कुफ्फारे मक्का के जुल्म व सितम और रोकथाम के बावजूद इस्लाम तेजी से बढ़ता रहा, यह देख कर कुफ्फारे मक्का ने तदबीर सोची के मुहम्मद (ﷺ) और उन के खानदान का बायकाट किया जाए, लिहाज़ा सब ने आपस में मशवरा कर के एक अहद नामा लिखा और उसे खान-ए-काबा पर लटका दिया, उस अहद नामे के मुताबिक़ कोई भी मुहम्मद (ﷺ) और उन के खानदान वालों से मेल जोल, लेनदेन और शादी ब्याह नहीं कर सकता था, लिहाजा रसूलुल्लाह (ﷺ) को बनी हाशिम और मुसलमानों के साथ एक घाटी में जाना पड़ा, जिस का नाम शिअबे अबी तालिब है, यहाँ उन लोगों ने तीन साल का ज़माना गुजारा, जिस में सख्त तकालीफ का सामना करना पड़ा, भूक व प्यास की शिद्दत की वजह से बबूल के पत्ते तक खाने पड़े, जब बच्चे भूक व प्यास की वजह से रोते, सिसकते, तो कुफ्फारे मक्का उस पर छठे उड़ाते।
तीन साल के बाद अल्लाह तआला की रहमत और ऐसी मदद आई के ख़ुद कुफ्फार एक दूसरे की मुखालफत करने लगे। इत्तेफाक़ यह के अबू तालिब खान-ए-काबा में बैठे हुए सारी बातें सुन रहे थे, वहाँ से उठ कर कुफ्फार के सामने आए और कहा : रात मुहम्मद (ﷺ) ने मुझ से कहा: “अहदनामे के सारे अलफाज़ दीमक चाट गई है, सिर्फ (बिस्मिका अल्लाहुम्मा) बतौरे उन्वान बाक़ी है।”
जब अहदनामा देखा गया तो हर्फ ब हर्फ़ आप की बात सच निकली और कूफ्फार की गरदनें शर्म के मारे झुक गई, इस तरह अहद नामा खत्म हो गया और मुहम्मद (ﷺ) नुबुव्वत के दसवें साल शिअबे अबी तालिब से निकलकर मक्का में आ बसे।
TO BE CONTINUE ….