मदीना में जियादा तर आबादियाँ क़बील-ए-औस व खज़रज की थीं, यह लोग मुशरिक और बुत परस्त थे। उनके साथ यहूद भी रहते थे। जब कभी क़बील-ए-औस व खजरज से यहूद का मुकाबला होता, तो यहूद कहा करते थे के अन क़रीब आखरी नबी मबऊस होने वाले हैं, हम उन की पैरवी करेंगे। और उनके साथ हो कर तुम को “क़ौमे आद” और “कौमे इरम” की तरह हलाक व बरबाद करेंगे।
जब हज का मौसम आया, तो कबील-ए-खजरज के तक़रीबन छे लोग मक्का आए। यह नुबुव्वत का गयारहवा साल था। हुजूर (ﷺ) उन के पास तशरीफ ले गए, इस्लाम की दावत दी और कुरआन की आयते पढ कर सुनाई। उन लोगों ने आप (ﷺ) को देखते ही पहचान लिए और एक दूसरे को देख कर कहने लगे। खुदा की क़सम! यह वही नबी हैं जिनका तज़केरा यहूद किया करते थे। कहीं ऐसा न हो के इस सआदत को हासिल करने में यहूद हम से आगे बढ़ जाएँ।
फिर उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया और हुजूर (ﷺ) से कहा के हमारे और यहूद के दर्मियान बराबर लड़ाई होती रहती है; अगर आप इजाजत दें, तो दीने इस्लाम का जिक्र वहाँ जाकर किया करें, ताके वह लोग अगर इस दीन को कबूल कर लें, तो हमेशा के लिये लड़ाई खत्म हो जाए और आपस में मुहब्बत पैदा हो जाए (क्योंकि इस दीन की बुनियाद ही
आपसी मुहब्बत व भाईचारगी पर कायम है) हुजूर (ﷺ) ने उन्हें इजाज़त दे दी। वह वापस हो कर मदीना मुनव्वरा पहुँचे, जिस मज्लिस में बैठते वहां आप (ﷺ) का जिक्र करते। इसका असर यह हुआ के मदीना का कोई घर ऐसा बाक़ी न रहा जहाँ दीन न पहुँचा।
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