आमुल हुज़्न (ग़म का साल)

रसूलुल्लाह (ﷺ) की जौज-ए-मोहतरमा हज़रत ख़दीजा (र.अ) और चचा अबू तालिब हर वक्त आप (ﷺ) का साथ दिया करते थे। एक मर्तबा अबू तालिब बीमार हो गए और इंतकाल का वक्त करीब आ गया।

आप (ﷺ) ने फ़रमाया : ऐ चचा ! एक मर्तबा ” ला इलाहा इलल्लाह “ कह लो ताके खुदा के सामने तुम्हारी शफ़ाअत के लिये मुझे दलील मिल जाए।

लेकिन अबू जहल और अब्दुल्लाह बिन उमय्या वगैरह ने कहा के अबू तालिब ! क्या तुम अब्दुल मुत्तलिब के दीन को छोड़ दोगे?

अबू तालिब ने कलिमा पढ़ने से इनकार कर दिया और आखरी लफ़्ज़ जो उन की ज़बान पर था वह यह के मैं अब्दुल मुत्तलिब के दीन पर हूँ और इंतकाल हो गया। अभी चचा के इंतकाल का ग़म हल्का न हुआ था, के उसके कुछ ही दिनों के बाद आप (ﷺ) की जाँनिसार और गमख्वार बीवी हज़रत ख़दीजातुल कुबरा (र.अ) भी इस दुनिया से चल बसीं।

इस तरह यके बाद दीगरे दोनों के इन्तेक़ाल कर जाने से आप (ﷺ) पर रंज व ग़म और मुसीबत का एक पहाड़ टूट पड़ा, क्योंकि आपकी दावत व तबलीग़ के हर मरहले पर अबू तालिब और हजरत स ख़दीजा, दोनों आपका साथ दिया करते थे और हजरत खदीजा (र.अ) तो हमेशा आप की मदद करती थीं और परेशानी के वक्त बेहतरीन मशवरे दिया करती थीं। इस लिये दोनों का एक साल में इंतकाल कर जाना आपके लिए बड़ा हादसा था। इसी वजह से आप (ﷺ) ने इस साल का नाम “आमुल हुज्न” यानी गम का साल रखा।


Discover more from उम्मते नबी ﷺ हिंदी

Subscribe to get the latest posts sent to your email.




WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

Comment

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *