मुस्लिम बेहनों के लिए कुरआन सुन्नत से 50 नसीहतें…

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मुस्लिम बेहनों के लिए कुरआन सुन्नत से 50 नसीहतें

बिस्मिल्लाहिरहमानिर्रहीम! अल्हम्दुलिल्लाह वस्सलातु वसल्लामु अला रसूलिल्लाहि (ﷺ)

ऐ मुस्लिम बहन! मुस्लिम का मतलब होता है, अल्लाह का फर्माबरदार (आज्ञाकारी) होना. इस्लाम में यह ज़िम्मेदारी मर्द व औरत दोनों पर एक समान रूप से लागू है या’नी इसमें कोई जिन्सी (लैंगिक) भेदभाव नहीं है. इस लेख में कुरआन व सहीह हदीसों की रोशनी में 50 अहमतरीन नसीहतों का ज़िक्र किया गया है, अगर इन पर अमल किया जाए तो औरत अल्लाह की नेक बन्दी बनने के साथ-साथ समाज में इज्जत और वकार (सामाजिक प्रतिष्ठा) भी पा सकती है।

लेकिन ये बेहद अफ़सोस की बात है कि आधुनिकता और नारी-स्वतंत्रता के नाम पर औरतों को आवारगी और गुमराही की तरफ धकेला जारहा है. वैसे तो ये नसीहतें हर औरत के लिये मुफ़ीद (लाभप्रद) हैं. लेकिन हिदायत की रोशनी से महरूम (वंचित) और दुनियवी चकाचौंध में अंधी हो चुकी जदीद तालीमयाफ्ता (आधुनिक शिक्षा प्राप्त) कुछ औरतों को ये नसीहतें ‘बोझल, दकियानूस और मर्दवादी लग सकती हैं।

जब आज़ादी का मतलब, आवारगी समझा जाने लगे तो इंसान सोचने-विचारने की ताक़त खो देता है. यह लेख औरतों से गुज़ारिश (निवेदन) करती है कि जवानी की चकाचौंध के पीछे छुपे बुढ़ापे के घनघोर अंधेरे को देखें जो दबे पाँव उनकी ओर बढ़ रहा है, ये तो सिर्फ दुनियावी नुकसान की बात है जिसकी अभी भी भरपाई हो सकती है लेकिन आख़िरत के दिन अफ़सोस करना भी कोई काम नहीं आएगा।

मुस्लिम लड़कियों की पहचान

बात करने के आदाब

01. फ़िजूल और ज़्यादा बातें करने से बचना : 

कुरआन मजीद का इरशाद, ‘लोगों की ख़ुफ़िया सरगोशियों में अक्सर व बेशतर कोई भलाई नहीं होती। हाँ अगर कोई पोशीदा तौर पर सदक़ा व खैरात करे या किसी नेक काम की तल्कीन करे या लोगों में सुलह कराने के लिये (मश्वरा वगैरह कर ले)।’

(सूरह निसा :114

ऐ मुस्लिम बहन! आपको इल्म होना चाहिये कि आपकी हर बात को लिखने वाले और उसे नोट करने वाले हर वक़्त मौजूद हैं, अल्लाह तआला का फरमान है : ‘एक दायें तरफ और एक बायें तरफ बैठा हुआ है। तुम जो बात भी मुँह से निकालते हो, उस पर निगरान मौजूद है।’  

(सूरह काफ़:17-18)

इसलिये बेहतर है कि आप जो बात करें बड़ी मुख़्तसर (छोटी), बा-मानी (सार्थक) और बामकसद हो और जो बात मुंह से निकालें सोच-समझ कर निकाले! 


02. कुरआन करीम की तिलावत करना : 

कोशिश ये हो कि हर रोज़ कुरआन की तिलावत की जाये, कुरआन पढ़ना आपका रोज़ाना का मामूल बन जाना चाहिये। और ये भी कोशिश करें कि जितना हो सके उतना ज़बानी हिफ़्ज़ किया जाये ताकि क़यामत के रोज़ अज्रे  अज़ीम, आला दर्जात और बेहतरीन मक़ाम से नवाजा जाए। 

हजरत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि.) बयान करते हैं कि नबी अकरम (ﷺ) का इरशादे गिरामी है, “साहिबे कुरआन को कहा जायेगा कि (ठहर ठहर कर) तरतील से पढ़ता जा और चढ़ता जा और इसी तरह कुरआन की तिलावत करता जा जैसे दुनिया में (ठहर-ठहर कर) किया करता था, तेरी मंज़िल वहाँ होगी जहाँ तेरी आख़री आयत की तिलावत होगी।”

(अबू दाऊद: 1464) 

03. हर सुनी हुई बात को बयान न करना : 

ये अच्छी बात नहीं कि आप जो कुछ सुनें उसे आगे बयान करें, हो सकता है उसमें कुछ झूठ की मिलावट हो। 

हज़रत अबू हुरैरह (रजि.) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फर्माया “आदमी के लिये यही झूठ काफ़ी है कि हर सुनी बात को बयान करे।”

(सहीहूल जामे सगीर: 4482) 

04. बड़ाई बयान करने से बचना : 

फक्रिया कलिमात (गीली बातें) कहना और बड़ाई बयान करना और जो चीज़ आपके पास नहीं उसको अपनी मिल्कियत ज़ाहिर करना। अपनी ज़ात को ऊँचा दिखाने और लोगों की नज़रों में बड़ा बनने के लिये कोई अल्फ़ाज़ इस्तेमाल न करें।

उम्मुल मोमिनीन हज़रत आयशा सिद्दीका (रजि.) बयान करती हैं कि एक औरत ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ)! किसी को बताऊँ कि ये चीज़ मेरे ख़ाविंद ने दी है जबकि उसने नहीं दी होती तो क्या ऐसा कहने में कोई हर्ज है?” तो अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फर्माया, “वो ऐसा है जैसा कोई बनावटी कपड़े पहनने वाला हो।” (यानी ये धोखा है, फरेबकारी है)। 

(बुखारी:5219, मुस्लिम:5705) 

05. अल्लाह का ज़िक्र करते रहना :

ऐ मुस्लिम बहन! हर वक़्त अल्लाह का जिक्र करती रहा करो। अल्लाह के ज़िक्र से हर मुस्लिम के लिये बहुत से रूहानी, शख़्सी, नफ़्सी, जिस्मानी और इज्तिमाई फायदे हैं। किसी हालत और किसी वक्त में भी अल्लाह के जिक्र से गाफिल न रहना, अल्लाह तआला ने अपने मुख्लिस और अक्लमंद बन्दों की तारीफ़ करते हुए फर्माया, “वो अल्लाह तआला का ज़िक्र खड़े, बैठे और अपनी करवटों पर लेटे हुए करते हैं।”

(सूरह आले इमरान:191

हज़रत अब्दुल्लाह बिन बसर अल मुज़ाज़नी (रजि.) बयान करते हैं कि एक आदमी ने अल्लाह के रसूल (ﷺ) से कहा कि इस्लाम के उमूर बहुत हो गये हैं तो मुझे कुछ मुख्तसर (संक्षिप्त) चीज़ बता दें ताकि मैं उसी पर अमल करता रहूँ, तो आप (ﷺ) ने फर्माया, “तेरी ज़बान हर वक़्त अल्लाह के ज़िक्र में मश्गूल रहनी चाहिये।”

(तिर्मिज़ी: 3375, इब्ने माजा: 3793) 

06. बात करने में फक्र करना: 

जब भी किसी से बात करना हो तो गुरूर से बचकर बुरे अल्फाज़ और तीखे लहजे में बातचीत न करना। ये तरीका और ये आदत अल्लाह के रसूल (ﷺ) के नज़दीक नापसंदीदा है। जैसा कि रसूलुल्लाह (ﷺ) का फर्मान है, “क़यामत के दिन तुममें से सबसे नापसंदीदा मेरे नज़दीक वो होंगे जो बहुत बातूनी, बेतुकी, बनावटी और फक्रिया  तकब्बुर की बातें करने वाले होंगे।” 

(तिर्मिज़ी:1642)

07. ख़ामोशी इख़्तियार करना 

ऐ मेरी बहन! आपकी ज़ात में अल्लाह के रसूल (ﷺ) की आदते मुबारका की झलक मिलनी चाहिये। ख़ामोशी ज़्यादा इख्तियार करना, गौर-फ़िक्र करना और कम हँसना।

हज़रत सम्माक (रह.) फरमाती हैं कि मैंने हज़रत जाबिर बिन समुरह (रजि.) से पूछा, ‘क्या आपका अल्लाह के रसूल (ﷺ) की मजलिस में बैठना हुआ?’ फ़र्माया, ‘हाँ! आप (ﷺ) बहुत ज़्यादा ख़ामोशी इख़्तियार करते, कम हँसते, आपके अस्हाबे किराम (रजि.) कभी कोई दिलचस्प बात किया करते तो हँस लिया करते और कभी-कभार मुस्कुरा देते।’ 

(मुस्नद अहमद : 5/68)

अगर बात करना चाहो तो बड़े सलीके और नर्मी से, भलाई और खैरख्वाही की बात करें वर्ना ख़ामोशी बेहतर है। ये भी अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने ही सबक दिया है, फर्माया, ‘जो अल्लाह और क़यामत पर यकीन रखता है उसे चाहिये कि वो खैर की बात करे या फिर खामोश रहे।’

(बुखारी : 6018) 

08. किसी की बात को काट देना : 

बात करने वाले की बात काटने से रुक जायें और अगर किसी को जवाब देने का मौका मिले तो बड़े रूखेपन, उसकी हतके इज्ज़त (मानहानि) या उसका मजाक उड़ाने के अंदाज में जवाब न दें। 

हर एक की बात बड़े अदब और ध्यान से सुनें और अगर जवाब देना पड़े तो बड़ी अच्छे अंदाज और नर्म लहजे में जवाब दें। खुशी और नमी के अंदाज़ में जवाब देने से आपकी शख्सियत से एक अच्छे इंसान की शख्सियत का इज़हार होगा।

09. बात करने में किसी की नक़ल उतारना :

बातचीत के दौरान किसी का मज़ाक़ उड़ाने से पूरी तरह बचें। अगर कोई बेचारी औरत बात सही ढंग से नहीं कर सकती, किसी की ज़बान अटकती है या किसी की ज़बान में रवानी नहीं तो उसकी नक़ल उतारने या उसका मज़ाक़ बनाने की कोशिश नहीं करें। 

अल्लाह रब्बुल इज्जत का फरमान है, ‘ऐ ईमान वालों! मर्द दूसरे मर्दो का मजाक न उड़ायें मुमकिन है कि वे उनसे बेहतर हों, और औरतें दूसरी औरतों का मज़ाक़ न उड़ायें मुमकिन है कि वे उनसे बेहतर हों।’

(सूरह हुजुरात :11)

रसूलुल्लाह (ﷺ) का फर्मान है, ‘मुस्लिम, मुस्लिम का भाई है। वो उस पर जुल्म नहीं करता, न उसको जलील (अपमानित) करता है और न उसे हक़ीर (नीच) जानता है। किसी आदमी के बुरा होने की इतनी निशानी काफ़ी है कि वो अपने मुस्लिम भाई को हक़ीर जाने।’ 

(मुस्लिम : 2564) 

10. तिलावत ख़ामोशी से सुनना:

जब कुरआन करीम की तिलावत हो रही हो तो अल्लाह सुबहानहू व तआला के कलाम का अदब करते हुए हर किस्म की बातचीत से रुक जाना चाहिये जैसा कि अल्लाह रब्बुल इज्जत का फरमान है, ‘और जब कुरआन पढ़ा जा रहा हो तो उसकी तरफ़ कान लगाकर सुनो और खामोश रहा करो! उम्मीद है कि तुम पर रहमत हो।’ 

(सूरह आराफ़: 204

11. बात करने से पहले सोचें: 

बात करने से पहले पूरी तरह सोच लें। ऐसा न हो कि आपकी जुबान से जल्दी में ग़लत और पकड़ किये जाने लायक बात निकल जाये। ये कोशिश करें कि जुबान से बड़ी नर्म, मुनासिब और अच्छी बात ही निकले। तीखी, टेढ़ी, उल्टी-सीधी और सख्त बात न निकलने पाये जो अल्लाह सुबहानहू तआला की नाराज़गी का कारण बन जाये।

        जुबान के कलिमात के बड़ी अहमियत है। कितने ही ऐसे इंसान हैं जिन्होंने अपनी ज़बान से चंद कलिमात निकाले तो उनके और पूरे समाज के लिये मुसीबत का सबब बन गये। इसी तरह कितनी ही ऐसा बातें हैं जिनकी अदायगी से इंसान जन्नत का हकदार बन गया और कितनी ही ऐसी बातें हैं जिनकी अदायगी से जहन्नम के गड्ढे में जा गिरा। 

हज़रत अबू हुरैरह (रजि.) बयान करते हैं कि रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया, ‘कई बार इंसान अल्लाह की रजामंदी की बात करता है जिसकी अहमियत का उसे एहसास नहीं होता, लेकिन अल्लाह मालिकुल मुल्क उसकी वजह से उसके दर्जात बुलन्द कर देता है और कई बार वो अपने मुँह से अल्लाह की नाराजगी का ऐसा कलिमा निकालता है जिसके अंजाम का तो उसको इल्म नहीं होता लेकिन उसकी वजह से वो जहन्नम में चला जाता है।‘ 

(बुखारी : 6478)

हज़रत मुआज़ बिन जबल (रजि.) बयान करते हैं कि नबी अकरम (ﷺ) ने कहा, ‘क्या मैं तुझे तमाम नेकियों की जड़ न बताऊँ?’ मैंने अर्ज़ किया : ‘हाँ ज़रूर! ऐ अल्लाह के रसूल!’ आप (ﷺ) ने अपनी जुबान मुबारका को पकड़ा और फ़रमाया, ‘इसको रोके रख (यानी ज़बान की हिफ़ाज़त करते रहना)’ मैंने अर्ज किया, ‘ऐ अल्लाह के रसूल(ﷺ)! क्या हम अपनी बातों की वजह से पकड़े जायेंगे?’ आप (ﷺ) ने फर्माया, ‘तुम्हारी माँ तुम्हें गुम पाए ज़्यादातर लोग अपनी ज़बानों की वजह से औंधे मुँह जहन्नम में डाले जायेंगे।’

(तिर्मिज़ी: 2616, इब्ने माजा : 3973)

12. अपनी ज़बान नेकी के लिये इस्तेमाल करें : 

अपनी जुबान का इस्तेमाल ज़रूर करें क्योंकि ये अल्लाह की बहुत बड़ी नेमत है। लेकिन ‘अम्र बिल्मअरूफ़ और नहीअनिल मुन्कर (भलाई का हुक्म देने और बुराई से रोकने)’ के लिये। अल्लाह तआला का फरमान है, 

‘लोगों की सरगोशियों में अक्षर व बेश्तर कोई भलाई नहीं होती मगर जिसने सदक़ा करने का हुक्म दिया या नेक काम करने का या लोगों के बीच इस्लाह करने का हुक्म दिया, तो उन चीज़ों में भलाई और फायदा है।’ 

(सूरह निसा :114)


इल्म सीखने की अहमियत

13. इल्म सीखना एक अच्छा काम और बाइज्जत रास्ता है : 

शिफा बिन्ते अब्दुल्लाह (रजि.) बयान करती हैं कि अल्लाह के रसूल (ﷺ) हमारे पास तशरीफ़ लाये उस वक्त में उम्मुल मोमिनीन हफ्सा (रजि.) के पास थी कि आप (ﷺ) ने मुझे फ़रमाया, ‘तू उसे ज़ख़्मों पर पढ़ने का दम क्यों नहीं सिखा देती जैसे तूने उसे लिखना (किताबत करना) सिखाया।’ 

(अहमद, अबू दाऊद : 3887) 

14. इल्मे दीन को समझने व समझाने के लिये सीखें: 

इल्म सीखने का मतलब ये नहीं है कि आपके पास कोई सर्टिफिकेट ही हो जो किसी ओहदे, आला नौकरी या नाम के लिये हासिल करना लाज़मी समझा जाता है। नहीं! बल्कि दीने इस्लाम को उसके अहकाम के साथ जानने के लिये, कुरआन को बेहतर से बेहतर तरीके से पढ़ने की मालूमात होना इल्म है, यह इसलिए ज़रूरी है कि कम से कम अपने रब की इबादत मुकम्मल बसीरत के साथ की जा सके।

तालीम हासिल करने का मतलब ही यही है कि एक औरत अपनी और अपनी औलाद वगैरह की तरबियत उस सहीह मनहज के मुताबिक़ कर सके जो मनहज अल्लाह सुब्हानहू व तआला के प्यारे रसूल (ﷺ) का है और उसी पर उनके सहाब-ए-किराम (रजि.), ताबिईन इज़ाम और सालेहीन अज्मन (रहि.) ने सीधी और महफूज़ (सुरक्षित) राह पाने के लिये अमल किया। 

15. किसी कम इल्म वाले का मज़ाक़ न उड़ायें: 

किसी ऐसी बहन का मजाक न उड़ायें जो पढ़ना-लिखना नहीं जानती और न ही अपने आपको इल्म में बेहतर और दूसरी को कमतर समझें बल्कि दूसरी बहन के साथ तवाजुहू और नर्मी से पेश आएं। नर्मी का तरीका इख़्तियार करना दूसरों की नज़रों में इज्जत व वक़ार को बुलन्द करने में आपका मुआविन (मददगार) साबित होगा। 

आपका सख्त रवैया आपके इल्म के लिये वबाल बन जायेगा। कअब बिन मालिक (रजि.) बयान करते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (ﷺ) से सुना कि आपने इर्शाद फरमाया, ‘जिसने इल्म इसलिये सीखा कि वो बेवकूफों से झगड़ा करे या उलमा से फक्र करे (बरतरी दिखाने के लिये) और लोगों का मुँह फेर देने के लिये वो जहन्नम में जायेगा।’

(सुनन दारमी : 373, इब्ने माजा : 253) 

16. गाना सुनना जायज नहीं: 

ऐ मेरी बहन! गाने और मौसिकी के करीब न जा। अपना यही वक़्त अल्लाह के ज़िक्र और तिलावते कुरआन में लगा ले। इससे सवाब भी होगा और दिली इत्मीनान व सुकून भी नसीब होगा। ऐ मेरी बहन! अपनी सुनने की ताकत को, अपने कानों को गाने, संगीत और फ़हश (अश्लील) बातों से पाक रख। गाना, जुबान और कानों की आफ़तों में से बड़ी आफत है।

मौजूदा ज़माने में मुस्लिमों की अक्सरियत इस आफत से दो-चार है जिसकी वजह से दिलों को परेशानी, बेचैनी, मायूसी,अल्लाह के ज़िक्र से एराज़, उसकी किताब की तिलावत के लिये वक़्त न मिलने की वजह से दिलों में सख्ती आ चुकी है। लोगों से दूरी और नफरत ज्यादा होती चली जा रही है। यही वजह है कि एक बंदे के दिल से गैरत कम होती चली जा रही है। 

उलमा-ए-किराम का फरमान है कि गाना बजाना, ज़िना पर उभारने वाला है, ये बदकारी का पैग़ाम है, शैतान की अज़ान है। गाना दिलों में निफ़ाक़ पैदा करता है, बुरे खात्मे और बुरे अंजाम की तरफ ले जाता है। जिंदगी के आखिरी लम्हों को भलाई से बेगाना बना देता है। 

अल्लाह रब्बुल इज्जत का फ़र्मान है, ‘और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो लग्वी बातों को मोल लेते हैं ताकि लाइल्मी में अल्लाह की राह से लोगों को बहकायें।’

(सूरह लुकमान: 6

हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसूद (रजि.) फरमाते हैं, ‘लहवल हदीष’ का मतलब गाना बजाना है। अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फ़रमाया, ‘मेरी उम्मत में कुछ लोग होंगे जो बदकारी, रेशम, शराब और नाच-गाने को हलाल समझेंगे।’

(बुखारी :5590) 


लिबास (ड्रेस) के आदाब

17. बारीक व तंग लिबास न पहने : 

ऐ मुस्लिम बहन! आप मुसलमान हैं, इसलिए आपका लिबास हमेशा शरीयत के दायरे में होना चाहिए। आपका लिबास न इतना बारीक हो कि जिन अंगों को छुपाना चाहिये वे नज़र आएं और न इतना टाइट (फिट) हो कि कपड़े पहने हुए होने के बावजूद जिस्म का कोई हिस्सा उभरा हुआ दिखाई दे। 

18. बगैर आस्तीन का लिबास न पहनें: 

ऐ मुस्लिम बहन! जिस स्लीवलेस (बगैर आस्तीन) और बड़े गले के कुर्ते को आजकी औरतें फैशन समझकर पहनने में कोई हर्ज महसूस नहीं करतीं वो आपके लिये शरीअत के एतबार से सहीह नहीं है। ऐसे कपड़े सतर डाँकने के बजाय नंगेपन को जाहिर करते हैं। इसके साथ ही आपको ऐसे कपड़े भी नहीं पहनने चाहिए जो मर्द पहनते हैं।

एक हूदीष में अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने उन मदों पर लानत की है जो औरतों जैसे कपड़े पहनते हैं और उन औरतों पर भी ला’नत की हैं जो मदों जैसा लिबास पहनती हैं। 

(सुनन अबू दाऊद : 4098)


इज्तिमाआत के आदाब

19. बुरी मजलिस से बचना : 

ऐ मुस्लिम बहन! अल्लाह आपकी हिफ़ाज़त फरमाए। बुरी मजलिसों में शिर्कत से अपने आपको दूर रखो और जितनी मुमकिन हो सकता है अच्छी महफ़िलों और अच्छी इल्म जानने वाली, बाअख़्लाक़ औरतों के इज्तिमाआत में शामिल होने की कोशिश करें। 

20. मजलिस में अल्लाह का जिक्र करते रहना : 

जब आप किसी मजलिस में अकेली या अपनी चंद बहनों के साथ बैठी हों तो अल्लाह का ज़िक्र करने से ग़फ़लत न करना और कोशिश यही करना कि ज़बान अल्लाह के ज़िक्र में मश्गूल रहे। ताकि जब मजलिस से फारिग हों तो आपके हिस्से में बैठने का भी सवाब लिखा जाये। 

अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फरमाया: ‘जो शख्स किसी मजलिस में बैठे और अल्लाह का ज़िक्र न करे तो उसका बैठना अल्लाह की तरफ़ से उसके लिये बोझ बन जायेगा। यानी उसके लिये हसरत और नदामत होगी।’

(अबू दाऊद : 4856) 

जब आप मजलिस खत्म करने, मजलिस बर्खास्त करने का इरादा करें तो ये दुआ पढ़ना न भूलें, ‘सुब्हानकल्लाहुम्म व बिहम्दि-क अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लाअन्-त अस्तफ़िरु-कवअतूबु इलेक.’

(सहीहुत्तर्गीब व त्तहींब : 1516)

जब आप ये दुआ पड़ेंगी तो मजकूरा मजलिस में जो लग्वी, बेमाना, फ़िजूल बातें और ग़लतियाँ होंगी अल्लाह तआला सब लर्ज़िशों और ग़लतियों को माफ़ फ़र्मा देगा यानी ये दुआ आपकी मजलिस का कफ़्फ़ारा बन जायेगी। 

21. दूसरों की बातें करने से बचना : 

ऐ मेरी बहन अपनी मजलिस को गीबत, चुगली और फिजूल बातों से पाक रखने की आदत बनाओ क्योंकि ये इन्तिहाई बुरी और नापसंदीदा आदत है और डरती रहो कि कहीं उसके बुरे अंजाम और सज़ा को लपेट में न आ जाओ। 

अल्लाह रब्बुल इज्जत का फरमान है, ‘तुम में से कोई किसी की ग़ीबत न करे क्या तुममें से कोई अपने मुर्दा भाई का गोश्त खाना पसंद करता है? तुम्हें उससे कराहत आयेगी।’

(सूरह हुजुरात: 12) 

22. मजलिस में किसी को डांटना नहीं: 

किसी मजलिस में अगर किसी की जुबान से गैर-मुनासिब कलिमात निकल जायें या कोई गलती हो जाये तो आप उसकी इस्लाह ज़रूर करे लेकिन वहीं लोगों के सामने नहीं बल्कि मजलिस के इख़्तिताम (समाप्ति) पर अकेले में बड़ी नर्मी  के साथ उसे समझा देने में आपका फर्ज भी अदा हो जायेगा और उसकी इस्लाह भी हो जायेगी, इंशाअल्लाह! लोगों के सामने गलती बताने में या डाँटने से हो सकता है आपकी बहन अपने लिये बेइज्जती की बात समझे और दूसरी बार शायद वो आपकी मजलिस में न आये।


कुतुबख़ाना / लाईब्रेरी की अहमियत व जरुरत

23. घर में एक कुतुबख़ाना बना लें: 

ऐ मेरी बहन! कोशिश ये करें कि घर के एक कोने या घर में किसी मुनासिब जगह पर एक लाइब्रेरी बना ली जाए जिसमें चंद ऐसी मुफीद व अच्छी किताबें मौजूद हों जिससे आप और आपके घर वाले सब फायदा उठायें। 

24. अख़्लाक़ को बिगाड़ने वाले लिटरेचर पर पाबंदी लगा दें: 

ऐ मेरी बहन! आप अपना कीमती वक़्त बर्बाद करने से गुरेज करें। ऐसी गैर-मुनासिब बातों, बेकार रिसालों, मेग्ज़ीन्स और लिटरेचर जिसमें अख़्लाक़ को बिगाड़ने वाली बातें हों उनको पढ़ने और देखने में वक़्त बर्बाद न करें। बल्कि ऐसी चीजों पर घर में लाने की पूरी पाबंदी लगा दें। अगर ये चीजें आएगी तो उन्हें देखा भी जाएगा और उन्हें पढ़ा भी जायेगा। इसलिये वे न घर में आएंगी न उनको देखने व पढ़ने का मौका मिलेगा। 

25. सीरते सहाबियात का मुतालआ लाज़िम करें: 

बेहतर है कि आपके टेबल और आपकी लाइब्रेरी में मुख़्तलिफ़ मौजूद (विभिन्न विषयों) पर ऐसी किताबें हों जो हर औरत और हर बच्चा पढ़ सकें। आसानी से समझ में आने वाली किताबें हों जैसे तफ़्सीर इब्ने कसीर, सीरत इब्ने हिशाम, किताबुत्तौहीद, रियाजुम्सालिहीन वगैरह जिससे हर एक अपने अक़ीदे, अपने दीन, अपने प्यारे रसूल (ﷺ) की सीरते तय्यिबा, सहाब-ए-किराम के शब व रोज़ (रात व दिन), बच्चों की तबियत, वालिदैन के हुक़ूक़, घर वालों के हुकूक, रोज़मर्रा पेश आने वाले मसाइल के बारे में मालूमात हासिल करके अपने इल्म व अमल में इज़ाफ़ा (बढ़ोतरी) कर सकें। ये चीजें उसी वक़्त हासिल होंगी जब घर से ऐसी तालीम हासिल करने का शौक़ पैदा होगा। घर में बैठे वक़्त भी बर्बाद न होगा और इल्म का खज़ाना भी मिल जायेगा। 

26. किसी मुफ़ीद नये लिट्रेचर का इल्म हो जाना : 

जब आपको कोई मुफीद पेम्पलेट या इस्लाहे मुआशरे (समाज सुधार) की किताब का इल्म हो जाये तो फ़ौरन अपनी लाईब्रेरी में उसका इज़ाफ़ा करें और अपनी दूसरी बहनों को खरीदने और पढ़ने की तरग़ीब दिलाएं। इसी तरह अगर आपको किसी ऐसी किताब का इल्म हो जाये जो अख़्लाक़ को खराब करने वाली हो, तो उसके बारे में भी आप अपनी बहनों को ज़रूर इत्तिला (सूचना) दें ताकि वो ग़लती से भी ऐसी किताब न खरीदें जिससे सबका ईमान ख़राब हो। 

27. मुतालआ (अध्ययन) में मसरूफ़ रहना बेहद ज़रूरी है: 

ऐ मेरी बहन! आप कोशिश करें कि हर लम्हे को क़ीमती बनाया जाये और वक़्त को बर्बाद करने की बजाय इल्म व मुतालआ में गुज़ारा जाये।


घर से बाहर निकलने के आदाब

28. बगैर ज़रूरत घर से न निकलें: 

ऐ मेरी बहन! कोशिश तो यही करो बिला वजह घर से निकलना न हो। हाँ! अगर कोई ज़रूरी काम पड़ जाये और बाहर जाना ज़रूरी हो तो घर वालों के मश्वरे के बाद बहुत ही मुख्तसर वक़्त के लिये जिसमें काम मुकम्मल (पूरा) हो जाये, निकला जा सकता है। ज़रूरत से ज्यादा आपका घर से बाहर रहना मुनासिब नहीं। 

29. खुश्बू लगाकर न निकलें: 

ऐ मेरी बहन! अगर आपको घर से बाहर जाना पड़े तो ख़ुश्बू और जैबो-जीनत करने से पूरी तरह बचने की कोशिश करें ताकि लोगों की नजरें आपकी तरफ़ न उठे। हज़रत अबू मूसा (रजि.) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फरमाया, ‘जब कोई औरत ख़ुश्बू लगाकर लोगों के पास से गुज़रती है कि वो उसकी खुश्बूपायें तोवो औरत ऐसी है ऐसी है।’ 

(अबूदाऊद:4173; निसाई : 5126)

यानी वो औरत बदकार है, ज़ानिया है। इजत दाग़दार होने से बचने के लिये बेहतर है कि आप अपना पूरा जिस्म ढाँप कर निकलें। आहिस्ता क़दमों से चलें ताकि चलने में आवाज़ न आये और न गुज़रने से खुश्बू आये। 

30. इधर-उधर बगैर जरूरत नहीं देखें: 

ऐ मेरी बहन! जब आप चल रही हों, गली, मुहल्ले, बाज़ार वगैरह में हों तो नज़रें घुमाकर देखने और इधर-उधर बगैर ज़रूरत झाँकने से बचें। नज़रों का इधर-उधर उलझ जाना खतरे से खाली नहीं। जब आप अपनी मतलूबा (चाही गई) चीज़ ख़रीदने लगे तो दुकानदार से ज़्यादा बातों में मश्गुल न हों। ज्यादा बातें करने से बीमार दिलों से फ़ितना भड़कने का इम्कान (सम्भावना) होती है। 

31. बुराई को अच्छा न समझें: 

ऐ मेरी बहन! जब आप घर से बाहर, बाज़ार में कोई नापसंदीदा चीज़ देखें तो उस पर आपकी तरफ़ से कराहत का इजहार होना लाज़िम है। अगर जुबान से नहीं तो कम से कम दिल से गुस्सा, नापसंदीदगी और बुराई का एहसास तो होना ही चाहिये। अल्लाह तआला फ़र्माता है, ‘मोमिन मर्द व औरत आपस में एक दूसरे के (मुआविन व मददगार) दोस्त हैं वो भलाइयों का हुक्म देते और बुराइयों से रोकते हैं।’ 

(सूरह तौबा: 71

32. बाहर घूमते रहने की आदत अच्छी नहीं: 

कुछ औरतों ने घर से बाहर निकलने को अपना शौक़ और आदत बना लिया है। वे घर से बाहर निकलती हैं और इतनी बेपरवाह हो जाती हैं कि घर की ख़बर नहीं होती। ऐसी औरतों से खैर व भलाई की उम्मीद नहीं रखी जा सकती। इसमें वक्त बर्बाद होने के अलावा फ़िले के इम्कान (सम्भावना) से इन्कार नहीं किया जा सकता। मैं तो अल्लाह से पनाह माँगता हूँ कि आपका नाम इस किस्म की औरतों में शामिल न हों क्योंकि ये आदत बहुत ही नापसंदीदा और बुरी है। 

33. जिस चीज़ की ज़रूरत हो वही ख़रीदना: 

ऐ मेरी बहन। जब आप अपने घर वालों के साथ या अपने खाविंद के साथ बाहर कोई चीज ख़रीदने के लिये निकलें तो जिस चीज़ की ज़रूरत हो वही खरीदें। ये न हो कि आप अपने घर को सुपर मार्केट की ब्रांच समझते हुए पूरी मार्केट ही लाकर घर भर दें। ये बहुत बुरी आदत है कि जब मार्केट में जो चीज़ हाथ लगे उसे खरीद लिया जाये चाहे उसकी ज़रूरत हो या न हो। ये फ़िजूलखर्ची की एक किस्म है जिसे अल्लाह रब्बुल इज्जत भी पसंद नहीं करता। 

अल्लाह हम सब को हिदायत फर्माये, आमीन!


दुआ और इबादत के आदाब 

34. जो कुछ माँगना है अल्लाह से माँगोः 

ऐ मेरी बहन! आप कमज़ोर हैं, मुहताज हैं, फ़क़ीर हैं; हमेशा अल्लाह के सामने दुआ के लिये अपने हाथ उठाती रहा करें। उसी से माफ़ी की इल्तिजा करती रहा करें। सेहत व तंदुरुस्ती, खैर व आफ़ियत, दुनिया और आख़िरत की बेहतरी, यानी हर चीज़ उसी एक अल्लाह से तलब करती रहा करें। 

अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फर्माया : ‘आपका रब हयादार है। वो (इस बात से) हया करता है जब बन्दा उसके सामने अपने हाथ उठाये तो वो उन्हें खाली वापस लौटा दे।’ (इब्ने माजा : 3117)

या’नी जब उससे दुआ की जाती है तो वो खाली हाथ वापस नहीं लौटाता। लेकिन दुआ की कुबूलियत के लिये जल्दी नहीं करनी चाहिये क्योंकि अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फर्माया, ‘कोई भी बन्दा अल्लाह के सामने अपने हाथ ऐसे नहीं उठाता कि उसकी बग़लें ज़ाहिर हो रही हों और वो अल्लाह से कोई सवाल कर रहा हो, अल्लाह उसे जरूर अता कर देता है लेकिन (उसे) जो जल्दी न करे।’ सहाब-ए-किराम (रजि.) ने पूछा, ‘ऐ अल्लाह के रसूल! वो जल्दी कैसे करता है?’ फ़रमाया, ‘वो कहता है कि मैंने अल्लाह से माँगा है, अल्लाह से मांग रहा हूँ लेकिन कुछ नहीं मिला।’

(तिर्मिज़ी: 3969) 

अल्लाह तआला ही दुआ को कुबूल करता है लेकिन इसमें जल्दबाज़ी नहीं मचानी चाहिये। 

दुआ करने का तरीक़ा ये है कि अपनी दुआ अल्लाह की हम्द (तारीफ़) व बड़ाई के ज़िक्र के साथ और अल्लाह के रसूल (ﷺ) पर दरूद व सलाम पढ़कर शुरू करें। जब दुआ पूरी करें तो तब भी इसी तरह हम्द व सना और दरूद शरीफ़ पढ़ें। जब भी अल्लाह से कुछ चाहिये तो सच्चे दिल और पूरी तवज्जह से अल्लाह से माँगें।

अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फ़र्माया, ‘अल्लाह तआला से दुआ इस तरह किया करो कि तुम उसके कुबूल होने का यक़ीन रखते हो और याद रखो कि अल्लाह तआला ग़ाफ़िल दिल वाले की दुआ कुबूल नहीं करता।’

(तिर्मिज़ी: 3479)

ऐ मेरी बहन! दुआ मांगते वक्त गुनाह और क़तम-रहमी (रिश्ता तोड़ने) की दुआसे हमेशा बचती रहना। अगर दुआकी कुबूलियत के आधार नज़र न आ रहे हों तो भी मायूस होने की कोई जरूरत नहीं अल्लाह सुब्हानहू व तआला उसी दुआ को आपके लिये आख़िरत में (अता करने के लिये) जखीरा कर देगा या फिर इसी दुनिया में आपके गुनाहों के कफ्फ़ारे या किसी आने वाली मुसीबत को टाल देने का सबब बना देगा। 

35. अल्लाह की कुर्बत हासिल करना : 

ऐ मेरी बहन! फ़राइज़, नवाफ़िल और ज़िक्रे इलाही और नेकी की दावत दे कर अल्लाह की कुर्बत (निकटता) हासिल करने की जद्दोजहद में लगी रहो । इंशाअल्लाह! ऐसा करने से आप अल्लाह के यहाँ अज्रे अज़ीम, सवाबे कसीर (बहुत ज्यादा सवाब) और आला दर्जात से नवाज़ी जाएंगी। अल्लाह करीम आपको अपनी ऐसे नेक बन्दियों की सफ़ (लाइन) में शामिल करेगा जिनको न इस दुनिया में किसी का ख़ौफ़ होगा और न आख़िरत में कोई परेशानी होगी। अल्लाह जिसकी चाहे उसकी दुआएं कुबूल करता है, उसकी परेशानियों और ग़मों को दूर करता है और उनके दिल इत्मीनान व सुकून और राहत से भर देता है।

प्यारे रसूल (ﷺ) ने इर्शाद फ़रमाया, ‘अल्लाह ख़ालिके कायनात का फरमान है कि जिसने मेरे किसी वली से दुश्मनी की उसे मेरी तरफ़ से ऐलाने जंग है और मेरा बन्दा जिन-जिन इबादतों से मेरा क़ुर्ब हासिल करता है और कोई इबादत मुझको उससे ज़्यादा पसंद नहीं है जो मैंने उस पर फ़र्ज़ की है (यानी फ़राइज़ मुझको बहुत पसंद हैं जैसे नमाज़, रोज़ा, हज्ज, ज़कात) और मेरा बन्दा फ़र्ज़ अदा करने के बाद नफ़्ल इबादतें करके मुझसे इतना नजदीक हो जाता है कि मैं उससे मुहब्बत करने लग जाता हूँ। फिर जब मैं उससे मुहब्बत करने लग जाता हूँ तो मैं उसका कान बन जाता हूँ जिससे वो सुनता है, उसकी आँख बन जाता हूँ जिससे वो देखता है, उसका हाथ बन जाता हूँ जिससे वो पकड़ता है, उसका पाँव बन जाता हूँ जिससे वो चलता है और अगर वो मुझसे माँगता है तो मैं उसे देता हूँ, अगर वो किसी दुश्मन या शैतान से मेरी पनाह का तालिब होता है तो उसे महफूज़ रखता हूँ।’

(बुख़ारी : 6502) 

36. दीनदारों से ताल्लुक़ात बढ़ायें: 

ऐ मेरी बहन! जब आप ऐसी औरत को देखें जो दीन की पाबंद और रब का हुक्म मानने वाली है तो आपको उससे ताल्लुकात बढ़ाने चाहिये। उससे मुहब्बत का इज़हार करके उसे अपनी दोस्त बना लें क्योंकि अल्लाह के लिये मुहब्बत करने के बहुत फ़ायदे हैं और उसके अलावा अल्लाह का तकरूंब भी हासिल होता है।

अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फर्माया, ‘अल्लाह तआला फ़र्माता है मेरी ताज़ीम के लिये जो आपस में मुहब्बत करते हैं उनके लिये नूर के मिम्बर होंगे अम्बिया और शुहदा उन पर रश्क करेंगे।’

(तिर्मिज़ी : 2390) 

37. अपने वक़्त की क़द्र करें: 

ऐ मेरी बहन! अगर आप अपने वक़्त की सहीह तरीके से तक़सीम न करेंगी तो वक़्त हाथ से निकल जायेगा। आप तालिबा (छात्रा, स्टुडेण्ट) हैं या घरेलू औरत, कुछ भी हो, आपको अपने कीमती वक्त का एहतिताम करना ही होगा।

कुरआन पढ़ना है, हदीस की मालूमात लेनी हैं, अपने स्कूल या मदरसा के दुरूस (चेप्टर्स) याद करने हैं, घर के काम-काज, अज़ीज़ व अकारिब, वालिदैन, खाविंद की ख़िदमत और रात व दिन के अज़्कार के लिये भी वक़्त निकालना है। अगर वक़्त को सहीह इस्तेमाल न किया तो फिर वक़्त के बर्बाद होने में तो कोई शक नहीं लेकिन इससे आपको हसरत व नदामत (शर्मिन्दगी) के सिवाय कुछ हासिल न होगा। 

38. रिज़्क़ और उम्र में बरकत का सबब (कारण): 

अपने रिश्तेदारों के यहाँ आने-जाने में बरकत है। उनकी ज़ियारत करना उम्र में ज़्यादती का और रिजक में बरकत का सबब होता है। आपको चाहिये कि अपने अकरबा (प्रियजनों) और रिश्तेदारों की जियारत को फ़ायदेमंद बनायें, उन्हें भलाई की बातों की तल्कीन करें, नापसंदीदा और अख़्लाक़े रजीला (घटिया चरित्र) वाली बातों से ख़ुद भी गुरेज़ करें और अकरबा को भी बचने की तल्कीन करें। हाल व अहवाल पूछने की मजलिस में ही उन्हें इन फ़ितने में डालने वाली चीज़ों के अंजाम से डरा दें। आपका अपने अज़ीज़ व अक़ारिब की ज़ियारत करना खैर व बरकात के नुजूल व हुसूल का सबब बन जाता है।

अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फ़रमाया, ‘जिसे पसंद है कि उसका रिज़्क़ बढ़े और उसकी उम्र लम्बी हो, वो सिलारहमी किया करे।’ 

(बुख़ारी : 5985) 

39. गुनाह पर फक्र न करें: 

ऐ मेरी बहन! आपको अल्लाह के अहकाम को ज़्यादगी, उनकी मुखालिफ़त (विरोध) करने और उनमें सुस्ती करने का आदी और मग़रूर न बना दे। कोई वक़्त आयेगा कि अपनी जान पर जुल्म करने वाला इन्सान गुस्से से अपने हाथ काट कर खायेगा और मोमिन अपनी नजात पर खुशी के इज़हार से अपना हाथ लहरा रहा होगा। कुरआन करीम में अल्लाह सुब्हानहू व तआला फ़र्माता है, 

‘जिसे उसका नामा-ए-आमाल उसके दायें हाथ में दिया जायेगा तो वो कहेगा कि ये लो मेरा नामा-ए-आ’माल पढ़ो! मुझे तो पक्का यक़ीन था कि मुझे अपना हिसाब मिलना है। लेकिन जिसने अपने आप पर जुल्म किया होगा, वो उस वक्त की सख़्ती और हौलनाकियों को देखकर कुछ न कर सकेगा, सिवाय इसके कि वो कहेगा कि काश! मैं अल्लाह और उसके रसूल (ﷺ) की बात को मान लेता और मुझे ऐसा अंजाम देखना नसीब न होता।’ 

(सूरह हाक्कह:19-20

40. अपने दिल में रहम और नर्मी पैदा करें: 

हज़रत अबू हुरैराह (रजि.) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फर्माया, ‘एक शख्स रास्ते में चल रहा था कि उसे बहुत तेज़ प्यास लगी उसे एक कुंआ मिला और उसने उसमें उतर कर पानी पिया। जब बाहर निकला तो उसने वहाँ एक कुत्ता देखा जो हाँप रहा था और प्यास की वजह से तरी को चाट रहा था उस शख्स ने कहा कि ये कुत्ता भी उतना ही ज़्यादा प्यासा मालूम हो रहा है जितना मैं था। चुनाँचे वो फिर कुएं में उतरा और अपने जूते में पानी भरा और मुंह से पकड़कर ऊपर लाया और कुत्ते को पानी पिला दिया। अल्लाह तआला ने उसके इस अमल को पसंद फ़रमाया और उसकी मगफिरत कर दी।’ सहाबा-ए-किराम (रजि.) ने अर्ज़ किया, ‘या रसूलुल्लाह (ﷺ)! क्या हमें जानवरों के साथ नेकी करने में भी सवाब मिलता है। आप (ﷺ) ने फ़रमाया, ‘तुम्हें हर ताज़ा कलेजे वाले पर नेकी करने में सवाब मिलता है।’

(बुख़ारी : 6009)

हुज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि.) बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फर्माया, ‘एक औरत को एक बिल्ली की वजह से अज़ाब हुआ, जिसे उसने इतनी देर बाँधे रखा कि वो भूख की वजह से मर गईं। और औरत इसी वजह से जहन्नम में दाखिल हुई।’ 

(सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम)

ऐ मेरी बहन हर एक छोटे और बड़े पर रहम किया करो, यहाँ तक कि जानवरों के साथ भी। जैसा कि प्यारे रसूल (ﷺ) ने फ़रमाया, ‘जो रहम नहीं करता उस पर रहम नहीं किया जाता।’

41. गैर इस्लामी ऐलानात से मुतासिर (प्रभावित) न हों: 

ऐ मेरी बहन! हर रोज़ नये से नये ऐलानात और इश्तिहारात जो हर तरफ़ से औरतों को नई तहज़ीब और रोशन ख़याली (आधुनिकता) का नाम देकर फ़ितने में डालने की कोशिश कर रहे हैं, उनसे हर्गिज़ मुतासीर न होना। एक मुस्लिम व शरीफ़ औरत को उसकी पाकीज़गी, पर्दा और हया की हदों से निकलने के लिये मुख़्तलिफ़ वसाइल (विभिन्न सांधन) इस्तेमाल किये जा रहे हैं जिनसे खुद बचना और दूसरी बहनों को बचाना आपका काम है। ऐसा न हो कि कहीं गैरों की तो क्या अपनों की ही बातों में आकर आप रोशन ख़याली के जाल में फंस जायें, वर्ना इज्जत महफूज़ (सुरक्षित) रहने का भी यकीन नहीं और गुनाह से बचने की भी उम्मीद नहीं। 

42. अपने दीन को मज़बूती से थामे रहो: 

अल्लाह रब्बुल इज्जत का फर्मान है, ‘तुम ही ग़ालिब रहोगे, अगर तुम ईमानवाले हो।’ (सूरह आले इमरान : 139) 

अगर आप अपने दीन पर मज़बूती से अमल करती रहेंगी, सुस्ती और कमज़ोरी न दिखायेंगी तो अल्लाह रब्बुल इज्जत भी आपको कामयाबी से हम किनार करेगा। आप दीने इस्लाम के अहकाम को फैलाने में शर्म न करें, जहाँ उसकी तौहीन या उसका मज़ाक उड़ाया जा रहा हो वहाँ भी उसके दिफ़ाअ (सुरक्षा करने) में पीछे न हटें और अपने अक़ीदे को थामे हुए अपने दीन पर डटी रहें। 

43. इस्लामी पहचान को अपनी गिजा बना लें: 

दीनी कैसेट, इस्लामी तकरीरें इज्तिमाई दीनी दर्स और मुफीद इस्लामी महफ़िलों को आप अपनी ग़िज़ा (खुराक़) बना लें और मुफीद दीनी रिसाले और अख़बारात का मुतालआ करती रहा करें जिनसे आपके इल्म में इज़ाफ़ा होता हो। 

44. अच्छे अख़्लाक़ को अपनी आदत बना लें: 

ऐ मेरी बहन! घर में, स्कूल व कॉलेज में, हर महफ़िल में, अज़ीज़ व अक़ारिब, दोस्तों और पड़ोसियों में नफ़ा देने वाले इल्म, भलाई, अख़्लाक़े हसना (उत्तम चरित्र) और आदते जमीला (अच्छे स्वभाव) को आम करने की कोशिश करें। 

45. घर के काम-काज में शर्म महसूस न करें: 

ऐ मेरी प्यारी बहन! आप हमेशा ये कोशिश करें कि घर के काम-काज में अपने घर वालों का हाथ बटायें। इसमें खैर भी है और उनकी खिदमत भी, जिसके बदले में आपको नेक दुआएँ मिलेंगी और उसमें एक ऐसी ट्रेनिंग भी है जो इंशाअल्लाह आपकी आने वाली जिंदगी को कामयाब बना देगी। फ़ारिग (फ़ालतू) बैठने, सुस्ती करने या स्कूल-मदरसे के होमवर्क के नाम से हर वक्त घर के काम-काज से जी चुराना और दामन बचाना कोई अच्छी आदत नहीं है। ये बुरी आदत आपको कामचोर, आलसी और सुस्त बना देगी। इस बुरी आदत की वजह से घर में आपकी कद्र कम होगी और माँ-बाप के प्यार व उनकी दुआओं से महरूम होना पड़ेगा।

46. हमेशा हसमुख और मुस्कुराते रहें: 

अल्लाह के रसूल (ﷺ) का फर्मान है, अपने भाई के सामने मुस्कुराना भी आपके लिये सदक़ा है। (तिर्मिज़ी) 

ऐ मेरी बहन! हंसमुख रहने और मुस्कुराते चेहरे में न आपका कुछ बिगड़ेगा और न ही कुछ खर्च करना पड़ेगा बल्कि इसी वक़्त में आप अपनी बहनों और मजलिस में बैठी सहेलियों को अपनी तरफ़ मुतवजह भी कर सकेंगी और बात भी बाअसर (प्रभावशाली) भी रहेगी, इसमें इज्जत भी है और अज्रे सवाब भी। 

47. न गुस्सा करें, न गुस्सा दिलाएं: 

हज़रत अबू हुरैरह (रजि.) बयान करते हैं कि एक आदमी अल्लाह के रसूल (ﷺ) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और कहा कि मुझे नसीहत कीजिये। आप (ﷺ) ने फर्माया, ‘गुस्सा नहीं किया कर!’ इस सवाल को उस आदमी ने कई दफ़ा दोहराया तो फिर भी आप (ﷺ) ने यही नसीहत फ़रमाई, ‘गुस्सा नहीं किया कर!’ (बुख़ारी : 6116)

ऐ मेरी प्यारी बहन! आपको ये मालूम होना चाहिये कि ये गुस्सा शैतान की तरफ़ से होता है। अल्लाह के रसूल (ﷺ) ने फ़रमाया, ‘गुस्सा शैतान की तरफ़ से है और शैतान आग से पैदा किया गया है और आग पानी से बुझाई जाती है, लिहाज़ा जब किसी को गुस्सा आये तो वुजू कर लिया करे।’ (अहमद)

तो ऐ मेरी बहन! दूसरों की ग़लतियों और गुस्ताखियों को माफ़ करने की आदत बना ले तो आपका किरदार बुर्दबारी (संजीदगी) से भरपूर हो जाएगा। 

48. कुफ़्फ़ार की आदात न अपनायें: 

रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया, ‘जो किसी की मुशाबिहत (समरूपता) करता है वो उन्हीं में से होता है।’

(अबू दाऊद : 4031) 

ऐ मेरी बहन! कुफ्फार की तक़लीद करने से हर वक़्त बचना चाहिये। उनकी आदतों खुसुसन खाने-पीने लिबास वगैरह के तरीके अपनाने से बचना। 

49. नमाज़ में ताख़ीर (देरी) न करें: 

बहुत सी औरतें ऐसी हैं जो नमाज़ के बारे में सुस्ती करती हुए इसे लेट कर देती हैं। घर के काम-काज या फिजूल बातों में मश्गुलियत की वजह से, खसूसन शादियों, वलीमों की महफ़िलों में बहुत ही ग़फ़लत कर देती है। नऊजुबिल्लाह मिन ज़ालिक! मैं अल्लाह से पनाह माँगता हूँ कि आप उन जैसी हो जायें। 

कुरआन  करीम में अल्लाह सुब्हानहू व ताला इर्शाद फ़र्माता है, ‘तबाही है उन नमाज़ियों के लिये जो अपनी नमाज़ों में सुस्ती कर जाते हैं।’

(सूरह अबस: 4-5

या’नी नमाज़ों में ताखीर (देरी) कर जाते हैं यहाँ तक कि नमाज़ का वक्त भी निकल जाता है। इसलिये ऐ मेरी प्यारी बहन नमाज़ जैसी अहमतरीन इबादत में सुस्ती बरतने की अगर आपको आदत हो तो इसे फ़ौरन छोड़ दो। 

50. नफ़्स का तजकिया होना लाज़मी है: 

नफ़्स के तजकिया (व्यक्तित्व के शुद्धिकरण) के लिये सबसे बेहतरीन ज़रिआ रोज़ा है जिसकी अहमियत भी बहुत है और उसका अज्र  भी बहुत ज्यादा है। इंसान के नफ़्स के तजकिये और इस्लाह के लिये इसका बहुत बड़ा किरदार है।

ऐ मेरी प्यारी बहन! ये आपके लिये बहुत ही बेहतरीन होगा कि आप नफ्ली रोज़ों को जैसे शव्वाल के छह और अय्यामे-बीज के रोज़ों (हर महीने की 13, 14 व 15 तारीख) के तीन रोजों को अपनी आदत में शामिल कर लें। 

प्यारी बहना! ये तमाम नसीहते, एक मुस्लिम होने के नाते आपकी खैरख्वाही की नीयत से शाए (प्रकाशित) की गई हैं। आपसे गुज़ारिश की जाती है कि एक मुस्लिमा होने के नाते आप इन पर संजीदगी से गौर करें और अपनी दीगर मुस्लिम बहनों तक इस लेख को पहुँचाएं और उन्हें पढ़ने की सलाह दें। इसके साथ ही आप अपनी गैर-मुस्लिम सहेलियों को भी इस्लाम की इन अच्छी-अच्छी बातों की जानकारी दें। ऐसा करना आख़िरत में आपके लिये बहुत फायदेमंद होगा, इंशाअल्लाह।

अल्लाह सुब्हानहू व तआला से दुआ है कि वो तमाम मुसलमानों को इन नसीहतों पर अमल करने की तौफ़ीक़ इनायत फरमाए और शैतान के शर्र (बुराइयों) से बचाकर हम सबके लिये शरीयते-मुहम्मद (ﷺ) पर चलना आसान कर दे, आमीन! तक़ब्बल या रब्बल आलमीन।

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