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Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 47
Sulah Hudaibiya in Hindi
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एहसान भुला देने का अंजाम
दोमतुल जुन्दल की लड़ाई से वापसी के वक़्त उऐना बिन हुसैन ने हुजूर (ﷺ) से मदीना की चरागाहों में अपने ऊंट चराने की इजाजत हासिल कर ली थी और वह चरागाहों में आ गया था। पूरे एक साल तक वह अपने ऊंट चरागाहों में निहायत इत्मीनान से चराता रहा।
मुसलमानों ने उस के साथ इस हद तक बेहतर सुलूक किया कि अपने मवेशी तो नाकारा चरागाहों में भेज दिये और उस के ऊंटों के लिए बेहतरीन चरागाहें छोड़ दीं। साथ ही जिस बीज की उसे जरूरत होती थी, मुहैया कर देते थे और उस के मवेशियों की हिफ़ाजत करते थे। सत्तू और खजूरें तोहफ़े के तौर पर देते थे।
लेकिन उऐना चूंकि मुशरिक था, बुतपरस्त था, मुसलमानों को तरक़्क़ी देख-देख कर कुढ़ता था। वह फ़िक्र में था कि किसी दिन मौक़ा पा कर मुसलमानों के ऊंट हांक ले जाए।
इत्तिफ़ाक़ से एक दिन ऐसा मौक़ा उस के हाथ आ गया। जुमा का दिन था। चरागाहों में ऊंटों की हिफ़ाजत पर जो मुसलमान मुक़र्रर थे, वे सब जुमा की नमाज पढ़ने चले गये।
तमाम चरागाहें खाली रह गयीं। सिर्फ़ एक आदमी बनू ग़िफ़ार का अपनी बीबी के साथ रह गया था।
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उऐना की दगाबाजी और गफारी औरत को अगवा करना:
उऐना ने इस मौके को ग़नीमत जाना।
वह गीफ़ारी के पास आया और उसे धोखे से क़त्ल कर के बीबी को क़ब्जे में किया और मुसलमानों के सारे ऊंट जमा कर के ले चला।
जब वह चरागाहों से निकला तो अम्र बिन अकबअ (र.अ) ने देख लिया। उऐना ! क्या तुम मुसलमानों के एहसान का यही बदला दे रहे हो कि उनके ऊंट लिए जा रहे हो ? उस ने पूछा।
सुनो अम्र ! उऐना ने कहा, कोई ग़ैर-मुस्लिम कभी मुसलमानों का एहसान नहीं ढोएगा। जब भी मौक़ा पाएगा वह उन्हें नुक्सान पहुंचाने से नहीं चूकेगा। मदीना की चरागाहें तो हमारी थीं, तुमने जबरदस्ती उन पर कब्जा कर लिया है।
उस ने आगे कहा –
हम ने तुम्हें और तुम्हारे नबी (ﷺ) को धोखा देकर एक साल तक इन चरागाहों से फ़ायदा उठाया, अब मैं ऊंटों को ले जा रहूं। तुम हमारा पीछा न करना, वरना नुक्सान उठाओगे।
अम्र को उस की बाते सुनकर बड़ा गुस्सा आया, लेकिन वह तन्हा थे सौ-सवा सौ कुफ़्फ़ार थे, वह उन का मुकाबला किसी तरह भी न कर सकते थे; पर गुस्से को जब्त न कर सके, कड़क कर बोले- एहसान फरामोश उऐना ! तुझे इस दगाबाजी की सजा दी जाएगी। और शायद इस ग्रिफ़ारी औरत को लिए जाने की भी ?
उऐना ने हवाई से हंसते हुए कहा।
अब तक अम्र बिन अकबअ ने उस औरत को नहीं देखा था। औरत बंधी हुई थी और उसके मुंह में कपड़ा ठुसा हुआ था।
अम्र यह देख कर बेक़रार हो गये और उन्हों ने फ़रमाया- बदमाश ! जालिम ! इस औरत का भी बदला लिया जाएगा।
उऐना ने कहा :
और शायद तुम इस औरत के शौहर का भी इंतिक़ाम लोगे, जिसको मैं अभी-अभी क़त्ल कर के आया हू ?
अब अम्र जोश व ग़ज़ब से कांपने लगे, उन्हों ने फ़रमाया –
ओ दग़ाबाज ! कमीने! जफ़ाकार ! क्या तू एक मुसलमान को शहीद कर आया है ? खुदा की कसम इस का भी तुम से इंतिक़ाम लिया जाएगा।
उऐना ऐयारी की मुस्कराहट के साथ आगे चला गया।
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अम्र तेज क़दमों से चले, मदीना पहुंचे, मस्जिदे नबवी में हाजिर हुए और हुजूर (ﷺ) की खिदमत में पहुंच कर बोले –
आह हुजूर (ﷺ) ! दगाबाज और मक्कार उऐना ने हमारे एहसानों का बदला यह दिया है कि बनू ग्रिफ़ार के एक आदमी को शहीद कर के और उस की बीवी को गिरफ़्तार कर के तमाम ऊंट ले कर चला गया।
हुजूर (ﷺ) को यह खबर सुनते ही पहले तो बड़ा गुस्सा आया, फिर रंज हुआ।
आप फौरन उठे।
जितने सहाबा किराम (र.अ) उस वक़्त मस्जिद में मौजूद, वे भी खड़े हो गये और मस्जिद से निकल पड़े, ऊंट पर सवार हुए और सहाबा किराम उऐना का पीछा करने के लिए रवाना हो गये।
आप की रवानगी के बाद मिक्दाद, उबादा, साद, उकाशा वग़ैरह सहाबा किराम भी रवाना हुए और हुजूर (ﷺ) से जा मिले।
अस्लमा बिन अम्र तेज ऊंट पर सवार हुए।
वह उऐना की इस हरकत से बहुत दुखी थे इस इस वजह से निहायत तेजी से ऊंट दौड़ाए चले जा रहे थे। हुजूर (ﷺ) जब चश्मा जू किरद पर पहुंचे तो आप ने साद विन जैद को सरदार मुक़र्रर करके सहाबा किराम की एक जमाअत को उऐना का पीछा करने लिए रवाना फरमाया और खुद चश्मे के पास ठहरे रहे।
अगरचे उऐना तेजी से भागा चला आ रहा था और वह मदीना की हदों से बाहर निकल कर अपनी हदों में दाखिल होना चाहता था कि अस्लमा बिन अम्र उस के क़रीब पहुंच गए।
उन्हों ने दूर ही से चिल्ला कर कहा –
बुजदिल मक्कार ! दगाबाज ! ठहर कहां भागा जाता है ?
उऐना ने पलट कर देखा, अस्लमा (र.अ) तन्हा ऊंट भगाये चले आ रहे थे, इस लिए उस ने अपने आदमियों से कहा-
ठहरो, सिर्फ़ एक ही आदमी चला आ रहा है, उसे भी क्यों न कत्ल कर दिया जाए।
उस के तमाम आदमी रुक गये।
अलबत्ता पांच या सात आदमी ऊंटों को बराबर हांकते हुए आगे बढ़ गये।
अस्लमा (र.अ) उऐना और उस के साथियों के करीब पहुंचे।
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वह इस कदर जोश और तैश में भरे हुए थे कि बिना इस बात का ख्याल किये हुए कि दुश्मन एक सौ पचास के करीब हैं, फौरन ऊंट से उतर कर उन के मुकाबले में जा डटे।
उऐना ने तलवार निकाली और उस के साथियों ने भी तलवारें सोत ली।
अस्लमा ने भी तलवार खींची और बग़ैर किसी किस्म के खौफ़ और झिझक के उऐना पर हमला कर दिया ।
उऐना उस की हिम्मत देख कर हैरान रह गया।
अभी वह हैरानी से निकल भी न पाया था कि अस्लमा की तलवार उऐना के सर पर पहुंच चुकी थी।
उऐना अस्लमा की तलवार देख कर घबरा गया। उस ने जल्दी से ढाल सामने कर दी।
लेकिन ढाल के सामने आने से पहले ही तलवार उस के कंधे पर पड़ चुकी थी, जो उसे चीरती हुई हड्डी के पास जा कर रुकी।
उऐना के तन बदन में आग सी लग गयी।
वह बुजदिल था, मौत के डर से भाग कर अपने साथियों के बीच में जा घुसा।
उस के मुकाबले से हटते ही कई काफ़िरों ने बढ़ कर अस्लमा पर हमले किये।
अस्लमा ने बड़ी फुर्ती और चाबुकदस्ती से इन हमलों को रोका और खुद भी बढ़ कर हमला किया और दो काफ़िरों को एक के बाद एक मार गिराया।
फिर क्या था, खून के प्यासे दुश्मन चारों तरफ़ से हमलावर हो गये। अस्लमा ख़ौफ़जदा बिल्कुल नहीं हुए, बल्कि तीसरे दुश्मन को भी कत्ल कर दिया।
उऐना, जिसके कंधे से अब भी खून का फव्वारा छूट रहा था, कराहने की आवाज में बोला, लोगो ! इस कातिल को जल्दी ठिकाने लगाओ। उसे क्या खबर थी कि उस के साथी अस्लमा को मौत का फ़रिश्ता समझने लगे हैं और उन के सामने जाते या उन पर हमला करते हुए उन की जान निकलती है।
अभी यह सिलसिला जारी ही था कि मुसलमानों का दस्ता वहां पहुंच गया। उन्हों ने दूर ही से अल्लाहु अक्बर का नारा लगा कर कुफ़्फ़ार के डरपोक दिलों में तहलका मचा दिया।
लेकिन जब मुसलमानों का यह दस्ता पहुंचा, तो ठीक उसी वक्त उऐना की टोली भी आ गयी । उऐना ने पहले ही से इस का इन्तिजाम कर रखा था।
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अब बाकायदा लड़ाई शुरू हुई और लगभग एक घंटे तक चली।
इस एक घंटे की लड़ाई में कुफ्फार के साठ-सत्तर आदमी कत्ल हुए। लेकिन मुसलमानों का एक आदमी भी शहीद न हुआ, अलबत्ता कुछ तायदाद ऐसी थी, जो जख्मी हो गयी थी, लेकिन जख्मी मुसलमान और ज्यादा जोश व ग़जब से लड़ रहे थे।
यह कैफ़ियत देख कर कुफ़्फ़ार में डर फैल गया। वे भागे और उऐना भी भाग खड़ा हुआ।
मूसलमानों ने उन का पीछा किया, यहां तक कि जब वे बहुत दूर निकल गये, तो मुसलमान लौट आये और वापस आ कर ग़िफ़ारी औरत को आजाद किया। ऊंटों को एक जगह जमा किया और वापस मदीना के रास्ते पर रवाना हुए।
जब वे जूक़िरद चश्मे पर पहुंचे, तो आप (ﷺ) ने उन्हें मुबारकबाद दी। उस दिन वहीं सब लोगों ने आराम फ़रमाया, दूसरे दिन फिर वह क़ाफ़िला मदीने की ओर रवाना हुआ।
सुलह हुदैबियाँ
कुपफ़ार की चालें मुसलमानो को आराम व इत्मीनान से न बैठने देती थीं।
सिर्फ़ मुशरिक ही मुसलमानों के दुश्मन न थे, बल्कि यहूदी सब से ज्यादा तक्लीफें पहुंचा रहे थे। उन्हों ने हुजूर (ﷺ) को शहीद करने की साजिश और कोशिश की थी, लेकिन वक्त पर आप को इस की इत्तिला हो गयी और आप उन के फंदे से निकल आयें।
दूसरी तरफ़ मुसलमानों पर जितनी सख्तियां हो रही थीं, वे उतने ही पक्के होते जा रहे थे और उन का दायरा बढ़ता जाता था।
चूंकि अब मुसलमानों की ताक़त बराबर बढ़ती जाती थी, इसलिए हुजूर (ﷺ) ने हब्श के उन मुहाजिरों को, जो इस्लाम के शुरू में हब्श को हिजरत कर गये थे, बुलाना चाहा।
आप (ﷺ) ने अम्र बिन उमैया को हब्श जाने और मुहाजिरों को अपने साथ लाने का हुक्म दिया।
हजरत अम्र तैयार हो गये।
हुजूर (ﷺ) ने हजरत अली (र.अ) को हुक्म दिया कि वह शाहे हब्श के नाम एक खत लिखें ।
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हज़रत अली (र.अ) झल्लीदार कागज, कलम और दवात ले कर आ गये।
हुजूर (ﷺ) ने खत लिखवाना शुरू किया। खत में जहां इस्लाम की भरपूर दावत पेश की गयी थी, वहीं मुहाजिर मुसलमानों को पनाह देने पर बादशाह हब्श नजाशी का शुक्रिया अदा किया गया था।
खत पर हुजूर (ﷺ) ने मोहर लगवायी और हजरत अम्र को रवाना कर दिया।
हजरत अम्र के रवाना होने के बाद हुजूर (ﷺ) ने एक रात सपने में देखा कि सहाबा किराम (र.अ) के साथ खाना काबा में दाखिल हो रहे हैं।
पांच साल हिजरत को गुजर चुके थे। इस बीच किसी मुसलमान को भी मक्का में जाने और खाना काबा का तवाफ़ करने की नौबत न आयी थी, लेकिन हरम की जियारत की आरजू सब को थी।
इस ख्वाब ने तवाफ़े काबा की तहरीक पैदा क कर दी। आप (ﷺ) ने उमरे का इरादा कर लिया और सहाबा को मक्का चलने की तैयारी का हुक्म दे दिया।
यह फ़रमान सुन कर मुसलमान बहुत खुश हुए। उन्हों ने तैयारियां शुरू कर दीं।
जब तैयारियां पूरी हो गयीं, तो जिल कदा के महीने सन ०६ हि० में एक हज़ार चार सौ सहाबा किराम के साथ आप मक्का मुजवबमा की तरफ़ रवाना हुए।
हुजूर (ﷺ) ने मदीने ही में एहराम बांध लिया था और कुर्बानी के सत्तर ऊंटों को क़ाफ़िले वालों के आगे रवाना कर दिया था, ताकि देखने वाले दूर ही से समझ लें कि मुसलमान लड़ने के इरादे से नहीं आ रहे हैं। यह शानदार क़ाफ़िला बड़ी शान व शौकत के साथ रवाना हुआ।
मुशरिक इस क़ाफ़िले को देख कर डर गये और उन्हों ने अपने आप ही यह समझ लिया कि मुसलमान मक्का में क़ुरैश वालों से लड़ने के लिए जा रहे हैं।
यह खबर बिजली की तरह तमाम इलाक़ों में फैल गयी।
इस ख़बर से मक्के वालों में बड़ी बेचैनी फैली और उन्हों ने फ़ौज जमा करनी शुरू कर दी।
जब मुसलमानों का यह क़ाफ़िला जुल हुलेफ़ा पहुंचा, तो हुजूर (ﷺ) खुजाआ क़बीले के एक आदमी को एहतियात के तौर पर जासूस की हैसियत से कुरैश के इरादों की खबर मालूम करने के लिए मक्का रवाना किया और धीरे-धीरे सफ़र जारी रखा।
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जब आप अस्फ़ान पहुंचे तो खुजाई जासूस मक्के से वापस आया। उस ने बताया कि क़ुरैशे मक्का और दूसरे मुशरिक यह समझ रहे हैं कि मुसलमान लड़ाई के इरादे से आ रहे हैं, इसलिए उन्हों ने लड़ाई के लिए बहुत बड़ी फ़ौज तैयार कर ली है।
हजूर (ﷺ) ने सहाबा किराम से मश्विरा किया।
सब से पहले हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ (र.अ) ने फ़रमाया –
अगरचे हम लोग सिर्फ़ उमरे के लिए आए हैं, लड़ाई लड़ने की नीयत से नहीं आए, लेकिन अगर कोई आदमी, कोई खानदान या क़बीला या कोई कौम हमारे और बैतुल्लाह शरीफ़ के बीच रुकावट बनना चाहे, तो हम को उस का मुक़ाबला करना चाहिए।
बेशक अगर ऐसा हुआ तो हम को फ़ौरन एहराम खोल कर लड़ाई शुरू कर देनी चाहिए, हजरत उमर (र.अ) ने कहा।
दुनिया में किसी आदमी को काबे की जियारत से रोकने का किसी को भी हक नहीं, हजरत अली ने कहा, अगर क़ुरैश ऐसा करेंगे, तो हम जिंदगी की आखिरी सांस तक लड़ेंगे।
दूसरे तमाम सहाबियों ने भी यही राय दी।
आप (ﷺ) ने क़ाफ़िले को आगे बढ़ने का हुक्म दे दिया।
जब आप मक्का के क़रीब पहुंचे, तो मालूम हुआ कि खालिद बिन वलीद जो अभी इमांन नहीं लाये थे वो मुश्रिकाने मक्का की तरफ से सवारों का एक दस्ता ले कर कुराननईम पर मुक़ाबले के लिए आ गये हैं।
हुजूर (ﷺ) ने सीधा रास्ता छोड़ दिया और दाहिनी तरफ़ कतरा कर सफ़र शुरू कर दिया। मतलब यह था कुफ़्फ़ार इस क़ाफ़िले की हरकत से खबरदार न हो सकें।
चुनांचे ऐसा ही हुआ।
मुसलमानों का यह क़ाफ़िला अचानक कुराअन्नईम पर जा पहुंचा।
खालिद बिन वलीद मुसलमानों के यकायक आ जाने से घबरा गये। वह अपने सवारों के साथ बड़ी बदहवासी से भागे और सीधे मक्के में जा कर दम लिया और मुसलमानों के अचानक आ जाने का हाल कुछ इस अन्दाज से बयान किया कि कुफ़्फ़ार के दिलों पर मुसलमानों की हैबत छा गयी।
मुसलमानों का क़ाफ़िला बराबर चलता रहा, यहां तक कि वे उस पहाड़ी तक पहुंच गये, जिस के दूसरी तरफ़ मक्का का पड़ोसी मैदान था और कमसिन लड़कियों को जिन्दा दफ़न करने के काम आता था।
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काफ़िला बराबर चलता रहा, यहां तक कि वह हुदैबिया पर पहुंच गया ।
हुजूर (ﷺ) ने क़ाफ़िले को यहां उतरने का हुक्म दिया।
क़ाफ़िला रुका, ऊंट बिठा दिये गये, सामान उतारा गया और ख़ैमे लगा दिये गये।
आप के ठहरने के दूसरे दिन क़ुरैशे मक्का की तरफ़ से हुज़ैल बिन वरका हुजूर (ﷺ) की खिदमत में हाजिर हुए और हुजूर (ﷺ) से पूछा –
ऐ मुसलमानों के हादी ! आप मक्का में किस इरादे से आये हैं ?
क्या तुम ने ऊंटों की कतारें नहीं देखीं ? हुजूर (ﷺ) ने जवाब दिया, क्या तुम ने नहीं समझा कि ये कुर्बानी के ऊंट हैं ? याद रखो हम लड़ने नहीं आए हैं, हां, अगर हम को हज से रोका गया, तो फिर लड़ाई जरूरी हो जाएगी और इस की जिम्मेदारी पूरी की पूरी कुरैशे मक्का पर होगी।
हुजैल यह सुन कर चुप हो गये ।
उन्हों ने मक्के में जा कर एलान कर दिया कि घबराने की बात नहीं, मुसलमान लड़ने नहीं, बल्कि हज की नीयत से आए हैं।
हुजैल के कहने से कुरैशे मक्का को थोड़ा इत्मीनान हुआ। लेकिन जो खौफ़ और अंदेशा था, वह अपनी जगह पर बाक़ी रहा।
फिर उन्हों ने हुलैस बिन अलम को क़ासिद बना कर भेजा।
जब वह मक्के से बाहर आया और उस ने कुर्बानी के ऊंटों की लम्बी कतारें देखीं, तो रास्ते से ही वापस लौट आया और कहने लगा –
तुम लोग बेमतलब डर रहे हो। मुसलमान लड़ने के इरादे से नहीं आए हैं, सिर्फ़ हज की नीयत से आए हैं।
अबू सुफ़ियान बिगड़ गया, बोला –
तुम जंगली आदमी हो, इन बातों को नहीं जानते। अगर मुसलमान हज के इरादे से भी आए हैं, तब भी हम इन्हें मक्के में दाखिल न होने देंगे। हुलैस को यह सुन कर बड़ा गुस्सा आया, उस ने गजबनाक हो कर कहा-
अगर तुम मुसलमानों को रोकोगे, तो मैं अपने क़बीले के तमाम आदमियों को ले कर तुम से लडूंगा।
हुलैस अहाबीश क़बीले का सरदार था।
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अबू सुफ़ियान खूब जानता था कि हुलैस जो कुछ कहता है, वह कर गुजरता है। इसलिए उस ने चापलूसी के लहजे में कहा –
हुलैस ! तुम भी मजाक में बिगड़ गये। तुम खुद सोचो कि मुसलमानों के आने से हमारे माबूदों की तौहीन होगी, हमारे माबूदों को जिल्लत का मुंह देखना है, हमें लोग बुजदिल और डरपोक कहेंगे, तो क्या यह अच्छी बात है ?
मैं यह हरगिज नहीं चाहता कि किसी की तौहीन हो पर अपनी तौहीन भी तो बरदाश्त नहीं सकता, हुलैस ने कहा, अगर तुम मुसलमानों को मक्के में दाखिल नहीं होने देना चाहते, तो न दो, लेकिन किसी को बुजदिल और जंगली कह कर उस की तौहीन तो न करो।
वाक़ई मुझसे गलती हुई, अबू सुफ़ियान ने कहा, मुझे माफ़ कर दीजिए।
ठीक है, मुझे अब कोई शिकायत नहीं है, हुलैस ने कहा।
फिर हुजूर (ﷺ) ने अपने आने की गरज बताने के लिए हजरत खराश बिन उबैदा खुजाई (र.अ) को सालव नामी ऊंट देकर कुरैशे मक्का के पास रवाना किया।
खराश सीधे अबू सुफ़ियान के पास पहुंचे।
उस वक्त अबू सुफ़ियान अपने मकान के सामने बैठा था। उस के पास इक्रमा, खालिद, अम्र बिन आस और कुछ दूसरे सरदार भी बैठे थे। हज़रत खराश ऊंट से उतर कर उन के पास पहुंचे और ऊंची आवाज में बोले –
ऐ अहले क़ुरैश ! मैं हजरत मुहम्मद (ﷺ) का क़ासिद हूं और आप को यह बताने के लिए आया हूं कि हम मुसलमान लड़ने के लिए नहीं आये, सिर्फ़ काबा की जियारत करने और कुर्बानी अदा करने आये हैं। हज के दिनों में यह किसी आदमी को भी हक हासिल नहीं है कि वह लोगों को हज की रस्में अदा करने से रोके, अरबों का यह पुराना क़ानून है और अभी तक इस पर अमलदरामद होता चला आ रहा है, इसलिए आप हमारे लिए रोक न बनेंगे और हम को हज कर लेने देंगे।
लेकिन अगर हम हज न करने दें …? इक्रिमा ने कहा।
तब हम लड़ेंगे, खराश ने निडर हो कर कहा और सब को क़त्ल कर के काबे की जियारत करेंगे।
थोड़ा सा सोचने के बाद इक्रिमा कड़का –
ओ गुस्ताख मुसलमान ! तू हम को डराने आया है। याद रख तेरी जिन्दगी और मौत हमारे हाथ में है।
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तुम ग़लत कहते हो, हजरत खराश ने लापरवाही से कहा – मौत और जिन्दगी तो खुदा के हाथ में है।
मुश्रिक खुदा का नाम सुन कर भड़क उठे।
उन में से कई उठे। उन्हों ने पहले सालब नामी ऊंट को ज़िब्ह कर डाला और फिर हजरत खराश की तरफ़ लपके।
हज़रत खराश ने तलवार खींच ली और जोश व ग़ज़ब से भर कर कहा –
कुत्तो ! कासिद पर हमला करते हो। अगर तुम लड़ना ही चाहते हो, तो याद रखो, मैं जिस क़ौम का क़ासिद हूं, वह आंधी की तरह तुम पर टूट पड़ेगी और तुम सब को क़त्ल कर डालेगी।
हज़रत खराश की खिंची तलवार को देख कर कुफ़्फ़ार का जोश दब गया ।
हुलैस भी उस मज्लिस में मौजूद था, बोल पड़ा –
ऐ कुरैशियों ! यह क्या तरीका है, किसी क़ासिद को बुजदिल से बुज-दिल क़ौम भी क़त्ल नहीं करती, तुम यह कलंक का टीका- अपने सर क्यों लेते हो, इसलिए हरगिज तुम किसी क़ासिद से किसी क़िस्म की छेड़खानी न करो। अगर हिम्मत हो तो बाहर निकल कर मुसलमानों से लड़ो।
बेशक हम को क़ासिद को क़त्ल न करना चाहिए, इक्रिमा ने कहा, इस से हमारी क़ौम को दाग़ लग जाएगा। ऐ मुसलमानों के कासिद ! तुम वापस जाओ और अपने रसूल से कह दो कि हम किसी मुसलमान को हरगिज मक्के में दाखिल न होने देंगे।
हजरत खराश ने तलवार म्यान में डाल ली ओर पैदल ही हुजूर (ﷺ) की खिदमत में वापस लौट आए।
आप को पूरा वाकआ सुनाया।
हुजूर (ﷺ) ने सहाबा किराम से मश्विरा किया।
मेरे ख्याल में किसी ऐसे आदमी को हुज्जत पूरी करने के लिए एक बार मक्का रवाना फ़रमाइए, जिस के क़बीले के लोग मक्के में ज्यादा हों, हजरत उमर (र.अ) ने कहा।
यह आखिरी कोशिश है और इसे भी कर लेना चाहिए, हजरत उस्मान (र.अ) ने कहा।
तो फिर किसे भेजा जाए ? हजूर (ﷺ) ने पूछा ।
हजरत उमर को भेज दीजिए, हजरत अबू बक्र सिद्दीक़ ने फ़रमाया।
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मुझे जाने में कोई परेशानी नहीं है, हजरत उमर ने कहा, मगर मेरे क़बीले बनू अदी का एक आदमी भी मक्का में मौजूद नहीं हैं, इसलिए मेरा क्या असर पड़ेगा ? अगर उस्मान को भेजा जाए, तो अच्छा है, क्योंकि उन के क़बीला बनी उमैया के बहुत से असरदार और ताक़तदर लोग मक्का में मौजूद हैं।
यही मुनासिब है, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, उस्मान ! तुम जाओ और कुरैश वालों को समझा-बुझा कर इस बात पर तैयार कर दो कि वे हम को हज करने दें।
हजरत उस्मान उठे, अपने ख़ैमे पर आएं, हथियारबन्द हुए और चल पड़े।
बैअते रिज्वान
जब वह मक्का में दाखिल हुए तो रास्ते ही में अबान बिन सईद उनके क़बीले के असरदार सरदार, उन से मिले और उन को अपनी हिमायत में ले कर इक्रिमा के मकान पर पहुंचे।
उस वक्त बहुत से असरदार लोग इक्रिमा पास मौजूद थे।
ऐ मक्का वालो ! हजरत उस्मान ने सभी को खिताब करते हुए फ़रमाया, यह हज का जमाना है, लड़ाई का नहीं।
हम मुसलमान भी इस जमाने का एक एहतराम करते हैं, जिस तरह से तुम करते हो। हम सब इब्राहीम खलीलुल्लाह की औलाद हैं । यह काबा उन्हीं का बनाया हुआ है। यह काबा सब के लिए बनाया गया है, इसलिए हम को हक़ है कि हम उमरा करें, कुर्बानी करें, इसलिए तुम रोको नहीं।
तुम सही कहते हो उस्मान ! इक्रिमा ने कहा, हर आदमी को हज करने का पूरा-पूरा हक़ है, लेकिन हम मुसलमानों को हज करने की इजाजत नहीं दे सकते, इस में हमारी तौहीन है, अलबत्ता तुम को हज करने की इजाजत है, तुम हज कर सकते हो।
मैं अकेले हज नहीं कर सकता, हजरत उस्मान ने कहा।
अच्छा, तुम नजरबंद किये जाते हो, इक्रिमा ने कहा, दूसरा हुक्म मिलने तक तुम मक्का से बाहर नहीं जा सकते।
अगर तुम इस की खिलाफ़ वर्जी करोगे, तो क़त्ल कर दिये जाओगे।
किसी को इस हुक्म के खिलाफ़ कुछ कहने की जुर्रत न हुई।
हजरत उस्मान को रोक लिया गया।
जब हज़रत उस्मान कई दिन तक वापस न लौटे, तो आमतौर पर मुसलमानों ने समझ लिया कि वह शहीद कर दिये गये।
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हुजूर (ﷺ) को इस बात से बहुत रंज हुआ। आप (ﷺ) ने फ़रमाया कि – अगर कुफ़्फ़ार ने उस्मान को शहीद कर डाला है, तो जब तक बदला न लेंगे, वापस न लौटेंगे।
आप उस वक्त पेड़ के नीचे बैठे थे। वहीं आप ने बैअत लेनी शुरू कर दी।
सहाबा किराम बैअत करने के लिए टूट पड़े, इस तरह सब ने बैअत की। इस बैअत का नाम बैअते रिज्वान है ।
जिस वक्त बैअत ली जा रही थी, उसी वक़्त हज़रत उस्मान (र.अ) तशरीफ़ ले आए।
आप ने आ कर पूरा वाकिआ सुनाया।
मुसलमानो ने समझ लिया कि कुफ़्फ़ार बग़ैर लड़े मानेंगे नहीं, इसलिए उन्हों ने लड़ाई की तैयारियां शुरू कर दीं।
जब लड़ाई की तैयारियां की जा रही थीं, तो एक दिन क़बीला बनी सक़ीफ़ का मशहूर सरदार उर्वा बिन मसऊद हजूर (ﷺ) की खिदमत में हाजिर हुआ।
उस वक्त लोग ज़ुहर की नमाज पढ़ने के लिए वुजू कर रहे थे ।
हुजूर (ﷺ) भी वुजू कर रहे थे ।
मुसलमानों की भारी तायदाद आप के चारों तरफ खड़ी थी और वुजू का पानी जमीन पर न गिरने देती थी ।
उर्वा मुसलमानों का यह मंजर देख कर हैरान रह गया ।
नमाज के बाद उर्वा को हुजूर (ﷺ) ने तलब फ़रमाया ।
उर्वा ने हाजिर हो कर सलाम किया और हुजूर (ﷺ) के पास बैठ गया।
आप (ﷺ) ने उस से पूछा, उर्वा ! तुम कैसे आये हो ?
या मुहम्मद ! उर्वा ने कहा, आप ने क़ौम के टुकड़े कर दिये, मुल्क में एक बड़ा फ़ितना पैदा कर दिया। आप उम्मी हैं, भला उम्मी भी कहीं रसूल हो सकता है ?
आप ने मुस्करा कर फ़रमाया, उर्वा ! मानो, न मानों, लेकिन मैं खुदा का रसूल हूं, रहा फ़ितने का सवाल, तो मैं तुमसे या तुम्हारी क़ौम से कभी लड़ने नहीं आया, तुम खुद लड़ने के लिए बद्र और मदीना जैसी जगहों पर पहुंचे। अब हम हज करने आये तो तुम हज नहीं करने देते, बताओ फ़ितना तुम पैदा करते हो या मैं ?
उर्वा ने हाथ फैला कर कहा, आप हमारे माबूदों को बुरा क्यों कहते हैं ?
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आप (ﷺ) ने फ़रमाया, मैं बुतपरस्ती से मना करता हूं। वह आदमी जो जरा भी अक्ल रखता है, समझ सकता है कि अपने हाथों से पत्थर तराश कर उन्हें पूजना कहां की अक्लमन्दी है ? इबादत के लायक़ तो सिर्फ़ अल्लाह है। इसलिए मैं तो उसी की इबादत की दावत देता हूं।
उर्वा जब बात करता था, तो हाथ फैला कर बात करता था और हाथ इतनी दूर ले जाता कि हुजूर (ﷺ) की दाढ़ी छू जाती।
यह गुस्ताखी थी और यह गुस्ताख़ी सहाबा किराम को बहुत खल रही थी ।
लेकिन आप मक्का पर चढ़ कर क्यों आए ? उर्वा ने फिर हाथ फैला कर कहा ।
मैं लड़ाई के इरादे से नहीं आया, सिर्फ़ काबा की जियारत के लिए आया हूं, आप (ﷺ) ने जवाब दिया ।
उर्वा ने फिर हाथ फैलाया और इस बार फिर हुजूर (ﷺ) की दाढ़ी छू गयी ।
हजरत मुग़ीरा बिन शोबा (र.अ) से यह गुस्ताखी देखी न गयी।
उन्हों ने जल्दी से तलवार खींच कर तलवार का कब्जा उर्वा के हाथ पर मार कर कहा, उर्वा ! अदब कर !
उर्वा चौंका। उस ने नजर उठायी तो देखा कि मुसलमान बहुत खफ़ा हो रहे हैं ।
मुसलमानों की ग़ज़बनाक शक्लें देख कर वह कुछ डरा ।
उस ने हाथ फैला फैला कर बातें करना बन्द कर दिया ।
हुजूर (ﷺ) ने उस से कहा, उर्वा ! तुम अपनी क़ौम में वापस जाओ और उनसे कहो कि मुनासिब यही है कि वह हमें हज करने की इजाजत दे दें या हम से समझोता कर लें और अगर वे अपनी जिद पर अड़े रहे, तो मजबूरन हम को लड़ना पड़ेगा ।
मैं उन्हें समझाऊंगा, उर्वा ने कहा और कल आप को इस का जवाब मिल जाएगा ।
इसके बाद उर्वा उठा और सलाम कर के रवाना हो गया ।
उस ने मुसलमानों को रसूले खुदा (ﷺ) का जो एहतराम करते देखा, उस से वह बहुत ज्यादा मुतास्सिर हुआ । चुनांचे उस ने मक्का में पहुंच कर कुरेश वालों को पूरी बात बता दी ।
कुरैश ने अपनी मज्लिसे शूरा बुला ली।
बहस मुबाहसे के बाद यही तय हुआ कि समझौता कर लिया जाए।
To be continued …
इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई में तावूंन फरमाए।
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Aage ki post jaldi post kare please….. hum aage post krte hai so problems arahi hai..
Siritunnabi part 48 kab aplod karenge
Aslamu ale kum,
Hum bade besabri se सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 48 ka intrzaar kar rahen hain.
Baraye Meherbani part 48 upload kijiye.
Jazak Allah Khairan.
Aslamu ale kum,
Hum sabhi log bade besabri se सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 48 ka intezaar kar rahen hain.
Aap se guzarish hai ki jald hi post karen.
Baraye Meherbani part 48 upload kijiye.
Jazak Allah Khairan.