इमाम अबुल हसन अली अशअरी (रह.) मशहूर सहाबी हज़रत अबू मूसा अशअरी की औलाद में थे। आपके जमाने में इस्लाम का एक फ़िर्का जो मुअतजिला के नाम से जाना जाता है।
उस ने इल्मी हलके में काफी असर डाल रखा था और आम तौर पर यह समझा जाने लगा था के मुअतजिला बड़े जहीन, अक्लमंद और मुहक्किक होते हैं और उनकी राय और तहकीक अक्ल से जियादा करीब होती है।
और लोग फ़ैशन के तौर पर इस नजरिये को इख्तियार करने लगे थे और एक बड़ा फ़ितना बन था।
अल्लाह तआला ने इस अज़ीम काम के लिए इमाम अबुल हसन अली अशअरी (रह.) को चुना, वह उन के बातिल अकीदे की तरदीद और उनकी दावत देने को तकरूंब इलल्लाह का जरिया समझते थे।
खुद मुअतजिला की मजलिसों में जाते और उनको समझाने की कोशिश करते। लोगों ने उनसे कहा के आप अहले बिदअत से क्यों मिलते जुलते हैं?
उन्होंने जवाब में फ़र्माया : क्या करूं, अगर मैं उनके पास न गया तो हक कैसे जाहिर होगा और उन को कैसे मालूम होगा के अहले सुन्नत का भी कोई मददगार और दलाइल से उनके मजहब को साबित करने वाला है।
वह मुअतजिला की मुखालफ़त और तरदीद में लगे रहे यहाँ तक के फ़िर्क-ए-मुअतज़िला का ज़ोर कमजोर पड़ गया। आप की वफ़ात सन ३२४ हिजरी में बगदाद में हई।