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Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 34
उहद की लड़ाई
इस्लामी फौज बड़ी शान से आगे बढ़ रही थी।
इस फ़ौज में कुल सात सौ जवान थे, वह भी पचास साठ तो पन्द्रह-पन्द्रह, सोलह-सोलह साल के बच्चे थे, जो शोके शहादत में अपने घरों से निकल आए थे।
पूरी फौज में सिर्फ दो सौ घोड़े, अस्सी या नब्वे ऊंट थे।
चूँकि यह फ़ौज जुमा की नमाज पढ़कर मदीने से रवाना हुई थी, इसलिए कुबा से आगे बढ़ी तो अस्र का वक्त आ गया।
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फौज को आगे बढ़ने से रोक दिया गया। फिर अस्र की नमाज पढ़कर फौज बागे बढ़ी।
अभी मुसलमान मुजाहिदों ने चार मील की ही दूरी की थी कि सामने कुफ्फार की फ़ौज दूर-दूर तक फैली हुई नजर आयी।
यह जगह जहां कुफ्फ़ार की फ़ौज पड़ी हुई थी, उहद की घाटी के नाम से मशहूर थी। इस्लामी फ़ोज उहद पहाड़ से कुछ आगे बढ़ कर पहाड़ी के दामन में ! जा उतरी।
कुफ्फारे मक्का ने दूर से मुसलमानों को आते देख लिया था।
अबू सुफ़ियान और इक्रिमा बिन अबू जहल दोनों एक ऊंचे टीले पर चढ़ कर इस्लामी फ़ौज के आने का नजारा करने लगे। इस्लामी मुजाहिदों की तायदाद थोड़ी थी। कुफ्फारे मक्का मुसलमानों की इस थोड़ी तायदाद को देख कर बहुत खुश हुए।
अबू सुफ़ियान ने कहा,
हुबल की कसम! ये हमारे सामने कत्ल होने के लिए आए हैं। वे हम से चौथाई भी नहीं हैं।
ऐ चचा! इक्रिमा ने कहा,
मुसलमान और उन की फ़ौज को हकीर न समझो। मैं नहीं समझता कि लड़ाई के वक्त इन में किस बला की ताकत आ जाती है। एक-एक मुसलमान दस-दस, बीस-बीस काफिरों से लड़ता है। आप बद्र की लड़ाई में मौजद न थे। मैं उन की हैरत में डालने वाली लड़ाई देख चुका हूं।
इक्रिमा ! मुसलमान भी तो हमारी तरह इंसान ही हैं, अबू सुफियान ने कहा, हमसे ज्यादा बहादुर होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
फिर थोड़ी देर रुक कर कहा आओ, सूरज डूबने लगा है, खेमों में चलकर आराम करें।
दोनों टीले से उतर कर खेमों की तरफ़ चले गये।
उस वक्त सूरज डूब रहा था और मुसलमान वुजू करने में लगे थे।
मगरिब का वक्त हो गया, तो मुसलमानों ने नमाज पढ़ी।
नमाज पढ़ कर खाना पकाने में लग गये।
हुजूर (ﷺ) खुले मैदान में एक कम्बल पर बैठे थे।
उस वक्त एक अरब खातून ने करीब आ कर आप (ﷺ) को सलाम किया।
आप ने खातून को देख कर हैरत से कहा, उम्मे अम्मारा! तुम कहां ?
हुजूर (ﷺ) ! मैं आप को मैदान में आते देख कर न रह सकी।
इस्लामी फ़ौज के पीछे लगी चली आई। क्या हुजूर! मेरा कसूर माफ़ करेंगे ?
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उम्मे अम्मारा! तुम को अकेली न आना चाहिए था, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, ऐसा ही था, तो दो चार औरतों को और ले आती?
उम्मे अम्मारा चली गयीं।
मुसलमानों ने खाना खाया, नमाज पढ़ी और सो गये। सुबह बहुत सवेरे उठे। हजरत बिलाल ने असरदार आवाज में अज्ञान दी, सब ने नमाज पढ़ी, नमाज के बाद हथियारों से लैस हुए और लड़ाई के मैदान में फ़ौज अपनी लाइनें ठीक करने लगी।
हुजूर (ﷺ) ने सब से पहले पचास तीरंदाजों को मुखातब किया।
हजरत अब्दुल्लाह बिन जुबैर अंसारी को उन पर अफ़सर मुकर्रर कर के उन्हें उहद की घाटी पर तैनात करते हुए हुक्म दिया कि जब तक तुम को कोई दूसरा हुक्म न दिया जाए, इस घाटी को हरगिज़ न छोड़ना।
बात यह थी कि उहद की उस घाटी से डर था कि दुश्मन पीछे से आ कर हमला न कर दे, इसीलिए सब से पहले उस की नाकाबन्दी कर दी गयी थी।
अब हुजूर (ﷺ) ने फ़ौज की लाइनें दुरुस्त की। दाएं हजरत जुबैर बिन अवाम (र.अ) थे, बाएं हजरत मंजिर बिन उमर (र.अ) को लगाया । हजरत हमजा (र.अ) बीच के हिस्से के जिम्मेदार थे।
हजरत मुसअब बिन उमेर (र.अ) को झंडा दिया और हजरत अबू दुजाना (र.अ) को अपनी खास तलवार अता फरमायी।
हजरत अबू दुजाना (र.अ) हुजूर (ﷺ) की तलवार लेकर बहुत खुश हुए।
जब मुसलमान लाइनें ठीक कर रहे थे, काफ़िर भी लाइनें दुरुस्त करने में लगे हुए थे।
अबू सुफ़ियान ने खालिद बिन बलीद को सौ सवारों की टुकड़ी देकर दाएं हाथ पर और इक्रिमा बिन अबू जहल को सौ सवारों पर अफ़सर मुकर्रर कर के बाएं हाथ पर मुकर्रर किया। तलहा को, जो कबीला बनी अब्दुद्दार से था, झंडा दिया।
मर्दो की इन लाइनों के बाद हिंदा ने औरतों की भी एक टुकड़ी बनायी, वह लाइनों को ठीक-ठाक कर एक काले हब्शी गुलाम के पास आयी। उस गुलाम का नाम वहशी था। वहशी जुबैर बिन मुतइम का गुलाम था।
उस वक्त आका और गुलाम एक ही जगह खड़े थे।
हिन्दा ने वहशी से कहा, वहशी! सुना है तुम हरवा चलाना बहुत अच्छा जानते हो?
हरवा एक किस्म का छोटा नेजा होता है। वहशी हरवा फेंकने में माहिर था।
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वहशी ने सर झुका कर कहा, मालकिन ! मुझे फक्र है कि मैं हरवा चलना जानता हूँ।
वहशी ! सुनो, हिन्दा ने कहा, मेरे बाप और भाई को हजरत हमजा ने बदर की लड़ाई में कत्ल किया था। मैं ने कसम खायी है कि मैं बदले में हमजा का कलेजा खाऊंगी। मेरी कसम की लाज तुम्हारे हाथ में है।
मैं हुक्म का बन्दा हूं, वहशी ने कहा।
हिंदा ने अपनी खुबसूरत चमकीली आंखें वहशी के काले चेहरे पर गार कर कहा, मैं चाहती हूं कि तुम अपने हरवे से हमजा को कत्ल कर डालो। अगर तुम ने उन्हें कत्ल कर दिया, तो देखो, मेरे इस जेवर की तरफ़ देखो।
हिंदा सुनहरे और रूपहले जेवरों से लदी हुई थी। वहशी ने लालच भरी नजरों से उस की तरफ़ देखा। हिन्दा ने कहा, मैं तुम्हें ये तमाम जेवर उतार कर दे दूंगी।
वहशी की आंखें जोश से चमकने लगी, उस ने कहा, इतना ऐ मालकिन तब तो मैं मालदार बन जाऊंगा। शायद मैं अपने आका को कीमत दे कर आजाद हो सकूँ।
तब तक जुबैर बोल पड़ा, वहशी अगर तुम ने हमजा को मार डाला, तो मैं तुम को आजाद कर दूंगा।
वहशी मारे खुशी के नाचने लगा। बोला, मालूम होता है, मेरी किस्मत का सितारा चमकने वाला है। मैं वायदा करता हूं कि मौका पाते ही में हमजा को क़त्ल कर डालूंगा।
तो तुम आजाद हो जाओगे और मेरा सारा जेवर तुम्हारी मिल्कियत होगा, हिंदा ने कहा।
हिंदा वापस आ कर औरतों की टुकड़ी में गायब हो गयी।
वहशी जुबैर बिन मुतइम के साथ टुकड़ी में जा मिला।
सूरज निकल कर अब कुछ ऊंचा हो चला था। अभी लड़ाई शुरू न हुई थी। सभी तैयार खामोश.खड़े थे।
थोड़ी देर में एक सवार काफ़िरों की फ़ौज से निकला। इस्लामी फौज के करीब आया। अंसार ने उसे देख कर पहचान लिया।
वह अबू आमिर था, जिस का ताल्लुक औस कबीले से था। मदीने में इस्लाम आने के बाद वह मुसलमानों की बढ़ती तायदाद को न देख सका और मदीना छोड़ दिया, फिर मक्के में जा कर आबाद हुआ।
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वह मदीने के मुसलमानों को समझाने निकला था और उन्हें अपनी ताकत बढ़ाना चाहता था। मुसलमानों ने उस का मुंह तोड़ जवाब दिया, वह चुप-चाप वापस चला गया।
अब दोनों फ़ोजें धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी थीं।
बढ़ते-बढ़ते दोनों फ़ौजों की खौफ़नाक टक्कर शुरू हो गयी।
कुफ़्फ़ार मुसलमानों की लाइनों में और मुसलमान कुफ्फार की लाइनों में घुस गये।
तलवारें चमकने लगी, उठतीं और सरों पर पड़ कर उसे धड़ से अलग कर देती।
नारों की आवाज और जख्मियों की चीख-पुकार से पूरा मैदान गूंज उठा।
यों तो तमाम मुसलमान बड़े जोशे ग़जब से लड़ रहे थे, पर हजरत उमर, हजरत तलहा, हजरत जुबैर, हजरत साद, हजरत अबू दुजाना, हजरत अबू बक्र, हजरत हमजा, पूरी बहादुरी और बे-खौफ़ी से लड़ रहे थे, और दुश्मनों को पसपा करने में लगे हुए थे।
इन बुजर्गों में से हर आदमी बड़ी फुर्ती और तेजी से हमले कर रहा था। वे हर उस आदमी को चीर-फाड़ डालते थे, जो उन के सामने आ जाता था, मगर कुफ्फार इतने ज्यादा थे कि कत्ल होने पर भी उन में कमी न मालूम होती थी।
एक के मरने पर दूसरा उन की जगह ले लेता था।
इस वजह से लड़ाई बराबर जोर शोर से चल रही थी।
कुफ्फारे कुरैश भी बड़ी जांबाजी से लड़ रहे थे। वे गजबनाक हो कर हमले करते, लेकिन मुसलमानों को बिजली की तरह वार करने वाली तलवारें उन्हें पीछे हटा देती थीं।
हजरत अली (र.अ) इस जोश से लड़ रहे थे कि कुफ्फार को उन की नवजवानी और उन के जोश को देख कर हैरत होती थी। वह जिस पर हमला करते, उसे क़त्ल किए बिना न छोड़ते।
हजरत अबू दुजाना हुजूर (ﷺ) की खास तलवार लिए बड़े जोश से लड़ रहे थे। उन्हों ने हर हमले में कुफ्फार की लाइनों में, जो उन के सामने थी, दरार डाल दी।
कुफ्फार की सामने की फौज के पीछे औरतों की टुकड़ी कायम थी। औरतें हथियारबन्द खड़ी जवानों को जोश दिला रही थीं।
हजरत अबू दुजाना (र.अ) फ़ौज को चीरते हुए औरतों की टुकड़ी में पहुंच गये। वह इतने जोश में थे कि उन्हों ने यह महसूस नहीं किया कि वह औरतों की टुकड़ी में आ गये है और वह हमले करते हुए बढ़े चले आ रहे हैं।
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औरतें उन्हें हमला करते देख कर डर गयीं, सहम गयीं। उन्हें देख कर इधर-उधर भागने लगीं।
अबू दुजाना को अब भी खबर न थी कि कहां निकल आए हैं और किस पर हमला कर रहे हैं। उन्हों ने तलवार उठायी और हमला किया।
अबू सूफ़ियान की बीवी हिंदा ने अपने सर पर तलवार बुलन्द होते देखी मौत उसकी आंखों के सामने फिर गई।
उसका चेहरा पीला पड़ गया। वह बड़े जोर से चीखी।
अबू दुजाना चीख सुन कर चौके, संभले। हिंदा को देखते ही तलवार रोकी, धीरे से बोले, हम यह कहां आ गये?
उन्हों ने अपने आस-पास देखा, उन्हें हर तरफ़ औरतें भागती-कांपती नजर आयीं।
हिन्दा अभी तक अपने दोनों हाथ अपने सर पर रख कर डर से मुर्दा बनी खड़ी थी।
अबू दुजाना ने खुदा का शुक्र अदा किया कि उन के हाथ से कोई कत्ल नहीं हुआ। अगर ऐसा होता तो उन की बहादुरी को धब्बा लग जाता।
उन्हों ने हिन्दा को पहचान लिया। हिन्दा से बोले उत्वा की बेटी ! जागो, मैं तुम को छोड़ता हूं। यह सुन कर हिन्दा की जान में जान आयी।
जिस वक्त अबू दुजाना मार-काट में लगे हुए थे, हजरत हमजा (र.अ) भी बहादुरी बौर जांबाजी से लड़ रहे थे। उन की बेपनाह तलवार काफिरों को खीरे-ककड़ी की तरह काट रही थी। जिस पर वे हमलावर होते, वही क़त्ल होकर खाक व खून में लोटने लगता। उन के बहादुर हमलों से कुफ्फार घबरा गये।
वह हमला करते-करते कुफ्फार के अलमबरदारों की तरफ बढ़े।
कुफ्फार उन के इरादे को समझ गये। वे रास्ते में रोक बन गये और हर तरफ़ से कट कर उन पर हमलावर हुए।
हजरत हमजा (र.अ) की शहादत
हजरत हमजा ने दो दस्ती तलवार चलानी शुरू की और इस फुर्ती से चलायी कि मुशिरक हैरान रह गये।
उन्हें तलवार नजर न आती थी, बल्कि बिजली की तरह चमकदार-सी लकीर नजर आती थी। उन्हों ने पलक झपकते तमाम हमलावरों को मारकाट कर भगा दिया और अलमबरदारों की तरफ़ बढ़ना शुरू किया।
उन्हों ने इरादा कर लिया था कि मुशरिको के झंडे को झुकाये बिना न रहेंगे। इस इरादे को पूरा करने के लिए वे बड़े जोश व ग़जब में भर कर हमलावर हुए।
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अगरचे कुफ्फ़ार ने कदम-कदम पर आप का मुकाबला किया, पर जो सामने आया, कत्ल हो कर जहन्नम रसीद बना। जिस को आपकी तलवार की हवा भी लगी, वही लम्बा लेट गया।
मुश्रिकों ने समझ लिया कि हजरत हमजा (र.अ) अलमबरदार पर हमला कर के उन के झंडे को गिराना चाहते हैं जो हार जैसा है, इसलिए वे कदम-कदम पर हजरत हमजा से उलझने और उन्हें रोकने लगे।
लेकिन हजरत हमजा रुकने वाले न थे। वह सामने की हर रुकावट को दूर करते हुए बढ़ते ही रहे, यहां तक कि वह बढ़ कर अलमबरदार के करीब ही जा पहुंचे।
कुफ्फारे कुरैश ने अलमबरदार को बचाने के लिए उन पर चारों तरफ़ से तलवारों और नेजों की बारिश शुरू कर दी।
हजरत हमजा ने इस जोश और इस फुर्ती से हमले किये कि कुफ्फार के छक्के छूट गये।
आप अलमबरदार तक पहुंच गये और उस पर हमला कर दिया।
अलमबरदार ने भी करारा जवाब दिया।
हजरत हमजा ने इस हमले को रोक कर निहायत जोश और पूरी ताकत से तलवार मारी, तलवार का निशाना सही रहा। अलमबरदार का सर कट कर दूर जा गिरा।
मुश्रिकों का झंडा जमीन पर आ गिया। अब हजरत हमजा लौटे और पूरे जोश में लौटे।
अभी थोड़ी ही दूर चले थे कि दाहिनी तरफ़ से एक छोटा-सा नेजा आ कर दाहिने पहलू में लगा और बाएं पहलू से पार हो गया। आप का जिस्म कांपा, आंखें ऊपर चढ़ गयीं, आप शहीद हो कर गिरे।
यह नेजा वहशी ने चलाया था, वह हजरत हमजा को शहीद हो कर गिरते देख कर हिन्दा को खुशखबरी सुनाने के लिए दौड़ पड़ा।
मुश्रिक हजरत हमजा की बहादुरी देख चुके थे। वे नफ़रत और गुस्से से भरे हुए थे, उन्हों ने उन्हें गिरते हुए देखा तो कुछ शरीर बुजदिलों ने उन की लाश पर घोड़े दौड़ा दिये।
घोड़ों ने लाश को पामाल कर दिया था। उस वक्त भी लड़ाई पूरे जोर व शोर से चल रही थी। तलवारें चमक रही थीं, खून की छीटें उड़ रही थीं।
जख्मी चिल्ला रहे थे, बहादुर नारे लगा रहे थे।
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अबू सुफ़ियान भी बड़ी बहादुरी से लड़ रहा था। वह जोश व गैरत दिला-दिला कर अपनी फ़ौज की हिम्मत बढ़ा रहा था।
हजरत हंजला (र.अ) ने दूर से उसे देखा, वह इस तरफ़ लपके।
चूकि हंजला और अबू सुफ़ियान के बीच में सैकड़ों मुश्रिक लड़ रहे थे, इसलिए उन्हों ने पहले मुश्रिकों का सफाया करना शुरू किया। उन की तलवार इतनी खतरनाक थी कि जिस के सर पर पड़ती, दो टुकड़े किए बिना न रहती।
बूतपरस्त उन के हमलों को रोकते थे, पर कोई कोशिश कामियाब न होती थी। जो कोई कभी बढ़ कर उन के सामने आया, उन की तलवार ने उसे काट कर डाल दिया, इसलिए उन्हों ने बहुत बड़ी तायदाद में मुशरिको को काट-काट कर डाल दिया।
एक बार उन्हों ने जोश में आ कर हमला किया, अक्सर कुफ्फार को कत्ल किया। लाइन की लाइन को उलट कर अबू सुफ़ियान के करीब पहुंच गये।
अबू सुफ़ियान ने उन्हें देखा। वह उन्हें गैज व गजब से भरा हुआ देख कर घबरा गया। सहम कर पीछे हटा।
हंजला ने बढ़ कर वार किया। क़रीब था कि उन की तलवार अबू सुफ़ियान का खात्मा कर दे कि पीछे से शहाद बिन अस्वद ने हमला कर के इस तरह तलवार मारी कि दाहिने कंधे से दाखिल हो कर बायें कंधे से पार निकल गयी।
हजरत हंजला का सर दूर जा कर गिरा और लाश जमीन पर गिरकर तड़पने लगी।
अबू सूफ़ियान ने घोड़ा दौड़ा कर उन की लाश को रौंद डाला।
हजरत अली (र.अ) की बहादुरी
हजरत अली (र.अ) अभी तक बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे। वह दुश्मनों को मारते-काटते उस जगह पहुंच गये, जहां मुश्रिकों का झंडा झुका पड़ा था। उन के उस जगह पहुंचते ही एक आदमी ने झंडा उठा लिया।
अभी वह झंडे को अच्छी तरह उठाने भी न पाया था कि हजरत अली (र.अ) की तलवार उस के सर पर पड़ी, वह वहीं ढेर हो गया।
उस के गिरते ही झंडा फिर जमीन पर आ रहा। झंडे को उठाने के लिए एक आदमी और आगे बढ़ा और अलमबरदार की हिफ़ाजत के लिए टुकड़ी भी तैयार हो गयी।
हजरत अली (र.अ) ने झंडे को उठते देखा, तो वह जोश में आ गये। बड़ी खूरेज लड़ाई शुरू हो गई।
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हजरत अली (र.अ) घिर चुके थे और तनहा थे। वह बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे। लड़ते-लड़ते वह फिर अलमबरदार के करीब पहुंच गये और हमला कर के उसे मार डाला।
झंडा फिर गिर पड़ा। एक काफ़िर ने लपक कर फिर झंडा उठा लिया। काफ़िरों ने फिर हजरत अली (र.अ) को घेर लिया।
हजरत अली ने और जोश से हमला किया और नये अलमबरदार को फिर मार डाला।
मुसलमानो का जोश
एक और मोर्चे पर हजरत नजर बिन अनस, हजरत साद बिन रुबै, हजरत बिलाल, हजरत काब, हजरत अबू बक्र सिद्दीक, हजरत उमर, हजरत जियाद, हजरत अम्मारा ने मिल कर निहायत जोश से हमला किया। उन की तलवारें इतनी तेज चमकतीं कि सर कट कर अलग हो जाते और धड़ जमीन पर आ गिरते।
इसी तरह हर मोर्चे पर मुसलमान जोश व गजब से भरे हुए लड़ रहे थे। खून में सनी हुई तलवारें अपना काम कर रही थीं। खून के छींटे उड़-उड़ कर इस तरह गिर रहे थे, जैसे खुन की बारिश हो रही हो।
अब दोपहर होने वाली थी। धूप में तेजी आ गयी थी। जवान पसीने में डूबे हुए थे।
मुसलमानों ने जोश में आ कर अल्लाहु अक्बर का जोरदार नारा लगाया और जोरदार हमला बोल दिया। इस हमले ने मुशरिको के कदम उखाड़ दिये। वे पीछे हटे।
मुसलमानों ने एक और हमला कर दिया।
मुशिरको के कदम उखड़ गये। वे बूरी तरह पसपा हो गये। अपनी अनगिनत लाशें छोड़ कर भागने लगे। मुसलमान उन का पीछा करने के लिए दौड़े।
औरतों की सिपहसालार हिन्दा भी भागी।
वे नवजवान औरतें, जो दफ़ बजा-बजा कर जवानों को उभार रही थीं, दफ़ फेंक कर भागीं।
मर्द चिल्ला रहे थे, औरतें चीख रही थीं। भागते-भागते वे अपने खेमों से भी आगे निकल गये।
मुसलमानों ने दूर तक लाशें बिछा दीं। कुफ्फार का सिपहसालार अबू सुफ़ियान भी भागा। खेमे खाली हो गये, मुसलमानों ने उन पर छापा मार दिया और उन्हें लूटना शुरू किया।
मुशरिक बद-हवासी में भाग कर दूर निकल गये, इतनी दूर कि मुसलमानों की पकड़ से बाहर हो गये। औरतें गिरती-पड़ती वहीं पहुँच गयी। इस के बाद वे एक जगह जमा हो कर मश्विरा करने लगे।
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मुसलमानों में इख़्तेलाफ़ का अंजाम
कुफ्फ्रारे कुरैश हार खा कर बड़ी बद-हवासी में भागे थे। मुसलमानों ने पीछा कर के उन्हें उन के खेमों से और दूर धकेल दिया था।
जब वे खेमों को भी छोड़ कर भागे, तो तमाम मुसलमान इधर-उधर से सिमट-सिमट कर उन के कैम्प में जा पड़े। उन की हर चीज लूटी और पामाल की जाने लगी। ।
मुसलमानों का वह मुहाफ़िज दस्ता, जो हुजूर (ﷺ) के हुक्म से उहद की घाटी में हजरत अब्दुल्लाह की सरकरदगी में मुकर्रर किया गया था, मुश्रिकों को हार कर भागते हुए देख कर उनका पीछा करने में लग गया।
हुजरत अब्दुल्लाह ने रोक कर कहा, मुसलमानो ! क्या करते हो ? हुजूर (ﷺ) का हुक्म है कि दूसरा हुक्म मिलने तक इस जगह पर ठहरे रहो, यहां से हरकत न करो। तुम इस जगह को छोड़ते हो, तो यह नाफरमानी में दाखिल है।
कुछ लोगों ने जवाब दिया, मुश्रिकों को हार हो गयी। उन का झंडा मैदान में बहुत देर से पड़ा है, मुसलमान उन का पीछा कर रहे हैं, मुम्किन है मुश्रिक पलट पड़ें और हमारी मदद की जरूरत पड़ जाए।
हजरत अब्दुल्लाह (र.अ) ने कहा, मगर हम को ताकीद की गयी है कि हम इस जगह से हरकत न करें।
एक मुजाहिद ने कहा, यह हुक्म और ताकीद लड़ाई के वक्त तक के लिए थी, पर अब मुसलमानों की जीत हो चुकी है, इसलिए अब हमारा इस जगह ठहरना बेकार है। यह कहते ही तमाम मुजाहिद चले और पीछा करने वाले मुसलमानों से जा मिले। सिर्फ पांच आदमी उस जगह रह गये।
सूरज पूरी तेजी से चमक रहा था, धूप हर चीज़ को गरमा रही थी। अब्दुल्लाह बिन जुबैर (र.अ) अपने चार साथियों के साथ घाटी के किनारे पर खड़े लड़ाई के मैदान की तरफ़ देख रहे थे। यकायक उन्हों ने घोड़ों के टापों की आवाज सुनी। वे हैरानी के साथ इधर-उधर देखने लगे।
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आवाज घाटी से आ रही थी।
अब्दुल्लाह ने अपने साथियों से पूछा, क्या तुम भी घोड़ों की टापों को सुन रहे हो?
हां, सुन रहे हैं, बहुत तेजी से घोड़े आ रहे हैं, एक मुजाहिद ने कहा।
ये कौन लोग हो सकते हैं ? अब्दुल्लाह ने पूछा।
यह नहीं कहा जा सकता, शायद कुफ्फ़ारे मक्का हों, एक मुजाहिद ने कहा।
ये सभी निहायत गौर और तवज्जोह से घाटी की तरफ़ देखने लगे।
थोड़ी ही देर में घाटी के दूसरी तरफ़ से सवारों का दस्ता आता नजर आया।
अब्दुल्लाह (र.अ) ने उन लोगों को पहचान लिया। यह कुफ्फ़ारे कुरैश का दस्ता था, खालिद बिन वलीद की सरकरदगी में आ रहा था। खालिद उस वक्त तक मुसलमान न हुए थे।
बात यह हुई कि जब मुसलमान मुश्रिकों का पीछा करने दौड़ पड़े और घाटी के मुहाफ़िज भी चले गये, तो खालिद ने दूर से घाटी को देख लिया। वह इस की अहमियत को खूब जानते थे। उन्हों ने अपने सवारों का दस्ता लिया और एक मील का चक्कर काट कर पहाड़ी के पीछे पहुंचे और वहां इस्लामी मुजाहिदों की नजरों से बचते हुए घाटी में दाखिल हो गये।
उन्हों ने आते ही अब्दुल्लाह और उन के साथियों पर हमला कर दिया।
अब्दुल्लाह ने फ़ौरन म्यान से तलवार खींच ली। उन के साथियों ने भी तलवारें खींच कर बुलन्द की और दुश्मनों पर पिल पड़े।
लड़ाई शुरू हो गयी। मुसलमान सिर्फ पांच थे और दुश्मन सौ थे।
नतीजा यह निकला कि मुसलमान पसपा हुए, यहां तक कि हजरत अब्दुल्लाह (र.अ) और उन के बाकी साथी सभी बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गये।
To be continued …
इंशाअल्लाह ! सीरीज के अगले पार्ट में हम देखेंगे नबी ऐ करीम (ﷺ) का दुश्मनो के घेरे में आना
और अल्लाह की नुसरत से कुफ़्फ़ारो पर फतह पाना।