इस्लाम में पुरुष को एक से अधिक पत्नी रखने की अनुमति के होने पर कई भाई आपत्ति जताते हैं कि स्त्री पुरूष समानता तो तभी सिद्ध होगी जब जिस तरह गरीब स्त्रियों को सहारा देने के लिए पुरुषों को एक से अधिक पत्नियों का भार वहन करने की शिक्षा दी गई, उसी तरह निर्धन पुरुषों का भार वहन करने के लिए सम्पन्न स्त्रियों को भी एक से अधिक पति रखने की शिक्षा दी जाती….!!!
…. देखिये विवाह के बहुत से उद्देश्य होते हैं, जीवनसाथी का भरण पोषण उनमें से केवल एक उद्देश्य है, लेकिन विवाह के लिए इसके अलावा भी बहुत सी बातें ध्यान में रखनी होती हैं…. इस्लाम मे विवाह का उद्देश्य बताया गया है कि व्यक्ति अपनी पाक दामनी की सुरक्षा के लिए विवाह करे, न कि उन्मुक्त यौन सम्बन्ध बनाने के लिए…. यानी विवाह का मतलब ये हो कि इस विवाह में व्यक्ति को यौन संबंधों की सन्तुष्टि मिल जाये और उसके इधर उधर व्यभिचार करने की संभावना खत्म हो जाये, तथा एक साफ सुथरे दाम्पत्य जीवन के साथ वो समाज में सम्मान के साथ रह सके.. विवाह का मतलब ये न हो कि बिना किसी सामाजिक उत्तरदायित्व के व्यक्ति खाली उन्मुक्त यौन संबंध बनाए और फिर विवाह खत्म कर दे….!!!
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…. विवाह संस्था में स्त्रियों और पुरुषों को इस्लाम में वही कर्तव्य निभाने को दिये गए जिनके साथ प्राकृतिक तौर पर वो न्याय कर सकें यानी स्त्री जो प्राकृतिक तौर पर रचनात्मक कार्यों में रुचि रखती है, जिसका रुझान एक स्थान पर रुक कर चीज़ों की साज सम्हाल का अधिक होता है, इसलिए उसे अपने घर की साज सम्हाल की, बच्चों को पालने पोसने की ज़िम्मेदारी दी गई, जबकि पुरूष शक्ति प्रदर्शन और भागदौड़ के कामों में रुझान रखता है, तो उसको श्रम करके धनोपार्जन करने व अपने पत्नी बच्चों के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी दी गई..
…. देखा जाए तो स्त्री और पुरूष को दाम्पत्य जीवन में दी गई भूमिकाएं इसलिए भी परफेक्ट हैं क्योंकि गर्भावस्था के समय स्त्री को यूँ भी लम्बे समय तक एक जगह रहकर आराम करने की ज़रूरत होती है, यदि स्त्री पुरूष की भूमिका अदल बदल होतीं, पुरुष पर घर की साज सम्हाल और स्त्री पर धनोपार्जन के लिये भागदौड़ की ज़िम्मेदारी डाली गई होती तो हर बार गर्भधारण के समय और फिर शिशु के दूध पीने की अवस्था तक औरत को मजबूरन घर पर रहना पड़ता और दम्पत्ति का घर चलने में परेशानी खड़ी होती,
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…. अब विवाह संस्था के भीतर यौन संबंधों की संतुष्टि एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है इसलिए स्त्रियों और पुरुषों दोनों पर इस विषय में भी ऐसी ज़िम्मेदारियाँ डाली जानी आवश्यक थीं, जिनको प्रत्येक आराम से पूरा कर सके, तो इस्लाम में पुरुषों को तो बहुपत्नी की अनुमति दी गई है, जब वो प्रत्येक पत्नी के प्रति कर्तव्य (आर्थिक और दैहिक दोनों ही कर्तव्य) पूरे कर सके (यदि वो प्रत्येक पत्नी के प्रति कर्तव्य पूरे न कर सके तो उसे भी एक ही पत्नी रखने का आदेश दिया गया है, क़ुरआन (4:3) में आया है कि “..किन्तु यदि तुम्हें आशंका हो कि तुम उनके साथ एक जैसा व्यवहार न कर सकोंगे, तो फिर एक ही पर बस करो, इसमें तुम्हारे न्याय से न हटने की अधिक सम्भावना है”),
पर इस्लाम मे स्त्री को बहुपति की इजाज़त नही दी गई
…. ऐसा इसलिये क्योंकि पुरुषों की शारिरिक बनावट प्राकृतिक तौर पर ऐसी होती है कि वो यौन संबंधों को लेकर ज्यादा व्यग्र होते हैं और अपनी साथी से बार बार सेक्स की मांग किया करते हैं, और अगर एक पुरुष की एक से अधिक पत्नियां भी हों तो भी वो सेक्स की दृष्टि से एक से अधिक स्त्रियों की दैहिक मांग सरलता से पूरी कर सकता है…
…. जबकि स्त्रियों की प्राकृतिक बनावट ऐसी होती है कि वो यौनेच्छा को लेकर बहुत कम व्यग्र होती हैं और अक्सर किन्ही भी कारणों से अपने पुरुष साथी की सेक्स की मांग को टाल दिया करती हैं…. आप पत्रिकाओं में यौन परामर्श के कॉलम्स में बहुतायत में यही सवाल पढ़ सकते हैं कि पत्नी सेक्स से भागती रहती है … उसका कारण उपरोक्त ही है कि स्त्री प्राकृतिक तौर पर बहुतायत में सेक्स की चाह नही रखती, और इस कारण वो केवल एक ही पुरुष साथी से संतुष्ट हो जाती हैं, बल्कि उनका साथी ही अधिक सेक्स की चाह रखता है, और इनके सेक्स की मांग ठुकरा दिया करने पर इनसे असन्तुष्ट रहता है…. सोचिये अगर एक स्त्री के एक से अधिक पति हों और उनकी एक ही कॉमन पत्नी हो तो वो पति सेक्स को लेकर कभी सन्तुष्ट हो सकेंगे ?
…. एक पति अपनी गर्भवती पत्नी के आगे सेक्स की मांग नही रखता क्योंकि पत्नी के गर्भ में उसका ही शिशु पल रहा है, ये सोचकर वो अपने शिशु की सुरक्षा के लिए खुद ही पत्नी से सेक्स करने से रुकता है, पर सोचिये बहुपति की स्थिति में जब पत्नी एक पुरुष से गर्भवती होगी तो दूसरा पुरूष, या दूसरे दो तीन पुरुष अपनी सेक्स की मांग पूरी करने से किसी और के बच्चे के लिए क्यों रुकना चाहेंगे, और अगर पत्नी के ही मूड को वे ध्यान में रखेंगे तो मासिक धर्म के समय दूसरे पुरुषों से गर्भधारण के समय पत्नी उनके साथ सेक्स के लिए तैयार नहीं होगी, ऐसे में एक से अधिक पतियों में से प्रत्येक पति की बारी कितने दिनों पर आ सकेगी ?? और पुरूष इतना लंबा इंतज़ार बिना किसी लाभ क्यों करेंगे ?
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….. बहुपति का नियम इसलिए भी नहीं रखा गया था ताकि होने वाली सन्तान के पिता को लेकर कोई संशय न रहे, जब एक पति हो और उसकी एक पत्नी हो, या एक से अधिक पत्नी हों, अपनी पत्नियों की प्रत्येक सन्तान के विषय में पुरूष को पूरा विश्वास रहता है कि ये मेरी ही सन्तान है और वो सहर्ष सन्तानों को अपना नाम देता है और उनकी जिम्मेदारी उठाता है, लेकिन बहुपति की स्थिति में सन्तान के पिता को लेकर भारी संशय बना रहेगा.. आप आज डीएनए टेस्ट से बच्चे के सही पिता का पता लगाने की बात कह सकते हैं, लेकिन अगर चार पतियों की महिला के बच्चे से जिस पति का डीएनए मैच हो उसे फिर भी शक हो कि डीएनए रिपोर्ट बच्चे के असली पिता ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए बदल दी है, और वो बच्चे की ज़िम्मेदारी उठाने से इनकार कर दे तो ? जब तक डीएनए टेस्ट नही था ये खतरा पूरी तरह से बना हुआ था कि सारे पतियों की सन्तानों के जीवन यापन का भार अंततः उनकी माँ पर डालकर पुरुष चले जाते… और आज भी ये खतरा पूरी तरह टला नही है, क्योंकि जब इंसान के मन में शक पड़ जाए तो फिर उसे टेक्नोलॉजी में हेरफेर का शक भी ज़रूर होगा…. इसलिए पहले से ही विश्वास बनाए रखने वाली व्यवस्था ज़्यादा ठीक है…
या फिर इस लड़ाई झगड़े की स्थिति आने वाली बात को भूल भी जाएं तब भी क्या एक से अधिक पतियों की एक पत्नी उनके बीच बिना सेक्स की इच्छा किये, सेक्स डॉल बनकर नही रह जाएगी ? पतियों के भरण पोषण का अधिकार देकर बहुपति जायज़ कर देने का प्रश्न करने वाले ये भी नही सोचते कि बच्चे तो अंततः एक स्त्री को ही पैदा करने पड़ेंगे, और उसका हर पति जब उस स्त्री से अपनी दो तीन सन्तानें चाहेगा तो ये स्त्री बच्चे पैदा करती रहेगी या पतियों के भरण पोषण के लिए कारोबार करेगी ?
…. अब इन सब सवालों पर आपका जवाब ये हो कि पुरूष कॉमन पत्नी के अलावा भी दूसरी स्त्रियों से विवाह कर लें तो इस स्त्री पर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा.. तो हम ये पूछेंगे कि फिर इस स्त्री से उनके विवाह का अर्थ क्या होगा सिवाय उन्मुक्त काम सम्बन्ध के ? और जब पुरुष को केवल अपने प्रति समर्पित किसी स्त्री से विवाह करना ही पड़ेगा तो उसका कई पुरुषों के प्रति समर्पित स्त्री से विवाह करना बेमानी साबित होता है, तो फिर उसका न करना बेहतर…!!
असल बात ये है कि इस्लाम में स्त्री को जो भी कर्तव्य और अधिकार दिए गए, वो उसकी क्षमताओं के साथ पुरी तरह से न्याय करने वाले हैं, ....वो लोग जो कुतर्क करते हैं कि इस्लाम मे स्त्री यहां पुरुष के समान नही आंकी गई, वहां समान नही आंकी गई, उन लोगों के आक्षेप सतही होते हैं, ध्यान से सोचें तो समझ में आ जाता है कि जो व्यवस्था इस्लाम ने दी, उससे बेहतर व्यवस्था वहां हो ही नहीं सकती थी…!!
और हां इस्लाम ने स्त्री को मां, बहन, बेटी, नर्स, गुरु और धर्म गुरु, बिजनेस वुमेन और पत्नी की अनेक भूमिकाओं मे पूरा सम्मान और असंख्य अधिकार सौंपे हैं, उनमें से एक भूमिका “पत्नी” के पति के प्रति कर्तव्यों की यहाँ चर्चा की गई है, और स्पष्ट है इस भूमिका की चर्चा करते समय शरीर सुख और वंश वृद्धि का जिक्र होगा ही क्योंकि ये बातें विवाह के मुख्य उद्देश्यों मे सम्मिलित हैं, और न सिर्फ स्त्री बल्कि पुरुष भी स्त्री को शरीर सुख और संतान देता है, अत: शब्दजाल न फैलाइएगा कि इस्लाम में स्त्री को केवल भोग की वस्तु समझा गया है, सवाल भोग पर किया जाएगा, तो जवाब भी भोग पर ही दिया जाएगा… धन्यवाद !!!
- जिया इम्तियाज़ भाई की कलम से…