सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 31

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 31

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जंगे बद्र में हारने के बाद कुफ्फारे मक्का का हाल

बद्र की लड़ाई में हारने के बाद काफ़िरों का घमंड टूट गया था। इस लड़ाई में उनके बड़े-बड़े सरदार भी मारे गये थे। मुसलमानों ने लड़ाई जीत ली थी और सब से ज्यादा हैरत की बात यह कि वे सिर्फ चौदह की तायदाद में मारे गये थे, जबकि कुफ्फार तीन सौ से ज्यादा की तायदाद में मारे गये। वे गिरफ्तार भी काफ़ी हुए थे और उन का सामान मुजाहिदों के काम आ रहा था।

इस्लामी फ़ौज कामियाब हो कर मदीने की तरफ रवाना हुई।

जब यह फौज अफरा नामी जगह पर पहुंची, तो हुजूर (ﷺ) ने माले गमीमत मुसलमानों में तक्सीम किया।

नस्र बिन हारिस, जो बनू अब्दुद्दार कबीले का था और जबरदस्त इस्लाम का दुश्मन था, उस ने मुसलमानों पर काफ़ी सख्तियां की थीं, अफ़रा ही में वह हजूर (ﷺ) के हुक्म से कत्ल कर दिया गया।

यह आदमी कैद था और कैद की हालत में भी हुजूर (ﷺ) की शान में गुस्ताखियां किया करता था। अरब का यह कानून था कि जितने कैदी लड़ाई में हाथ आते, सब के सब बे-दरेग कत्ल कर दिये जाते।

चुनांचे कुफ्फ़ारे मक्का और मुसलमानों का यह आम ख्याल था कि तमाम कैदी कत्ल कर दिये जाएंगे, मगर हुजूर (ﷺ) ने उन के कत्ल का हुक्म नहीं दिया था, बल्कि कैदियों की हिफाजत की ताकीद की थी और हिदायत की थी कि कैदियों को किसी किस्म की तकलीफ न दी जाए, पहले उन्हें खाना खिलाएं, पानी पिलाएं, फिर खुद खाएं-पिएं।

मुसलमान हुजूर (ﷺ) के इस हुक्म पर अमल भी कर रहे थे।

अबिल युसरा (र.अ) नाम के एक सहाबी मदीना के रहने वाले अंसारी थे। वह दस आदमियों के गिरोह पर सरदार थे। उन के सुपुर्द अबू अजीज कैदी को किया गया था। अबू अजीज कुरैशी सरदारों में से हजरत मुस्अब का भाई था।

यह हजरत मुस्अब वही हैं, जिन्हे हुजूर (ﷺ) ने मक्का से मदीना मुबल्लिग बना कर भेजा था और जिन की कोशिशों से ही मदीना में इस्लाम फैला था।

हजरत मुस्अब (र.अ) अबिल युसरा के पास आए। आप ने फ़रमाया, अबिल युसरा ! जानते हो, जो कैदी तुम्हारे सुपुर्द है, वह कौन है?

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सिर्फ इतना जानता हूं कि वह मक्के का रहने वाला है, अबिल युसरा ने जवाब दिया। 

क्या तुम नहीं जानते ? हजरत मुस्अब (र.अ) ने बताया, सुनो, यह मालदार औरत का बेटा है, मगर बड़ा चालाक है। अगर तुम ने इस की निगरानी में जरा भी ग़फ़लत की, तो वह भाग जाएगा।

अबू अजीज ने अपने सगे भाई मुसअब की तरफ़ देखा, बोला, भाई साहब ! क्या एक सगे भाई के लिए यह मुनासिब है, जो आप कर रहे हैं? मैं तो आपके आने से समझा कि आप मेरे छुड़ाने में मददगार साबित होंगे।

अबू अजीज! हजरत मुसअब ने कहा, मेरा भाई नहीं है। अगर मेरा भाई होता, तो मुझ से लड़ने बद्र के मैदान में न आता। मेरा भाई यह है, जो तेरी हिफाजत कर रहा है। 

अबू अजीज चुप हो गया। 

इस्लामी फौज अफ़रा से चली।

अब यह इराकुन्नुतबा में पहुंची, तो यहां उक्बा बिन अबी मुबीत, सरकश काफिर था, कत्ल किया गया। यह आदमी भी कैद था और कैद की हालत में गालियां बका करता था।

इस्लामी फ़ौज रुकती-रुकाती मदीने की तरफ बढ़ रही थी। मदीने में मूसलमानों की जीत की खबर पहले ही पहुंच चुकी थी, वे पहले ही से बहुत खुश थे और बड़ी बेसब्री से फौज के आने का इन्तिजार कर रहे थे, अलबत्ता काफ़िर बड़े दुखी और ग़मगीन नजर आने लगे थे। 

आखिरकार वह दिन आ ही गया, जब मुसलमान फौज मदीना में दाखिल हुई। 

तमाम मुसलमानों ने उस का शानदार इस्तकबाल किया और पूरे मदीने में खुशी की लहर दौड़ गयी। उस मौके पर यहदी बड़े नाखुश और ग़मगीन नजर आ रहे थे।

कुफ़्फ़ारे मदीना मुसलमानों से सख्त मरऊब थे। वजह यह थी कि जंगी कैदियों में मक्का के बड़े-बड़े इज्जतदार लोग शामिल थे, जैसे अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब, अकील, हजरत अली के भाई, नौफ़ल बिन हारिस, अबुल आस, हुजूर (ﷺ) के दामाद, अबू अजीज, सुहैल बिन अम्र ये सभी मक्का के सरदार थे, इन के अलावा और भी बहुत से लोग थे। 

ये सभी खजूरों की रस्सियों में जकड़े हुए मुसलमानों की हिरासत में मदीने की गलियों को तै कर रहे थे। अल्लाह तआला ने उन का घमंड तोड़ दिया था,

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आज वे जलील कैदियों और मामूली गुलामों की तरह हो गये थे। यह बड़ा इबरतनाक मंजर था।

इन कैदियों में ज्यादा तायदाद उन लोगों की थी, जिन्हों ने मुसलमानों को सताया, शोबे अबी तालिब में तीन साल तक कैद रखा, हिजरत करते वक्त सामान लूटा और मुहाजिरों को जलील किया, बीवी और बच्चे छीन लिए।

चाहिए तो यह था कि मुसलमान इंतिकाम के जोश में इन सब को कत्ल कर डालते, मगर इस्लाम ने अरबों की फ़ितरत ही बदल दी थी।

हुजूर (ﷺ) ने कैदियों की हिफाजत करने वालों को उन के आराम का ख्याल रखने की हिदायत की थी, इसलिए तमाम मुसलमान कैदियों का खास तौर से ख्याल रखते थे, यहां तक कि खुद सत्तू पीते, खजुरें खाते और रोटियां पका-पका कर कैदियों को खिलाते।

अबू अजीज़ जो हज़रत मुसअब के भाई थे, बयान करते हैं कि उन के भाई खुद खजूरें खाते थे और उन्हें रोटियां पका-पका कर देते थे। कभी उन्हों ने रोटियां अपने किसी हिफाजत करने वाले को दी, उस ने दूसरे को दी, दूसरे ने तीसरे के हवाले की, तीसरे ने चौथे के सुपुर्द की, चौथे ने अबू अजीज ही को दे दी।

कैदी लोग मुसलमानों का यह त्याग देख कर हैरान रह गये।

मुसलमानों ने मदीना मुनव्वरा में पहुंच कर कियाम किया। कुफ्फारे मदीना मुसलमानों की जीत से इतने मरऊब  हुए कि उन्हों ने मुसलमानों को छेड़ना और उन पर आवाजें कसना, बन्द कर दिया, बल्कि अक्सर लोग राजी-ख़ुशी से मुसलमान भी हो गये। 

अब्दुल्लाहं बिन उबई, जो मुसलमानों को और हजरत मुहम्मद (ﷺ) को दुश्मन समझता था, मुसलमानो के पास आ कर तीन सो आदमियों के साथ मुसलमान हो गया। 

वही एक ऐसा आदमी था जिस की वजह से बहुत-से लोग रुके हुए थे, उसके मुसलमान होते ही सैकड़ों आदमी और मुसलमान हो गये।


कैदियों के मुताल्लिक मश्विरा

कुछ दिनों बाद हुजूर (ﷺ) ने मस्जिदे नबवी में मज्लिसे शूरा बुलायी, तमाम मुसलमान जमा हुए, कैदी भी बुलाये गये। सब लोगों के आने के बाद हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया –

मुसलमानो! हम्द व तारीफ़ के काबिल वही जात पाक है कायनात का पैदा करने वाला है, बड़ी कुदरत वाला है, इज्जत व जिल्लत और जीत-हार उसी के अख्तियार में है। तुम ने देखा और अच्छी तरह से देखा कि तुम कुफ्फार के मुकाबले में तायदाद के लिहाज से तिहाई थे और हथियारों के लिहाज से कुछ भी न थे, पर तुम को अल्लाह ने फतह दी, माले गनीमत तुम्हारे हाथ लगा और कैदी तुम्हारे हाथ में हैं। मैं ने तुम को इस लिए बुलाया है कि तुम सब मिल कर कैदियों के मुताल्लिक मश्विरा दो कि क्या किया जाए।

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कैदी फिक्रमंद सर झुकाये बैठे थे। वे जानते थे कि अरबों का कानून यह है कि तमाम जंगी कैदियों को बे-दरेग कत्ल कर दिया जाये। उन्हें यकीन था कि वे भी कत्ल किये जाएंगे। क़त्ल के डर ने उन्हें कपकपा दिया था। 

हजरत हमजा रजि० ने फ़रमाया, जंगी कैदी गुलामों की हैसियत रखते हैं। उन्हें गुलामों की तरह यहुदियों के हाथ बेच दिया जाये, इस से मुशिरकों पर मुसलमानों का रोब पड़ेगा और आगे मुसलमानों से लड़ने में एहतियात करेंगे।

मेरी तो राय यह है कि इन कैदियों में जो कैदी, जिस मुसलमान का करीबी रिश्तेदार है, वही उस को अपने हाथ से क़त्ल कर डाले, ताकि मुश्रिकों और काफिरों को मालूम हो जाए कि मुसलमानों के दिलों में अल्लाह और उस के रसूल की मुहब्बत और रिश्तेदारियों के मुकाबले में बहुत ज्यादा है। इस्लाम के मुकाबले में तमाम रिश्ते नीचे हैं। हजरत उमर (र.अ) बोले। 

अरबों का जंगी कानून यही है कि तमाम कैदी क़त्ल कर ले जाएं, हजरत अबू बक्र सिद्दीक (र.अ) ने कहा, मगर माफ़ी भी कोई चीज है, उन कैदियों को रिहा कर के हमें लुत्फ़ व मेहरबानी की एक नजीर कायम करना चाहिए। इस से कुफ्फार के दिलों में मुसलमानों और इस्लाम की मुहब्बत कायम हो जाएगी। 

ये कैदी वे हैं, जिन्हों ने मुसलमानों पर इतना जुल्म किये हैं कि दुनिया में उन की नजीर ढूंढ़ने पर भी न मिलेगी, हज़रत अली (र.अ) ने फ़रमाया, ऐसे जालिमों को रिहा करना किसी तरह भी मुनासिब नहीं है, उन्हें कत्ल कर डालना ही अच्छा है। 

यह तो सही है, हजरत अबू बक्र सिद्दीक (र.अ) ने कहा कि अगर मुसलमान किसी काफ़िर के हाथ में कैद हो जाता, फ़ौरन क़त्ल कर दिया जाता, यह तो उस के कुफ्र व शिर्क का तकाजा है, लेकिन हमें उन जैसा न बनना चाहिए। मुसलमान की शान तो यह होनी चाहिए कि वह माफ़ी की रविश अपनाए, वरना फिर उन में और हम में क्या फ़र्क रह जाएगा।

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ऐ भाई! हजरत उमर रजि० बोले, क्या आप भूल गये कि आप पर और तमाम मुसलमानों पर इन कैदियों ने कितनी सख्तियां की हैं, कितने जुल्म किये हैं, आप अपनो नर्मी से माफ़ी की बात कर रहे हैं, मुनासिब यही है कि इन सब को क़त्ल कर डाला जाए।

मेरी राय क़त्ल करने की नहीं है, हजरत अबू बक्र सिद्दीक़ (र.अ) ने कहा, मेरे ख्याल में तो यही मुनासिब है कि इन कैदियों से फ़िदया लेकर छोड़ दिया जाए। फ़िदए की इस रकम से मुसलमान अपनी हालत दुरुस्त कर सकेंगे।

हुजूर (ﷺ) बैठे मुखालिफ़ और मुवाफ़िक़ राएं सुन रहे थे। जब बात ज्यादा आगे बढ़ी,

तो आप (ﷺ) ने फ़रमाया –

मुसलमानो! यह सच है कि इन मुशरिक कैदियों ने मुसलमानो पर वहिशयाना जुल्मकिये हैं, यह भी सच है कि अगर वे हम में से किसी को गिरफ्तार कर लेते, तो क़त्ल ही करते, पर हमें उन की पैरवी न करनी चाहिए। अगर हम भी वही करें, जो उन्हों ने हमारे साथ किया है, तो हम में और इनमें फ़र्क ही क्या रहा? मेहरबानी करना और माफ़ कर देना अच्छी बातें हैं, मुसलमानों को यही करना चाहिए।

एक मुसलमान की शान यह होनी चाहिए कि जब वह लड़ाई के मैदान में निकले, तो खूंखार शेर बन कर निकले, मर जाए मगर लड़ाई में जो कदम आगे बढ़ा है उसे पीछे न हटाये, लेकिन जब जीत जाए, तो दुश्मनों से नर्मी और मेहरबानी का सुलक करे। 

मैं भी कैदियो पर मेहरबानी के सुलूक को पसन्द करता हूँ। मेरी भी यही राय है कि इन कैदियो को फ़िदया ले कर छोड़ दिया जाए। 

जब हुजूर (ﷺ) ने अपनी राय पेश कर दी, तो अब उस में चूं व चरा की कोई गुंजाइश न थी। सब ने आप की राय से इत्तिफ़ाक किया। 

आप (ﷺ) ने तमाम कैदियों की फेहरिस्त तैयार करायी और जो जिस हैसियत का था, उस पर उतना ही फ़िदया लगा दिया गया। 

बहुत से कैदी ऐसे थे, जो कोई भी फ़िदया अदा नहीं कर सकत थे, उन्हें बिना किसी मुआवजा के छोड़ दिया गया। अलबत्ता उन में कुछ लोग जो पढ़ना, लिखना जानते थे, रोक लिए गए और उनसे कहा गया कि दस बच्चो को लिखना-पढ़ना सिखा दें और रिहा हो जाएं।

चुनांचे उन्हों ने मुस्लिम बच्चों को तालीम देना शुरू किया।

इन तमाम मामलो के तै होते ही मज्लिसे शूरा बरखास्त कर दी गयी और मुसलमान अपने-अपने काम में लग गये। 


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सत्तू के थैले / सुवैक की लड़ाई

एक दिन सन २ हिजरी के जिलहिज्जा महीने की चौथी तारीख को हुज़र (ﷺ) मस्जिदे नबवी में तशरीफ़ रखे थे। बहुत से सहाबी आप के पास बैठे थे। कुछ मुसलमान लपके हुए आए और आप के पास आ कर बोले – 

ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! कमबख्त अबू सूफ़ियान बद्र की लड़ाई के लिए हमलावर हुआ है। उस की फ़ौज मदीना के करीब आ गयी है।

हुजूर (ﷺ) ने कहा, अच्छा तुम शहर में मुनादी करा दो कि कुरैशे मक्का मदीने पर हमलावर हुए हैं। अहदनामे के मुताबिक़ मुसलमान कुफ्फार, यहुदी, मदीने के तमाम लोग उस के मुकाबले के लिए निकलें।

फ़ौरन वे लोग वापस लौट गये और पुरे शहर में मुनादी कर दी। जो मुसलमान जहां कहीं थे, मुनादी की आवाज सुन कर दौड़-दोड़ कर आने लगे, मगर काफ़िर और यहूदी एक भी नहीं आया, हालांकि जो अहदनामा लिखा गया था, उस में एक शर्त यह भी थी कि जब कोई दुश्मन मदीने पर हमला करेगा, तो सभी मिल कर दुश्मन का मुकाबला करेंगे।

सच तो यह है कि कुफ़्फ़ार और यहूदी छिपे तौर पर मुसलमानो के दुश्मन थे। वे चाहते थे कि ये किसी तरह मिट जाएं। वे मुसलमानों को हर मुम्किन तरीके से नुक्सान पहुंचाने की कोशिश करते रहते थे। 

थोड़ी ही देर में सैकड़ों मुसलमान मस्जिदे नबवी के सामने जमा हो गये।

हुजूर (ﷺ) भी मस्जिद में तशरीफ़ रखे थे।

कुफ्फ़ार और यहुदियों के आने का इन्तिजार था। 

जब मुद्दत गुजर गई और उनमें से कोई न आया, तो आप (ﷺ) ने फ़रमाया –

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मालूम होता है कि कुफ्फार और यहूदी अपना अहद तोड़ना चाहते हैं, और कुछ परवाह नहीं, वे अगर बद-अहदी करते हैं, तो करने दो, मुसलमानो! तुम अबू सुफ़ियान से मुकाबले के लिए तैयारी करो।

तमाम मुसलमान निहायत जोश में भरे हुए थे। हुजूर (ﷺ) का हुक्म सुनते ही रवाना हुए। मदीने की गलियों को ले कर के बाहर निकले। 

कुफ्फार और यहूदी अपने मकानों की छतों पर खड़े हो कर मुसलमानों की रवानगी का मंजर देखने लगे।

मुसलमान मदीने से निकल कर खजूरों के बागों की तरफ़ चले। 

अभी थोड़ी दूर ही चले थे कि कुछ मुसलमान बागों की तरफ़ से आते हुए मिले।

उन्हों ने हुजूर (ﷺ) के सामने आ कर कहा –

ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! जालिम अबू सुफ़ियान ने हजरत सईद बिन अम्र अंसारी और उन के एक साथी को खेतों में काम करते हुए कत्ल कर दिया।

हुजूर (ﷺ) को मुसलमानों से बेहद मुहब्बत थी। जब किसी मुसलमान के बीमार होने या और कोई तकलीफ़ हो जाने की खबर सुनते, तो बेचैन हो जाते, उसे देखने जाते, देख-भाल करते है जो मुसलमान शहीद हो जाता, उस का आप को अफ़सोस होता। 

चुनांचे हजरत सईद और उन के साथी के कत्ल होने की खबर सुनकर आप को बड़ा मलाल हुआ। आप (ﷺ) ने पूछा, संगदिल अबू सुफ़ियान और उस की फ़ौज कहां है ? 

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हुजूर (ﷺ) ! वह इस्लामी फ़ौज के आने की खबर सुन कर मक्का की तरफ भाग गया।

हुजूर (ﷺ) ने कुछ मुसलमानों को हिदायत की कि वे हजरत सईद (र.अ) और उन के साथी को दफ़न कर दें और फ़ौज को तेजी से चलने का हुक्म दिया।

मुसलमान पूरे जोश में थे। वे तेजी से चले। जब वे खजूरों के बागों को तै कर चुके, तो उन्हें सत्तू के थैले पड़े हुए मिले।

ये थैले अबू सुफ़ियान की फ़ौज अपना बोझ हल्का करने के लिए फेंकती चली गयी थी। रास्ते में दूर तक थैले पड़े हुए मिले। मुसलमान इन थैलों को उठाते चले गये। उन्हों ने गरदारा नामी जगह तक कुफ्फ़ार का पीछा किया।

यहां पहुंच कर मालूम हआ कि अबू सुफ़ियान दूर तक निकल गया है। उस का हाथ आना मुश्किल है। इसलिए हुजूर (ﷺ) ने फ़ौज को वापसी का हुक्म दे दिया और बगैर किसी खूंरेजी के वह मदीना वापस लौट आयी।

चूँकि मुसलमानों को इस मुहिम में सत्तू के थैले हाथ आए थे और अरबी में सत्तू को सुवैक कहते हैं, इसलिए यह वाकिआ सुवैक की लड़ाई के नाम से मशहूर हुआ।

To be continued …

इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे और अपनी राय भी दे … 

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