सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 33

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 33

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 33

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कुरैश की भारी फौज

जब बद्र में मक्का वालों को हार का मुंह देखना पड़ा और उसकी खबर मक्का पहुंची, तो तमाम शहर में उदासी की घटा छा गयी। हर औरत, हर बच्चा, हर मर्द दुखी और परेशान नजर जाने लगा। 

पहले तो मक्के वालों को यकीन नहीं आ रहा था कि उन की फौज हार गयी है। वे समझ रहे थे कि मुसलमानों ने यह बे-पर की अफवा उड़ा दी है, लेकिन जब बद्र से भागे हुए फ़ौजी मक्का पहुंचे और उन्हों ने पूरी बात बतायी, तो मक्का वालों का दुख बहुत बढ़ गया। कि इस फौज में हर तबके और हर कबीले के लोग मौजूद थे, इसलिए सभी को रंज और अफ़सोस हुआ।

अरब में यह कायदा था कि मरने वालों का मातम पूरे चालीस दिन तक किया जाता था। औरतें एक जगह जमा हो कर बैन किया करती थीं। सर के बाल खोल कर सीना पीटा करती थीं।

चूंनाचे औरतों ने एक बड़ी मज्लिस बुलाने की तैयारी की। अबू लहब को खबर हुई, तो उस ने मना कर दिया कि कोई मज्लिस न की जाए। इस मे मक्के में रहने वाले मुसलमानों को खुशी होगी। सिर्फ यही नहीं, बल्कि उस ने औरतों मदों को रोने और गिरया व जारी करने से भी मना किया।

अबू लहब को इस हार का इतना सदमा हुवा कि वह बीमार हो गया और मौत का शिकार होने से वह अपने को न बचा सका।

मक्के वालो को उस की मौत का बड़ा सदमा था। अब सिर्फ़ अबू सुफ़ियान ही एक ऐसा शख्स था, जो मक्के का सब से बड़ा सरदार माना जाता था।

वह दो सौ तजुर्बेकार जवानों को ले कर मदीना पर चढ़ दौड़ा, पर मुसलमानों के आने की खबर सुन कर भाग आया और बोझ उल्का करने के लिए सत्तू के थैले गिरा आया। जब वह हार कर मक्का में दाखिल हुआ, तो मक्के वालों ने हिकारत की नजरों से देखा। खुद उस की बीबी हिंदा ने उस पर लानत व मलामत की।  हिंदा अबू सुफ़ियान की बीवी और उत्बा की बेटी थी, उस का बाप और भाई दोनों लड़ाई में मारे गये थे, उस के दिल में बदले की आग भड़क रही थी, उसे मालूम हो गया था कि हजरत हमजा (र.अ) ने उस के बाप को कत्ल किया था।

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वह हजरत हमजा (र.अ) का नाम सुन कर भड़क उठती थी। उस ने कुछ शायरों से अपने बाप और भाई के मसिए और नौहे लिखवाये थे और रात दिन इन मसियों और नौहों को पढ़ कर आंसू बहाया करती थी।

बहुत बार अबू सुफ़ियान ने उसे तसल्ली दी, समझाया, लेकिन उस के दिल में बदले की आग भड़कती रही। उस ने कपड़े बदलना, इत्र लगाना, और बनाव-सिंगार आदि करना बिल्कुल छोड़ दिया। अबू जहल, नौफ़ल, वलीद और दूसरे मक्के के सरदार, जो बद्र में मारे गये थे, उन की बीवियां भी हिंदा की तरह सोगवार रहती थीं।

एक दिन जब अबू सुफ़ियान घर के भीतर आया तो उस ने अपनी बीवी हिंदा को रोते देखा। वह हिंदा के पास पहुंचा, उसे तसल्ली देते हुए बोला, मेरी अच्छी जीवन-साथी ! इतना गम करने से क्या फ़ायदा? क्यों कुढ़-कुत कर अपनी जान हल्कान किये देती हो।

क्यों गम न करू? क्यों न कुढ़ ? क्यों न रोऊ ? मेरे बाप-भाई दोनों मारे गये, कोई इतना नहीं कि उनका बदला ले सके ? उन की रूहें भटकती फिर रही हैं, हिंदा ने रो कर कहा। 

तुम क्या चाहती हो? अबू सुफ़ियान ने पूछा। 

हिंदा ने आंसू भरी नजरें उठा कर अबू सुफ़ियान को देखते हुए कहा, में….. मैं चाहती हूँ कि मेरे बाप और भाई का बदला लिया जाए।

बदला लिया जाएगा, अबू सुफ़ियान ने यकीन दहानी की। 

कब ? हिंदा ने पूछा।

बहुत जल्द मैं अरब के तमाम कबीलों को शिर्कत की दावत दूंगा और बहुत सी फ़ौज तैयार कर के मदीने पर भेजूंगा, अबू सुफ़ियान ने कहा।

मैं चाहती हूँ कि इस बार औरतें भी फ़ौज के साथ चलें, हिंदा ने कहा, अगर हम न लड़ सकें, तो कम से कम मर्दों को उभारेंगे।

बहुत मुनासिब है, अबू सुफ़ियान ने कहा, तुम चलने की तैयारी करो और औरतों को इस पर उभारो।

अब हिंदा ने रोना बन्द कर दिया।

अंबू सुफ़ियान भी उठ कर चला गया। उस ने उसी दिन शायरों और नक़ीबों को रवाना कर दिया और मक्का के लोगों को खुद लड़ाई पर उभारने लगा। 

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अबू सुफ़ियान शाम देश में तिजारत के लिए गया था, बहुत से ताजिरों ने तिजारत का माल उस के साथ कर दिया। जब वह वापस आया तो पचास हजार मिस्काल सोना और एक हजार ऊंट मुनाफे में लाया था।

यह तमाम मुनाफ़ा सौदागरों को नहीं दिया गया, बल्कि बड़ी लड़ाई के तैयारियो में लगा दिया गया, कुछ दिनों के बाद मूल्क के कोने-कोने से लोगों का आना शुरू हुआ। बनू कनाना, यमामा और दूसरे कबीले के जवान आ गये।

इस बार मक्का वालों में भी बड़ा जोश था। हर छोटा बड़ा लड़ाई के मैदान में जाने और अपने कबीले के मारे गये लोगों से बदला लेने के जोश में था। 

इस बार तमाम कुफ्फार ने यह तै कर लिया था कि वे या तो इस लडाई में जीतेंगे और मुसलमानों को मिटा देगें या खुद मिट जाएंगे। 

एक दिन अबू सुफ़ियान ने तमाम लश्कर का जायजा लिया। तीन हजार जवान थे जो उस फ़ौज में शामिल थे, यह देख कर उसे बड़ी खुशी हुई।

जब वह जायजा ले कर मकान पर पहुंचा, तो उसे एक आदमी मिला, जो उस का इन्तिजार कर रहा था। अबू सुफ़ियान के गुलाम ने उस आदमी से तआरुफ़ हासिल करते हुए कहा –
ऐ मेरे आका ! यह मदीना मुनव्वरा से आया है। आप की खिदमत में कुछ अर्ज करना चाहता है। 

अबू सुफ़ियान ने मदीने से आने वाले आदमी की तरफ़ मुखातब हो कर कहा, तुम कौन हो और किस लिए आये हो ? उस ने कहा, हुजूर ! मैं क़ासिद हूं। मदीना के बुतपरस्तों का पैगाम लेकर हाजिर हुवा हूं।

तुम्हें किस ने भेजा है ? अबू सुफ़ियान ने पूछा। 

अब्दुल्लाह बिन उबई ने, उस ने जवाब दिया। 

सुना है कि अब्दुल्लाह बिन उबई मुसलमान हो गया है, अबू सुफ़ियान ने कहा।

वह मस्लहतन मुसलमान हो गया है, उस ने बताया, आप को मालूम होगा कि मदीना के तमाम लोग अब्दुल्लाह को बादशाह बनाना चाहते थे। उन के लिए एक सुनहरा ताज भी तैयार कर लिया गया था। तज्वीज यह हो रही थी कि एक बड़ा जलसा कर के ताजपोशी की रस्म अदा की जाए मगर इसी बीच वहां मुसलमान पहुंच गये और ताजपोशी की रस्म खटाई में पड़ गयी। 

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हां, मुझे यह सब मालूम है, अबू सुफ़ियान ने कहा।

अब्दुल्लाह बिन उबई को मुसलमानों का आना बहुत नागवर गुजरा, लेकिन मदीना के चोटी के लोग मुसलमान हो चुके थे और इस्लाम दिन-ब-दिन मदीने में फैल रहा था, इसलिए वह खामोश रहे और मस्लहतन खुद भी मुसलमान हो गये। 

लेकिन तुम्हारे सफ़ीर बन कर आने का इस से क्या ताल्लुक है? अबू सुफ़ियान ने पूछा। 

मैं अभी बताता हूं, कासिद ने कहा,
वे अपने तीन सौ साथियों के साथ इस लिए मुसलमान हुए हैं कि जब मौका पाएं, इस्लाम से हट कर अपने बाप-दादा के मजहब में आ जाएं और एलान कर दें कि इस्लाम कुछ भी नहीं है, यह मजहब एक ढकोसला है। इस तरह और लोग जो मुसलमान हो गये हैं, वे भी बद-दिल हो कर बुतपरस्तों में शामिल हो जाएंगे। असल में यह तरीका है मुसलमानों की ताकत को कमजोर करने का।

लेकिन इस से हमें क्या फायदा हो सकता है ? अबू सुफ़ियान ने पूछा।

यह बात उस वक्त की जाएगी, जब आप मदीने पर हमलावर होंगे, कासिद ने कहा, इस से तमाम मुसलमानों में बद-दिली छा जाएगी और वे आप का मुकाबला न कर सकेंगे। कोशिश की जाएगी कि मुसलमान बाहर निकल कर न लड़ें, बल्कि मदीना ही में रहें और आप की फ़ौज को रात के वक्त मदीना में दाखिल कर के मुसलमानों का कत्लेआम कर दिया जाए। 

अबू सुफ़ियान इस तज्वीज को सुन कर बहुत खुश हुआ। उस ने कहा, यह बहुत अच्छी तज्वीज़ है। इस तरह से यकीनन मुसलमानों की जड़ें पूरी तरह कट जाएंगी।

यकीनन मैं इसी लिए आप की खिदमत में भेजा गया हूँ, कासिद ने कहा, कि आप जल्द से जल्द फ़ौज रवाना करें और मुसलमानों पर जीत हासिल कर के अब्दुल्लाह की रस्मे ताजपोशी पूरी करें। 

ऐसा ही होगा, अबू सुफ़ियान ने कहा, हमारी तरफ़ से पूरा इत्मीनान रखो। 

फिर बोला, आज तुम ठहरो, कल सुबह चले जाना, परसों हम शानदार फौज लेकर रवाना हो जाएंगे।

अबू सुफ़ियान चला गया।

कासिद तो उस दिन ठहर गया, फिर दूसरे दिन वह भी मदीने के लिए रवाना हो गया। 

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कासिद के चले जाने के बाद अबू सूफियान ने फौज के सरदारों को बताया कि कल फौज मदीने की तरफ चल पड़ेगी, तैयार रहें।

लोग इस एलान को सुन कर तैयारियों में लग गये। दूसरे दिन फौज के तमाम नवजवान मक्के के बाहर आ गये। यह भारी लश्कर दूर तक फैल गया।

बनी अब्दुद्दार का एक आदमी झंडा लिए हुए था और झंडा लहरा रहा था।

जब फौज चलने को हुई तो औरतों की एक छोटी सी टुकड़ी भी था गयी। इस की सरदार हिंदा थी। यह टूकड़ी जवानों को गैरत दिलाने और उभारने के लिए थी।

अभी औरतों की टुकड़ी आ कर रुकी ही थी कि पन्द्रह-बीस नवजवान लड़कियां हाथों में दफ़ लिए हुये आ गयीं और फौज के सामने खड़ी हो कर पुरे राग से गाने लगीं।

वे काब बिन अशरफ़ की मशहूर नक्म गा रही थीं और जवानों में जोश भर रही थीं।

जब लड़कियों ने गाना बन्द किया, तो औरतें महिमलों में सवार हुई। अबू सुफ़ियान ने लश्कर को रवाना होने का हुक्म दिया। तबल बजते ही यह भारी फौज मदीने की तरफ रवाना हो गयी।


इस्लामी फौज हरकत में

बनी कैनुकाअ के यहुदियों की हार ने मुसलमानों को मदीना के आसपास के इलाकों में और मशहूर कर दिया। आम यहूदियों को बनी कैनुका की हार और मुसलमानों की जीत से अफ़सोस हुआ और गुस्सा भी आया,पर वे खामोश रहे और इंतिजार करने लगे कि मुसलमान यहूदियों के साथ क्या बर्ताव करते हैं।

यहुदी सदियों से अरबों पर हावी थे, सब उन से दबते थे। इस दबने या लिहाज करने से यहुदीयों के दिमाग में यह फ़तूर भर गया था कि अरब उनकी बहादुरी का लोहा मानते हैं और वे उनसे डरते हैं, लेकिन आज जब तीन सौ मुसलमानों की सात सौ यहुदियों पर जीत हो गयी, तो उनके गमंड का नशा उतरा और वे समझ गये कि अरबों का मुकाबला आसान नहीं है। 

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बनी कैनुकाअ के किले पर मुसलमानों के कब्जे के बाद, जब उस कबीले के तमाम यहुदी गिरफ्तार हो गये, तो दूसरे कबीले के यहुदियों को चिन्ता हुई और उन्हों ने फ़ौरन अपनी मज्लिसे शूरा बुलायी। 

सब जमा हुए, हालात पर जम कर बातें हुई। काफ़ी बहस के बाद तै पाया कि अब्दुल्लाह बिन उबई से कहा जाए कि वह हुजूर सल्ल० से कैदियों की सिफारिश कर के उन की जां बख्शी कराये।

इस मक्सद के लिए एक वफद अब्दुल्लाह के पास भेजा गया था।

अब्दुल्लाह जाहिर तौर पर मुसलमान हो चुका था, पर उस का दिल कुफ्र की तरफ़ मायल था। वह छिपे तौर पर इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ था। उस ने कुरैश मक्का के पास क़ासिद भेज कर उन्हें मदीना पर हमला करने के लिए उभारा। 

यहुदियों के वफ्द से उस ने मुलाकात की और हमदर्दी जाहिर करते हुए कैदियों की सिफ़ारिश करने का वायदा कर लिया।


हजरत जैनब (र.अ) का हार 

एक दिन बहुत सुबह-सवेरे हुजूर (ﷺ) की खिदमत में हाजिर हुआ।

हुजूर (ﷺ) उस वक्त मस्जिद में तशरीफ़ फ़रमा रहे थे। जां-निसार सहाबी आप के सामने बैठे थे। बद्र के कैदियों ने जिस कासिद को फ़िदया लेने के लिए भेजा था, वह वापस आया था और सब का फ़िदया साथ लाया था।

हर साल फ़िदया ले कर कैदियों को रिहा फरमा रहे थे। 

फ़िदए की रकम को हजरत तलहा और हजरत अबू बक्र सिद्दीक रजि० गिन रहे थे।

फ़िदए की रकम ले कर तमाम कैदी छोड़े जा चुके थे, सिर्फ़ अबुल आस बाकी रह गये थे।

अबुल आस हुजूर (ﷺ) के दामाद थे। हजरत जैनब से उन की शादी हई थी। वह उस वक्त तक मुसलमान न हुए थे। बद्र की जगह पर कुफ्फार के साथ लड़ने आए थे, इसलिए औरों के साथ वह भी गिरफ्तार कर लिये गये थे। हुजूर (ﷺ) ने क़ासिद से पूछा, क्या अबुल आस का फ़िदया नहीं लाये?

लाया हूं, कासिद ने जवाब दिया, हुजूर (ﷺ) की साहबजादी हजरत जैनब ने अपने गले का हार उतार कर दिया है।

यह कहते ही कासिद ने एक बड़ा किमती हार हुजूर (ﷺ) के सामने रख दिया। 

हुजूर (ﷺ) हार देख कर कुछ दुखी से हुए। 

हजरत उमर (र.अ) ने पूछा, अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! इस हार को देख कर आप दुखी क्यों हो गये?

इसलिए कि यह हार हजरत खदीजा मरहूमा का है। जैनब के पास उन की यादगार थी।


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अब्दुल्लाह मुनाफ़िक की चाल

हजरत अबू बक्र सिद्दीक (र.अ) बोल पड़े, हुजूर (ﷺ) ! इस हार को जैनब के पास वापस कर दें, अबुल आस को बगैर फ़िदया छोड़ दें।

अगर तुम इसे मुनासिब समझते हो तो जैनब को उस की मां की यादगार चीज़ वापस कर दी जाए, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया । 

यह कैसे हो सकता है ? अब्दुल्लाह बिन उबई बीच में बोल पड़ा, और लोगों से तो फ़िदया लिया जाए और अबुल आस को बगैर फ़िदया के छोड़ दिया जाए।

हजरत उमर (र.अ) को अब्दुल्लाह पर गुस्सा आ गया, कड़क कर कहा, अब्दुल्लाह! क्या तुम मुनाफ़िक़ हो? क्या तुम को हुजूर (ﷺ) के दुख से खुशी होती है ?

उस दिन से अब्दुल्लाह का नाम मुनाफ़िक हो गया और उसे “अब्दुल्लाह मुनाफ़िक” के नाम से याद किया जाने लगा। 

उमर ! तुम्हें बहुत जल्द गुस्सा आता है, अब्दुल्लाह ने कहा, सोचो तो सही, क्या यह इंसाफ़ है कि औरों से तो फ़िदया लिया जाए और हुजूर (ﷺ) के दामाद को बगैर फ़िदया रिहा कर दिया जाए?

असल में अब्दुल्लाह मुनाफ़िक की चाल थी कि किसी तरह मुसलमानों में फूट डाल दे। वह अक्लमन्द और चालाक आदमी था। खूब समझता था कि जब तक मुसलमानों में एका है, कोई ताकत उन पर काबू नहीं पा सकती, इसलिए उस ने ऐसा अन्दाज़ अख्तियार किया। 

लेकिन कोई मुसलमान भी उस का हमनवा न हुआ, बल्कि सब ने ही उसे बुरा कहना और डांटना शुरू किया।

चुनांचे हजरत मुसअब (र.अ) ने, जिन के सगे भाई अबू अजीज का फ़िदया अदा हुआ था, कहा हम सब मुसलमान हुजूर (ﷺ) की ख़ुशनूदी चाहते हैं, अगर हुजूर (ﷺ) अबुल आस को बगैर फ़िदया के रिहा करना चाहते हैं, तो हम को एतराज करने का हक नहीं, बल्कि अगर हुजूर (ﷺ) तमाम फ़िदया भी अबुल आस को दे कर रुख्सत कर दें तो हम और भी खुश होंगे। 

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अब्दुल्लाह तुम निफ़ाक की बातें न करो, इस से नाफरमानी की बू आती है। हजरत अबू बक्र (र.अ) बोले, अब्दुल्लाह ! तुम क्या समझते हो कि हम अरब मुसलमान हो कर भी पिछली जिहालत पर कायम रहें। खुदा की कसम! हम ने मुसलमान होते ही जिहालत छोड़ दी है। हुजूर (ﷺ) को सच्चा रसूल मानते हैं। आप के इर्शाद को हुक्म मानते हैं, इसलिए हुजूर (ﷺ) को पूरा-पूरा हक हासिल है कि जिसके साथ जो रियायत चाहें करें।

हजरत उस्मान (र.अ) ने भी तंबीह की कि अब्दुल्लाह! तुम मुनाफ़िकों जैसी बातें कर के तमाम मुसलमानों के दिलों को ठेस पहुंचाते हो। हम हुजूर (ﷺ) के फिदायी हैं। हमारा काम हुजूर (ﷺ) के हर हुक्म की इताअत करना है। अगर हुजूर (ﷺ) तमाम कैदियों को क़त्ल कर डालते और अबुल आस को छोड़ देते, तो भी हमें कुछ कहने का हक न था। तुम को अपनी गलती मान लेनी चाहिए।

हजरत साद बिन मुआज (र.अ) ने कहा, मुसलमानो! मैं अब्दुल्लाह को खूब जानता हूं। उस के दिल में कुफ्र का मरज़ अब तक मौजूद है। यह अब तक अपनी शाही के सपने देख रहा है। इस का मंशा मुसलमानों में निफ़ाक डाल कर अपना मतलब हासिल करना है। अगर यह मुसलमान न होता, तो सब से पहले मेरी तलवार उस की गरदन पर पड़ती। 

मुनाफ़िक समझता था कि उस की बातों से मुसलमान भड़क कर उस की हमनवाई करेंगे, लेकिन जब उस ने देखा कि हर आदमी उसे बुरा कहने लगा, तो उस ने कहा –

मुसलमानो ! मुझे ख्याल न था कि तुम को मेरी बात नागवार गुजरेगी, मैं ने मुसलमानों में फूट डालने के लिए यह बात न कही थी, बल्कि इस से मेरा मंशा यही था कि अगर रियायत की जाए तो, सब के साथ की जाए। एक के साथ रिवायत करना इंसाफ़ न होगा, पर जब तुम सब मुनासिब समझते हो, तो मैं भी जायज करार दिए देता हूं।

हजरत उमर रजि० बोले, अब्दुल्लाह ! तुम वाकई मुनाफ़िक हो। अब भी तुम ऐसी ही बातें कर रहे हो, जिस से मुसलमानों में फुट पड़ जाए। अगर तुम आगे इन बातों का ख्याल न करोगे, तो तुम्हारा सर उड़ा दिया जाएगा। 

अब्दुल्लाह चुप हो गया।

हुजूर (ﷺ) ने अबुल आस को हार देते हुए कहा यह हार जैनब को दे कर कह देना कि तमाम मुसलमानों ने उसकी मां की यादगार उसे वापस कर दी है।

चूँकि अबुल आस बद्र की लड़ाई के आखिरी कैदी थे, जब वे भी छोड़ दिये गये, तो अब्दुल्लाह मुनाफ़िक ने कहा, आज यहूदियों के बारे में भी फैसला कर देना चाहिए। बेकार कैदियों का बोझ उठाने से क्या हासिल ? 

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बेशक यहूदियों के बारे में भी अगर हुजूर (ﷺ) फैसला करना मुनासिब समझे, तो कर दें, हजरत उमर (र.अ) ने कहा।

मश्विरा दो कि यहूदियों के साथ क्या बर्ताव किया जाए ? हुजूर (ﷺ) ने पूछा।

यहूदियों ने समझाने और नसीहत करने के बावजूद समझौते की खिलाफ़वर्ज़ी की है और मुसलमानों को शहीद किया है। इसलिए वे किसी रियायत के हक़दार नहीं हैं, हजरत अली (र.अ) ने कहा। 

चूंकि यहुदियों ने बेवजह लड़ाई मोल ले ली है, बेवजह मुसलमानों पर धावा बोला है, इसलिए वे सब के सब कत्ल कर दिये जाएं, हजरत उमर (र.अ) की यह राय थी।

ये यहूदी मुसलमानों के बदतरीन दुश्मन हैं, उन का कत्ल कर डालना ही मुनासिब है, हजरत साद बिन मुआज (र.अ) ने राय दी।

मुझे भी अफ़सोस है कि यहूदियों ने बहुत गलत काम किया, लेकिन कत्ल….? हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया।

हुज़र (ﷺ) तो बहुत मेहरबान हैं, अगर हुजूर (ﷺ) यहूदियों को फ़िदया दिये बगैर छोड़ देंगे, तो हजर (ﷺ) के रहम व करम की शोहरत हो जाएगी, अब्दुल्लाह मुनाफ़िक ने कहा।

मुसलमानों को सताने वाले, बे-बजह लड़ने वाले अगर बगैर फ़िदया लिए छोड़ दिये जायेंगे, तो और लोगों की जुर्रात बढ़ जाएगी और वे पहले से भी ज्यादा निडर और बेबाक हो जाएंगे और मुसलमानों को सताने लग जाएंगे, इसलिए मेरी राय भी यही है कि उन को क़त्ल कर डाला जाए, हजरत अबू बक्र रजि. ने अपनी राय दी।

हुजूर (ﷺ) ! कत्ल कर डालना तो आसान है, पर एक रसूल की शान के मुताबिक क्या यह है कि वह तमाम कैदियों को बेदर्दी से कत्ल कर डाले ? अब्दुल्लाह मुनाफ़िक़ ने कहा।

अब्दुल्लाह ! हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, क्या तुम यहूदियों को बिला फ़िदया आजाद करना चाहते हो? .

हां, मेरी मंशा यही है, अब्दुल्लाह खुल गया।

अच्छा, तमाम कैदी रिहा किये जाते हैं, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, लेकिन उन्हें देश निकाले की सजा दी जाती है।

फिर उबादा को खिताब करके फ़रमाया, उबादा ! तुम तमाम कैदियों को अपनी हिरासत में लेकर दर्रा खैबर तक निकाल आओ, लेकिन कैदियों से यह इकरार करा लो कि वे जिंदगी भर मुसलमानों के खिलाफ़ तलवार न उठायेंगे। 

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तमाम कैदी बुलाये गये। 

उन्हों ने हलफ़ उठाया कि वे जिंदगी भर मुसलमानों के खिलाफ कोई साजिश न करेंगे और न किसी साजिश में शरीक होंगे और न हथियार उठाएंगे। 

इस हलफ़ लेने के बाद वे सब उबादा की सरकरदगी में देश निकाला दे दिये गये।

चूँकि अब दोपहर हो गयी थी, इसलिए हुजूर (ﷺ) उठ कर अपने हुजरे में तशरीफ़ ले गये, जो मस्जिद के करीब हुजूर  (ﷺ) के घर वालों के लिए तामीर किया गया था। 


जंगे उहद की तैयारी

हुजूर (ﷺ) के तशरीफ़ ले जाने के बाद मुसलमान उठे और मकानों की तरफ़ रवाना हुए। कुछ दिनों के बाद मदीना के मुसलमानों को मालूम हुआ कि कुफ्फारे मक्का निहायत शान व शौकत से शानदार लश्कर लेकर मदीना पर हमला करने के इरादे से आ रहे हैं। हुजूर (ﷺ) इस खबर को सुन कर कुछ दुखी हुए।

आप ने तुरन्त मज्लिसे शूरा बुलायी।

जब तमाम लोग आ गये, तो हुजूर (ﷺ), ने फरमाया –

मुसलमानो! कुफ्फारे मक्का बद्र की लड़ाई का बदला लेने के लिए पूरी फ़ौज और पूरे जोश से आ रहे हैं। मुझे अफ़सोस है कि कुफ्फ़ारे मक्का मुसलमानों को अम्न व अमान से नहीं रहने देंगे। मैं लड़ाई को नापसन्द करता हूं, लेकिन हालात लड़ाई पर मजबूर करते हैं। मेरी राय यह है कि मदीने में रह कर हिफ़ाजती लड़ाई लड़ी जाए। अगर ज्यादा तर राएं मेरी राय के खिलाफ़ हों, तो मैं उसी पर अमल करूंगा, सोच-समझ के बताओ कि मुनासिब क्या है ? 

अगर हुजूर (ﷺ) का यह हुक्म है कि मदीने में रह कर मुकाबला किया जाए तो किसी मुसलमान को कुछ कहने की जुर्रत नहीं हो सकती, हजरत उमर रजि० ने कहा, लेकिन अगर मश्विरा तलब किया गया है तो मेरी राय में मुनासिब यह है कि हम मदीना से निकल कर कुफ्फार का मुकाबला करें।

मेरी भी राय यही है कि मदीने से निकल कर मैदान में मुकाबला किया जाए, हजरत हमजा (र.अ) ने कहा। 

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मुसलमानो ! क्या तुम अल्लाह के रसूल (ﷺ) की राय के खिलाफ़ करना चाहते हो ? अब्दुल्लाह मुनाफ़िक ने कहा, हरगिज़ ऐसा न करो, हुजूर (ﷺ) की राय मुनासिब है कि हम को मदीना ही में रह कर मुकाबले की तैयारी करनी चाहिए।

यहां यह बात याद रखने की है कि अब्दुल्लाह का कासिद कुफ्फारे मक्का के पास गया था और यह ते कर आया था कि वह इस बात की कोशिश करेगा कि मुसलमान मदीने में रह कर मुकाबला करें और वह मौका पा कर रात के वक्त कुफ्फार को मदीना में दाखिल करा कर शबखून मारने में मदद देगा। इसी लिए उस ने मदीने में रह कर मुकाबला करने की राय दी।

मेरी राय में मदीने में रह कर मुकाबला करना इस वजह से भी मनासिब नहीं है कि हमें यहुदियों पर इत्मीनान नहीं है, हजरत तलहा (र.अ) ने कहा, मुम्किन है ये लोग यहूदियों से साज-बाज कर के मुसलमानों को नुक्सान में पहुंचा दें। 

मेरी राय भी यही है कि मदीने से निकल कर बाहर मुकाबला किया जाए, जुबेर बिन अव्वाम (र.अ) ने कहा।

चूंकि ज्यादातर लोगों की यही राय थी कि मदीने से निकल कर बाहर मुकाबला किया जाए, इसलिए हुजूर (ﷺ) ने एलान कर दिया कि आज ही लश्कर जुमा की नमाज पढ़ कर रवाना होगा। 

तमाम मुसलमान इस एलान को पढ़ कर खुश हो गये। सब बड़े शौक से तैयारियां करने लगे।

जुमा की नमाज पढ़कर हुजूर (ﷺ) जिरह पहन कर और हथियारों से लैस हो कर तशरीफ़ ले आए। 

उस वक्त कुछ लोगों को ख्याल आया कि उन्हों ने हुजूर (ﷺ) की राय से इख्तिलाफ़ किया था, इसलिए कहीं गुनाह का काम न हो गया हो, वे परेशान हो उठे, उन्हों ने अर्ज किया – 

हजूर (ﷺ) ! हम से ग़लती हो गयी है, हम शर्मिन्दा हैं। अगर हुजूर (ﷺ) पसन्द फ़रमाएं, तो हम मदीने ही में रह कर मुकाबला करें।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया –

न यह गलती है, न गुनाह का काम, न मदीने में मुकाबला करने का मेरा हुक्म था, लेकिन मैं ने रात में ख्वाब देखा था कि मेरी तलवार की थोड़ी धार गिर गयी है, इसलिए मुझे डर हुआ था कि कहीं मुसलमानों को नुक्सान न पहुंचे। पर जब बड़ी तायदाद ने यह तै कर लिया है कि मदीने से बाहर निकल कर ही मुकाबला किया जाए, तो यही मुनासिब है।

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मुसलमान खामोश हो गये। 

फौज ने चलने की तैयारी शुरू करदी। इस बार फौज में १००० नवजवान शरीक थे। 

हुजूर (ﷺ) ने फौज को कूच करने का हुक्म दे दिया।

फौज जब आगे बढ़ी, और कुबा से कुछ ही आगे पहुंची कि अब्दुल्लाह मुनाफिक ने अपने साथियों को बुलन्द आवाज से खिताब किया और मेरे जांबाजो! मुसलमानों पर जौहर दिखाने का नशा ऐसा छाया हुआ है कि वे अपने भले-बुरे को भी नहीं समझ रहे हैं। मैं ने उन्हें मश्विरा दिया था कि वे मदीना ही में रह कर मुकाबला करें पर उन्हों ने मेरी

राय न मानी और मदीने से बाहर निकल आए। मुझे मालूम हुआ है कि कुरैश वालों की तायदाद बहुत ज्यादा है। उन के मकाबले में जाना अपनी जिंदगी को कुर्बान करना है। मैं किसी तरह भी यह मुनासिब नहीं समझता, इसलिए मैं वापस लौटता हूं। तुम भी मेरे साथ वापस लोट चलो।

वह और उस के तीन सौ साथी इस्लामी फ़ौज से निकल कर वापस लौट गये।

अब्दुल्लाह मुनाफ़िक का यह ख्याल था कि उसके वापस लौटने से सब मुसलमान पस्त हिम्मत हो कर वापस लौट आवेंगे या सब मुसलमान न लौटगे, वो पचास जरूर उस का साथ देंगे, लेकिन वह यह देख कर हैरान रह गया कि एक मुसलमान भी उसके साथ वापस न आया।

अब सिर्फ सात सौ मुसलमान रह गये।

यह छोटी-सी फ़ौज निहायत जोश और बड़ी शान से मक्के के रास्ते पर रवाना हुई।

To be continued …

इंशा अल्लाह सीरीज के अगले हिस्से में हम जंगे उहुद का तफीसिली जिक्र करेंगे … 

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