औरंगजेब आलमगीर (रह.) शाहजहाँ के तीसरे बेटे पंद्रह जीकादा सन १०२७ हिजरी में अर्जुमंद बानो (मुमताज़ महल) के बत्नसे पैदा हुए, इब्तिदाई तालीम शेख अबुल वाइज़ हरगामी से और इल्म व अदब मौलवी सय्यद मुहम्मद कन्नौजी से हासिल किया और दीगर असातिजा से दीनी उलूम में महारत हासिल की, इन्होंने सिर्फ एक साल में क़ुरआने करीम हिफ़्ज़ कर लिया, उलमा और बुजुर्गों से हुस्ने अकीदत और वालेहाना मुहब्बत रखते थे, जब किसी जगह तश्रीफ़ ले जाते, तो वहाँ के उलमा व मशाइख की मजलिस में हाज़िर हो कर इल्म व मारिफ़त की बातें सुनते और उन्हें कीमती तोहफ़ा व तहाइफ़ से नवाज़ते।
हज़रत ख्वाजा मुहम्मद मासूम और उनके साहब ज़ादे सैफुद्दीन से इल्मे सुलूक व अत व इबादत का यह हाल था के सुबहे सादिक से पहले उठ कर तहज्जुद पढ़ते और मस्जिद में पहुँच कर फज़र की अज़ान के इन्तेज़ार में किबला रु हो कर बैठे रहते, अज़ान के फ़ौरन बाद सुन्नत अदा फ़र्माते, बा जमात नमाज़ पढ़ कर तिलावते कुरआन और मुताल-ए-हदीस में मशगूल हो जाते और चाश्त की नमाज़ पढ़ कर खल्वत गाह में तशरीफ़ ले जाते, हमेशा बावुजू रहते, कलिमा-ए-तय्यिबा और दीगर वज़ाइफ़ पाबंदी से अदा करते, पीर, जुमेरात और जुमा को रोज़ा रखते और अल्लाह वालो के साथ जिक्र व इबादत में मसरूफ़ रहते।
औरंगजेब आलमगीर (रह.) का दौरे हुक़ूमत
औरंगजेब आलमगीर (रह.) खानदाने तैमूरिया के सब से ज़ियादा अक्लमंद, बहादुर, मुंसिफ़ मिज़ाज और हुकूमत व मुलकी इन्तेज़ाम की भरपूर सलाहियत रखते थे। वह सन १०६८ हिजरी में तख्त नशीन हुए, अगले साल तख्त नशीनी के मौके पर लोगों के तमाम टॅक्स माफ़ कर दिए और पच्चीस लाख रूपये जरुरतमंद लोगों में तक्सीम किए, छ: लाख तीस हजार रूपये के तोहफ़े मक्का मुकर्रमा और मदीना मुनव्वरा रवाना फरमाए।
एक लाख साठ हज़ार रुपये की लागत से किले में संगे मर मर की मस्जिद तामीर कराई जगह जगह गरीबों के लिए लंगर खाने खुलवाए, आमलगीर की हुकूमत कराची बंदरगाह से लेकर आसाम की मशरिकी हुदूद और कोहे हिमालिया से ले कर बहरे हिंद तक फैली हुई थी, उन्होंने मुलकी इन्तज़ाम के तहत नशा आवर चीज़ों, नाच गाने और खिलाफे शरीअत कामों पर पाबंदी लगाई, रास्तों को लूट मार करने वालों से महफूज़ किया।
एक लाख चालीस हज़ार रुपये सालाना मोहताजों के लिए मुकर्रर किए, उन्होंने किसी मज़हबी मकाम को गिराने की कभी इजाज़त नहीं दी, हर तब्का व मजहब के लोग खुशहाली और अमन व सुकून से रहते और आज़ादी के साथ अपने मज़हब की रसमों को अदा करते, वह हर छोटे बड़े की बात गौर से सुन कर फैसला करते और हक बात के मुकाबले में किसी की सिफारिश कबूल नहीं करते थे।
औरंगजेब आलमगीर (रह.) की दीनी व इल्मी खिदमात
आलमगीर को इस्लामी व शरई उलूम से खास लगाव था, यूं तो उन के दौर में बहुत से दीनी और इल्मी काम अंजाम दिये गए और बहुत सारी किताबें शाए की गई, उन्हीं में से अल्लामा हसन की किताब “रद्देशीआ” और दूसरी किताब मौलाना मुहम्मद मुस्तफ़ा की “नजमुल फुर्कान” है, जो कुरआन मजीद के अल्फाज़ की फहरिस्त (Index) है, इस के अलावा उन का गिरा कद्र इल्मी कारनामा यह है के उन्होने हिंदुस्तान के उलमा की एक जमात को हुक्म दिया के फ़िकह की तमाम किताबों से मसाइल मुन्तखब कर के एक ऐसी जामे किताब तय्यार की जाए।
जो फ़िकह के तमाम पहलूओं पर हावी हो, शेख निजामुद्दीन को इस जमात का सद्र बनाया गया, चुनान्चे उलमा की आठ साला मेहनत के बाद “फतावा आलमगीरी शाही” तय्यार हुई, जिस पर उस ज़माने में दो लाख रुपये खर्च हुए, बादशाह का मामूल था के रोज़ाना इस किताब का एक सफ्हा शेख निज़ाम से पढ़वा कर उस पर गौर व फ़िक्र करते और फिर उलमा की मुत्तफ़का राय से उस को लिखा जाता।
हकीकत में यह ऐसा इल्मी कारनामा है जिस ने उलमा व तलबा को फ़िकह की तमाम किताबों से बेनियाज़ कर दिया है। जब इस किताब को अरब उलमा ने पढ़ा, तो इसे बड़ी कद्र की निगाह से देखा और फिर अरब में फ़तावा हिंदिया के नाम से इसको शाए किया।