जब रसूलुल्लाह (ﷺ) ने देखा के कुफ्फारे कुरैश इस्लाम कबूल करने के बजाए बराबर दुश्मनी पर तुले हुए हैं। तो हुजूर (ﷺ) हज के मौसम के इंतज़ार में रहने लगे और जब हज का मौसम आ जाता और लोग मुख्तलिफ इलाकों से मक्का आते, तो ऐसे मौके पर रसूलुल्लाह (ﷺ) बजाते खुद उन लोगों के पास तशरीफ ले जाते और लोगों को एक अल्लाह की इबादत करने, बुत परस्ती से तौबा करने और हराम कामों से बचने की दावत देते थे।
कुफ्फारे कुरैश तमाम लोगों के दिलों में हुजूर (ﷺ) और आपकी दावत के मुतअल्लिक नफरत डालने की खूब कोशिश करते थे। खुद आप (ﷺ) के चचा अबू लहब आपके पीछे पीछे यह कहता फिरता था के ऐ लोगो ! यह शख्स तुम को बुतों की पूजा से हटा कर एक नए दीन की तरफ बुलाता है। तुम हरगिज़ इस की बात न मानना। मगर रसूलुल्लाह (ﷺ) तमाम मुसीबतों और उन की मुखालफतों को बरदाश्त करते हुए इस्लाम की दावत लोगों तक पहुंचाते रहे और दीने हक की सच्चाई और शिर्क व बुत परस्ती की खराबी को वाजेह करते रहे।
बाज़ लोग तो नर्मी से जवाब देते, लेकिन बाज़ लोग बड़ी सख्ती से पेश आते और गुस्ताखाना बातें कहते थे। उसी हज के मौसम में एक मर्तबा क़बील-ए-औस व खजरज के कुछ लोग मदीने से आए हुए थे। जिन के पास तशरीफ ले जाकर आपने इस्लाम की दावत दी। उन लोगों ने इस्लाम कबूल कर लिया और आपकी मदद का वादा किया।
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