अरब में जुल्म व सितम और चोरी व डाका जनी आम थी, लोगों के हुक़ूक़ पामाल किये जाते कमजोरों का हक़ दबाया जाता था। इस जुर्म में अवाम व खवास सभी मुब्तला थे। इसी तरह का एक मामला मक्का मुकर्रमा में भी पेश आया के एक सरदार ने बाहर के एक ताजिर से सामान खरीदा और पूरी कीमत नहीं दी। इसके बाद मक्का के चंद नेक लोगों ने
अब्दुल्लाह बिन जुदआन के मकान पर जमा हो कर जुल्म का मुकाबला करने और मजलूम की मदद करने का मुआहदा किया। इस में रसूलल्लाह (ﷺ) भी शरीक थे और उस वक्त कम उम्र थे। उन लोगों ने इस मुआहिदे का नाम “हिलफुल फुजूल” रखा था।
आप (ﷺ) जब जवान हए, तो आपने दोबारा कबीले के बा हैसियत लोगों के सामने मुल्क की बद अमनी, मुसाफिरों और कमजोरों पर होने वाले जुल्म व सितम का हाल बयान कर के उन को इस्लाह पर आमादा किया, बिलआखिर एक अंजुमन कायम हो गई और बनू हाशिम, बनू अब्दिल मुत्तलिब, बनू सअद, बनू ज़ोहरा और बनू तमीम के लोग इसमें शामिल हुए और हर मिम्बर ने मुल्क की बद अमनी दूर करने, मुसाफिरों की हिफाज़त और ग़रीबों की मदद करने और ज़ालिमों को जुल्म से रोकने का अहद किया। इस मुआहदे से अल्लाह तआला की मख्लूक को बहुत फायदा हुआ।
हुजूर (ﷺ) नुबुव्वत के जमाने में भी फ़रमाया करते थे के अगर आज भी कोई इस मुआहदे के नाम से मुझे बुलाए और मदद तलब करे तो जरूर उस की मदद करूँगा।