जब कुफ्फार व मुशरिकीन ने मुसलमानों को बेहद सताना शुरू किया, तो रसूलुल्लाह (ﷺ) ने सहाबा-ए-किराम को इजाजत दे दी के जो चाहे अपनी जान और ईमान की हिफाजत के लिये मुल्के हबशा चला जाए। वहाँ का बादशाह किसी पर जुल्म नहीं करता, वह एक अच्छा मुल्क है। उस के बाद सहाबा की एक छोटी सी जमात माहे रज्जब सन ५ नबवी में
हबशा रवाना हुई। उन में खलीफ-ए-राशिद हजरत उस्मान गनी (र.अ) है और उन की जौज-ए-मुहतरमा और हुजूर (ﷺ) की साहबजादी हज़रत रुकय्या भी थीं।
कुफ्फार ने इन लोगों की हिजरत की खबर सुन कर पीछा किया, मगर कुफ्फार के पहुँचने से पहले ही कश्तियाँ जिद्दा की बंदरगाह से निकल चुकी थीं। हबशा पहुँच कर मुसलमान अमन व सुकून से जिन्दगी गुज़ार रहे थे। उनके बाद और लोगों ने भी हिजरत की जिन की तादाद सौ से जाइद थी और उस में हुजूर (ﷺ) के चचाजाद भाई हज़रत जाफर (र.अ) भी थे।
इन हजरात ने जो हिजरत की थी.वह सिर्फ अपने जिस्म व जान ही की हिफाजत के लिये नहीं, बल्के असलन अपने दीन व ईमान बचाने और इत्मीनान के साथ अल्लाह की इबादत करने के लिये हिजरत की थी।
To be Continued …