी हुए।
आप ने हजूर (ﷺ) से अर्ज किया ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! आप इन बदबख्तों के लिए बद-दुआ कीजिए।
आप ने फ़रमाया, जैद ! मैं अपनी कौम को बद-दुआ देने के लिए रसूल नहीं बनाया गया हूं।
हुजूर (ﷺ) निढाल हो गये थे, इसलिए जैद के कंधे पर हाथ रख कर चल रहे थे।
तायफ़ के बदमाश हुजूर (ﷺ) को गालियां देते, बुरा-भला कहते, डेले मारते हुजूर (ﷺ) के पीछे-पीछे चले आ रहे थे, यहां तक कि हुजूर (ﷺ) लड़खड़ाते हुए और हजरत जैद का सहारा लेते हुए तायफ़ से तीन मील बाहर निकल आए, तब जा कर उन सैतानों ने पीछा छोड़ा और वे वापस लौटे।
हुजूर (ﷺ) खजूरों के बाग के करीब पेड़ों के साए में बैठ गये, चूंकि आप बहुत ज्यादा जख्मी हो गये थे और जख्मों से खून निकल रहा था, इसलिए निढाल हो कर एक खजूर के सहारे लेट से गए।
हजरत जैद रजि. आप के पास बैठ गये। उन्हों ने अपनी पगड़ी की पज्जियां की और पिंडलियों से खून पोंछकर जस्मों को देखा। कुछ जख्म मामूली थे और कुछ गहरे, उन्हों ने जख्मो पर पट्टियां कसनी शुरू की।
मजलूम पैग़म्बर
हजुर (ﷺ) पर और आप के साथियों पर मक्के में जो जुल्म हो रहे थे वह लिखा जा चुका। आप कुफ्फ़ारे मक्का से तंग आ कर तायफ़ तशरीफ़ ले गये। आप का ख्याल था कि शायद वहां लोग इस्लाम कबूल कर लेंगे, लेकिन तायफ के लोग मक्का वालों से भी ज्यादा संगदिल साबित हुए, जिस बाग़ में हुजूर (ﷺ) और हजरत जैद ने पनाह ली थो, वह उत्बा बिन रबीआ का था, वही उत्बा जो मक्के का रहने वाला और इस्लाम और मुसलमानों का जबरदस्त दुश्मन था।
इत्तिफ़ाक से वह उस वक्त बाग में मौजूद था और उस के साथ उस का गुलाम अदास भी था। अदास ईसाई
था। उत्बा ने हुजूर (ﷺ) को बाग़ में लेटे देखा, तो उस ने रहम खा कर
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अपने गुलाम अदास के हाथ एक रिकाबी में अंगूर के गुच्छे रख कर आप (ﷺ) के पास भिजवा दिये।
जब अदास आप (ﷺ) के सामने आया तो आप (ﷺ) ने पूछा, ये अंगुर किस ने भेजे हैं ?
मेरे आका उत्बा ने, अदास ने जवाब दिया।
क्या उत्वा बाग़ में मौजूद हैं ?
जी हां, मौजूद हैं। अदास ने जवाब दिया, उन्हों ने तायफ के बदमाशों को आप के पीछे आते देखा था।
तुम्हारा नाम क्या है ? आप ने पूछा।
मेरा नाम अदास है।
क्या तुम ईसाई हो ?
हां, मैं ईसाई हूं।
कहां के रहने वाले हो ?
नैनवा का रहने वाला हूं।
क्या उस नैनवा का, जहां हजरत यूनुस (अ.स) रसूल बना कर भेजे गये थे?
अदास ने हैरत से हुजूर (ﷺ) को देखा, कई मिनट ताज्जुब के साथ आप को देखता रहा। जब हैरत कम हुई, तो बोला, आप को रसूल यूनुस (अ.स) का इल्म कैसे हुआ? उन का हाल तो कोई भी नहीं जानता?
आप (ﷺ) ने फ़रमाया, अदास ! मेरा नाम मुहम्मद है। मैं भी खुदा का रसूल हूँ। तमाम नबियों का नाम जानता हूं, न सिर्फ नाम बल्कि उन के हालात भी जानता हूं।
अदास तुरन्त सामने झुक गया। उस ने आप (ﷺ) के हाथ को बोसा दिया और खड़ा हो कर बोला, बेशक, आप रसूल मालूम होते हैं।
हुजूर (ﷺ) ने उस से फ़रमाया, तुम मुसलमान हो जाओ।
अदास ने कहा, हुजूर ! मजहब आसानी से नहीं बदला जा सकता, इस लिए गौर करने की मोहलत दीजिए।
अच्छा गौर कर लो, आप ने कहा, जब गौर कर चुको और मुसलमान होना चाहो, तो मेरे पास चले आना।
यह कह कर हुजूर (ﷺ) ने कुछ अंगूर खाये और बाक़ी हजरत जैद को दे दिये।
जैद ने खा कर प्लेट अदास को दे दी। अदास वापस उत्बा के पास पहुंचा।
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उत्बा दूर से खड़ा अदास की हरकते देख रहा था। उस ने अदास को हुजूर (ﷺ) का हाथ चूमते देखा था। जब वह आया, तो उस ने कहा, अदास ! यह आदमी जादूगर है इस की बातों में न आना।
अदास ने कहा, नहीं मेरे आका! वह जादूगर नहीं हैं, नबी हैं, तुम नहीं जानते कि हजरत यूनुस कौन थे? कहां थे? मगर वह जानते हैं और खूब जानते हैं।
उत्बा ने पूछा कि उन्हों ने तुझ से क्या कहा था ?
अदास ने कहा, उन्हों ने कहा था कि तुम मुसलमान हो जाओ। मैं ने कहा कि मुझे गौर करने की मोहलत दीजिए।
उत्बा ने झट कहा, अदास ! तुम मुसलमान न होना। इस्लाम से तो तेरा मजहब ही अच्छा है।
अदास ने कहा, मेरे हुजूर ! मैं ईसाई हूं और हमारी किताबों में लिखा है कि तहामा की धरती पर एक नबी पैदा होगा। मेरा ख्याल है कि यह वही नबी हैं।
उत्बा ने बिगड़ते हुए कहा, वाहियात बात न करो। नबी ऐसे ही होते हैं, जिन का न कोई यार व मददगार हो, न वे हुकूमत वाले हों, न दौलत मंद।
अदास ने कहा, मेरे आका ! हर नबी ऐसी ही हालत में हुआ है, अलावा दो चार नबियों के, जो दौलतमंद भी थे और बादशाह भी। नबियों के साथ अल्लाह की मदद होती है, इसलिए उन्हें किसी किस्म का डर नहीं होता।
उत्बा बिगड़ गया, सब बकवास है। इस के शिकार न हो जाना। अपना काम करो। देखो, मेरे घोड़े पर धूप आ गयी है। इसे साए दो।
अदास.चला गया।
उत्बा अपने बाग़ में बने मकान में चला गया।
पहाड़ों के फ़रिश्ते से मुलाकात
थोड़ा ठहर कर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम बाग़ से निकले तो मक्का के रास्ते पर चल पड़े। दुख व तकलीफ से तबियत निढाल और दिल टुकड़े-टुकड़े था। क़र्ने मनाज़िल पहुंचे तो आप (ﷺ) ने उठाया तो क्या देखते है के बादल का एक टुकड़ा आप (ﷺ) पर छाया हुआ है। आप (ﷺ) ने ध्यान से देखा तो उसमे जिब्रईल (अ.स) थे, उन्होंने पुकारकर कहा।
आपकी कौम ने आपको जो बात कही अल्लाह ने सुन लिया है। अब उसने आपके पास पहाड़ों का फरिश्ता भेजा है , ताकि आप उनके बारे में उन्हें जो चाहे हुक्म दे।
यह फरिश्ता मालिक उल जिबाल थे, उन्होंने आप (ﷺ) को आवाज दी और सलाम करने के बाद कहा –
ऐ मुहम्मद (ﷺ) ! बात यही है। अब आप जो चाहे …. अगर चाहे की मैं इन्हे दो पहाड़ों के बिच कुचल दू तो ऐसा ही होगा।
नबी सल्ल० ने फ़रमाया, नहीं, बल्कि मुझे उम्मीद है कि अल्लाह उनकी पीठ से ऐसी नस्ल पैदा करेगा जो सिर्फ एक अल्लाह की इबादत करेगी और उसके साथ किसी चीज़ को शरीक न ठहराएगी।
बहरहाल अब सात आसमानों के ऊपर से आने वाली इस ग़ैबी मदद की वजह से आपका दिल मुतमईन हो गया और दुख व तकलीफ के बादल छंट गये। चुनांचे आप मक्के के रास्ते पर और आगे बढ़े।
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सूरह जिन का नुज़ूल होना
रास्ते में नखला पड़ा। नखला एक छोटा-सा गांव था। उस के चारों ओर कुछ खजूर के बाग़ थे। हुजूर (ﷺ) एक बाग़ में आराम करने के लिए ठहर गये। रात हो चुकी थी। जैद पानी लाये। दोनों ने वुजू किया और इशा की नमाज पढ़ कर दोनों बुलन्द आवाज से कुरआन पढ़ने लगे।
उस वक्त आप पर वह्य नाजिल हुई –
ऐ मुहम्मद ! कह दो कि मुझ पर वह्य नाजिल की गई है कि जिन्नों की एक जमाअत ने सुन कर कहा कि हम ने अजब कुरआन सुना है, जो भलाई की तरफ़ रहनुमाई करता है। हम उस पर ईमान लाये, और हम रब के साथ हरगिज़ किसी को शरीक न करेंगे। हमारे रब की इज्जत बहुत बुलन्द है, न उस की बीवी है, न औलाद और हमारे बेवकूफ़ लोग अल्लाह पर बुहतान बांधते हैं और हम समझते कि जिन्न और इन्सान अल्लाह पर बोहतान न बांधते होंगे।
यह सुरः जिन्न थी।
अभी हुजूर (ﷺ) ने इतनी तिलावत की थी कि जैद ताज्जुब कर हुजूर (ﷺ) की तरफ़ देखने लगे। इस सूरः में जिन्नों का जिक्र था।
जैद हैरान थे कि जिन्नों ने कब कलामे इलाही सुना।
इसी बीच सात आदमी सामने से इस तरह गुजरे, जैसे खजूर के पेड़ से निकले हों।
जैद उन्हें देख कर हैरान हुए। वह कुछ डरे।
हुजूर (ﷺ) इन आने वालों को देख कर मुस्कराये।
आने वालों ने हुजूर (ﷺ) को देख कर सलाम किया। आप ने उन्हें सलाम का जवाब देकर बैठने का इशारा किया।
वे एक तरफ़ गैठ गये। आप (ﷺ) ने फ़रमाया, मरहबा, ऐ जिन्नो!
उन में से एक आदमी बोला, ऐ खुदा के रसूल (ﷺ)! आप ने सच कहा। हम सातों जिन्न हैं। नसीमैन के रहने वाले हैं।
आप के खुदा पर ईमान लाये हैं। आप हम को मुसलमान कर लीजिए।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया,
सईद रूहें खुद-ब-खुद इस्लाम की ओर खिंचती हैं। तुम खुदा की वह मख्लूख हो, जो आग से पैदा की गयी है। मिट्टी से बना हुआ इंसान तुमको उस वक्त तक नहीं देख सकता, जब तक तुम उस के सामने आ कर उस की शक्ल न अपना लो। ऐ खुदा की अजीब मख्लूख! कलिमा पढ़ो।
सातों जिन्नों ने कलिमा पढ़कर इस्लाम कुबूल कर लिया। फिर उन्होंने वायदा किया कि हम नसीमैन में जा कर इस्लाम की तब्लीग करेंगे।
हुजूर (ﷺ) ने उन्हें कुछ हिदायत की। थोड़ी देर के बाद वे रुख्सत हो कर चले गये।
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दूसरे दिन हजूर (ﷺ) ने फिर अपना सफ़र शुरू किया, यहां तक कि मक्का के करीब पहुंच गये। हुजूर (ﷺ) ने जरूरत समझी कि मक्के में दाखिल होने से पहले मुतइम बिन अदी की हिमायत हासिल की जाए, ताकि किसी किस्म का झगड़ा मक्के में खड़ा न हो जाए।
जैद मतइम बिन अदी से मिलने जाने लगे, तो पूछा, हजूर (ﷺ) ! मेरे वापस आने तक आप कहां ठहरेंगे?
मैं गारे हिरा में ठहर जाऊंगा। जैद (र.अ) हुजूर (ﷺ) से विदा हो कर मक्का की ओर चले और हुजूर (ﷺ) पहाड़ी पर चढ़ कर गारे हिरा में दाखिल हुए। देर तक आप वहां बैठे रहे, कई घंटे बाद हजरत जैद वापस आए। और बोले –
ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! मुतइम ने निहायत खुशी से आप की हिमायत का ऐलान कर दिया है। वह अपने दो बेटों के साथ आया है। पहाड़ी से नीचे खड़ा है, तशरीफ़ ले चलिए।
हुजूर (ﷺ) उठे और जैद के साथ पहाड़ी से नीचे उतर आए। यहां मुतइम और उसके दो बेटे ऊंटों पर सवार खड़े थे।
उन्हों ने हुजूर (ﷺ) को देखते ही सलाम किया।
आप ने सलाम का जवाब देते हुए कहा, मुतइम ! मैं तुम्हारी मदद का शुक्रगुजार हूं।
मुतइम ने कहा, मुहम्मद (ﷺ) ! मैं अरब हूँ, आप ने हिमायत तलब की, मेरी गैरत के लिए यह चैलेंज था। मैं ने इसे कबूल किया और आप के पास खुद भागा चला आया। अब किसी की मजाल नहीं कि आप की तरफ आँख उठा कर देख सके।
हुजूर (ﷺ) और जैद को साथ ले कर मुतइम शहर की तरफ चला। वहां पहुचने के बाद उस ने एलान किया, मक्के वालो! सुन लो, मैं ने मुहम्मद (ﷺ) को पनाह दी है। अगर कोई उन के खिलाफ़ एक लफ़्ज भी कहेगा, तो हम उस की जुबान काट लेंगे।
अबू जहल ने सुना कि मुत्इम ने हुजूर (ﷺ) को पनाह दी है, तो वह एकदम भागा हुआ आया और उस ने आते ही कहा
मुत्इम क्या बात है ? क्या वाक़ई तुम ने मुहम्मद (ﷺ) को पनाह दी है?
हां, मैंने उन्हें पनाह दी है।
क्या तू हमारे खिलाफ हो गया है ? अबू जल ने पूछा।
नहीं। फिर मुहम्मद की हिमायत क्यों करता है?
इस लिए कि उन्हों ने मुझ से हिमायत तलब की। मेरी गैरत ने यह गवारा न किया कि मैं इस मांग को ठुकराऊ। मैं ने मजबूरन उसे कुबूल कर लिया।
अगर यह बात है, तो कुछ अंदेशा नहीं। मैं तो यही समझता शायद तुम भी मुसलमान हो गये हो।
मैं अपने बाप-दादा का मजहब नहीं छोड़ सकता। अबू जहल चला गया। फिर मुत्इम हुजूर (ﷺ) को साथ लिए-हुए, आप के घर गया। इस तरह पूरे एक महीने के बाद आप अपने घर में दाखिल हुए।
To be continued …
इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा ….
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