Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 9
पेज: 76
कूफ्फारे मक्का बिगड़ कर चले गये थे। उन्होंने जाते ही तमाम लोगों को, जो उन के इन्तिजार में बैठे हुए थे, कह दिया कि मुहम्मद सल्ल. सुलह पर तैयार नहीं हैं। हम ने अबूतालिब के सामने हुज्जत पूरी कर ली है। अबू तालिब से कह आए हैं कि मुहम्मद सल्ल. का साथ छोड़ दें, वरना उन के खिलाफ भी कार्रवाई की जाएगी। हम उन्हें गौर करने लिए कल तक की मोहलत दे आए हैं।
अगर उन्हों ने अपने भतीजे को समझा दिया और वह हमारे माबूदों की मुखालफ़त से बाज आ गया, तो ठीक है, वरना फिर मुहम्मद (ﷺ) पर, मुसलमानों पर, दूसरे साथ देने वालों पर इतनी सख्तीयां करो कि उन के लिए जीना दुश्वार हो जाए।
एलान कर दो कि मुहम्मद (ﷺ) खाना काबा में न घुसने पाए, अपने जवानों से कह दो कि जिस जगह मुहम्मद (ﷺ) जाएं, बाजार हो या सड़क या गली-कूचा, हर जगह उन के पीछे. जाएं, उन्हें किसी से बात न करने दें, शोर मचाएं, मुसलमान और इस्लाम को बुरा कहें, मुसलमानों के खुदा को बुरा कहें, मुहम्मद (ﷺ) को कहें।
लड़कों को इस पर उभारे कि वे हर मुसलमान पर, मुहम्मद (ﷺ) पर, मुसलमानों की हिमायत करने वालों पर धूल फेंकें, ईटें मारें, पत्थर बरसायें और उन्हें इतना तंग करें कि वे नये मजहब को छोड़ दें और हमारे माबूदों को पूजने लगें।
तमाम लोगों ने इस बात को पसन्द किया और इकरार किया कि वे ऐसा ही करेंगे।
कुछ देर बाद यह मज्लिस बर्खास्त हो गयी। लोग उठ-उठ कर अपने घरों की ओर चले गये। दूसरा दिन आया, लेकिन अबू तालिब का कोई जवाब न आया। यह बात समझ ली गयी कि न मुहम्मद (ﷺ) तब्लीग़ से बाज आएंगे, न अबू तालिब उन का साथ छोड़ेंगे।
फिर क्या था, गुंडों, बदमाशों और आवारा जवानों की कई टोलियां बन गयीं कि वे शहर के एक-एक हिस्से में मुसलमानों पर जुल्म ढाने का काम शुरू कर दें।
पेज: 77
गुंडे और बदमाशो के जर्ये मुसलमानो को सताया जाना
हजरत जुबैर रजि० बाजार गये। गुंडे ताक में थे ही, उन के पीछे लग गये। लड़के भी साथ हो लिये। तालियां बजाने, खाक उड़ाने और पत्थर मारने लगे। हजरत जुबैर रजि० जवान थे, आप को गुस्सा आ गया। आप ने लड़कों को डांट-डपट दिया। फिर क्या था, जो मवाद पक रहा था, वह फूट निकला और आवारा, बदमाश लोगों का जमघट आ लगा। सब ने हजरत जुबैर रजि० को बुरा-भला कहना और गालियां देनी शुरू कर दी।
हजरत जुबैर रजि० मामले की नजाकत समझ गये और चुप-चाप वापस चले आये। उस दिन तो नहीं, हां, दूसरे दिन मुसलमान खरीद व फरोख्त के लिए अपने घरों से बाहर निकले, तो बदमाशों ने उन का पीछा करना शुरू किया, उन्हें गालियां दी, उन पर खाक फेंकी, उनको पत्थर मारा और उन के कपड़ों को खींच-खींच कर फाड़ दिया।
मुसलमानों को बुरा भी महसूस हुआ, लेकिन वे कमजोर थे, जानते थे कि अगर जरा भी बोले तो मार खाएंगे, कत्ल कर डाले जाएंगे। मजबूरन सब्र किया और अपने-अपने घरों को लौट आये।
फिर यह सिलसिला गालियां देने, मार-पीट करने की हद तक न रहा, बल्कि बड़े-बड़े पत्थर रास्ते से उठा कर इन बदमाशों ने घरों में फेंकना शुरू किया। गन्दगियां डालने लगे। मुसलमान सख्त परेशान हुए। उन का घरों से निकलना बन्द हो गया।
पेज: 78
नबी (ﷺ) को काबे में दाखिले की पाबन्दी
हुजूर सल्ल. काबा शरीफ़ में नमाजें पढ़ा करते थे आप मकान से निकल कर हरम शरीफ़ की तरफ़ चले। आवारा लड़कों और बदमाशों ने आप को देख लिया। झुण्ड के झुण्ड आप के पीछे चले। लड़कों की तो हिम्मत न हुई कि आप की शान में कोई गुस्ताखी कर सकें, हां, हरम शरीफ़ के दरवाजे पर कुरैशी सरदारों को खड़ा पाया। जब दरवाजे में दाखिल होने लगे, तो अब सुफ़ियान ने रोक दिया। अबू जहल ने कहा, मुहम्मद (ﷺ) ! आज से हरम शरीफ़ तुम्हारे लिए बन्द कर दिया गया है। तुम इस काबिल नहीं कि हमारे माबूदों की जियारत करो।
हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, अबू जहल! तू दिन-ब-दिन गुमराही और शिर्क में पक्का होते जा रहा है, मैं खानाकाबा में तुम्हारे झूठे माबूदों की जियारत करने नहीं जाता बल्कि इसलिए जाता हूं कि वह मक़ामे महमूद हैं। हमारे और तुम्हारे दादा हजरत इब्राहीम खलीलुल्लाह का बनाया हुआ मकान है खाना-ए-खुदा है,खुदा की नमाज पढ़ने जाता हूं। किसी को भी यह हक नहीं कि वह किसी को काबा में दाखिल होने से रोके।
अबू जहल हंसा और बोला, यह तमाम कुरैश के सरदारों की राय है कि मुसलमानों को खाना काबा में दाखिल न होने दिया जाए। हरम शरीफ़ का दरवाजा हमेशा के लिए तमाम मुसलमानों पर बन्द कर दिया गया है। अब कोई मुसलमान दाखिल न हो सकेगा।
हुजूर (ﷺ) ने फरमाया, तो क्या मुझे खाना काबा में दाखिल न होने दोगे ?
अबू जहल ने गुस्से में कहा, हरगिज नहीं।
हुजूर (ﷺ) बोले, अगर मैं तुम्हारे रोकने से न रुकं?
अबू सुफ़ियान भी उन सरदारों में मौजूद था, तलवार को म्यान से खींच कर बोला, माबूदों की कसम ! यह तुम्हारे टुकड़े कर डालेगी।
पेज: 79
हुजूर (ﷺ) ने दरवाजे की तरफ़ बढ़ते हुए कहा, अच्छा, तो तुम तलवार चलाओ, खुदा मेरी मदद करेगा।
अबू जहल डरा कि हुजूर (ﷺ) जरूर हरम में दाखिल हो जाएंगे। उस ने उस मज्मे की तरफ़ देखा, जो सामने खड़ा था और कुछ इशारा किया।
फ़ौरन बदमाश बढ़ कर आए। उन्हों ने हुजूर (ﷺ) को बुरा-भला कहना और पीछे धकेलना शुरू किया। मजबूरन हुजूर (ﷺ) को पीछे लौटना पड़ा।
उस दिन हरम का दरवाजा मुसलमानों के लिए बन्द कर दिया गया।
अब कुफ्फारे मक्का ने तमाम मुसलमानों पर इतना जल्म करना शुरू कर दिया कि उनका अपने घरों से बाहर निकलना कारोबार करना जिंदगी की जरूरतों की चीजों को खरीदना-बेचना मुश्किल हो गया। जब खाने वगैरह का सामान ही न आता, खाना कहां से मिलता। लोग भूखे रहने लगे। आप (ﷺ) को इस से बड़ी चिन्ता हुई, इस लिए आप ने सोचना शुरू कर दिया कि अब क्या किया जाए।
इधर जोशीले मुसलमान कूफ्फ़ार का मुकाबला करने के लिए हुजूर (ﷺ) से इजाजत तलब करने लगे। हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मैं लड़ाई की इजाजत बगैर खुदा के हुक्म के नहीं दे सकता। सब्र व शुक्र कर के सख्तियां बर्दाश्त करो। अभी खुदा तो हमारी आजमाइश कर रहा है।
हम को इस आजमाइश में पूरा उतरना चाहिए।
लोग खामोश हो गये। ..
पेज: 80
अब्दुल्लाह बिन मसऊद रजि० का हरम में सूरह रहमान की तिलावत और कुफ़्फ़ारो का बिगड़ना
हजरत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रजि० एक सहाबी थे। आप निहायत जोशीले थे। आप ने जब सुना कि मुसलमानों को हरमे मोहतरम में कुरआन शरीफ़ की तिलावत ऊंची आवाज से करने और नमाज़ पढ़ने से रोक दिया गया है, तो आप को जोश आ गया। आपने फ़रमाया कि हरमे मोहतरम में जा कर खुदा का कलाम पढूंगा।
मुसलमानों ने समझाया कि कुक्फार दुश्मनी पर आमादा हैं कि वे मुसलमानों को खत्म करने की प्लानिंग कर रहे हैं। तुम्हारा हरमे मोहतरम में जाकर कुरआन शरीफ़ ऊंची आवाज मे पढ़ना गवारा न कर सकेंगे, यकीनन मार डालेंगे, इस लिए अभी खामोश रहो। जब खुदा का हुक्म होगा, तुम ही क्या सब खाना काबा में जाकर ऊंची आवाज में कुरआन शरीफ़ पढ़ेंगे।
हजरत अब्दुल्लाह रजि० ने कहा, मेरा दिल नहीं मानता कि कुफ्फ़ारे मक्का हरम में जाकर बुतों की पूजा करें, हम वहां कुरआन शरीफ़ भी न पढ़ सकें। परवाह नहीं कि अगर वे मुझे मार डालेंगे, मैं जरूर आज ही वहां जा कर कुरआन शरीफ़ पढूंगा।
मुसलमानों को बड़ी चिन्ता हुई। जानते थे कि जिस वक्त अब्दुल्लाह कुरआन शरीफ़ की तिलावत करेंगे। फ़ौरन ही कुफ्फ़ार उन को क़त्ल कर डालेंगे।
मुसलमानों में इस्लाम ने आपसी मुहब्बत पैदा कर दी थी। सब ने समझाया, अब्दुल्लाह चुप हो गये।
मुसलमानों ने समझ लिया कि वे अपने इरादे से बाज आ गये हैं, इसलिए किसी ने उन की निगरानी न की, पर अब्दुल्लाह मौके की घात में रहे और मौका मिलते ही सीधे हरम शरीफ़ पहुंचे, कुफ्फार ने उन को रोका, पर बावजूद इस रुकावट के वह मकामे इब्राहीम पर जाकर खड़े हो गए और बड़ी अच्छी आवाज से सूरः रहमान की तिलावत करने लगे।
पेज: 81
कुफ्फारे मक्का ने जब रहमान का नाम सुना, तो बहुत बिगड़े और जब यह सुना कि सितारे और पेड़ उसको सज्दा करते हैं, तो उन्होंने माबूदों की तौहीन समझ लिया, उनके ख्याल में उनके माबूद ही उस सज्दे के काबिल थे।
वे बिगड़ गये। सब के सब हजरत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रजि० के ऊपर बरस पड़े और घुसे, लात और मुंह पर तमांचे मारने लगे, लेकिन अब्दुल्लाह रजि० ने उन की मार का ख्याल भी न किया, पिटते रहे।
कुफ्फ़ारे मक्का को इस पर बड़ा तैश आया। उन्होंने आप का मुंह नोच लिया। आप के गालों पर इतने धूसे लगाये कि आप का चेहरा लहू लुहान हो गया।
हजरत अब्दुल्लाह रजि० जब सूरः रहमान खत्म कर चुके, तब लौटे, मगर किस शान से कि आप के तमाम कपड़े फाड़ डाले गये थे, चेहरा लहूलुहान कर दिया गया था। आप ने मकान पर पहुंच कर कपड़े बदले, मुंह धोया, घावों पर मरहम लगाया और चुपचाप बैठ गये।
कुफ्फारे करैश ने लोगों से यह भी कह दिया था कि जो आदमी ऊंची आवाज से कुरआन पढ़े, उसे मारो। अगर कोई उसे घर पर पढ़ता ( हो, तो उस के घर में घुस जाओ और उसे उस वक्त तक मारो, जब तक वह कुरआन शरीफ़ पढ़ना न बन्द कर दे)।
काफ़िरों ने इस पर सख्ती से अमल करना शुरू कर दिया। वे मुसलमानों के घरों के पास इसी बात में खड़े हो जाते थे कि जब वे ऊंची आवाज से कुरआन शरीफ़ पढ़ें, तो फ़ौरन उन के घरों में घुस कर उन्हें मारें डालें
हजरत अबू बक्र रजि० कुरैश के रईसों में से थे। बड़े आदमी थे। जब वह मुसलमान हुए तो उनके पास चालीस हजार दिरहम नक़द मौजूद थे। बहुत से खादिम, गुलाम, लौंडियां थीं, लेकिन कुफ्फ़ार के डर से वे भी कुरआन मजीद जोर से न पढ़ते थे।
इस तरह मुसलमानों का माल, इज्जत-आबरू, जान सब खतरे में था। अब सही मानो में उनकी जिंदगी तंग कर दी गयी थी। भूखे-प्यासे छिपे अपने घरों में बैठे रहते थे।
हुजूर सल्ल. ने यह कैफियत देख कर हब्शा को हिजरत करने का हुक्म दिया। मुसलमान इस हुक्म से बहुत खुश हुए।
पेज: 82
हब्शा की हिजरत
उस जमाने में हब्शा का बादशाह ईसाई था। उस का नाम सहमा। था। अरब उसे नजाशी कहते थे। चूंकि मुसलमान जानते थे कि कुफ़्फ़ारे मक्का उन्हें आसानी से हिजरत न करने देंगे, जरूर रोकेंगे। इस लिए उन्हों ने चुपके-चुपके तैयारी शुरू की।
जब तैयारी पूरी हो गयी, तो एक दिन-रात को जब कुफ्फार सो रहे थे, चुपके से मक्का से निकले और जद्दे की तरफ़ रवाना हुए। 10 माह रजब सन् ०५ नबवी में यह छोटा सा काफ़िला घर-बार, वतन, रिश्तेदारों और दोस्तों को छोड़ कर रवाना हुआ। इस छोटे-से काफिले में सिर्फ़ बारह मर्द और चार, औरतें थीं।
मर्दो में हजरत उस्मान बिन अफ्फान, हजरत जुबैर बिन अव्वाम, हजरत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद, हजरत हुजैफ़ा बिन उत्बा, मुसअब बिन उमैर, हजरत अब्दुल्लाह बिन औफ़, हजरत अबू सलमा मस्जूमी, हजरत उस्मान बिन मजऊन, हजरत आमिर बिन रबीआ, हजरत अबू हुरैरह तालिब बिन उमर, हजरत सुहैल बिन बैजार थे।
औरतों में हजरत रुक्कया, हुजूर सल्ल. की साहबजादी, हजरत उस्मान बिन अफ्फान की बीवी, हजरत सहला, हजरत उम्मे सलमा, हजरत लैला थीं।
यह मुहाजिरों का पहला काफ़िला था जो हिजरत कर के हब्शा की तरफ़ चला।
To be continued …
इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा ….
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे और अपनी राय भी दे …