नुबुव्वत मिलने का वक़्त जितना करीब होता गया, उतना ही रसूलुल्लाह (ﷺ) तन्हाई को जियादा ही पसन्द करने लगे।
सबसे अलग हो कर अकेले रहने से आप को बड़ा सुकून मिलता था। आप अकसर खाने पीने का सामान ले कर कई कई दिन तक मक्का से दूर जाकर “हिरा” नामी पहाड़ के एक गार में बैठ जाते और इब्राहीमी तरीके और अपनी पाकीजा फितरत की रहनुमाई से अल्लाह की इबादत और जिक्र में मशगूल रहते थे।
अल्लाह की कुदरत में गौर व फिक्र करते रहते थे और क़ौम की बुरी हालत को देख कर बहुत गमजदा रहते थे, जब तक खाना खत्म न होता था, आप शहर वापस नहीं आते थे। जब मक्का की वादियों से गुजरते तो दरख्तों और पत्थरों से सलाम करने की आवाज़ आती। आप दाएँ बाएँ और पीछे मुड़ कर देखते, तो दरख्तों और पत्थरों के सिवा कुछ नज़र न आता था।
इसी ज़माने में आप (ﷺ) को ऐसे ख्वाब नज़र आने लगे के रात में जो कुछ देखते वही दिन में जाहिर होता था। यही सिलसिला चलता रहा के नुबुव्वत की घड़ी आ पहुँची और अल्लाह तआला ने आपको नुबुव्वत अता फ़रमाई।