यहूदी यानी बनी इसराईल, ये नबियों की औलादें हैं. ये वो क़ौम है जिसको अल्लाह ने तमाम जहान वालों पर फ़ज़ीलत दी थी. मगर इन्होंने बार बार अल्लाह की नाफ़रमानियाँ कीं, नबियों का क़त्ल किया, अल्लाह के अहकामात की ख़िलाफ़वरज़ी की, अल्लाह के दीन में फ़िरक़े बनाये, बातिल से याराने किये और हक़ परस्तों की मुख़ालिफ़त की.
ये एक दूसरे को गुनाहों से नहीं रोकते थे. इनके उलमा और दीनदार लोग भी इन्हें बुराईयों से नहीं रोकते थे, बल्कि इनकी बुराईयों में शरीक हो जाते थे, हक़ को छुपाते थे, अल्लाह के हलाल को हराम और हराम को हलाल करते थे. जिसके सबब अल्लाह ने उन सब पर ज़िल्लत और बुज़दिली को थोप दिया.
फिर अल्लाह ने उन पर तरह तरह के अज़ाब नाज़िल किये. दूसरी क़ौमों से उनका क़त्ले आम करवाया और उनको टुकड़ों टुकड़ों में बाँट दिया.
72 फ़िरक़ों में बँटे हुए यहूदी, तक़रीबन 2000 सालों की ग़ुलामी और बदतरीन ज़िल्लत की ज़िंदगी गुज़ारते हुए, ये क़ौम एक माशरती लानत बन चुकी थी.
हर कोई उनसे नफ़रत करता उन्हें अपने शहरों से दर बदर करता. मुल्कों मुल्कों बिखरी ये ज़लील व रुसवा क़ौम 1896 में एक जगह इकट्ठा हुई. फिर इन्होंने इस तसव्वुर के मुताबिक़ आगे बढ़ने का इरादा किया, जो उनकी मज़हबी किताबों में दर्ज था :
‘तुम्हारा मसीहा आयेगा और तुम येरूशलम से पूरी दुनिया पर हुकूमत करोगे.’
आइंदा आने वाले सालों के लिये उन्होंने एक guideline तैयार करी, जिसे वो Protocols of The Elders of Zion कहते हैं.
इस guideline यानी सहयूनियत (Zionism) के मुताबिक़ यहूदी चाहे दुनिया के किसी भी मुल्क के शहरी हों पर उनकी वफ़ादारी एक ही मरकज़ के इर्द गिर्द रहेंगी और वो मरकज़ यहूदियों की अपनी आबाई रियासत (Native Land) होगी. इस नज़रिये की बुनियाद पर दुनिया के तमाम यहूदी unite होने लगे.
उस वक़्त फ़िलस्तीन, ख़िलाफ़ते उसमानिया (Ottoman Empire) के under था. लिहाज़ा यहूदियों ने ख़लीफ़ा अब्दुल हमीद से फ़िलस्तीन में बसने की इजाज़त मांगी, मगर ख़लीफ़ा ने उन्हें इजाज़त नहीं दी.
फिर यहूदियों ने जर्मनी को interfere करने को कहा, पर जर्मनी ने भी उनकी ये ख़्वाहिश पूरी नहीं की. फिर यहूदियों ने इस काम के लिये ब्रिटेन को इस्तेमाल किया. क्योंकि जर्मनी यहूदियों का एक ज़माने तक गढ़ रहा है और वहाँ का Economical System, बैंको पर control के ज़रिये यहूदी चला रहे थे. इसलिये ब्रिटेन को इस काम के लिये राज़ी करने के लिये यहूदियों ने ब्रिटेन के दुशमन जर्मनी को मआशी तौर पर (economically) कमज़ोर किया और फ़ौज के राज़ और strategy भी ब्रिटेन को बताई. जिसकी वजह से जर्मनी को ताक़तवर होने के बावजूद जंग में शिकस्त हुई. इसी वजह से हिटलर ने खिसियाकर यहूदियों का क़त्ल भी किया.
9 नवम्बर 1914 को पहली दफ़ा British Cabinet में ‘Zionism and Protocol’, ज़ेरे बहस आये और चार दिन बाद ब्रिटेन ने ख़िलाफ़ते उसमानिया (Ottoman Empire) के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान कर दिया.
दो महीने बाद, 21 जनवरी 1915 में कैबिनेट में ‘Future of Palestine’ पर एक मैमोरेंडम पेश किया गया. 2 नवंबर 1917 में Balfour Agreement हुआ, जिसके तहत British Government ने ये ऐलान किया कि वो फ़िलस्तीन में यहूदियों के ‘National Home’ के क़याम के लिये तमाम कोशिशें सर्फ़ करेगी और दुनिया भर में रहने वाले यहूदियों को एक क़ौम तसव्वुर करते हुए वहाँ बसने का हक़ होगा.
इस तरह उन्होंने Balfour Declaration के ज़रिये पूरी दुनिया की हुकूमतों से ये बात मनवा ली कि दुनिया भर में बसने वाले यहूदी एक क़ौम हैं, चाहे वो कोई ज़ुबान बोलने वाले हों, किसी मुल्क के रहने वाले हों और उन्हें इस अरज़े फ़िलस्तीन पर आबाद होने का हक़ हासिल है.
उसके बाद 1919 में पहला यहूदी काफ़िला लंदन, पेरिस, बर्लिन और न्यूयार्क जैसे मॉडर्न शहरों में अपनी अरबो डॉलर की जायदादें और कारोबार छोड़ कर बहरे तिबरिया (Sea of Galilee) को पार कर के Haifa और Tel Aviv के रेगिस्तानों में आबाद होने के लिये जा पहुँचा और आज तक उनका बसना जारी है. वो वहाँ किसी पुरकशिश ज़िंदगी गुज़ारने, Science और Technology की तरक़्क़ी या Education हासिल करने नहीं आये, बल्कि सौ साल से एक बड़ी आलमी जंग लड़ने के लिये आ रहे हैं, जो उनको मुसलमानों से लड़नी है और फिर ऐसी सल्तनत क़ाएम करना है, जो फ़रात नदी (River of Euphrates) के साहिलों तक होगी. जिसमें जॉरडन, सीरिया, क़तर, बहरीन, कुवैत, यू ए ई, यमन और मदीना तक आएगा.
हर यहूदी ये ख़्वाब देखता है और उसके लिये घर-बार छोड़ कर इज़राईल आ जाता है या फिर जहाँ कहीं भी है वहाँ से अपनी दौलत का अच्छा ख़ासा हिस्सा इज़राईल की तरक़्क़ी के लिये भेजता हे.
1948 में मग़रिबी ताक़तों ने मिलकर फ़िलस्तीन के एक बड़े इलाक़े को अरबों से छीन कर, उस पर यहूदियों को एक मुल्क बना कर दे दिया और इज़राईल बनते ही शुरू के 19 साल यहूदियों ने मुसलसल अपने पड़ोसी अरब मुल्कों से जंग जारी रखी और 1967 में येरूशलम (बैतुल मक़दिस) पर क़ब्ज़ा कर लिया. उसके बाद से आज तक Middle East के मुस्लिम मुल्कों में अमन क़ाएम नहीं होने दिया.
यहूदियों को उरूज हासिल होना तब से शुरू हुआ है जब से उन्होंने ये फ़ैसला किया कि हम एक ख़ुदा, एक तौरात और एक शरिअत की बुनियाद पर एक क़ौम हैं. हम में कोई जर्मनी में रहता हो या अमेरिका में, नाइजिरिया में रहता हो या फ़िलीपीन्स में, हम एक क़ौम हैं. उसे इस बात पर कामिल ईमान और यक़ीन रखना चाहिये है कि उसे एक दिन उस अरज़े मुक़द्दस, येरूशलम लौटना है, जहाँ उसका मसीहा आएगा और वो उनके लिये हज़रत दाऊद अलैहिस्सलाम और हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम की तरह एक आलमी हुकूमत क़ाएम करेगा.
वो इस बात की भी तैयारी कर रहे हैं कि उन्हें मुसलमानों के साथ एक बहुत बड़ी आलमी जंग लड़नी है. ये तसव्वुर जब से उनके दिलों दिमाग़ में दाख़िल हुआ और बहैसियत क़ौम इस पर यक़ीन करते हुए अमल करना शुरू किया, उसके बाद उनकी तरक़्क़ी की मंज़िलें तय करने की रफ़्तार ना क़ाबिले यक़ीन हद तक तेज़ हो गई.
इस तरह आलमी सहयूनी तंज़ीम की ताक़त और यूनिटी का आप अंदाज़ा कर सकते हैं. इस तरह एक नज़रिये ने हज़ारों साल दरबदर रहने वाले यहूदियों को अपना आबाई वतन लौटा दिया.
पर क्या ये दुनिया का पहला इत्तेहाद का नज़रिया था जो कामयाब हुआ?
…
हरगिज़ नहीं….. !
सबसे पहले ये नज़रिया हमारे नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने रियासते मदीना की बुनियाद रखते हुए पेश किया :
‘तमाम मुसलमान आपस में भाई भाई हैं और इसलाम की बुनियाद पर वो एक क़ौम हैं.’
और फिर दुनिया ने देखा कि इस नज़रिये ने उस वक़्त की सुपर पॉवर क़ैसर (Rome) व किसरा (Iran) को शिकस्त दी.
और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने आख़िरी ख़ुत्बे में फ़रमाया :
‘किसी अरबी को अजमी पर, किसी गोरे को काले पर कोई फ़ज़ीलत नहीं.’
और फिर दुनिया ने इस नज़रिये और आपसी इत्तेहाद की ताक़त का नतीजा दुनिया के हर कोने तक इसलाम पहुँचने की सूरत में देखा. नज़रिया इत्तेहादे उम्मत, दुनिया का कामयाब तरीन नज़रिया है.
दुशमनाने इसलाम जानते हैं कि जबतक हम बिखरे रहेंगें तब तक हम वैसे ही ज़लील होते रहेंगें जिस तरह हज़ारों साल तक यहूदी रहे थे.