“रसूलुल्लाह (ﷺ) की नुबुव्वत से चंद साल कब्ल खान-ए-काबा को दोबारा तामीर करने की ज़रुरत पेश आई। तमाम कबीले के लोगों ने मिल कर खान-ए-काबा की तामीर की, लेकिन जब हजरे अस्वद को रखने का वक्त आया, तो सख्त इखिलाफ पैदा हो गया, हर कबीला चाहता था के उसको यह शर्फ हासिल हो, लिहाज़ा हर तरफ से तलवारें खिंच गई और कत्ल व खून की नौबत आ गई।
जब मामला इस तरह न सुलझा, तो एक बूढ़े शख्स ने यह राय दी के कल सुबह जो शख्स सब से पहले हरम में आएगा वहीं इस का फैसला करेगा ।
सब ने यह रायपसंद की, दूसरे दिन सबसे पहले हुजूर (ﷺ) हरम में दाखिल हुए, आप को देखते ही सब बोल उठे –
“यह अमीन हैं, हम इन के फैसले पर राज़ी हैं।”
आप ने एक चादर मंगवाई और हजरे अस्वद को उस पर रखा और हर कबीले के सरदार से चादर के कोने पकड़वा कर उस को काबे तक ले गए और अपने हाथ से हजरे अस्वद को उस की जगह रख दिया। इस तरह आप के ज़रिये एक बड़े फितने का खात्मा हो गया।”