यह बात हर मुसलमान जानता है कि हज इस्लाम की बुन्यादों में से एक है, और हज अदा करने के फज़ाईल भी लोग आम तौर पर जानते ही हैं लेकिन अक्सर मुसलमान “हज की हिकमत” से अनजान हैं और जिस इबादत से हिकमत निकल जाती है वह इबादत एक बेजान जिस्म की तरह रह जाती है फिर उसके वो असरात इंसान की ज़िन्दगी पर नहीं होते जो होने चाहियें थे।
जैसे अल्लामा इकबाल ने कहा है: “रह गई रस्म-ऐ-अजां रूह-ऐ-बिलाली न रही….” हज का मामला भी आज कल यही है, लोग पूरा हज कर आते हैं और उन्हें पता ही नहीं होता कि उन्होंने क्या किया है।
- यह भी पढ़े: हज का सुन्नत तरीका
हज:
हम इस पोस्ट में आप की खिदमत में यही बताने की कोशिश करेंगे कि ‘हज’ आखिर है क्या ?
– हज अपनी असल में अल्लाह की राह में शैतान (बुराई) के खिलाफ उस जिहाद की ट्रेनिंग है जो जिहाद हमें पूरी उम्र करना होता है।
अल्लाह तआला ने हमें बताया है कि आदम के पैदा होने के वक्त से ही सैतान ने इंसान से ऐलाने जंग कर रखा है, शैतान ने अल्लाह से कहा था कि:
“मैं ज़रूर इंसानों को भटकाने लिए तेरी सीधी राह में घात लगा कर बैठूँगा और मैं इंसानों पर हर तरफ से और हर तरह से हमला करूँगा और तू इंसानों में से ज्यादा तर को अपना शुक्र गुज़ार नहीं पाएगा” (सूरेह आराफ़ 16-17)
शैतान इंसान पर तलवार से हमला नहीं करता बल्कि उसके हथियार तकब्बुर (घमण्ड), जिन्सी खुआहिश (यौन इच्छा) और लालच जैसी बुराईयाँ ही हैं जिनके ज़रये वो इंसानों को गुमराह करता है, ज़ाहिर है शैतान से बचने के लिए उसको अपना दुश्मन समझना बहुत ज़रूरी है इंसान जिसको अपना जितना बड़ा दुश्मन समझता है उससे उतना ही चौकन्ना रहता है, कुरआन में इसी लिए बार-बार अल्लाह हम को शैतान से ख़बरदार करता है।
– हज में भी मुसलमानों को शैतान से दुश्मनी निभाने और शैतान की गुलामी से निकल कर सिर्फ एक अल्लाह की गुलामी में आ जाने का अभ्यास कराया जाता है।
– हज का मौका ऐसे है जैसे अल्लाह अपने बन्दों को पुकारता है और हुक्म देता है कि सब मिल कर अपने दुश्मन शैतान को इस जिहाद में शिकस्त दो, लिहाज़ा अल्लाह के बन्दे अल्लाह की पुकार पर यह कहते हुए हाज़िर हो जाते हैं कि (لبيك، اللهم لبيك، لا شريك لك لبيك، ان الحمد والنعمة لك و الملك، لاشريك لك) ‘हाज़िर हूँ, ऐ अल्लाह मैं हाज़िर हूँ, तेरा कोई साझी नहीं, मैं हाज़िर हूँ, शुक्र तेरे ही लिए है, सारी नेमत तुझसे हैं, असल इक़तिदार (सत्ता) तेरा है, तेरा कोई साझी नहीं।’
– अब शैतान से जंग तो करनी है लेकिन शैतान से तलवार और बन्दूक से नहीं बल्कि ईमान, सब्र, तक़वा और परहेज़ नामी हत्यारों से ही जंग हो सकती है इसी लिए कुरआन में अल्लाह ने फरमाया है कि:
“हज के मुतैययन महीने हैं बस जो शख्स उन महीनों में अपने ऊपर हज लाज़िम करे तो (एहराम से आख़िर हज तक) न फहश बात करे और ना कोई और बुरी बात करे और ना आपस में लड़ाई झगड़ा करे और जो भी नेकी तुम करोगे तो अल्लाह उस की खबर रखता है, और हज के सफ़र के लिए अपना सामान ले लिया करो और सफ़र के लिए सब से अच्छा सामान तो परहेज़गारी है, और ऐ अक्लमन्दों मेरी नाफ़रमानी से डरते रहो।” (सूरेह बक्राह.197)
– शैतान जिन चीज़ों से इंसान को गलत रास्ते पर डालने में कामयाब हो सकता यही चीजें हैं, जिनकी शैतान तरगीब (प्रेरणा) देता है, इस आयत में अल्लाह ने हाजियों को इनसे रोक कर शैतान के वार से बचने के लिए मानो एक कवच दे दिया है।
उमराह:
दरअसल अपने आप को अल्लाह की नज़र कर देने का नाम है, एहराम में हाजी पर बहुत सी हलाल चीज़े भी हराम हो जाती हैं, रोज़ा रख कर जो कैफयत इंसान पर तारी होती है यानि उसे हर वक़्त यह ख्याल रहता है कि वो रोज़े से है उसे कोई गुनाह का काम नहीं करना, वही कैफयत एक हाजी की एहराम बाँधने पर हो जाती है एहराम हाजी को यह अहसास दिलाता रहता है कि वो हज कर रहा है लिहाज़ा उसे बुराइयों के करीब भी नहीं जाना है।
ऐहराम बांधना:
इस बात की अलामत (प्रतीक) है कि हम ने दुनिया से अपना ताल्लुक तोड़ लिया है दुनिया के मामलों को अब छोड़ दिया है, एहराम के दो बिना सिले कपड़ों से यही बात ज़ाहिर होती है कि हम अब दुनियां के ऐशो-आराम छोड़ कर वह कपड़े पहनकर अल्लाह के हुज़ूर में पेश हो गए हैं जिनमे उस मुर्दे को कब्र में उतारा जाता है जो दुनियां को छोड़ कर अल्लाह की तरफ जाता है।
इसके बाद हज्रे अस्वद का ‘इस्तलाम’ किया जाता है यानि उसे छुआ जाता है या उस की तरफ हाथ से छूने का इशारा किया जाता है, यह असल में अपना हाथ अल्लाह के हाथ में दे देने की अलामत (प्रतीक) है यह अल्लाह से बैत और पक्का वादा करने का अन्दाज़ है यह अपनी खुआहिशों (इच्छाओं) को अल्लाह की रज़ा और उसके हुक्म पर कुरबान करने का वादा है।
(नोट- हम जानते हैं कि अल्लाह का हाथ तो कोई महसूस कर ही नहीं सकता लेकिन हमें बैत करने के लिए किसी निशानी की ज़रूरत थी इस लिए हज्रे अस्वद को अल्लाह के हाथ की जगह मान लिया गया है इसी लिए हदीस में है कि
“जो हज्रे अस्वद को छुएगा गोया वो अल्लाह का हाथ छू रहा है।” (सुनन इब्ने माजा: हदीस 1117)
तवाफ़:
इसके बाद तवाफ़ (फेरे लगाना) का मरहला आता है, तवाफ़ की हकीकत यह है कि पुराने ज़माने में क़ुरबानी के जानवर को कुरबान करने से पहले इबादतगाह के फेरे लगवाए जाते थे जिससे उस इबादतगाह की अज़मत भी ज़ाहिर होती थी और यह इस बात की भी निशानी थी अब यह जानवर सिर्फ इस माबूद का हो गया है, इसके बाद उसको कुरबान करने की जगह ले जाकर उसके भी फेरे दिलवाए जाते थे और फिर उसको वहीँ ज़िबह कर दिया जाता था। इसकी ज्यादा तफसील आप तारीख (history) में पढ़ सकते हैं।
तवाफ़ में भी हाजी जानवर की जगह खुद को अल्लाह की नज़र कर देने के लिए काबा के फेरे लगाते हैं और फिर अल्लाह से दुआ करते हैं और अपने पिछले गुनाहों से तौबा करते हैं और आइन्दा गुनाह ना करने का पक्का इरादा करते हैं।
सईं:
इसके बाद ”सई” (दो पहाड़ सफा और मरवा के बीच दौड़ना) की जाती है, ‘सई’ के मायने ‘कोशिश’ करने के आते हैं, मशहूर रिवायात के मुताबिक ‘सई’ हज़रत हाज़रा (अ) के परेशानी की हालत में सफा से मरवा तक बार-बार दौड़ने की नक़ल है ताकि लोग हज़रत इब्राहीम (अ) और उनके परिवार को याद कर उनसे सबक सीखें क्यों कि यह परिवार तौहीद(एकेश्वरवाद) के लिए क़ुरबानी देने के लिए पूरी दुनियां में मशहूर है।
कुछ उलेमा के नज़दीक जब हज़रत इब्राहीम (अ) हज़रत इस्माईल (अ) को कुरबान करने के लिए सफा पर पहुँच कर आगे बढ़े तो शैतान ने उनको वसवसे दिलाने की कोशिश की जिससे बचने के लिए और अल्लाह के हुक्म की तामील के लिए वो तेज़ी से दौड़े, बहरहाल सई शैतान के मशवरों से भागने और अल्लाह की रज़ा की तरफ दौड़ने का नाम है।
पहली बार हलक:
इसके बाद ‘हलक़’ यानी सर के बाल मुंडवाने का मरहला होता है, हलक़ का फलसफा यह है कि पुराने ज़माने में जब लोगों को गुलाम बनाया जाता था तो उनका सर मुंडवा दिया जाता था जो इस बात की निशानी होती थी कि यह किसी का गुलाम बन गया है, हाजी भी अपना सर मुंडा कर यही ज़ाहिर करता है कि अब वो पूरी तरह अल्लाह का गुलाम बन चुका है। अब उसकी जान और माल पर उससे ज्यादा अल्लाह का हक है।
– इसके बाद शैतान से असल जंग का वक़्त शुरू हो जाता है, उसके लिए जैसे पुराने ज़माने में जंग में जाने के लिए सिपाही हर तरफ से आ कर एक जगह जमा होते थे और पड़ाव डालते थे ठीक ऐसे ही हाजी ‘जो इस वक़्त सच्चाई सिपाही हैं शैतान से लड़ने के लिए निकल खड़े हुए हैं’। मिना के मैदान में पड़ाव डालते हैं, और फ़ौज की तर्ज़ पर ही कैम्पिंग करते हैं, और जंग के हालात ही की तरह नमाज़े मिलाकर और कसर पढ़ते हैं।
– अलबत्ता हनफी वहां कसर नमाज़ नहीं पढ़ते वो पूरी ही नमाज़ पढ़ते हैं, फिर अरफात के मैदान में कूच किया जाता है यह बहुत बड़ा मैदान है इसमें एक पहाड़ी ‘जबल रहमत’ के नाम से है जहाँ रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने आखरी खुतबा (भाषण) दिया था, यहाँ एक मशहूर मस्ज़िद ‘नमरा’ है यहीं हज का इमाम खुतबा (भाषण) देता है, इमाम अपने खुतबे में मुसलमानों को अल्लाह से किया हुआ तौहीद (एकेश्वरवाद) का वादा याद दिलाता है और उन्हें शैतान और नफ्स के फरेब से बचने की नसीहत करता है।
फिर तीन दिन तक शैतान की निशानी को कंकरियां मारी जाती हैं जो इस बात की अलामत (प्रतीक) है कि मुसलमान सिर्फ बुराई से बचने तक पर ही राज़ी नहीं है बल्कि वो हर छोटी बड़ी बुराइयों को ख़तम कर देना चाहता है, और यह अमल बार बार दोहराया जाता है ताकि मुसलमान के ज़हन में यह बात अच्छी तरह रच बस जाए कि वो सच्चाई और अच्छाई का सिपाही है और उसे बुराई के खिलाफ जिहाद(संघर्ष) करना है।
जानवर की क़ुरबानी:
इन्ही दिनों में अपने नफ्स की खुआहिशों की क़ुरबानी की अलामत के तौर पर जानवर की क़ुरबानी की जाती है जो हज़रत इस्माईल (अ) की याद भी है जिन्होंने अल्लाह के हुक्म पर ख़ुशी से अपनी जान देने की तैयारी कर ली थी, हज़रत इब्राहीम (अ) और उनका परिवार हमारे लिए रोल मोडल है यह बात सब को मालूम है कि उन्होंने तौहीद (एकेश्वरवाद) और अल्लाह के इस घर यानि काबा के लिए क्या क्या मुश्किलें झेली हैं इसी लिए कुरआन में है कि:
“इब्राहिम को उसके रब ने कुछ बातों से आज़माया तो उसने वो आखरी दर्जे में पूरी कर दिखाई।” (सूरेह बक्राह-124)
इसी लिए क़ुरबानी की इस अलामत यानि हज में और हज़रत इब्राहीम (अ) में खास रिश्ता है, हज करते समय इस परिवार की कुरबानियों को याद करना और उनसे सबक लेना भी बहुत अहम है।
› क़ुरबानी की तफ्सीली हिकमत के बारे में इस लिंक पर क्लिक करे
दूसरी बार हलक:
इसके बाद एक बार फिर हलक करवाया जाता है और काबा का तवाफ़ किया जाता है। कुरआन मजीद में है:
“फिर जब तुम पूरे कर चुको हज के अरकान तो अल्लाह को याद करो जिस तरह अपने बाप दादा का ज़िक्र करते हो, बल्कि इस से भी ज़्यादा ज़िक्र इलाहि करो और कुछ लोग हैं जो कहते हैं ऐ हमारे रब! दे दे हमें दुनिया में ही (सब कुछ), नहीं है ऐसों के लिए आख़िरत में कोई हिस्सा, और बाज़ लोग हैं जो कहते हैं ऐ हमारे रब! अता फ़रमा हमें दुनिया में भलाई और आख़िरत में भी भलाई और बचा ले हमें आग के अज़ाब से।” – (सूरेह बकराह 200,201)
– यहां एक जाहिलाना रस्म को खत्म किया जा रहा है, पहले के लोग जब हज से फ़ारिग़ होते तो बैतुल्लाह के पास मजलिसें जमाया करते, जिन में वो अपने बाप-दादा की तारीफों के पुल बांधा करते थे।
– हुक्म होता है अपने रब करीम को याद करो, जैसे अपने बाप-दादा को ज़ौक़-शौक़ से याद किया करते हो, बल्कि उनसे भी ज़्यादा अल्लाह ताआला को याद करो, और अपनी दुआओं को उन लोगों की तरह ना बनाओ जो सिर्फ दुनियां ही का साज़ो सामान चाहते हैं और आखिरत उनका मकसद नहीं होती, जबकि जो सच्चे मोमिन हैं वो दोनों ही जगह भलाई चाहते हैं।
मुत्तहिद होने का पैगाम:
हज से हमें एक अहम सबक फिरका वारीयत को भूल कर एक दुसरे का इख्तिलाफ के बावजूद अहतराम करने का भी मिलता है, वहां हर फिरके और हर मसलक के लोग होते हैं पूरी दुनियां से हर देश से अलग अलग कौम और अलग अलग रंग और नस्ल के लोग आते हैं, पर ना वहां कोई लड़ाई न झगड़ा ना कुफ्र और गुस्ताखी के फतवे न मस्जिदें अलग हैं। सब एक इमाम के पीछे नमाज़ पड़ते हैं और सब का मकसद भी एक होता है यानि सिर्फ एक अल्लाह को राज़ी करना।
– अगर एक अल्लाह, एक रसूल एक कुरान के ताबेअ (अधीन) होकर सब मुस्लिम भी एक जिस्म और एक जान की तरह हो जाएं, अपने अंदर एकता पैदा करें, और सभी मुसलमानों के मसाइल को एक मंच पर बैठ कर हल करें, अगर आज हम सभी मुसलमान खानाकाबा को अपना मरकज़ बनाकर सामूहिक रूप से पूरी दुनिया की समस्याओं को हल करने के लिए इमामे काबा को अपना अमीर यानी मुस्लिम संयुक्त राष्ट्र का अध्यक्ष मान लें, और सभी मुस्लिम देशों के राष्ट्रपति या प्रधान मंत्री इस मुस्लिम संयुक्त राष्ट्र के सदस्य बन जाएँ, और पूरी दुनिया में मौजूद मुसलमानों की समस्याओं को खानाकाबा में बैठ कर हल करने के लिए व्यावहारिक कदम उठाने का फैसला करें, तो कोई वजह नहीं कि मुसलमान एक बार फिर इल्म और ताक़त की बुलंदियों को ना छू सकें।
बहरहाल… हज के बाद एहराम तो उतार दिया जाता है लेकिन हाजी इस ट्रेनिंग से अपने नफ्स को हमेशा के लिए एहराम पहनाना सीख लेता है, वो जान लेता है कि शैतान उसका सबसे बड़ा दुश्मन है और अपने दुश्मन के मशवरों पर अमल कोई बेवक़ूफ़ ही कर सकता है,
– वो जान लेता है कि वो इस ज़मीन पर दरअसल अल्लाह का एक सिपाही है और उसे सारी उमर बुराइयों से लड़ना है चाहे वो अपने अन्दर हों या बाहर हो उसकी ज़िन्दगी का मकसद सिर्फ बुराई को ख़तम करना ही है चाहे इसके लिए उसे अपनी जान की बाज़ी ही क्यों ना लगानी पड़े, यही हज का मकसद है और यही हज का सबक।
– आप तमाम हजरात से हमारी अपील है कि इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा उन लोगों तक पहुचाने की कोशिश करें जो इस साल हज पर जाने की तैयारी कर रहे हैं.. शुक्रिया
- मुशर्रफ अहमद