सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 5

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 5

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आम तब्लीग

हुजूर सल्ल० ने चुपके-चुपके तब्लीग शुरू की थी, लेकिन चूंकि हर आदमी के सामने, जो आप के पास आता, अल्लाह का हुक्म बयान फ़रमाते। एक खुदा को सबका पैदा करने वाला बताते, लोग सुनते, लेकिन जवाब न दे पाते, अलबत्ता अपने घरों और मज्लिसों में जा-जाकर इस नये दीन का जिक्र करते और मजाक उड़ाते। इस तरह इस्लाम का जिक्र घर-घर छिड़ गया।

लोग सुन-सुन कर हैरान भी हो रहे थे और गुस्से से दांत भी पीसते, लेकिन यह पता न चलता कि कौन-कौन मुसलमान हो गये हैं, इस लिए चुप रह जाते।

हुजूर सल्ल० ने एलानिया तब्लीग शुरू न की थी, इसलिए किसी को उन पर सख्ती करने की हिम्मत न पड़ती थी।

हजरत अबू बक्र रजि० का असर तमाम क़बीलों पर था, इसलिए इस्लाम अपनाने के बाद आप ने अपने हर मुलाकाती से इस्लाम की बात कहनी शुरू कर दी। लोग सुनते, अक्सर कुबूल करते और इस्लाम अपना लेते।

चुनांचे आप की कोशिशों से हजरत उस्मान बिन अफ्फान, हजरत तलहा बिन अब्दुल्लाह, हजरत साद बिन अबी वकास, हजरत अब्दुर्रहमान बिन औफ़, हजरत जुबैर बिन अब्बाम ईमान लाये। इन हस्तियों में हजरत उस्मान रजि० काफ़ी मालदार थे कि इसी वजह से लोग उन्हें ‘गनी’ कहा करते थे।

अब इन सब लोगों ने मिल कर तब्लीग का काम शुरू किया, लेकिन यह तब्लीग अभी तक राजदारी के साथ हो रही थी। फिर भी इन तमाम कोशिशों के नतीजे में धीरे-धीरे इस्लाम फैलने लगा।

चुनांचे हजरत अबू उबैदा बिन जर्राह, हजरत अबू तलहा, अब्दुल असद बिन हिलाल, हजरत उस्मान बिन मजऊन, हजरत कुदामा बिन मजऊन, हजरत सईद बिन जैद, हजरत फातमा, हजरत सईद बिन जैद की बीबी वगैरह बहुत से लोग मुसलमान हो गये। धीरे-धीरे मुसलमानों की तायदाद बढ़ने लगी।

अभी तक सब लोग मक्का के सरदारों से डरते थे, इसलिए अपने इस्लाम को छिपाये हुए थे। नमाज छिप कर पढ़ते थे या तो अपने घरों के कमरों में घुस कर नमाज अदा करते थे या पहाड़ों के दरों और ग्रारों में जाकर नमाज पढ़ते थे।

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चूंकि हर आदमी अपने मुसलमान होने को छिपाता था, इस लिए मुसलमानों को भी मालूम था कि कौन-कौन से लोग मुसलमान हो चुके हैं।

कुछ दिनों के बाद हजरत उमर, हजरत साद बिन अबी वकास के भाई हजरत अब्दुल्लाह बिन मसऊद, हजरत अम्मार बिन यासिर, हजरत खुबैर भी मुसलमान हो गये। जो लोग अभी तक मुसलमान हुए, वे अपने अखलाक में सब से नुमायां थे, लेकिन मालदार बिल्कुल न थे, बल्कि अक्सर तो गुलाम और लौंडियां थीं।

उस वक्त के मुसलमान नमाजें भी छिप-छिप कर पढ़ते थे। हुजूर सल्ल० अक्सर पहाड़ी दर्रों में जा कर नमाज पढ़ा करते थे, कभी-कभी हजरत अली को भी साथ ले जाते थे और अपने साथ नमाज पढ़ाते थे।

एक दिन हुजूर सल्ल० हजरत अली रजि० को साथ लेकर एक दर्रे में पहुंचे। नमाज का वक्त हो गया था। दोनों नमाज पढ़ने लगे। इत्तिफ़ाक़ से हजरत अली के चचा अबू तालिब उधर से आ निकले। अबू तालिब के साथ हजरत जाफ़र हजरत अली के भाई भी थे। दोनों करीब खड़े थे। हैरत भरी नजरों से हुजूर सल्ल० और हजरत अली को नमाज पढ़ते हुए देखने लगे। कुछ देर के बाद अबू तालिब ने हजरत जाफ़र से कहा, हबल की कसम! जिस तरीके पर मुहम्मद नमाज पढ़ रहे हैं, बड़ा ही दिल लुभाने वाला तरीका है। जाफ़र! तू भी अपने चचेरे भाई के बाजु में खड़ा हो जा। 

फ़ौरन हजरत जाफ़र दूसरी तरफ खड़े हो गये। नमाज पढ़ते देखा तो हुजूर सल्ल० ने फ़रमाया, जाफ़र ! तुम मुसलमान हो जाओ।

हजरत जाफ़र ने भी इस्लाम अपना लिया। हुजूर सल्ल० ने दुआ दी, अल्लाह तुझे जन्नत में दो बाजू दे, जिस से तू फ़िरदौस में उड़ सके। उसी दिन से आप का नाम जाफ़र तैयार हो गया।

जब आप नमाज पढ़ चुके तो आप ने अबू तालिब को खड़े देखा। आप सल्ल० ने अपने चचा को सलाम किया। अबू तालिब ने पूछा, बेटे ! यह तुम क्या कर रहे हो?

चचा! मैं नमाज पढ़ रहा था। अबू तालिब ने हैरान होकर पूछा, नमाज पढ़ रहे थे? तुम्हार सामने तो कोई खुदा (बुत) था नहीं ?

हुजूर सल्ल० ने बताया, मैं बुतों को सामने रखकर नमाज नहीं पढ़ता।

फिर किस की नमाज पढ़ रहे थे? अबू तालिब ने पूछा। 

उस खुदा की, जिस ने सब कुछ पैदा किया है। हुजूर सल्ल० ने जवाब दिया।

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नमाज का यह तरीका तुम ने किस से सीखा ? अबू तालिब ने पूछा। 

चचा! जिब्रईल फ़रिश्ते से! आपको बहीरा राहिब का वाकिया है याद है?

हाँ, याद है?’

मुझ पर वह्य नाजिल होनी शुरू हो गयी है। अल्लाह ने मुझे पैगम्बरी के लिए चुन लिया है।

तुम पर अल्लाह का क्या पैगाम नाजिल हुआ? आप ने कुरआन की तिलावत शुरू कर दी।

अबू तालिब सुन रहे थे। उनके दिल पर इन आयतों का असर हो रहा था। बदन कांपने लगा था, जब हुजूर सल्ल० खामोश हुए, तो अबू तालिब ने पूछा, यह कौन सा मजहब है ? 

आप सल्ल० ने बताया, यह इब्राहीम का तरीका है, उन्हीं का दिया हुआ यह नाम इस्लाम है और इस के मानने वाले मुसलमान कहलाते हैं।

अबू तालिब बोले, बेटे ! यह तो बड़ा अच्छा मजहब है। अल्लाह की इबादत का यह अच्छा तरीका है, हमे फकर है के हमारे खानदान में नबी पैदा हुआ। प्यारे बेटे! तुम्हारे दादा की पेशीनगोई पूरी हुई। क्या तुम जानते हो वह पेशीनगोई क्या थी?

नहीं, चचा! आप सल्ल० ने कहा।

मैं बताता हूं। अबू तालिब बोले, जब तुम पैदा हुए थे, तो तुम्हारे दादा ने तुम्हारा नाम मुहम्मद रखा था। लोगों ने एतराज किया कि आप ने अपने पोते का नाम नया और निराला क्यों रखा ? तो आप ने कहा, इस लिए कि मेरा पोता दुनिया में सूरज बन कर चमकेगा। बेटे ! अब जबकि तुम पर वह्य आने का सिलसिला शुरू हो चुका है और अल्लाह ने तुम्हें अपना रसूल बना लिया है, तो यकीनन तुम हिजाज के नहीं, अरब के नहीं, पूरी दुनिया के सूरज बन कर चमकोगे।

अबू तालिब आप के चचा थे, सरपरस्त थे, बुजर्ग थे। आप को उन के सामने जुबान खोलने की हिम्मत न होती थी, लेकिन जब आप सल्ल० ने अबू तालिब की बातें सुनी तो कहने की हिम्मत हई। आप सल्ल० ने फ़रमाया, चचा! आप भी मुसलमान हो जाएं।

अबू तालिब बोले, मेरा दिल तो चाहता है कि मैं मुसलमान हो जाऊं और तेरे साथ खड़ा होकर नमाज पढू, अनदेखे खुदा को पूजूं, पर बाप-दादा के मजहब को छोड़ते हुए शर्म आती है। जब लोग कहेंगे कि अपने भतीजे का धर्म अपना लिया, तो क्या जवाब दूंगा? शर्म वगैरह से कट-कट कर रह जाऊंगा। हाँ, मैं तुम्हारी मदद करते रहने का वायदा करता हूं। मेरे जीते जी तुम्हे कोई आंख उठाकर नहीं देख सकता। मेरी तलवार उस के सर पर चमक जाएगी, जो तुम को तकलीफ़ पहुंचाने का इरादा करेगा। हां, अली और जाफ़र को मैं ने इजाजत दी। ये दोनों तुम्हारे मजहब में रहेंगे।

अब तालिब ने हजरत अली रजि० से कहा, बेटा ! तुम मुहम्मद सल्ल० का साथ न छोड़ना। जो मजहब तुम ने अपनाया है, जिंदगी भर उस का साथ देना।

हुजूर सल्ल० ने अब तालिब का शुक्रिया अदा किया। अबू तालिब घर चले गये। हुजूर सल्ल० अली और जाफ़र को लेकर अपने मकान पर आ गये।

अबू तालिब की इस हिमायत के वायदे से हुजूर सल्ल० बहुत खुश थे।

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सफा पहाड़ी पर खुली दावत 

कुछ दिनों के बाद हुजूर सल्ल० सफा पहाड़ी पर चढ़ गये और ऊंची आवाज से एक-एक कबीले का नाम ले कर पुकारना शुरू किया।

हुजूर सल्ल० की आवाज सुनते ही तमाम कबीलों के सरदार, रईस, अमीर-गरीब जमा हो गये।

अरब में तरीक़ा था कि जब किसी को कुछ कहना होता, तो किसी ऊंची जगह पर चढ़ कर लोगों को बुलाता। जब सब आ जाते, तो जो कुछ कहना होता, कह देता।

हुजूर सल्ल० ने भी सफ़ा पहाड़ी पर चढ़कर मक्का वालों को बुलाया। जब करीब-करीब सब लोग आ गये तो आप सल्ल० ने पूछा, लोगो! तुम मुझे क्या समझते हो?

हर तरफ़ से आवाजें आयीं, आप अमीन हैं, कभी आप ने खियानत नहीं की, आप सादिक हैं, कभी आप झूठ नहीं बोले। आप सल्ल० ने फ़रमाया, अगर मैं तुहें यह खबर दूं कि सुबह को या शाम को दुश्मन का हमला होने वाला है तो क्या तुम मुझको सच्चा जानोगे? 

सब ने एक जुबान होकर कहा, बेशक सच्चा जानेंगे, क्योंकि हमने आप को हमेशा बात का सच्चा पाया है।

आप सल्ल० ने फ़रमाया, अच्छा सुनो ! अजाबे इलाही नजदीक आ गया है। तुम खुदा पर ईमान लाओ, बुतों की पूजा-छोड़ दो, ताकि अजाबे इलाही से बच जाओ।

यह सुनते ही पूरे मज्मे में शोर मच गया। अपने माबूदों के खिलाफ़ सुनते ही कुफ्फ़ार झुंझला उठे, बिगड़ गये। अबू लहब हंस पड़ा। उस ने कहा, तुझ पर हलाकत हो (नौज़बिल्लाह) । क्या तुमने इसीलिए जमा किया है ?

लोग इतने बिगड़ गये कि आप सल्ल० पर हमले का इरादा कर लिया, यह अलग बात है कि हमला करने की हिम्मत न पड़ी।

हिम्मत न पड़ने की वजह यह थी कि हुजूर सल्ल० बनु हाशिम खानदान से थे, जो कुरैश का सब से मोहतरम कबीला माना जाता था और उस के किसी आदमी पर हमला करना आसान न था। इस लिए सब तैश व ताब खा कर रह गये।

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कुरैश की मुखालफ़त

हुजूर सल्ल. ने सफ़ा पहाड़ी पर तशरीफ़ ले जा कर मक्का के तमाम कबीलों को बुला कर अल्लाह का पैग़ाम पहुंचाया और साफ़-साफ़ कह दिया कि अल्लाह का अजाब करीब आने लगा है, एक अल्लाह पर ईमान ले आओ, उसपर, जो सब का पैदा करने वाला है, जो पत्थर के अन्दर रहने वाले कीडे को भी रोजी देता है, जो आग में और समंदर में रहने वाले जानवरों को भी जिंदा रख सकता है। इबादत के लायक वही है जिस ने सब कुछ बनाया है। 

बुतों की इबादत छोड़ दो, उन बुतों को, जिन को नादानी से तुम और तुम्हारे बाप-दादा पूजते हैं। ये बुत न खुदा है, न खुदा के दरबार में इनकी पहुंच है। इन्हें तुम ने अपने हाथों से बनाया है। जिन्हें तुम खुद बनाओ, वह तुम्हारे खुदा कैसे हो सकते हैं ?

फिर ये बातें कब कहीं ? उस वक्त, जब कि तमाम मक्का और सारा अरब और अरब का कोना-कोना बुतपरस्ती की लानत में गिरफ्तार था।

सदियों से लोग बुतों को खुदा मान कर परस्तिश कर रहे थे। कभी किसी ने बुतपरस्ती के खिलाफ आवाज न उठायी थी, इस लिए कोई भी आदमी बुतों के खिलाफ एक लफ्ज़ भी सुनने को तैयार न था। बुतपरस्ती के खिलाफ बोलने वाले की जिंदगी भी खतरे में थी। 

मगर आप ने किसी किस्म के खतरे की परवाह न की, इस लिए कि आप को अल्लाह पर भरोसा था। इसी भरोसे ने आप का हौसला बढ़ा दिया था। यह हौसला वो था जब आप सफ़ा की पहाड़ी पर चढ़ कर इस्लाम की दावत दे रहे थे।

अगरचे आप उस वक्त कामियाब न हुए, लेकिन आप को पैग्राम पहुंचाने की खुशी भी थी।

अब मुसलमानों की तायदाद बढ़ कर चालीस हो गयी थी। इस लिए आप और आप के साथी सभी इस्लाम की तब्लीग में लग गये।

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तब्लीग के लिए खाने की दावत 

एक दिन आप ने हजरत अली (र.अ) से कहा कि दावत का सामान करो और तमाम करीबी रिश्तेदारों को बुला लाओ। हजरत अली ने दावत का सामान किया और तमाम रिश्तेदारों को बुला लाये। चुनांचे थोड़ी देर में लोग आना शुरू हो गये। अब्बास, हमजा, अबू लहब, अबू जहल, अबू तालिब, वलीद और बहुत से लोग आये।

सब के सामने खाना चुना गया। सब ने इत्मीनान से खाया। जब खाना खा चुके, तो हुजूर सल्ल० खड़े हुए और आप ने फ़रमाया – मेरे बुजुर्गों! जो कुछ मैं कहूं, उसे ठंडे दिल से सुनो और उस पर गौर करो। यह ख्याल न करो कि मेरी ये बातें तुम्हारे मजहब के खिलाफ पड़ रही हैं या नहीं। देखो, तुम बुतों को पूजते हो और बुतों को इंसान ने बनाया है। क्या इंसान की बनायी हुई चीज भी इंसान का खुदा हो सकती है? फिर बुत भी बहुत है? अगर दुनिया में इतने खुदा हो जाएं, तो दुनिया का निजाम कायम नहीं रह सकता। यह ख्याल भी सही नहीं है कि पत्थर के बुत खुदा के दरबार में सिफारिश करेंगे। न ये बुत बोल सकते हैं, न सुन सकते हैं, सिफारिश आखिर कैसे करेंगे? मेरा ख्याल है, एक अल्लाह ही हम सब का माबूद है, वही आसमानों और जमीन का रब है, वही जिंदगी और मौत देता है। लोगो ! तुम बहुत दिनों तक गुमराही के गढ़े में पड़े रहें, बहुत सो चुके, अब उठो, गुमराही से निकलो और एक खुदा की इबादत करो।

तमाम लोग पूरे ध्यान के साथ हुजूर सल्ल. की बातें सुन रहे थे। अबू लहब पेच व ताब खा रहा था कि कहीं लोग हुजूर सल्ल. की बातों से मुतास्सिर हो कर अपने बाप-दादा का मजहब छोड़ कर इस्लाम की गोद में न चले जाएं। इस लिए उस ने टोका-टाकी शुरू कर दी।

वह लोगों के ध्यान को हुजूर सल्ल० की बातों से मोड़ना चाहता था।

चुनांचे ऐसा ही हुआ, लोगों की तवज्जोह हट गयी। फिर अबू लहब उठ खड़ा हुआ। लोग भी खड़े हो गये और एक-एक, दो-दो करके जाने लगे। सब से आखिर में अबू लहब गया। अगरचे इस दावत से भी हुजूर सल्ल० कोई फायदा न उठा सके, लेकिन हुजूर सल्ल० ने कोई ख्याल न किया और कुछ दिनों के बाद फिर दावत की गयी।

हुजूर सल्ल० की दावत में फिर सब लोग जमा हुए। फिर हुजूर सल्ल० ने वही तकरीर फ़रमायी। इस बार अबू लहब  को गड़बड़ करने की हिम्मत न हुई, खामोश सुनता रहा। दूसरे लोग भी खामोशी से सुनते रहे।

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आखिर में आप सल्ल० ने पूछा, कौन है मेरे इस नेक काम में मेरा मददगार? सब चुप रहे, कोई भी न बोला। हजरत अली खड़े हुए। आप ने फ़रमाया – हुजूर सल्ल० ! अगरचे मैं सब से छोटा हूं, कमजोर हूं, मगर मैं आप का साथ दूंगा, अपनी जिंदगी की आखिरी सांस तक साथ दूंगा।

अबू लहब हजरत अली की बातें सुन कर हंस पड़ा। उस ने मजाक उड़ाते हुए कहा, (मुहम्मद ! ) अली तुम्हारा साथ देगा, अब तुझे किस बात का डर?

हुजूर सल्ल० ने कहा, तुम मजाक उड़ाते हो, तो ठीक है, कुछ दिन और उड़ा लो, फिर खुद ही रोओगे-पछताओगे। 

(आप ने जोश में आकर कहा ) सुनो और कान खोल कर सुनो, एक न एक दिन पूरा अरब बुतों की पूजा छोड़ कर रहेगा और इस्लाम का सूरज चमक उठेगा।

अबू लहब हंसता हुआ उठा और चला गया। उस के साथ ही तमाम लोग उठे और चले गये। आज की दावत का भी कोई मुफीद नतीजा न निकला।

अब आप सल्ल० ने यह तरीका बना लिया कि जब नमाज का वक्त होता, खाना काबा में जाते और नमाज पढ़ने के बाद बुतपरस्ती के खिलाफ जोर-शोर से वाज फ़रमाते। इस से काफिरों में गुस्सा फैल गया। हर बुतपरस्त आप का जानी दुश्मन हो गया। 

तमाम कबीलों ने मिलकर एक मज्लिसे शूरा बुलायी और यह तजवीज पास की कि हजूर सल्ल० को और उन लोगों को जो मुसलमान हो गये, जितनी भी तकलीफें दी जा सकें, दो। चुनांचे हुजूर सल्ल० पर सब से पहले सख्तियों की शुरूआत हुई। 

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हुजूर सल्ल० पर सख्तियाँ

शुरू-शुरू में बदमाश गोखरू कांटेदार झाड़ लाते और रात को उस रास्ते पर बिछा देते, जिस से हुजूर सल्ल० गुजरने वाले होते। चूंकि आप सल्ल० को गोखरू तक्लीफ़ देते थे, कांटेदार झाड दामने मुबारक से उलझ जाते, पर आप सब्र  करते और गोखरू उठा कर कांटे समेत फेंक देते और कभी किसी से शिकायत न करते। 

अरबों का ख्याल था कि हुजूर सल्ल० इन रोज-रोज की सख्तियों से तंग आ कर बुतपरस्ती के खिलाफ़ जद्दोजेहद बन्द कर देंगे, लेकिन हुजूर सल्ल० कैसे बन्द कर सकते थे। अल्लाह का हुक्म नाजिल हो चुका था कि एलानिया तब्लीग़ करो। आप बराबर तब्लीग करते रहे।

शरीर शैतानों को इस पर बड़ा गुस्सा आया। अब उन्हों ने निहायत घिनौने तरीके अख्तियार किये। रात को जब हुजूर सल्ल० और हुजूर से मुताल्लिक लोग सोते होते, तो गन्दगी हुजूर सल्ल० के बिस्तर पर, खाना पकाने के बरतनों पर, पानी पीने की छागलों पर फेंक आते। इस से आप सल्ल० को बड़ी तक्लीफ़ होती। हर दिन खुद बरतनों को साफ़ करते, कपड़े धोते, नहाते. लेकिन जुबान से कुछ न कहते। .

जब अर्सा इसी तरह गुजर गया, तो एक दिन इतना कहा कि, ऐ बनू अब्दे मुनाफ़ ! यह अच्छा पडोसी का हक अदा कर रहे हो?

भला इस बात का उन पर क्या असर होता। वे बराबर गंदगी फेंकते रहे और हुजूर सल्ल० को हैरान करते रहे। 

अब शरीर और बदमाश और गुंडे कुछ और ज्यादा गुस्ताख हो गये थे। वे हुजूर सल्ल० के सामने हुजूर सल्ल० को बुरा-भला कहते, शाइर, मजनूं आराफ़, काहिंन वगैरह-वगैरह का खिताब देते ( नऊज़ुबिल्लाह )। हुजूर सल्ल० जहां जाते, जिस मज्मे में खड़े हो कर तकरीर करते, शरीर लोग वहीं पहुंच कर आवाजें कसना शुरू कर देते और किसी को हुजूर सल्ल० की बातें न सुनने देते, मगर हुजूर थे कि उन की किसी बात पर कान न धरते। बराबर हर एक मज्मे में वाज और नसीहत फ़रमाते रहे।

एक दिन हुजूर सल्ल० खाना काबा में नमाज पढ़ रहे थे। उक़्बा बिन अबिल आ गया। उस ने आप सल्ल० के गले में चादर डाल कर इतना ऐंठा कि आप का दम घुटने लगा। आंखें उबल आयीं और मुबारक चेहरा लाल हो गया।

इत्तिफाक से हजरत अबू बक्र रजि. उधर से आ निकले। आप उक्बा झपटे और उसे धकेल कर एक तरफ़ कर दिया। इस बीच बहुत से लोग जमा हो गये । हजरत अबू बक्र (र.अ) ने बुलंद आवाज में कहा, क्या तुम ऐसे आदमी को क़त्ल करते हो, जो कहता है कि मेरा रब अल्लाह है।

यह सुनते ही तमाम कुरैश के लोग हजरत अबू बक्र (र.अ) पर झपट पड़े और उन्हें मारने-पीटने लगे। कुरैश के लोग गुस्से से पागल हो रहे थे। इतने में कुछ नेक दिल लोग आ निकले और उन्होंने कह सुन कर हजरत अबू बक्र (र.अ) की जान बचायी। 

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इस्लाम की राह में पहला खून

इसी तरह एक दिन हुजूर सल्ल० हरम शरीफ़ में नमाज पढ़ रहे थे। बहुत से लोग आप के पास जमा हो गये। जब आप नमाज पढ़ चुके, तो आप की शान में गुस्ताखी करने लगे। हजरत हारिस बिन आला करीब ही थे। वह आ गये और उन्हों ने शरीर शैतानों को बाज रखना चाहा। लोग उन पर टूट पड़े और उन्हें उसी जगह शहीद कर दिया। हुजूर सल्ल० को उन की शहादत का बड़ा अफ़सोस हुआ। इस्लाम की राह में यह पहला खून था, जिससे जमीन रंगीन हुई थी।

क्यूंकि हुजूर सल्ल० तंहा थे, कोई यार व मददगार न था। तमाम मक्का वाले इस बात को खूब जानते थे। इस लिए शैतानों की गुस्ताखियां दिन-ब-दिन बढ़ती जाती थी।


हुजूर सल्ल० की पीठ पर ऊँठ की ओझड़ी डालना

एक दिन आप बैतुल्लाह शरीफ़ में नमाज़ पढ़ रहे थे। अबू जहल भी मौजूद था। अबू जहल ने कहा, बाहर अभी ऊंट जिब्ह हुआ है। उस की ओझड़ी पड़ी हुई है। कोई उसे उठा कर लाओ और मुहम्मद (सल्ल०) के ऊपर डाल दो।

उक्बा ने कहा, मैं लाता हूं। 

चुनांचे वह गया और दो आदमियों को साथ ले कर ओझडी उठवा लाया। जब हुजूर सल्ल. सज्दे में गये, तो उस ने ओझड़ी आप सल्ल० की पीठ पर रख दी। 

दुश्मन अपनी इस शैतानी हरकत पर खिलखिला कर हंसने लगे। इस मज्मे में हजरत अब्दुल्लाह बिन मस्ऊद भी मौजूद थे। ये मुसलमान हो चुके थे। दिल में दुश्मनों की इस हरकत पर कुढ़ रहे थे, लेकिन कुछ कहने या ओझड़ी उठाने की हिम्मत न होती थी। चुपचाप खड़े रहे। 

इत्तिफ़ाक़ से हजरत फातमा (र.अ.), जो हुजूर सल्ल० की सब से छोटी साहबजादी थी, उधर आ निकलीं। आप अभी बहुत छोटी थीं। अपने अब्बा की यह हालत देख कर बहुत दुखी हुई। उन्होंने अपने नन्हे-नन्हे हाथों से ओझड़ी को सरकाया और खड़े हो कर तमाम दुश्मनों को भला-बुरा कहा। किसी को उन से कुछ कहने की हिम्मत न हुई।

जब हुजूर सल्ल० नमाज से फ़ारिग हुए, तो आप ने हजरत फातमा की पेशानी चुम कर कहा, बेटी ! क्यों उन्हें बुरा कह रही हो? उन की आंखें नहीं हैं। अगर ये पहचान लेते तो ऐसी हंसी उड़ाने की बातें न करते। तुम उन को बुरा भला न कहो, बल्कि दुआ करो कि अल्लाह उन्हें देखने और समझने की ताकत अता फरमाये।

इस के बाद आप सल्ल० हज़रत फातिमा को अपने साथ ले कर वापस चले आए। 

मुसीबतें यहीं नहीं खत्म हो गयीं, बल्कि दिन-ब-दिन बढ़ती ही गयीं।

धीरे-धीरे काफ़िरों को भी मालूम हो गया कि कौन-कौन से लोग मुसलमान हो गये हैं। इस लिए उन्हों ने एक बड़ी मज्लिसे शूरा बिठाने का इरादा कर लिया और तैयारियां शुरू हो गयीं।

To be continued …

इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …. 
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे और अपनी राय भी दे … 

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