सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 45

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 45 Khandak ki Ladayi

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 45
Jung-e-Khandaq in Hindi

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खंदक की लड़ाई

क़बीला बनु नजीर के यहूदी देश से निकाले जाने पर कुछ तो मुल्क शाम चले गये थे और कुछ खैबर में आबाद हो गये थे, उन्हें देश से निकाले जाने का बड़ा रंज था। वे इस्लाम और मुसलमानों के बहुत बड़े दुश्मन हो गये थे।

उन्हें खूब मालूम था कि अरब के मुश्रिक आमतौर से और कुफ़्फ़ारे मक्का के खासतौर से मुसलमानों के दुश्मन हैं, जरा-सी तहरीक पर इस्लाम और मुसलमानों की जड़ काटने पर तैयार हो जाते हैं।

चुनांचे उन के बड़े-बड़े लोग, जैसे हुय्य बिन अख़तब, सलाम बिन मुश्कम, कनाना बिन रुबैअ, होस बिन कैस और अबू उम्मारा वग़ैरह मुक्तफ़िक़ व मुत्तहिद हो कर मक्का की तरफ़ रवाना हुए। चूंकि वे जानते थे कि कुरेशे मक्का का असर तमाम अरबी क़बीलों पर है, अगर उनको लड़ाई पर हमवार कर लिया गया, तो सारे क़बीले मुत्तहिद हो कर उठ खड़े होंगे और फिर मुसलमानों से आखिरी फ़ैसला करने वाली लड़ाई होगी या उस लड़ाई में मुसलमानों की पूरी जड़ कट जाएगी या अरब के मुश्रिक हमेशा के लिए दब जाएंगे।

यह वे जानते थे और खूब जानते थे कि मुसलमानों की तायदाद थोड़ी है। अगर सारे मुशरिक लड़ाई पर तैयार हो गये, तो मुसलमानों की हार यकीनी है।

मक्का में पहुंच कर उन्हों ने क़ौम के बड़ों से मुलाक़ात करनी शुरू की, उन्हें लड़ाई पर उभारा। मक्के के कुरैश तो लड़ाई के लिए पहले से ही तैयार थे, फ़ौरन तैयार हो गये।

उन्हों ने चन्दे की फ़ेहरिस्त खोल दी, वालंटियर भरती करने लगे। शायर और मुकरर देश के कोने-कोने में भेज दिये गये, जिन्हों ने अपनी जादुबयानी से तमाम मुल्क में जोश व गजब की आग भड़का दी। हर खानदान, हर क़बीला, हर देहाती और शहरी अरब लड़ाई के लिए तैयार हो गया, क़रीब क़रीब के लोग मक्का में आ कर जमा होने लगे।

जब बड़ी भारी फ़ौज इकट्ठा हो गयी, तो तमाम क़बीलों के सरदार जमा होकर खाना-काबा में पहुंचे और सब ने इस बात पर हलफ़ उठाया कि जब तक जिन्दा हैं, इस्लाम और मुसलमानों की मुखालफत से मुंह न मोड़ेंगे और इस्लाम की जड़ काटने में कोई कमी न करेंगे साथ ही लड़ाई के मैदान में कट-कट कर मर जाएंगे, पर हार कर न आएंगे, मारेंगे या मर जाएंगे।

इस हलफ़ के बाद फ़ौज का जायजा लिया गया। चार हजार फ़ौजी कील-कांटे से दुरुस्त हो कर लड़ाई के मैदान में जाने के लिए तैयार थे। 

एक दिन फ़ौज के कूच करने के लिए मुकर्रर किया गया। जब वह दिन आया, तो मुश्रिकों की फ़ौज निहायत शान व दबदबा के साथ निकल कर मदीने की तरफ़ चल पड़ी।

अगरचे कुफ़्फ़ार ने कोशिश की कि इस फ़ौज की मुसलमानों को उस वक्त तक रवानगी का इल्म न हो, जब तक कि वे मदीने के सामने न पहुंच जाए, मगर यह बात गैर-मुम्किन थी। तमाम मुल्क में इस फ़ौज के हमले की चर्चा हो गयी और होते-होते यह खबर मदीना में भी पहुंच गयी। 

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मुसलमानों को जब इस फ़ौज के आने का इल्म हुआ, तो उन के दिलों पर असर हुआ, चूंकि उन्हें किसी तरफ़ से किसी मदद की उम्मीद न थी और उन की सारी तायदाद कुफ़्फ़ार की फ़ौज के मुक़ाबले में चौथाई भी न थी, इसलिए उन को बड़ी चिन्ता हुई।

हुजूर (ﷺ) ने मज्लिशे शूरा बुलायी और फ़रमाया –

मुसलमानो ! कुफ्र इस्लाम को चैन से बैठने नहीं देता। इस बार उन्हों ने तमाम मुशरिक क़बीलों को जमा कर टिड्डी दल तैयार किया है। यह लड़ाई फ़ैसला कर देने वाली आखिरी लड़ाई लगती है।

यह तो जाहिर है कि हमारी तायदाद कम है और हम किसी तरह भी कुफ़्फ़ार की फ़ौज का मुक़ाबला नहीं कर सकते। खुले मैदान में मुक़ाबला करना तो तक़रीबन नामुम्किन ही है।

मदीने में कोई क़िला भी ऐसा नहीं है कि जिसमें हम पनाह ले सकें और लड़ाई भी जरूरी है। ऐसी शक्ल में सोच-समझ कर मश्विरा दो कि कौन सा तरीका अपनाया जाए, जिस से बिना भारी नुक्सान के दुश्मन का मुक़ाबला किया जाए।

हज़रत उमर रजि० ने अपनी राय रखने में पहल की –

मुसलमानों ने आजतक जितनी लड़ाइयां लड़ी हैं उनमें तायदाद की कमी ज्यादती का कोई असर नहीं होता था, वे तो सिर्फ़ ख़ुदा के भरोसे पर लड़े हैं, और खुदा ने हमेशा उन की मदद फ़रमायी है। अब भी ख़ुदा ही के भरोसे पर लड़ाई शुरू कर दीजिए। वह जरूर मदद करेगा।

दुनिया में वही क़ौम तरक्की कर सकती है जो अपने पांव पर खड़ा रहना चाहती है, हर कुर्बानी के लिए तैयार हो जाती है। दूसरों का सहारा नहीं ढूंढती। दुश्मन ज्यादा हों तो हों, हमारा काम लड़ना और ख़ुदा का काम अपने मानने वालों की मदद करना है। हमें हर क़ीमत पर लड़ने के लिए तैयार हो जाना चाहिए, यह हजरत अली रजि० का मश्विरा था।

जिस खुदा ने हमें पैदा किया है, उसी ने हमारी मदद का वायदा फ़रमाया है उसी ने हमें सोच-समझ कर काम करने का हुक्म दिया है, हजरत अबू बक्र सिद्दीक़ बोले, यह किसी तरह भी मुनासिब नहीं है कि हम मुट्ठी भर मुसलमान टिड्डी दल कुफ़्फ़ार से खुले मैदान में जा कर लड़ें। इस वक्त हमें सिर्फ़ कुफ़्फ़ार ही का डर नहीं है, बल्कि आस्तीन में छिपे उन सांपों का भी डर है, जिन्हें हम मुनाफ़िक़ कहते हैं। यहूदियों का जबरदस्त कबीला बनू कुरैजा दुश्मनों से सांठ-गांठ कर रहा है, ये भी हमारे आस्तीन के सांप बने हुए हैं, ये भी बड़े खतरनाक हैं। मुनासिब है कि कोई ऐसा हिसार क़ायम किया जाए, जिस के अन्दर दुश्मन राह न पा सकें।


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खंदक़ खोदने का मशविरा 

आप जानते ही हैं, मैं फ़ारस का रहने वाला हूं, सलमान फ़ारसी रजि० बोले। फ़ारस वाले जब किसी से लड़ाई लड़ते हैं, तो फ़ौज के चारों तरफ़ खंदक (खाई) खोद लेते हैं, इस से कुछ हिफ़ाजत हो जाती है और अचानक हमलों के अंदेशे बाक़ी नहीं रहते।

अरब में खंदक़ के नाम को भी कोई नहीं जानता था।

खंदक क्या चीज होती है और कैसे तैयार की जाती है ? हजरत उमर रजि० ने पूछा।

खंदक उस गढ़े को कहते हैं, जो फ़ौज के चारों तरफ़ कई गज चौड़ा और कई गज गहरा खोदा जाता है। हजरत सलमान ने बताया, खंदक़ पार किये बिना दुश्मन अन्दर नहीं आ सकता और खंदक़ का पार करना आसान नहीं होता।

यह राय मुनासिब है, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, हमें एक तरफ़ से मैदान में खंदक खोद कर हिसार क़ायम कर लेना चाहिए। 

राय तो मुनासिब है, हजरत उमर रजि० ने फ़रमाया, मेरे ख्याल में अली बात यह है कि हम मदीने के चारों तरफ़ खंदक खोद डालें, इस से मदीना बचा रहेगा और हम अपने घरों में रहते हुए बचाव कर सकेंगे। निहायत मुनासिब है, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया।

चुनांचे इस तज्वीज़ पर सब का इत्तिफ़ाक़ हो गया।

हुजूर (ﷺ) ने पूरे शहर में मुनादी करा दी कि मदीना के तमाम बाशिंदे, चाहे वे मुसलमान हों या मुश्रिक और यहूदी, सब मिल कर खंदक़ खोद दें।

मुसलमान तो मुनादी सुनते ही आ गये, लेकिन मुश्रिक और यहूदी न आए, बल्कि उन्होंने कहला भेजा कि हम मुसलमानों की किसी क़िस्म की मदद नहीं कर सकते।

यह खुली बद-अहदी थी।

मुसलमान उन की बद-अहदी से जरा भी न घबराये न परेशान हुए। वे खंदक खोदने और दुश्मनों का मुक़ाबला करने को तैयार हो गये।

जितने हिस्से में खंदक खोदनी थी, पहले हुजूर (ﷺ) ने नेजा ले कर दायरा खींचा। हजारों गज लम्बा दायरा खिचा। इस दायरे के दस-दस गज के टुकड़े किये गये और हर टुकड़ा एक-एक मुसलमान के सुपुर्द किया गया।

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खुद हजूर (ﷺ) के हिस्से में भी एक टुकड़ा आया। खंदक की खुदाई शुरू हो गयी।

खुदाई का काम दिन व रात हुआ।

खंदक से जो मिट्टी निकल रही थी खांदक़ के किनारे डाल कर पुश्ता बना दिया गया। इस तरह खंदक के किनारे एक फ़सील क़ायम कर दी गयी।

मुसलमानों में से कोई भी ऐसा आदमी न था, जो खंदक न खोद रहा हो, खुद हजूर (ﷺ) भी लगे रहे।

कुफ़्फ़ार के टिड्डी दल के आने की खबरें बराबर आती रहती थीं और साथ ही साथ यह भी मालूम होता रहता था कि कुफ़्फ़ार की फ़ौज हर-हर क़दम पर बढ़ती चली आ रही है। तमाम मुशरिक कबीला कुफ़्फ़ारे मक्का से मिल गये हैं।

इन खबरों से भी मुसलमान नहीं घबराये।

एक दिन हुजूर (ﷺ) को मालूम हुआ कि हुय्य बिन अस्तव बनू कुरैजा के क़िले में उन्हें लड़ाई में शरीक होने पर उभारने आया है और काब बिन असद ने जो बड़ों में है, शरीक होने का इक़रार कर लिया है। आप ने फ़ौरन साद बिन मुआज और साद बिन उबैदा को काब के पास रवाना किया। ये दोनों बुजुर्ग बनी कुरैजा के किले में गये और काब से मिले।

वह बड़ी बेरुखी से इन दोनों के साथ पेश आया। 

साद बिन मुआज ने कहा –

काब ! यह कहां की शराफ़त है कि तुम अपने पड़ोसियों का साथ छोड़ कर ग़ैरों का साथ देने पर तैयार हो, ऐसा न करो।

सुनो साद ! काब ने कहा, मुसलमान हमारे मजहब के खिलाफ़ हैं। हम को उन से अदावत हो गयी है। अगर हम ने मिल कर उन का मुक़ाबला न किया, तो उन की तायदाद इतनी बढ़ जाएगी कि तमाम अरब पर वह आसानी से क़ब्जा कर लेंगे। हुकूमत करने के लिए हम पैदा हुए हैं, न कि मुसलमान ? हम कैसें न उन के खिलाफ़ हथियार उठाएं ?

मगर तुम मुसलमानों से अहद कर चुके हो कि उन के खिलाफ़ हथियार न उठाओगे, हजरत साद ने कहा, जब कोई बाहरी दुश्मन मदीने पर हमला करेगा, तो मुसलमानों के साथ मिल कर लड़ोगे। अब बद-अह्दी क्यों करते हो ? क्या बद-अहदी भी शराफ़त में दाखिल है ?

अक्लमन्द आदमी! काब बोला, हम अहदनामे को काग़ज का पुर्जा समझते है।

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जब तक ताक़त नहीं पैदा होती, अहदनामे की पाबन्दी करते हैं और जब ताक़त बढ़ जाती है, तो अहदनामा चाक कर डालते हैं।

सोचो, तुम्हारी बद-अहृदी पर जमाना तुम को क्या कहेगा ? साद ने कहा।

जमाना हमारी अक्लमंदी की दाद देगा, काब ने कहा।

साद ने बहुत समझाया, मगर काब ने कुछ न समझा और एलानिया मुसलमानों से दुश्मनी और बेजारी का एलान किया।

मजबूर हो कर ये दोनों बुजुर्ग वापस लौट आये और हुजूर (ﷺ) से तमाम वाक़िए बयान कर दिये।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, कुछ परवाह न करो। बनू कुरैजा अपने पांवों पर खुद कुल्हाड़ी मार रहे हैं। हमारा फ़र्ज समझाना था, समझा दिया। वे नहीं समझते तो नुक्सान उठाएंगे।

अभी ये बातें हो ही रही थीं कि सामने से कुफ़्फ़ार की फ़ौज आती नजर आयी। घोड़े, ऊंट, पैदल और सवार बाढ़ की तरह बड़ी शान व शौकत से बढ़े चले आ रहे थे। बहुत से झंडे हवा में लहराते आ रहे थे।

जिस शान और जिस रफ़्तार से यह फ़ौज आ रही थी, उस से साफ़ मालूम होता था कि वह मुसलमानों को बहा ले जाएगी। तमाम मुसलमान मकानों की छतों पर चढ़ गये और फ़ौज के आने का नजारा करने लगे।


अल्लाह की मदद 

कुफ़्फ़ारे अरब की फ़ौज निहायत शान व दबदबे से आ कर खंदक के सामने रुक गयी।

चूंकि अरबों ने खंदक कभी न देखी थी, इसलिए वे खंदक़ को देख कर हैरत में पड़ गये।

इस फ़ौज में बहुत से सरदार और सिपहसालार थे, जिन में से हर एक का अलग झंडा था और सिपहसालारे आजम अबू सुफ़ियान था। अबू सुफ़ियान ने घोड़ा दौड़ा कर मदीने के चारों तरफ़ गश्त लगाया। उसे किसी तरफ़ कोई रास्ता ऐसा नजर न आया, जिस से फ़ौज मदीने में दाखिल हो सकती। मजबूर हो कर उस ने डेरा डालने का हुक्म दिया। 

टिड्डी दल फ़ौज मदीने के चारों तरफ़ थी।

कुफ़्फ़ार का यह हमला कुफ्र की इंतिहाई ताक़त व शौकत का मुजाहरा था, गोया इस्लाम के मुक़ाबले में कुफ्र की यह सब से बड़ी कोशिश थी।

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मुसलमानों ने अपने घर वालों को एक मजबूत और पक्की गढ़ी के अन्दर हिफ़ाज़त की गरज से एक जगह जमा कर दिया और खंदक़ के किनारों पर, मकानों की छतों पर, पहाड़ी के मोर्चे पर मुजाहिदों को लगा दिया।

कई दिन तक कुफ़्फ़ार पेच व ताब खाते रहे कि कैसे और किस तरफ़ से हमला करें। खंदक को पार करना मुश्किल था।

मकानों की छतों पर चढ़ना मुश्किल था, पहाड़ की तरफ़ से कोई रास्ता न था।

कई दिनों के गौर के बाद यही ते हुआ कि खंदक के सामने खड़े हो कर तीरंदाजी की जाए।

खंदक के एक तरफ़ कुफ़्फ़ार के तीरंदाज खड़े हुए, तो दूसरी तरफ़ मुसलमान तीरंदाज भी जम गये।

पूरे दिन तीरों की बारिश होती रही, लेकिन कोई हासिल न निकला। किसी भी फ़रीक़ को कोई नुक्सान न पहुंचा।

दूसरे दिन कुफ़्फ़ार ने खंदक के सामने तीरंदाजों का दस्ता क़ायम कर के कुछ जांबाजों को खंदक की तरफ़ बढ़ने का हुक्म दिया।

उन्हें हिदायत कर दी गयी कि वे पेट के बल रेंग कर चलें।

उनको पेट के बल चलते हुए मुसलमानों ने देख लिया। इस तरफ़ हज़रत उमर और हजरत अली मुकर्रर थे।

हज़रत उमर ने फ़ौरन उस तरफ़ के मुसलमानों को दो हिस्सों में बांट दिया –

एक हिस्सा खंदक के पास पुश्ते की आड़ में छिप कर बैठ गया। दूसरा हिस्सा तीर और कमान ले कर तीर चलाने पर लगा दिया।

अबू सुफ़ियान ने तीरंदाजी का हुक्म दे दिया, मुसलमानों ने भी जवाब दिया।

तीरंदाजी के साथ-साथ कुफ़्फ़ार पेट के बल रेंग-रेंग कर खंदक को पार कर रहे थे और समझ रहे थे कि मुसलमानों ने उन्हें देखा नहीं है, जबकि मुसलमानों ने देख लिया था और वे जान-बूझ कर अभी नजरें चुराये हुए थे।

जब मुशरिको ने खंदक़ के अन्दर उतरना शुरू किया, तो उन मुसलमानों ने जो पुश्त से लगे बैठे थे, तीरों को कमान से इस तरह एक साथ छोड़ा, जैसे कि वे एक ही कमान से निकले हों।

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उनके इन तीरों ने उन मुश्रिकों को जो खंदक़ में उतर रहे थे या खंदक के किनारे पर बैठे अन्दर उतरने का तरीक़ा सोच रहे थे, घायल करना शुरू कर दिया। उन में से जो खंदक में उतर रहे थे, मुर्दा हो कर खंदक में जा पड़े और जो लोग किनारे थे, वे घबरा कर पीछे हटे।

उन के पीछे हटते ही पुश्ते के क़रीब बैठने वाले मुसलमान खड़े हो गये और उन्होंने जल्दी-जल्दी तीर चला कर घबराये हुए मुश्रिकों को तीरों का निशाना बनाना शुरू कर दिया।

भागने वालों में भी बड़ी तायदाद मारी गयी, वरना घायल तो हो ही गयी।

मुसलमानों की इस कार्रवाई ने कुफ़्फ़ार को मरऊब कर दिया।

अगले दिन कुफ़्फ़ार हथियारबन्द हो कर लड़ाई के मैदान में न निकले, हालांकि मुसलमान सफ़ बना कर उन के हमले का इन्तिजार करते रहे। दोपहर के बाद वे भी कमर खोल-खोल कर आराम करने लगे। जाहिर में मुसलमान बेफ़िक्र नज़र आते थे, लेकिन असल में यह बात न थी, उन के सामने बहुत से खतरे थे।

एक खतरा मुनाफ़िक़ों की तरफ से था, जो मुसलमानों को ग़ाफ़िल – पाकर दुश्मनों की रहबरी कर के उन को खंदक में ला सकते थे।

दूसरा खतरा उन यहूदियों की तरफ़ से था, जो गोया मदीने के अन्दर ही थे और जिन्हों ने सांठ-गांठ कर ली थी। न जाने किस वक्त अचानक मुसलमानों पर हमला कर के उन की मुश्किलों को और बढ़ा दें।

तीसरा खतरा टिड्डी दल मुश्रिकों की तरफ़ से था, जो मुसलमानों का सख्ती से घेराव किये हुए थे। 

इन तमाम खतरों और अंदेशों के अलावा रसद के सामान की कमी सब से ज्यादा तकलीफ़ देने वाली बन रही थी।

मदीने की तिजारत यहूदियों के हाथ में थी, ग़ल्ले के बड़े सौदागर वहीं थे।

उन्हों ने मुसलमानों के हाथ गल्ला बेचना बन्द कर दिया था, जिस की वजह से मुसलमानों को फ़ाक़ों तक की नौबत आ गयी। इस पर कड़ी ठंडक की तकलीफ़ और भी परेशानी की चीज। 

चूंकि मुसलमान खुले मैदान में वजह से पड़े थे, सर्दी ज्यादा थी, ओढ़ने-बिछाने के कपड़े कम थे, इस की उन के दिन व रात बड़ी सख्ती और तकलीफ़ से बीत रहे थे।

कभी सर्दी की तकलीफ़ बरदाश्त न करने के क़ाबिल होती थी और कभी भूख की तेजी बढ़ जाती थी ।

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अगरचे मुनाफ़िक़ों को कोई तकलीफ़ न थी। यहूदी उन के दोस्त थे, यहूदी उनको बराबर गल्ला दे रहे थे और उन में से किसी को भी फाके की नौबत न आयी थी। उन्हें अगर कोई तकलीफ़ थी, तो सिर्फ यह कि वे मदीने से बाहर नहीं जा सकते थे। हर तरफ़ पहरा लगा हुआ था और कोई आदमी मुसलमानों की इजाजत के बगैर बाहर नहीं जा सकता था। 

मुनाफ़िक़ों को यही बात बहुत खल रही थी।

इस की शिकायत वे बहुत करते थे ।

मुहम्मद (सल्ल०) यमन और ईरान की फ़तह की खुशखबरी अपने दोस्तों को सुना रहे हैं, लेकिन मदीने से बाहर नहीं निकल सकतें मुसअब बिन कुक्षैर मुनाफ़िक़ कहता था।

हमारे ख्याल में तो वे अब मदीना में भी नहीं रह सकते, बहुत जल्द देश निकाला दे दिए जाएंगे, एक ओर मुनाफ़िक़ बोला।

मुसलमान इन बातों को सुनते थे, गुस्सा तो बहुत आता था, पर कुछ न कहते थे।

यह मुसलमानों ही का सब्र था कि वे कुफ़्फ़ार का मुक़ाबला बनी कुरैजा के हमले का अन्देशा मुनाफ़िक़ों का खतरा सब कुछ बड़े सुकून से बरदाश्त कर रहे थे। कोई और क़ौम होती तो डगमगा गयी होती। दुश्मनों के सामने घुटने टेक देती।

अरब के मुशरिक लगभग एक महीने तक मदीने को घेरे रहे।

इस बीच उन्हों ने हर मुम्किन कोशिश की कि मुसलमानो पर ग़ालिब आया जाए, पर कामियाब न हुए।

मजबूर हो कर उन्हों ने पैगाम भेजा कि अगर मुसलमान बनी कैनुकाअ और बनी नजीर के यहूदियों को जिन्हें उन्हों ने देश निकाला दिया है, फिर मदीने में रहने की इजाजत दे दें और मदीने के बाग़ों की आमदनी का बीसवां हिस्सा मक्के के लोगों को देते रहें और हजरत मुहम्मद सल्ल० बुतों की बुराइयां न किया करें, तो घेराव उठा लिया जाए।

अगरचे मुसलमान जिन्दगी से तंग आ गये हैं, सर्दी और फ़ाके ने उन की हस्ती को खतरे में डाल दिया था,

मगर उन्हों ने इस शर्त पर सम-झोता करने से इंकार कर दिया।

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मुशरिको को उन के इंकार पर बड़ा गुस्सा आया।

उन्होंने तै कर लिया कि सुबह दिन निकलते ही हमला करेंगे और कोशिश करेंगे कि घोड़ों को कुदा कर खंदक के पार ले जाएं।

चुनांचे दिन निकलते ही तमाम लश्करे कुफ़्फ़ार ने बड़े जोश और नयी शान से हमला किया।

अगरचे मुसलमानों ने उन को रोकने के लिए बड़ी तेजी से तीर बरसाए पर वे उन के हमले को रोक न सके।

वे बढ़ कर खंदक के किनारे पहुंच गये।

अब उन्हों ने घोड़ों को एड़ लगायी, उन्हें तेज दौड़ाया और खंदक कूद कर पार हो जाने की कोशिश की।

जिस तरफ़ हजरत उमर और हज़रत अली थे, उस तरफ़ से खंदक की चौड़ाई कुछ कम थी। तीन कुंफ़्फ़ार घोड़े को कुदा कर अन्दर पहुंच गये, पर दूसरी तरफ़ से ज्यादातर सवार खंदक में गिर गये, घोड़ों की टांगें टूट गयीं, सवार गिर कर घायल हुए और कुछ मर गये, ज्यादातर घोड़ों के नीचे दब कर दम तोड़ गये।

वे तीन सवार, जो खंदक के पार पहुंच गये थे, उन में से एक को तो हजरत उमर ने एक ही हरबे से ठिकाने लगा दिया, दूसरे को एक अंसार ने ठिकाने लगा दिया, मगर तीसरा निहायत बहादुर था।

उस का नाम अम्र बिन अब्दुल्लाह था, वह दो हजार सवारों के बरा-बर समझा जाता था। हजरत अली रजि० उस की तरफ़ झपटे। बह भी तलवार सोंत कर हजरत अली रजि० पर टूट पड़ा। दोनों निहायत जोश व खरोश से लड़ने लगे।

चूंकि अम्र तजुर्बेकार था, अपनी ताकत पर उसे घमंड था, इसलिए वह समझता था कि हजरत अली पर गलबा पा लेना मामूली बात है, पर जब हजरत अली की लड़ाई का अन्दाज देखा, तो उस का तमाम नशा हरन हो गया।

हजरत अली रजि० ने मौका पा कर तलवार का पूरा हाथ मारा।

अम्र ने ढाल पर रोका, लेकिन हजरत अली रजि० का यह वार था, तलवार ढाल काट कर शहरग काट कर उतरती चली गयी और अम्र ढेर होकर गिर पड़ा।

इत्तिफ़ाक़ से हुजूर (ﷺ) उधर आ निकले। उन्हों ने बढ़ कर हज़रत अली करमल्लाहु वजहु की पेशानी पर बोसा दिया।

इस अर्से में मुसलमानों ने तीरों की बारिश कर के कुफ़्फ़ारे मक्का को पीछे हट जाने पर मजबूर कर दिया। मुश्रिक अपने कई सवारों को मौत की गोद में पहुंचा कर वापस लौटे, फिर उन्हें बढ़ने या हमला करने की जुर्रत न हुई।

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सूरज डूबने पर लड़ाई मुलतवी हो गयी।

जिस वक्त दोनों तरफ़ की फ़ौजें वापस लौट रही थीं, उस वक्त हवा तेज चलने लगी थी। आसमान पर बादल छा गये थे।

लोगों ने अन्दाज़ा कर लिया था कि बादल बारिश का तूफ़ान आने वाला है। यह अन्दाजा सही था।

हवा इतनी तेज हो गयी कि फ़ौज के खेमे उखड़ गये, आग बुझ गयी, छोलदारियों की मीखे उखड़ गयीं और साथ ही बारिश शुरू हो गयी। बारिश बहुत तेज हुई। तूफ़ान बहुत जोर का था।

कुफ़्फ़ार इस तूफ़ान को देख कर बदहवास हो गये। उन के सामाने रसद और दूसरे सामान पानी के बहाव में बह गये। 

ऐसे ही मौसम में हुज़ूर (ﷺ), हज़रत अबू बक्र और हजरत अली रजि० को ले कर बाहर निकले। पानी इस तेजी से पड़ रहा था कि रास्तों पर नहर की तरह बहने लगा।

इत्तिफ़ाक से हजरत हुजेफा बिन यमान (र.अ) भी घर से निकल आये। वह इन तीनों बुजुगों को देख कर बोले –

हुजूर (ﷺ) ! इस वक्त कहां जाने का इरादा है ?

हुजेफा ! हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मुझे अल्लाह ने खबर दी है कि कुफ़्फ़ार बदहवास हो कर भाग गये हैं, इसलिए मैं खबर लेने जा रहा हूं। आप न जाएं, हुज़ैफ़ा ने कहा, मैं अभी खबर लाता हूं।

अच्छा जाओ, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया।

हुजैफा (र.अ) रवाना हो गये।

उस वक्त बादल छा चुका था, सुबह का वक्त हो गया था।

हुजैफा ने खंदक के पास खड़े हो कर देखा, वहां एक भी मुशरिक का पता न था।

वह खुश होते हुए वापस लौटे और हुजूर (ﷺ) के पास आ कर बोले ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) मैदान खाली पड़ा है, एक भी काफ़िर मौजूद नहीं है, सब भाग गये।

मुसलमानो ! हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, अब कुरैशे मक्का से कोई खतरा बाक़ी नहीं रहा। इन्शाअल्लाह अब वह कभी हम पर हमला न कर सकेंगे।

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इसके बाद मुसलमानों ने फज़र की नमाज पढ़ी।

नमाज पढ़ कर जब वे खंदक के पास पहुंचे, तो देखा, खंदक़ पानी से भरी हुई है। कुफ़्फ़ार के खेमे उखड़े पड़े हैं। मुश्रिकों का कहीं पता नहीं।

मुसलमान खुश हो कर वापस लौटे। यह लड़ाई खंदक की लड़ाई, कहलाती है।

मुनाफ़िक़ों और बनी कुरेजा के यहूदियों को मुशरिको की बुजदिली और पस्त हिम्मती पर बड़ा गुस्सा आया। वे बोल पड़े –

नामर्द, बुज़दिल भाग एये। अगर हम उन्हें पस्त हिम्मत समझते तो मुसलमानों से हरगिज बिगाड़ न पैदा करते।

अब बनी कुरेजा को अपनी बड़ी चिन्ता हुई। उन्हें डर हुआ कि मुसलमान अहद तोड़ने पर उन को कड़ी सजा देंगे।

उन्हों ने फ़ौरन अपने क़िले को ठीक-ठाक कर लिया।

To be continued …

आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई में तावूंन फरमाए।

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