Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 13
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मक्का में मुसलमानो का बाईकाट
हजरत उमर रजि० के मुसलमान होने से कुफ्फ़ारे मक्का में एक हंगामा मच गया। हर आदमी ने हैरत और अफ़सोस के साथ यह खबर सुनी।
मुसलमानों ने खाना काबा में नमाज पढ़ी, तो इसे बुतों की तौहीन समझा गया। तमाम मक्के में गुस्से की एक लहर दौड़ गयी। हजरत उमर के इस्लाम अपनाने से मुसलमानों का हौसला इतना बढ़ा दिया था कि वे आजादी के साथ चलने-फिरने लगे, खरीद व फरोख्त करने लगे, खाना काबा में नमाज अदा करने लगे। किसी को उन्हें रोकने और छेडने की हिम्मत न होती।
इस आजादी की खबर हब्शा तक पहुंच गयी। जो मुसलमान वहां हिजरत कर के पहुंच गये थे, वे समझे कि अब कुरैश ने मुखालफ़त बन्द कर दी है और मुसलमानों को आजादी से रहना-सहना नसीब हो गया है।
उन में से अक्सर अपने वतन लौट आए, पर जब यहां आकर मालूम हुआ कि अभी कोई आजादी वगैरह नहीं मिली, कुफ़्फ़ारे मक्का अपनी जिद से बाज नहीं आए, तो फिर हब्शा वापस चले गये। इसे हब्शा की दूसरी हिजरत कहते है।
उस वक्त मक्के में सिर्फ चालीस लोग थे, जिन्होंने इस्लाम कबूल किया था। इनके अलावा ८३ मुसलमान वे थे, जो हिजरत करके हब्शा चले गये थे। इस तरह मुसलमानों की कुल तायदाद १२६ होती थी। अगरचे यह तायदाद मामूली थी, पर कुफ्फार को मुसलमानों की इस तायदाद से डर हो गया था कि इसी तरह अगर ये बढ़ते रहे, तो तमाम मक्का और सारा अरब मुसलमान हो जाएगा। इस ख्याल ने उन्हें बदला लेने की तदबीरों पर गौर करने के लिए फिर मजबूर कर दिया।
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उन्होंने मुहर्रम सन् ०७ नबवी में एक मज्लिसे शूरा बुलायी। तमाम कबीले के सरदारों को बुलाया गया। बड़ी शान व शौकत से इज्लास की तैयारी की गई। तमाम लोग बड़े जोश से शामिल हुए।
जब ये तमाम लोग आ गये, तो अबू सुफियान की सदारत में इज्लास शुरू हुआ।
अबू जहल खड़ा हुआ और उस ने कहा, ऐ गैरतमंद अरबो! तुम ने देखा कि जिस बात को हम ने बच्चों का खेल समझा था, वह बढ़ते-बढ़ते हमारे दीन के लिए मुस्तकिल खतरा बन गयी है। लोग अपने बाप-दादा के मजहब को छोड़कर नये मजहब को अपनाने लगे हैं।
मुहम्मद (ﷺ) हमारे मजहब को मिटा कर नया मजहब रिवाज देने में दिन व रात लगे हुए हैं। वह कहते हैं, आका-गुलाम सब बराबर हैं। पिछड़ों और गरीबों वगैरह को उन्होंने सर पर चढ़ा लिया है। मेरे ख्याल में कोई अरब, जिस में जरा भी खुद्दारी है, उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।
इस के अलावा सब से बड़ी इससे अहम और सब से ज्यादा खतरनाक जो बात है, वह यह है कि हर मुसलमान बुतों को हिकारत से देखता है गोया उन की नजरों में हमारी, हमारे मजहब की और हमारे माबूदों की कोई अहमियत नहीं है बताइए, क्या हम इस जिल्लत को बर्दाश्त कर सकते हैं ?
हर तरफ़ से आवाजें आयीं, हरगिज नहीं।
अबू जहल ही ने बात और आगे बढ़ायी।
अगर नहीं बर्दाश्त कर सकते, तो फिर चुप क्यों बैठे हो? क्या सोच रहे हो? किस चीज का इन्तिजार है? तुम ने देख लिया कि बावजुद हमारी कोशिशों के मुसलमानों की तायदाद दिन ब दिन बढ़ती चली जा रही। अगर कोई इन्तिजाम न किया गया, तो अंदेशा ही नहीं, बल्कि यकीनी बात है कि तमाम मक्का, बल्कि तमाम अरब मुसलमान हो जाएंगे।
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आप को मालूम है कि मुसलमानों की कितनी बड़ी तायदाद हब्शा को चली गयी है, क्या ये लोग चुपचाप बैठे होंगे? वहाँ जिस वक्त उन की तायदाद बढ़ जाएगी, यकीनन वे मक्के पर हमला करेंगे। कोई नहीं कह सकता कि अंजाम क्या होगा? याद रखिए, अभी तो इस की शुरूआत है, कोशिश करने से इस की रोक-थाम की जा सकती है, लेकिन अगर कोताही की गयी, तो फिर इस बहाव पर बन्द नहीं बांधा जा सकेगा।
अजब नहीं कि अरब से हमारे माबूदों को, हमारे मजहब वालों को बड़ी बे-आबरूई से निकलना पड़े, क्या तुम इसे पसन्द करोगे?
हम इसे हरगिज, हरगिज गवारा न कर सकेंगे सब ने एक साथ कहा।
अबू जहल ने कहा, मुझे भी यही ख्याल है कि तुम हरगिज गवारा न कर सकोगे, मगर इस खतरे को मिटाने के लिए क्या उपाय किया जाए ?
कुछ आवाजें आयीं, उपाय सोचना बड़े आदमियों का काम है। हमारा काम सिर्फ उन पर अमल करना है।
अबू जहल ने कहा, निहायत ही मुनासिब बात है। आज बड़े लोग इसी लिए जमा हुए है कि एक राय हो कर कोई ऐसा उपाय सोचें, जिससे इस्लाम का खतरा मिट जाए, मुसलमानों की जड़ कट जाए और फिर हम आराम की नींद सो सकें।
उत्बा ने कहा, खतरा मुहम्मद (ﷺ) की तरफ़ से है। जब तक वह जिंदा हैं, यह खतरा मिट नहीं सकता। मेरे ख्याल में तो कुछ लोग जाएं। और उन्हें कत्ल कर के खतरे को मिटा डालें। (नौजूबिल्लाह)
जुबैर बिन उमैया ने कहा, सब लोग अच्छी तरह से जानते हैं कि मुहम्मद (ﷺ) हाशिमी खानदान से हैं। कुरैश में यह खानदान सब से ज्यादा इज्जत वाला है। इसलिए उन्हें कत्ल करने से डर है कि खाना जंगी शुरू हो जाएगी। इस के अलावा यह कैसे मुम्किन है कि मुसलमान उन्हें आसानी से मरने देंगे। वे जब तक खुद न मरेंगे, अपने नेता पर आंच न आने देंगे । इसलिए यह काम आसान नहीं है।
उत्बा ने कहा, अगर तमाम लोग मिल जाएं, तो तज्वीज़ बताए देता है। सब लोगों ने कहा, हम सब मुत्तफिक हैं। आप बताएं।
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उत्बा ने बताया, मुसलमानों का बाईकाट करो। ब्याह, शादी, लेन-देन रस्म व रिवाज, मुलाकात, खाना-पीना, खरीद व फरोख्त वगैरह सब बंद कर दो। उन्हें मजबूर करो कि ये बस्ती में न रहें, बल्कि पहाड़ पर चढ़ जाएं। यह निगरानी की जाये कि खाना-पीना और किसी किस्म का कोई सामान उन के पास न पहुंचे। इस तरह खुद तड़प-तड़प कर मर जाएंगे और हमें किसी को मारने, उस के कबीले को खून बहा अदा करने की नौबत ही न आएगी।
इस तज्वीज़ को सुनकर सब खुश हो गये। खूब तालियां बजीं।
जब जरा खामोशी हुई तो जुबैर ने कहा, मेरे ख्याल में यह बहुत ही जालिमाना काम है, इस से तो बेहतर यह होगा कि उन्हें कत्ल ही कर दिया जाये।
अबू लहब ने कहा, जुबैर इस तज्वीज को मंज़र कर लो, इस से हमारा मक्सद मुसलमानों को भूखा, प्यासा रख कर कत्ल करना नहीं है, बल्कि उन्हें मजबूर कर के इस्लाम से अपने मजहब में वापस लाना है।
जुबैर ने कहा अगर सिर्फ़ इस तरीके से तंग और परेशान करना मंजूर हैं, है तो मुझे कुछ उज्र नहीं। मैं शरीक हूं, लेकिन तुम इस तरह से उन्हें अगर क़त्ल करना चाहो, तो मुझे शिर्कत मंजूर नहीं।
हम उन्हें कत्ल करना तो चाहते ही नहीं, सिर्फ उन्हें ठीक करना चाहते हैं। अबू जहल ने कहा, बहुत जल्द वह परेशान होकर हमारे माबूदों के सामने आ झुकेंगे और फिर कौम को कोई खतरा बाक़ी नहीं रहेगा।
अबू सुफ़ियान ने कहा, यह मुनासिब है कि एक अहद नामा तैयार किया जाए और अहद नामा का मजमून यह हो कि मुसलमानों से उस वक्त तक बाईकाट किया जाए, जब तक वह इस्लाम से हटकर अपने बाप-दादा के मजहब में फिर दाखिल न हों और इस अहद नामा पर तमाम लोग दस्तखत करें।
उत्बा ने ताईद करते हुए कहा, बिल्कुल सही है और निहायत मुनासिब है।
चूंकि सब इस राय से मुत्तफ़िक हो गये, इस लिए मंसूर बिन इक्रिमा ने अहदनामा लिखा। सब ने दस्तखत किये और इस अहदनामा को काबे के दरवाजे पर लटका दिया। उस जमाने में यह तरीका था कि जब समझौता लिखा जाता तो काबे के दरवाजे पर लटका दिया जाता था और जब तक वह तहरीर बाकी रहती, कोई अह्द के तोड़ने की जुर्रत न करता था।
चुनांचे अहदनामा लटका दिया गया, तो आस बिन वाइल सहमी ने कहा, आज ही मुसलमानों को ले जा कर पहाड़ी के किसी दर में घेर दो।
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सब ने इस राय को पसन्द किया, चूंकि उस वक्त तमाम असरदार लोग मौजद थे, इस से अच्छा मौका और कब मिल सकता था? सब उठे और सीधे दारे अरकम में जा पहुंचे। यहां मुसलमान जमा थे। वे अस्र की नमाज से फारिग़ हुए थे कि अबू जहल ने उन्हें कौम के मुत्तफ़िका फ़ैसले से खबरदार करते हुए कहा –
अगर तुम लोग मुहम्मद (ﷺ) का साथ छोड़ दो तो तुम को आजादी दी जा सकती है।
तमाम मुसलमानों ने एक जुबान होकर कहा, मर जाएंगे, मगर खुदा के प्यारे नबी (ﷺ) का साथ न छोड़ेंगे।
अबू जहल झुल्ला कर बोला, न छोड़ो, खुद ही दरें में तड़प कर मर जाओगे।
अबू जहल ने कहा, तुम पर इतनी मेहरबानी की जाती है कि जो सामान इस वक्त तुम्हारे पास है, अपने साथ ले जा सकते हो, मगर इस के बाद फिर कोई सामान न मिल सकेगा। मुसलमान दारे अरकम से निकले, कि उस वक्त तक हुजूर (ﷺ) ने कुफ्फ़ार से मुलाकात करने या लड़ने की इजाजत न दी थी, इसलिए खामोश अपने-अपने घरों को जाते रहे। जितना सामान था, अपने साथ लिया और शोबे अबी तालिब में चले गये।
शोबे अबी तालिब एक पहाड़ी दर्रा था। यह दर्रा अबू तालिब के नाम से मशहूर था। चूंकि हुजूर (ﷺ) के सरपरस्त अबू तालिब थे, इसलिए वह मुसलमानों के साथ जाने पर मजबूर कर दिये गये। तमाम मुसलमान शोबे अबूतालिब में जाकर पनाह लेने वाले बन गये।
अबू जहल ने कुछ लोगों को उन की निगरानी पर मुकर्रर कर के हिदायत कर दी कि कोई मूसलमान इस दर्रे से बाहर निकलने न पाये, न किसी आदमी को उन के पास जाने दिया जाए। इस तरह मुसलमान दर्रे में कैद कर दिये गये।
To be continued …
इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा ….
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे और अपनी राय भी दे …
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