सिरतून नबी (ﷺ) सीरीज | Part 37

Seerat un Nabi (ﷺ) Series: Part 37

इस्लाम के फ़िदाकार मुबल्लिग़

अगरचे मुसलमान उहद में भी कुफ़्फ़ार को हरा चुके थे, मुश्रिक बद-हवास हो कर माल व अस्बाब और अपनी औरतों को छोड़ कर भाग खड़े हुए थे, मुसलमानों ने इन भगोड़ों का सामान लूटना शुरू कर दिया था, लेकिन उहद की घाटी में जो दस्ता अब्दुल्लाह बिन जुबैर की सरबराही में लगाया गया था, कुफ्फ़ार को हार कर भागते देख कर और मुसलमानों के साथ वह दस्ता भी पीछा करने में दौड़ पड़ा था।

खालिद ने जब उस घाटी को खाली देखा, तो वह इस तरफ़ से हमलावर हो गये। मुसलमान उन के मुक़ाबले के लिए लौटे। इक्रिमा और अंबू सुफ़ियान ने एक-एक कर के नये जोश और नयी हिम्मत से हमला किया। नतीजा यह हुआ कि मुसलमान दुश्मनों से घिर गये, फिर भी वे घबराये नहीं, हिम्मतें नहीं छोड़ीं, लड़े और खूब लड़े।

आखिरकार कुफ़्फ़ार मायूस और नाकाम हो कर वापस जाने पर मजबूर हुए।

इस लड़ाई में क़रीब क़रीब तमाम ही मुसलमान जख्मी हुए, खुद हुजूर (ﷺ) भी जख्मी हो गये।

जो मुसलमान मदीने में रह गये थे, उन्हें यह सब सुन कर बड़ा तैश और जोश आ रहा था। उन्हों ने तै कर लिया था कि आगे लड़ाई में वे मुशरिकों से जरूर ही भरपूर बदला लेंगे।

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अब्दुल्लाह बिन उबई मुनाफ़िक़ था। जाहिर में तो उस ने इस्लाम क़ुबूल किया था, लेकिन असल में वह था इस्लाम और मुसलमानों का दुश्मन। वह चाहता था, किसी तरह मुसलमान खत्म हो जाएं और वह मदीने का बादशाह बन सके। उस ने एलानिया कहना शुरू कर दिया – 

मुसलमानों ने हमारी यह बात कि मदीने में रह कर मुक़ाबला करो, न मानने पर आखिरकार नुक्सान उठाया, अच्छा हुआ, हम न गये थे, वरना हम भी नुक्सान उठाते।

मुसलमानों को उस की और उस के साथियों की इस क़िस्म की बातें सुन कर रंज होता था।

सहाबा (र.अ) ने हुजूर (ﷺ) से अर्ज किया कि अब्दुल्लाह बिन उबई और उस के साथी मुनाफ़िक़ हैं। इसलिए हम को उन से लड़ने की इजाजत दीजिए, वरना ये लोग आस्तीन के सांप साबित होंगे और दुश्मनों से जोड़-तोड़ कर के मुसलमानों को नुक्सान पहुंचाएंगे।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, 

अब्दुल्लाह बिन उबई और उस के साथी अपने को मुसलमान कहते हैं, यह सही है कि वे मुनाफ़िक़ हैं, उन का जाहिर कुछ है और बातिन कुछ, फिर भी जब तक वे अपने को मुसलमान कहते रहेंगे, उस वक्त तक उनके खिलाफ कोई कार्यवाई न की जाएगी।

लोग खामोश रहे।

खुवैलद के गुस्ताख़ बेटें 

कुछ दिनों बाद मालूम हुआ कि तलहा बिन खुवैलद और सलमा बिन खुवैलद, दोनों भाइयों ने कुत्न के मुकाम पर तमाम मुश्रिकों को जमा किया है और मदीने पर हमला करने का इरादा रखते हैं, हुजूर (ﷺ) ने अबू सलमा मखजूमी (र.अ) को डेढ़ सौ मुजाहिदों के लश्कर के साथ इन्हें पसपा करने के लिए भेजा और उन्हें हिदायत कर दी कि जब तक वे लोग लड़ने में पहल न करें, तुम अपनी तरफ़ से लड़ने में पहल न करना।

जब अबू सलमा (र.अ) कुत्न पहुंचे, तो मालूम हुआ कि खुवैलद के दोनों बेटे मुजाहिदों के आने की खबर सुन कर फरार हो गये और ऐसे बद-हवास होकर भागे कि अपने मवेशी तक न ले जा सके।

सुफ़ियान बिन खुवैलद की गुस्ताखी और उसका हश्र

कुछ दिनों के बाद हुजूर (ﷺ) को मालूम हुआ कि सुफ़ियान बिन खुवैलद ने अरफ़ात की घाटी के क़रीब मुश्रिकों को जमा करना शुरू कर दिया है। उस का इरादा मदीने पर हमला करने का है।

हुजूर (ﷺ) ने अब्दुल्लाह बिन उनैस (र.अ) को तन्हा रवाना कर दिया और फ़रमाया कि सुफ़ियान बिन खुवैलद को समझाना कि लड़ाई अच्छी चीज नहीं, न हम उस पर हमला करना चाहते हैं, न वह हम पर हमला करने का इरादा करे।

अब्दुल्लाह बिन उनैस (र.अ) ने अरफ़ात पहुंच कर उसे समझाया, लेकिन वह बिगड़ गया, बोला, मैं ने इरादा कर लिया है कि मदीना फ़तह कर के रहूंगा, एक मुसलमान को भी जिन्दा न छोडूंगा।

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अब्दुल्लाह खामोश हो गये।

रात को जब वह चलने लगे, तो फिर सुफ़ियान के पास गये। वह उस वक्त तन्हा बैठा था।

अब्दुल्लाह ने कहा, 
सुफ़ियान! मैं जा रहा हूं। मुझे अफ़सोस है कि तुमने समझौते का हाथ न बढ़ाया। लड़ाई किसी हालत में भी अच्छी चीज नहीं होती, न मालूम तुम क्यों अच्छा समझते हो।

सुफ़ियान ने कहा, 
लड़ाई हमारी घुट्टी में दाखिल हैं। तुम्हारा नबी तो बुजदिल है । (नऊजुबिल्लाह), लड़ने से बचता है, इसलिए तुम को भी लड़ने से बचाता है। जिस क़ौम की वह तामीर कर रहा है, वह क़ौम बुज-दिल हो गयी है। 
सुनो, अब्दुल्लाह ! मैं तुम्हारे नबी को क़त्ल कर डालने की क़सम खा चुका हूं। बगैर उसे क़त्ल किये न मानूगा। मैं तुम्हारे पीछे ही आऊंगा और ऐसा जबरदस्त लश्कर लाऊंगा, जो सारे मुसलमानों को फ़ना की घाट उतार देगा।

अब्दुल्लाह को उस की बातें सुन कर तैश आ गया। उसकी आँखे लाल हो गयीं, गुस्से में भर कर कहा – 

“जलील बुतपरस्त ! दुनिया के कुत्ते ! तेरी यह मजाल कि हुजूर (ﷺ) की शान में गुस्ताखी करे, ख़ुदा की क़सम ! कोई भी मुसलमान आप (ﷺ) के बारे में ऐसी बातें नहीं सुन सकता। अगर तुझे अपनी बहादुरी पर फ़कर है, तो तलवार संभाल और मेरे मुक़ाबले पर आ जा।”

सुफ़ियान ने भी जल्दी से तलवार खींची और कूद कर अब्दुल्लाह के सामने आ गया। आते ही उस ने तलवार से हमला किया।

अब्दुल्लाह ने निहायत फुर्ती से तजुर्बेकार जवानों की तरह हमला रोका और जोश में आ कर खुद भी हमला कर दिया।

सुफ़ियान ने जल्दी से अपनी तलवार पर अब्दुल्लाह की तलवार रोकी। उसकी तलवार टूट गयी, वह घबरा कर पीछे हटा और दीवार का सहारा लेकर बड़ी खौफ़ज़दा नजरों से अब्दुल्लाह को देखने लगा। अब्दुल्लाह ने लपक कर दूसरा वार किया।

सुफ़ियान का सर कट कर दूर जा गिरा।

अब्दुल्लाह ने उसका सर उठाया और चुपके से उस के घर से निकल कर ऊंट पर सवार हुए और मदीना की तरफ़ रवाना हो गये ।

सुबह जब कुफ्फार ने सुफ़ियान का बे-सर लाश देखी तो घबरा कर बिखर गये।

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अब्दुल्लाह २२ मुहर्रम सन ४ हि० को मदीना पहुंचे और सुफ़ियान का सर हुजूर (ﷺ) के क़दमे मुबारक़ पर जा डाला।

हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, अफ़सोस हुआ, वह हिर्स का शिकार बन गया। 

इस के बाद उस के सर को दफ़न करा दिया गया।

जिस दिन अब्दुल्लाह मदीने में वापस आये, उसी दिन मक्का से एक वफ्द आया। इस वफ्द में क़बीला कारा के सात आदमी थे।

ये लोग आसिम बिन साबित के मकान पर पहुंचे और उसी जगह टहर गए।

कुछ दिनों के बाद आसिम ने उन के आने की वजह पूछी।

उनमें से एक आदमी ने कहा, जब से कुफ़्फ़ार क़ुरैश को बद्र और उहद को जगहों पर हार हुई है। बहुत से लोग इस्लाम की तरफ़ झुक गये है और हमारे क़बीलों की बहुत बड़ी तायदाद ने इस्लाम में दाखिल होने का फ़ैसला कर लिया है। हम इसलिए आए हैं कि कुछ मुबल्लिग हमारे साथ मक्का भेज दीजिए, ताकि वे प्यासे लोगों को इस्लाम की तालीम से सेराब कर के मुसलमान बना लें।

आसिम ने कहा, बहुत अच्छी बात है, तुम मेरे साथ हुजूर (ﷺ) की खिदमत में चलो । यक़ीन है कि वह कुछ तालीम देने वालों को आप के साथ भेज देंगे।

दूसरे आदमी ने कहा, आसिम ! हम बजाए किसी और के पास जाने के तुम्हारे पास इसलिए आए हैं कि तुम नेक दिल हो, मुसलमानों के हामी और इस्लाम के फ़िदाई हो। हमारी अर्जदाश्त सुन कर हुजूर (ﷺ) से हमारी सिफ़ारिश करने पर तैयार हो जाओगे।

आसिम ने बात काटते हुए कहा मैं तैयार हूं। जरूर जरूर ! हुजूर (ﷺ) से तुम्हारी सिफ़ारिश करूंगा।

तीसरे आदमी ने कहा, मेरे भाई ! हमारी यह भी ख्वाहिश है कि आप भी हमारे साथ मक्का चलें। यक़ीन है कि आप की तक़रीर सुन कर बहुत से लोग मुसलमान हो जाएंगे।

आसिम ने कहा के, हम मुसलमानों में कोई मुसलमान बग़ैर हुजूर (ﷺ) हुक्म के कोई काम नहीं कर सकता। अगर हुजूर (ﷺ) ने मुझे इजाजत दे दी, तो मैं तुम्हारे साथ जरूर चलूंगा।

पहले आदमी ने कहा, इजाज़त हासिल करना तुम्हार अख्तियार में है। जब हुजूर (ﷺ) से मक्का जाने को कहोगें, तो यक़ीन है वह जरूर इजाजत दे देंगे।

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आसिम ने कहा, मुझे तुम से यकगना मुहब्बत हो गयी है। मैं तुम्हारी वजह से इजाजत हासिल करने की कोशिश करूंगा।

दूसरे ने कहा, अच्छा तो इसी वक्त हुजूर (ﷺ) की खिदमत में चलो। आसिम वफ्द के सातों आदमियों के साथ मिल कर मस्जिदे नबवी की तरफ़ चल खड़े हुए। 

आमतौर पर मुसलमानों को मक्के के इस वपद के आने का हाल मालूम हो चुका था, लेकिन अभीतक उस के आने की वजह मालूम न हुई थी।

जब ये सब लोग मदीना में पहुंचे, तो हुजूर (ﷺ) को मस्जिद के एक कोने में बैठे हुए देखा। आप के पास हज़रत अबू बक्र, हजरत उमर, हजरत अली, हज़रत साद, हजरत बिलाल, हजरत अबू उबैदा (र.अ) और कुछ दूसरे सहाबी बैठे थे।

मक्का के वफ्द ने क़रीब पहुंच कर निहायत अदब से आप को सलाम कर के मुसाफ़ा किया। हुजूर (ﷺ) ने सलाम का जवाब दे कर उन्हें बैठने का इशारा किया।

जब वे सब बैठ गए, तो आप (ﷺ) ने कहा,
ऐ कुरैश के लोगो ! तुम मक्का से चल कर तीन सौ मील का फ़ासला ते कर के किस लिए आए हो ?

उन में से एक आदमी कहा, ऐ अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! हम अक्ल व क़ारा क़बीले के लोग हैं। हमारे क़बीले इस्लाम में दाखिल होना चाहते हैं। हम इस वजह से आप की खिदमत में हाजिर हुए हैं कि हुजूर (ﷺ) हमारे साथ कुछ मुबल्लिग़ भेज दें ताकि हमें और हमारी क़ौम को इस्लाम सिखायें। पूरा यकीन है कि हमारी तमाम क़ौम मुसलमान हो जाएगी।

हुजूर (ﷺ) ने पूछा, अब्बू सुफ़ियान और इक्रिमा कोन से ख्याल में हैं ? 

एक आदमी ने जवाब दिया, वे लड़ाई की तैयारियों में लगे हैं। वे बद्र के मैदान में दोबारा लड़ने का वायदा कर के चले गये हैं, इसलिए वे अपना वायदा पूरा किये बिना हरगिज न आराम करेंगे।

हुजूर (ﷺ) ने सहाबा को खिताब कर के फ़रमाया, इस वफ्द के आने की वजह मालूम कर ली, मश्विरा दो, क्या किया जाए ?

हजरत उमर (र.अ) ने फ़रमाया,
मुझे इन की बातों से फ़रेब की बू आती है। मेरा ख्याल है कि ये लोग कोई साजिश कर के आये हैं और मुसलमानों को किसी नयी मुसीबत में फंसाना चाहते हैं। अगर इन के क़बीले मुसलमीन होना चाहते हैं, तो यहां क्यों नहीं चले आते ?

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खुदा की कसम ! हम कोई साजिश करने नहीं आये हैं, अमीरे वफ्द ने कहा, हमें इस में भी कोई उज्र बहाना नहीं कि हमारी क़ौम यहां आ जाए, मगर आप समझ सकते हैं कि सारी क़ौम का यहां आना मुश्किल है। वही लोग आ सकेंगे, जिन के दिल में तड़प होगी।

बेशक, सारी क़ौम इतनी दूर सफ़र कर के नहीं आ सकती, हजरत अबू बक्र (र.अ) ने कहा। मुनासिब यही है कि कुछ मुबल्लिग इन के साथ रवाना कर दिये जाएं।

मेरा भी यही ख्याल है, हजरत अली (र.अ) ने कहा, अलबत्ता अबू सुफ़ियान और इक्रिमा की तरफ से अन्देशा है।

अंदेशा न कीजिए, अमीरे वफ्द ने कहा, हम मुबल्लियों की हिफ़ाजत का जिम्मा लेते हैं। अगर अबू सुफ़ियान या इक्रिमा हमारी जिम्मेदारी को तोड़ना चाहेंगे, तो हमारी सारी कौम उन पर हमला कर देगी।

मुसलमानों को किसी अंदेशे का ख्याल न करना चाहिए, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, हर बात ख़ुदा की तरफ़ से होती है और जो बात होने वाली है, वह जरूर ही हो कर रहेगी। बेहतर है मुबल्लिग भेजे जाएं।

जब फख्र ऐ आलम का हुक्म है तो चूं व चरा की कोई गुंजाइश नहीं, हज़रत उमर (र.अ) नें फ़रमाया।

अगर हुजूर (ﷺ) इजाजत दें, तो मैं मक्का जाने को तैयार हूं, आसिम (र.अ) ने कहा।

अगर तुम तैयार र हो, तो मैं खुशी से इजाजत देता हूं, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, एक तुम हो और एक और आदमी चुन लो और कल सुबह की नमाज पढ़ कर इन के साथ रवाना हो जाओ।

आसिम (र.अ) इजाजत मिलने से बहुत खुश हुए।

मैं हुजूर (ﷺ) के सामने नाम पेश किये देता हूं, उन्हों ने कहा, नाम है, अब्दुल्लाह बिन तारिक, खालिद बिन कबीर, याक़ूब बिन उबैद, हबीब बिन अदी, जैद बिन वसीला, इन के अलावा तीन आदमी और चुन लूंगा। 

तुम ने अच्छे लोगों को चुना है, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, ये सभी वे लोग हैं, जिन्हों ने अपनी जिंदगियां खुदा के हाथ बेच दी हैं।

अब आसिम (र.अ) मय कुरैशी वफ्द के साथ उठ कर चले गये। उन्हों ने जाते ही उन लोगों को, जिन की इजाज़त ली थी, इत्तिला दे दी और वे तैयारियां करने लगे।

इनके जाने के बाद हुजूर (ﷺ) ने हजरत साद से पूछा, तुम ने अबू बरा के बारे में कुछ सुना है ?

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नज्द के मशहूर रईस अबू बर्रा

हुजूर (ﷺ) ! मैं अबू बर्रा को जानता हूं, हजरत साद ने फ़रमाया, मालिक बन जाफ़र के बेटे और नज्द के मशहूर रईस हैं। आजकल मदीना में तशरीफ़ लाये हुए हैं।

आज अबू बरा यहां आने वाले हैं, हुजूर (ﷺ) ने कहा, मेरा इरादा है कि उन के सामने इस्लाम पेश करूं।

हुजूर (ﷺ) ! अगर बर्रा मुसलमान हो गये, तो पूरा नज्द मुसलमान हो जाएगा, हजरत साद ने कहा, वजह यह है कि अबू बर्रा का भतीजा आमिर बिन तुफ़ैल है और आमिर का असर तमास नज्द वालों पर है। अबू बरा के मुसलमान होने से आमिर भी मुसलमान हो जाएगा और दोनों के मुसलमान होने मे नज्द के तमाम क़बीले मुसलमान हो जाएंगे।

अभी इतनी ही बात होने पायी थी कि सामने से कुछ अरब आते दिखाई पड़े। उन में से एक बहुत ही नुमायां अरब था।

हजरत साद ने उन्हें देखते ही हुजूर (ﷺ) को खिताब करते हुए फ़रमाया, हुजूर (ﷺ) ! वह अबू बर्रा आ रहे हैं।

हुजूर (ﷺ) अबू बर्रा की ताजीम के लिए खड़े हो गये। हुजूर (ﷺ) के उठते ही तमाम सहाबा किराम भी खड़े हो गये। अबू बर्रा ने क़रीब आ कर सलाम किया।

हुजूर (ﷺ) ने सलाम का जवाब दे कर उन्हें अपने क़रीब बिठाया। इधर-उधर की ख़ैरियत पूछने के बाद हुजूर (ﷺ) ने अबू बर्रा से फ़रमाया –

“मेरे भाई ! मैं आप के सामने आज वह मज़हब पेश कर रहा हूं, जो ख़ुदा की तरफ़ रहनुमाई करता है। यह वह मजहब है, जिसे हमारे दादा हजरत आदम ने पेश किया था, जिसे तमाम नबी पेश करते रहे और जिस का नाम इस्लाम है। आओ, खुदा के इस प्यारे मजहब में दाखिल हो जाओ।”

अबू बर्रा बड़े ध्यान से बातें सुनते रहे।

जब हुजूर (ﷺ) खामोश हुए, तो अबू बर्रा ने कहा –

मैं इस्लाम की तालीम को पसन्द करता हूं, लेकिन मैं नज्द का रईस हूं और मेरा भतीजा आमिर बिन तुफैल भी रईस है। नज्द के लोग ज्यादा सख्त होते हैं। अंदेशा है कि अगर मैं तंहा मुसलमान हो जाऊं, तो वे मुझसे लड़ने लगे, इसलिए अगर आप कुछ लोगों को मेरे साथ कर दें और वे नज्द चलकर नज्द वालों को वाज व नसीहत करें, तो मेरा ख्याल है कि मेरी सारी क़ौम मुसलमान हो जाएगी। फिर मैं भी मुसलमान हो जाऊंगा।

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आप की बात तो माकूल है, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया, लेकिन मुसलमानों की हिफ़ाज़त व हिमायत का जिम्मेदार कौन होगा? मुझे अन्देशा है कि कहीं आप की क़ौम मुसलमानों को नुक्सान न पहुंचाए।

जिन मुसलमानों को अपने साथ ले जाऊंगा, उन की हिफ़ाज़त व हिमायत का जिम्मेदार भी मैं ही हूंगा, अबू बरा ने कहा, आप इस का जरा भी अंदेशा न करें।

हुजूर (ﷺ) सोचने लगे।

अल्लाह के रसूल (ﷺ) ! हजरत अबू बक्र बोले, अगरचे अबू बरा खुद कौम के सरदार है, लेकिन इन के भतीजे आमिर बिन तुफ़ैल का ज्यादा असर व रुसूख है, अगर वह जिद पर आ गया, तो उस की तरफ़ से मुसलमानों को नुक्सान पहुंचने का अन्देशा किया जा सकता है।

ऐसा नहीं होगा, अंबू बर्रा ने कहा, आमिर लाख जिद्दी सही, लेकिन उस में यह खूबी भी है कि वह अपने बुजुर्गों का अदब व लिहाज भी बहुत करता है और मेरी बात भी मानता इसलिए आप उस की तरफ़ से बिल्कुल अंदेशा न कीजिए।

तुम्हारे साथ कितने आदमियों को भेजा जाए ? हुजूर (ﷺ) ने पूछा। चूकि में नज्द में ही तब्लीग नहीं करना चाहता, बल्कि आस-पड़ोस के क़बीलों में भी करना चाहता हूं, इस वजह से ज्यादा आदमियों की जरूरत है।

फिर कहा, कम से कम साठ-सत्तर आदमी होने चाहिए। ये लोग अच्छे कारी, हाफ़िज़ और मुबल्लिग हों और तकरीर भी अच्छी करते हों। ऐसे ही लोग भेजे जायेंगे, हुजूर (ﷺ) ने फ़रमाया।

आप ने सत्तर सहाबियों को चुना। ये सभी क़ुरआन के हाफ़िज और बेहतरीन मुकर्रिर थे।

मंजिर बिन अम्र को इन लोगों पर सरदार मुक़र्रर किया गया।

चूंकि अबू बर्रा अगले ही दिन नज्द जाने वाले थे, इसलिए चुने गए सहाबियों को हिदायत कर दी गयी कि वे उन के क़ाफ़िले के साथ रवाना हो जायें।

दूसरे दिन दस आदमी तो मक्का वालों के साथ और सत्तर सहाबी अबुल बरा के साथ नज्द रवाना हो गये।

To be continued …

इंशा अल्लाह सीरीज का अगला हिस्सा कल पोस्ट किया जायेगा …
आप हज़रात से इल्तेजा है इसे ज्यादा से ज्यादा शेयर करे और अपनी राय भी दे … 

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