Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 20
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यमन के सरदार तुफ़ैल बिन अम्र का ईमान लाना
अब सन् १० नबवी खत्म हो गया था। यह साल मुसलमानों और हुज़र (ﷺ) पर इतना सख्त गुजरा कि यह साल मशहूर हो गया।
इसी साल अबू तालिब का इन्तिकाल हुआ। इसी साल हजरत खदीजा का इन्तिकाल हुआ।
इसी साल हुजूर (ﷺ) तायफ़ तशरीफ़ ले गये।
इसी साल कुरैश ने जुल्म का पहाड़ तोड़ने में इंतिहा भी कर दी।
पर हुजूर (ﷺ) हर ग़म को सब के साथ बर्दाश्त करते रहे और हर जुल्म को सहते रहे और पांवों में जरा भी डगमगाहट न पैदा हुई।
सन् ११ नबवी में भी आप ने अपनी मुहिम जारी रखी।
कुफ्फारे कुरैश अब यह महसूस करने लगे थे कि जो भी हजूर (ﷺ) से मिलता है, इन का असर कबूल कर ही लेता है, इस लिए अब उन्हों ने यह कोशिश शुरू कर दी कि कोई आदमी हुजूर (ﷺ) से मिलने ही न पाये।
मक्के में मुनादी कर दी गयी कि हुजूर (ﷺ) से कोई न मिले। बाहर से आने वालों को इस मनाही का इल्म नहीं था, इस लिए काफ़िरों ने अपने एजेन्ट छोड़ दिये कि वे उन से पहली फुर्सत में मिल कर हुजूर (ﷺ) से न मिलने की ताकीद कर दें।
एक दिन मक्के की गली-गली में यह खबर गर्म हो गयी कि तुफ़ैल बिन अम्र दौस कबीले का मशहुर सरदार मक्के में घूमने आ रहा है। कुरैश ने पूरी शान के साथ उस के स्वागत की तैयारियां शुरू कर दीं।
एक दिन सूरज निकलते ही कुरैश के तमाम सरदार बड़ी शान से मक्का से बाहर निकले और बहुत दूर तक लाइनों में खड़े हो गये।
हर सरदार चमकता हुआ ताज ओढ़े अपने कबीले के पास खड़ा था। थोड़ी देर में पैदल पलटनें और पलटनों के पीछे रिसाले-बड़ी शान से पा रहे थे। रिसालों के बीच एक झंडा लहरा रहा था। उस झंडे पर एक बुत की तस्वीर बनी हुई थी। झंडे के साये में एक अधेड़ उम्र का इंसान अरबी लिबास पहने ताज ओढ़े अरबी घोड़े पर सवार आ रहा था।
यही तुफ़ल बिन अम्र दौसी था।
उस का जोरदार स्वागत किया गया, नारे लगाये गये। सब ने खुश हो कर आसमान की तरफ़ तीर चलाये।
मक्का से बाहर ही जुलूस को तर्तीब दिया गया। चुकि हजारों आदमी थे, इस लिए जुलूस एक मील लम्बा हो गया। जिस वक्त जुलूस मक्का की तरफ़ चला, तुरन्त नक्कारे पर चोट पड़ी। नाकुस, घंटे और घड़ियाल बजाए जाने लगे और कौमी नारे लगाये जाने लगे। यह जुलूस बडी शान व अज्मत के साथ मक्का में दाखिल हुआ।
मक्के का हर छोटा-बड़ा इस जुलुस में शरीक हुआ। खाना काबा तक आते-आते यह जुलूस और भी लम्बा हो गया। तुफ़ैल बैतुल हराम के करीब जा कर रुका। घोड़े से उतरा और हरम के अन्दर दाखिल हुआ। इत्तिफ़ाक़ से हुजूर (ﷺ) भी हरमे पाक में मौजूद थे।
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सरदारों को डर था, जो आप (ﷺ) से बातें कर लेता है, वही मुसलमान हो जाता है, इस लिए उन्हों ने पहले ही तुफ़ैल को हुजूर (ﷺ) से आगाह करना चाहा।
चुनांचे उत्बा ने तुफ़ैल से मुखातब हो कर कहा,
ऐ फख्रे यमन ! आज कल हमारे शहर में एक जादूगर पैदा हो गया है, जिसने तमाम शहर में फ़ित्ना फैला रखा है। बाप को बेटे से, बेटे को बाप से, भाई को भाई से अलग कर दिया है। वह ऐसा जादूगर है कि जो आदमी उस से बात कर लेता है, उसी पर मोहित हो जाता है और अपने बाप दादा के मजहब को छोड़ कर रिश्तेदारों से ताल्लुक तोड़ कर उसी के साथ हो लेता है। आप को इसलिए आगाह किया जाता है कि एहतियात करें और उस जादूगर से बात तक न करें।
यह अजीब बात है, उस जादूगर का क्या नाम है ? तुफ़ैल ने कहा।
मुहम्मद, उत्बा ने कहा।
आखिर वह क्या कहता है ?
वह कहता है कि खुदा एक है, बुतों को छोड़ कर अनदेखे खुदा की पूजा करो।
तुफ़ैल ने हंस कर कहा कि खुदा भी एक अजीब बात है। इत्मीनान रखो। मैं उस से बात न करूंगा। शायद यह वही आदमी है, जिस ने यमन के मशहुर जादूगर जमाद को भी अपने मजहब में दाखिल कर लिया है।
उत्बा ने कहा, यह वही आदमी है। आप देख लीजिए, वह सामने खड़ा है।
उस ने हुजूर (ﷺ) को देखा। आप के चेहरे पर जलाल था, रौबया खिचाव था। उस का दिल भी हुजूर (ﷺ) की तरफ़ खिंचने लगा, लेकिन उस ने फ़ौरन ही नजर दूसरी तरफ़ फेर ली और उत्बा से कहा, वाकई यह कोई बड़ा जादूगर मालूम होता है, क्योंकि उस की शक्ल में खिचाव है, ऐसा न हो कि उस की बातें सुन कर बहक जाऊं। तुम थोड़ी सी रूई मंगा
दो ताकि मैं अपने कानों में ठूंस लू और उस की बात मेरे कानों तक पहुंच न सके।
तुरन्त उत्बा ने रूई मंगा दी।
तुफैल ने अपने दोनों कानों में रुई ठूंस ली। खाना काबा का तवाफ़ किया और चला गया।
वह उत्वा के पास ही ठहरा। कई दिन के बाद एक दिन बहुत सुबह सवेरे खाना काबा में आया।
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उस वक्त उस के साथ मक्का वालों में से कोई न था, केवल उसी के कुछ आदमी थे। जब वह खाना काबा के पास पहुंचा तो उस ने हुजूर (ﷺ) को नमाज पढ़ते देखा। हजूर (ﷺ) उस वक्त किरात से नमाज पढ़ रहे थे।
अगरचे तुफ़ैल ने उस वक्त भी कानों में रूई ठंस ली थी, लेकिन हुजूर (ﷺ) की किरात की आवाज कुछ-कुछ सुनायी दे रही थी, उसको आप की आवाज निहायत ही भली मालूम हुई। उस ने कानों से रूई निकाल कर फेंक दी और निहायत गौर और तवज्जोह से किरात सुनने लगा।
जब हुजूर (ﷺ) नमाज से फ़ारिग हुए तो वह हुजूर (ﷺ) के आगे आया और बोला, ऐ मक्का के जादूगर ! तुम अभी-अभी क्या पढ़ रहे थे?
हजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, मैं नमाज पढ़ रहा था। नमाज क्या होती है और क्यों पढ़ी जाती है ?
नमाज खुदा की इबादत है, आप (ﷺ) ने फ़रमाया, और खुदा की इबादत निजात हासिल करने के लिए की जाती है।
खुदा कौन है ? तुफ़ैल ने पूछा।
खुदा वह है, जिस ने कायनात को पैदा किया है, जो इंसान को जिंदगी देता है, पालता-पोसता है। इज्जत और जिल्लत उसी के हाथ में है। वह बड़ी शान वाला है, आप (ﷺ) ने बताया।
आप कौन हैं ? तुफ़ैल ने पूछा।
मैं खुदा का बन्दा और उस का रसूल हूं। मुझ पर अल्लाह का कलाम नाजिल होता है। आप (ﷺ) ने बताया।
आप नहीं जानते, मैं कौन हूं।
मैं नहीं जानता।
मैं खुद बताता हूं। मेरा नाम तुफ़ैल है। कबीला दौस का सरदार हूं, जबरदस्त शायर हूं।
मैं समझ गया। शायद तुम्हीं को अपनी जबान दानी पर नाज है। सही है। मुझे फख्र है कि मेरा कलाम पूरे अरब में कहावत के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
मुझे मालूम है। आप (ﷺ) ने कहा।
शायद आप भी शायर हैं ! तुफैल ने पूछा।
हुजूर (ﷺ) मुस्कराये, बोले, मैं शायर नहीं हूँ, लिखना-पढ़ना नहीं जानता। मुझ पर खुदा का कलाम नाज़िल होता है।
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अच्छा, आप मुझे खुदा के कलाम का कुछ हिस्सा सुनाएं।
सुनों तुफ़ैल ! गौर और तवज्जोह से सुनो।
हुजूर (ﷺ) ने सूरः अन-आम की कुछ आयतें सुनानी शुरू कर दीं।
तुफ़ैल बड़े गौर से सुनता रहा, उसका दिल कलामे इलाही में रमता रहा, यहां तक कि उस का जिस्म कांप गया।
हुजूर (ﷺ) खामोश हुए तो बे-साख्ता तुफैल ने कहा,
ऐ मुहम्मद ! मैंने आज तक इतना जोरदार कलाम नहीं सुना था। मैं जुबान का माहिर हूं, अच्छा शायर हूं, बड़े-बड़े लोगों से कलाम सुने हैं, पर किसी के कलाम में इतनी मिठास और इतना बड़कपन नहीं देखा। यह कलाम बशर का कलाम नहीं हो सकता। बेशक यह खुदा का कलाम है।
हजूर (ﷺ) को दौस कबीले के सरदार की ये बातें सुन कर बड़ी खुशी हुई और खुशी की बात भी थी। आज तक जो लोग मुसलमान हुए, वे मुफ्लिस व कमजोर थे, लेकिन अब जो आदमी मुसलमान होने पर तैयार हुआ वह सरदार था, बादशाह था।
हुजूर (ﷺ) ने फ़ौरन कलिमा पढ़ा कर उसे मुसलमान किया।
मुसलमान होने के बाद तुफ़ैल ने कहा, ऐ अल्लाह के रसूल सल्ल. ! आप को आप की कौम तक्लीफ़ देती है, बुरा कहती है, जादूगर कहती है। में ने सुना है, मक्का की जमीन आप पर तंग कर दी गयी है। आजादी के साथ आप अल्लाह की इबादत नहीं कर सकते। आप तमाम मुसलमानों के साथ मेरे यहाँ चलिए। मैं अपना ताज आप के सर पर रख दूंगा। मेरी कौम मुसलमान हो कर आप की इताअत करेगी। मेरा मुल्क आप का मुल्क होगा। मैं आप का गुलाम बन कर रहूँगा और आप की खिदमत करूंगा। वहां मुसलमान सुकून की जिंदगी जी सकेंगे।
हुजूर (ﷺ) ने फरमाया, ऐ तुफ़ैल ! आप की इस हमदर्दी का बहुत बहुत शुक्रिया। जब तक खुदा ही न हिजरत का हुक्म दे, हम अभी कहीं हिजरत न करेंगे। आप तो बस इतना कीजिए कि अपनी हुकूमत में जा कर अपनी रियाया में इस्लाम की तब्लीग करें, लेकिन जबरदस्ती नहीं तब्लीग के जरिये। क्या आप को ये बातें मंजूर हैं?
दिल व जान से, तुफेल (र.अ) ने कहा, मैं वतन जा कर इस्लाम की तब्लीग ही करूंगा। मगर ऐ खुदा के लाडले पैगम्बर ! अब आप को आप की कौम सताए और आप हिजरत करें, तो मुझे आप जरूर इत्तेला दे। मैं आ कर आप को अपने वतन ले जाऊंगा।
में कोई भी वायदा करने से मजबूर हूं, हुजूर (ﷺ) ने फरमाया, हाँ आप के मुल्क को हिजरत का हुक्म हुआ, तो मैं खुद आप के पास आऊंगा।
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तुफैल ने हुजूर (ﷺ) के दस्ते मुबारक को बोसा दिया और रुक्सत होने की इजाजत चाही।
आप (ﷺ) भी उठ कर अपने मकान की तरफ़ तशरीफ़ ले गये।
तुफ़ैल के मुसलमान होने की खबर जंगल की आग की तरह पूरे मक्के में फ़ैल गयी।
इस से पहले कि वह उत्बा के मकान पर पहुंचता, वहां मक्का के सरदार जमा हो गए और तुफ़ैल के पहुंचते ही अबू लहब ने पूछ लिया–
ऐ ताजदारे यमन ! मक्का के बड़े जादूगर से मिले ?
ऐ कुरैश! जिस को तुम मक्के का बड़ा जादूगर कहते हो, वह जादूगर नहीं है। वह खुदा का रसूल है, उस पर कलामे इलाही नाजिल होता है। तुम पर अफ़सोस है कि तुम ईमान न लाये।
बात आगे बढ़ी, तो तुफैल ने खुद बता दिया, लोगो! सुनो ! मैं मुसलमान हो गया हूं और तुम को भी इस्लाम की दावत देता हैं।
मक्का के सरदारों को तुफ़ैल की बातें पसन्द न आयीं, इसलिए मुंह बना कर उठे और अपने-अपने घरों को चल दिये।
जब तमाम लोग चले गये, तो तुफ़ैल ने अपने लोगों को भी कूच का हक्म दे दिया। चूकि मक्का के सरदार तुफ़ैल से खफ़ा हो चुके थे, इसलिए जाते वक्त उसे कोई पहुंचाने न आया और तुफ़ैल ने भी इस की परवाह न की और वह रवाना हो गये।
पहली बैअते उक्बा
कुछ ही दिनों में हज का मौसम आ गया और बाहर से भीड़ की भीड़ काबा के तवाफ़ के लिए आनी शुरू हो गयी।
हुजूर सल्ल० को मामूल था कि हज के दिनों में खास तौर से तब्लीग किया करते थे और कुफ्फ़ारे मक्का कुछ न कह सकते थे, इसलिए कि अरबों के कानून के मुताबिक़ हज के मौसम में हर आदमी पर से पाबंदिया हटा ली जाती थीं, यहां तक कि लड़ाइयां भी बन्द कर दी जाती थीं। जब जब आजादी मिलती तो इस का फायदा हुजूर (ﷺ) और आप के साथी मुसलमान उठा लेते और इस्लाम की तब्लीग़ की एक मुहिम चला देते।
पिछले साल यसरब के छ: आदमी मुसलमान हो कर यह वायदा कर गये थे कि वे अपने शहर में इस्लाम की तब्लीग करेंगे। हुजूर सल्ल० को उन से मिलने और उन की तब्लीग़ का अंजाम मालूम करने की बड़ी तमन्ना थी।
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यसरब से कई काफ़िले आ चुके थे। इन काफ़िले वालों से आप को मालूम हो गया था कि वे लोग हज करने आएंगे। आप उनकी खोज में थे।
इत्तिफ़ाक़ से एक दिन उन में से राफेअ बिन मालिक और असअद बिन जुरारा ने बढ़ कर आप (ﷺ) से मुसाफा किया।
आप (ﷺ) ने पूछा, तुम्हारी तब्लिगे इस्लाम का नतीजा क्या रहा?
साद ने जवाब दिया, कई आदमी मुसलमान हो गए हैं। आप को यह सुन कर बड़ी खुशी हुई।
राफेअ ने कहा, ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! हम आप से इत्मीनान की सूरत में मिलना चाहते हैं।
आप (ﷺ) ने फ़रमाया, तुम लोग मिना (उक्बा) की घाटी में आज रात को आ जायो। वहीं मुलाकात होगी।
बहुत अच्छा ! हम सब वही हाजिर होंगे, राफेअ ने कहा।
रात में जब हुजूर (ﷺ) घाटी में पहुंचे तो वहां बारह आदमियों ने आप का इस्तकबाल किया। आप पत्थर की एक चट्टान पर बैठ गये।
आप (ﷺ) ने फ़रमाया,
ऐ यसरबी मुसलमानो ! मुझे तुम्हारे आने से बड़ी खुशी हुई है। मुसलमान आपस में भाई-भाई होते हैं, तुम सब हमारे भाई हो। जो मुसलमान अपने किसी भाई को हकीर व जलील समझेगा, वह जन्नत में दाखिल न होगा। मुसलमान वह है जो एक खुदा की इबादत करे और किसी को खुदा का शरीक न करे, शराब न पिये, किसी पर तोहमत न लगाये, किसी की गीबत न करे, जुआ न खेले, जिनाकारी न करे, नमाज रोजे का पाबन्द रहे, जकात दे, हज अदा करे, मुसलमानों की हर मुम्किन मदद करे, बन्दों के हकों का ख्याल रखे, नेकी का नमूना बने, क्या तुम इक़रार करते हो कि मुसलमान हो कर कामिल इंसान और पक्के मुसलमान बनोगे?
फिर आप (ﷺ) ने फ़रमाया –
अच्छा मेरे हाथ पर हाथ रख कर इकरार करो कि खुदा हमेशा से है और हमेशा रहेगा और हम उसी की इबादत करेंगे, किसी को उसका शरीक न बनाएंगे, शराब न पिएंगे, जूआ न खेलेंगे, किसी पर तोहमत न लगाएंगे, अपनी लड़कियों को क़त्ल न करेंगे और हर अच्छी बात में नबी की इताअत करेंगे।
सब ने एक-एक कर के हुजूर (ﷺ) के हाथ पर हाथ रख कर इन तमाम बातों का इकरार किया।
यह तरीका बैअत करने का था और यह बैअत पहली बअते उक़्बा थी जो सन १२ नबवी में हुई।
To be continued …
इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा ….
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे और अपनी राय भी दे …
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