पैदाइश:
हज़रत इब्राहीम अलैहि सलाम ने मिस्र से वापसी पर फ़लस्तीन में रिहाइश इख़्तियार की। इस इलाके को ‘कनआन‘ भी कहा जाता है।
….. हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम उस वक्त तक औलाद से महरूम थे। तौरात के मुताबिक हजरत इब्राहीम ने अल्लाह की बारगाह में बेटे के लिए दुआ की और अल्लाह ने उनकी दुआ को कुबूल फ़रमा लिया और उनको तसल्ली दी। यह दुआ इस तरह कुबूल हुई कि हजरत इब्राहिम अलैहि सलाम की छोटी बीवी मोहतरमा हजरत हाजरा (र.) हामिला हुईं। जब हज़रत सारा को यह पता चला तो उन्हें बशर के तक़ाजे के तौर पर रश्क पैदा हो गया। इस सूरतेहाल से मजबूर होकर हज़रत हाजरा उनके पास से चली गईं। तौरात के मुताबिक़ उनका गुज़र एक ऐसी जगह पर हुआ, जहां एक कुंवां था। उस जगह वह फ़रिश्ते से हमकलाम हुईं और कुंवें का नाम ‘जिंदा नज़र आने वाले का कुंवां’ रखा। थोड़े दिनों बाद हज़रत हाजरा के बेटा पैदा हुआ और फ़रिश्ते की बशारत के मुताबिक़ उसका नाम इस्माईल रखा गया।
बंजर घाटी और हाजरा व इस्माईल:
हज़रत इस्माईल अलैहि सलाम की पैदाइश के बाद के हालात बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अब्दुल्लाह बिन अच्वास (र. अ.) से नकल की गई रिवायत में इस तरह बयान हुए हैं –
‘…. इब्राहीम अलैहि सलाम हजारा और दूध पीते बच्चे इस्माईल को लेकर चले और जहां आज काबा है, उस जगह एक बड़े पेड़ के नीचे जमजम की मौजूदा जगह से ऊपरी हिस्से पर उनको छोड़ गए, वह जगह वीरान और गैर-आबाद थी और पानी का नाम व निशान न था, इसलिए इब्राहीम अलैहि सलाम ने एक मश्क पानी और एक थैली खजूर भी उनके पास छोड़ दी और फिर मुंह फेर कर रवाना हो गए। हाजरा अलैहि सलाम उनके पीछे-पीछे यह कहते हुए चलीं, ऐ इब्राहीम! तुम हमको ऐसी घाटी में कहां छोड़कर चल दिए, जहां न आदमी है और ना बच्चा और न कोई मूनिस व ग़मवार। हाजरा बराबर यह कहती जाती थी, मगर इब्राहीम अलैहि सलाम ख़ामोश चले जा रहे थे। आखिर हाजरा ने मालूम किया क्या अल्लाह ने तुमको यह हुक्म दिया है? तब हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम फ़रमायाः ‘हां! अल्लाह के हुक्म से है।’
हाजरा अलैहि सलाम ने जब यह सुना तो कहने लगी, अगर यह अल्लाह का हुक्म है तो बेशक वह हम को जाया और बर्बाद नहीं करेगा और फिर वापस लौट आईं। इब्राहीम अलैहि सलाम चलते-चलते जब एक टीले पर ऐसी जगह पहुंचे की उनके घर वाले निगाह से ओझल हो गए, तो उस वादी की ओर (जहां आज काबा है), रुख किया और हाथ उठाकर यह दुआ मांगी –
तर्जुमा- ‘ऐ हम सबके परवरदिगार! (तू देख रहा है कि) एक ऐसे मैदान में जहां खेती का नाम व निशान नहीं, मैंने अपनी कुछ औलाद तेरे मोहतरम घर के पास लाकर बसाई है, कि वो नमाज़ क़ायम रखें (ताकि यह मोहतरम पर एक ख़ुदा की इबादत करने वालों से खाली न रहे) पस तू (अपने फ़ज़्लो करम से) ऐसा कर कि लोगों के दिल उनकी तरफ़ मायल हो जाएं और उनके लिए ज़मीन की पैदावार से रिज्क का सामान मुहैया कर दे, ताकि तेरे शुक्रगुजार हों। [इब्राहीम 14:37]
‘….. अब बीबी हाजरा अलैहि सलाम और इसमाइल अलैहि सलाम उस तपते सेहरा में तन्हा रह गए, बीबी हज़रा के पास जो पानी और खजूरें खातीं थी वो सब ख़त्म हो गयी, पानी न मिलने की वजह से उनकी छाती का दूध भी सुख गया और जब बच्चे के लिए भी दूध न उतरा छाती से तो बच्चा भी भूक की वजह से रोने लगा। तो बीबी हाजरा ने बच्चे को एक खजूर की झाड़ के छांव में लिटा दिया। और सामने दो पहाड़िया थी जिसे आज साफा और मरवाह के नाम से जाना जाता है उस पहाडी पर चढ़ गयी की देखे शायद कोई काफिला या कोइ इन्सान दीख जाए तो कम से कम उस से पानी तो मांग ले के जिस्म पानी तो जाये ताकि बच्चे के लिय दूध बन जाए। और बच्चे की भूक मिटे। जब वोह एक पहाड़ी पर चढ़ती तो बच्चा आँखों से ओझल हो जाता, बच्चे की मोहब्बत मे वो जल्द से निचे उतर आती। लेकिन बच्चे को रोता देख जल्दी से भाग कर दुसरी पहाडी पर चढ जाती, की शायद कोई नजर आ जाए और कुछ मदद मिल जाए। इस तरहा आप ने उन दोनो पहाडी के साथ (7) चक्कर लगाये। कभी पहाड़ी चढ़ती और कभी औलाद की मोहब्बत मे निचे उतर आती। अल्लाह ताअला को बीबी हाजरा की ये अपनी औलाद के लिये मशक्कत (मेहनात) इतनी पसंद आयी की, अल्लाह तआला ने हर मुसल्मान मर्द और औरत पर जो भी मक्का शरीफ में हज या उमरा के लिऐ आता है उनके लिए सफा मारवाहा की दोनो पहाडियॉ के साथ (7) चक्कर लगाना फ़र्ज़ कर दिया है, और ये भी हज और उमराह के अरकानो मैं शामिल है।
आबे जमजम का चश्मा:
जब बीबी हाजरा उन दोनों पहाड़ियों पर दौड़कर चढ़ती और औलाद की मोहब्बत और बेकरारी में नीचे उतर आती। इधर बच्चा भूख से रो रहा था और अपनी एड़ियां जमीन पर रगड़ रहा था। उसी वक्त रहमत ए इलाही जोश में आई और इस्माइल अलैहिस्सलाम जहां अपनी एडिया रगड़ रहे थे उस जगह से पानी का चश्मा फूट पड़ा। जब बीबी हाजरा ने पानी देखा तो दौड़कर अपने बच्चे के पास पहुंची और उस पानी को जो बह रहा था रोकने के लिए उसको चारों तरफ रेत की दीवार बना दी और कहते जाती थी जमजम यानी कि रुक जा या ठहर जा इसीलिए उस पानी का नाम ‘आबे जमजम‘ पड़ गया।
सुनसान वादी में अरब कौम की शुरुवात:
इसी दौरान बनी जुरहम का एक क़बीला इस वादी के करीब आ ठहरा, देखा तो थोड़े से फ़ासले पर परिंदे उड़ रहे हैं। जुरहम ने कहा, यह पानी की निशानी है, यंहा जरूर पानी मौजूद है। जुरहम ने भी कियाम की इजाजत मांगी। हाजरा ने फ़रमाया, कियाम कर सकते हो, लेकिन पानी में मिल्कियत के हिस्सेदार नहीं हो सकते। जुरहम ने यह बात ख़ुशी से मंजूर कर ली। और वहीं मुकीम हो गए।
अल्लाह के रसूल ने फ़रमाया कि “हाजरा भी आपसी उन्स व मुहब्बत और साथ के लिए यह चाहती थीं कि कोई आकर यहां ठहरे, इसलिए उन्होंने खुशी के साथ बनी जुरहम को क्रियाम की इजाजत दे दी। जुरहम ने आदमी भेजकर अपने बाकी ख़ानदान वालों को भी बुला लिया और यहां मकान बनाकर रहने-सहने लगे। इन्हीं में इस्माईल अलैहि सलाम भी रहते और खेलते और उनसे उनकी जुबान सीखते। जब इस्माईल बड़े हो गए तो उनका तरीका और अन्दाज़ और उनकी खूबसूरती बनी जुरहम को बहुत भाई और उन्होंने अपने ख़ानदान की लड़की से उनकी शादी कर दी।
नेक बीवी का किरदार
हज़रत इस्माईल की बीवियों के बारे में इस तरह बयान हुआ है:
‘इब्राहीम बराबर अपने बाल-बच्चों को देखने आते रहते थे। एक बार तशरीफ़ लाए, तो इस्माईल अलैहि सलाम घर पर न थे, उनकी बीवी से मालूम किया तो उन्होंने जवाब दिया कि रोजी की खोज में बाहर गए हैं। इब्राहीम अलैहि सलाम ने मालूम किया, गुजर-बसर की क्या हालत है? वह कहने लगी, सख्त मुसीबत और परेशानी में हैं और बड़े दुख और तक्लीफ़ में। इब्राहीम अलैहि सलाम ने यह सुनकर फ़रमाया, इस्माईल से मेरा सलाम कह देना और कहना कि अपने दरवाजे की चौखट तब्दील कर दो।’
इस्माईल अलैहि सलाम वापस आए तो इब्राहीम अलैहि सलाम के नूरे नुबूवत के असरात पाए, पूछा: कोई आदमी यहां आया था? बीवी ने सारा किस्सा सुनाया और पैग़ाम भी। इस्माईल अलैहि सलाम ने फ़रमाया कि वह मेरे बाप इब्राहीम अलैहि सलाम थे और उनका मश्विरा है कि तुझको तलाक दे दूं, इसलिए मैं तुझको जुदा करता हूं।
इस्माईल अलैहि सलाम ने फिर दूसरी शादी कर ली। एक बार इब्राहीम अलैहि सलाम फिर इस्माईल की गैर-मौजूदगी में आए और उसी तरह उनकी बीवी से सवाल किए। बीवी ने कहा, अल्लाह का शुक्र व एहसान है, अच्छी तरह गुजर रही है। मालूम हुआ, खाने को क्या मिलता है? इस्माईल अलैहि सलाम की बीवी ने जवाब दिया, गोश्त। इब्राहीम अलैहि सलाम ने पूछा और पीने को? उसने जवाब दिया, पानी। तब हज़रत इब्राहीम अलैहि सलाम ने दुआ मांगी, अल्लाह! इनके गोश्त और पानी में बरकत अता फरमा। और चलते हुए यह पैग़ाम दे गए कि अपने दरवाजे की चौखट को मज़बूत रखना।
हज़रत इस्माईल अलैहि सलाम आए तो उनकी बीवी ने तमाम वाक्रिया दोहराया और पैग़ाम भी सुनाया, इस्माईल अलैहि सलाम ने फ़रमाया कि यह मेरे बाप इब्राहीम अलैहि सलाम थे और उनका पैग़ाम यह है कि तू मेरी जिंदगी भर जीवन-साथी रहे।’
खतना:
तौरात के बयान के मुताबिक़ जब इब्राहीम अलैहि सलाम की उम्र ९९ साल हुई और हजरत इस्माईल की तेरह साल, तो अल्लाह तआला का हुक्म आया कि खतना करो। इब्राहीम अलैहि सलाम ने हुक्म की तामील में पहले अपनी की और इसके बाद इस्माईल अलैहि सलाम और तमाम खानाजादों (घरवालों) और गुलामों की खतना कराई। यही खतने की रस्म आज भी इब्राहीमी मिल्लत का शिआर है और सुन्नते इब्राहीमी के नाम से मशहूर है।
बाप और बेटे की क़ुरबानी:
अल्लाह के मुकर्रब बन्दों को इम्तिहान व आजमाइश की सख्त-से-सख्त मंजिलों से गुजरना पड़ता है। पहली मंज़िल वह थी जब उनको आग में डाला गया, तो उस वक्त उन्होंने जिस सब्र और अल्लाह के फैसले पर राजी होने का सबूत दिया, वह उन्हीं का हिस्सा था। इसके बाद जब इस्माईल को और हाजरा को फारान के बयाबान में छोड़ आने का हुक्म मिला, तो वह भी मामूली इम्तिहान न था। अब एक तीसरे इम्तिहान की तैयारी है जो पहले दोनों से भी ज़्यादा हिला देने वाला और जान लेने वाला इम्तिहान है, यही कि हजरत इब्राहीम तीन रात बराबर ख़्वाब देखते हैं कि अल्लाह तआला फ़रमाता है कि ‘ऐ इब्राहीम! तू हमारी राह में अपने इकलौते बेटे की कुरबानी दे।’
नबियों का ख्वाब ‘सच्चा ख्वाब’ और वह्य इलाही होता है, इसलिए इब्राहीम रजा व तस्लीम बनकर तैयार हो गए कि अल्लाह के हुक्म की जल्द से जल्द तामील करें, चूंकि यह मामला अकेली अपनी जात से मुताल्लिक न था, बल्कि इस आज़माइश का दूसरा हिस्सा वह ‘बेटा’ था, जिसकी कुरबानी का हुक्म दिया गया था, इसलिए बाप ने अपने बेटे को अपना ख्वाब और अल्लाह का हुक्म सुनाया, बेटा इब्राहीम जैसे नबी और रसूल का बेटा था, तुरन्त हुक्म के आगे सर झुका दिया और कहने लगा, अगर अल्लाह की यही मर्जी है, तो इन्शाअल्लाह आप मुझको सब्र करने वाला पाएंगे।
इस बात-चीत के बाद बाप-बेटे अपनी कुरबानी पेश करने के लिए जंगल रवाना हो गए। बाप ने बेटे की मर्जी पाकर जिब्ह किए जाने वाले जानवर की तरह हाथ-पैर बांधे, छुरी को तेज किया और बेटे को पेशानी के बल पछाड़ कर जिब्ह करने को तैयार हो गए, फौरन अल्लाह की वह्य इब्राहीम अलैहि सलाम पर नाजिल हुई, ‘ऐ इब्राहीम! तूने अपना ख्वाब सच कर दिखाया। बेशक यह बहुत सख्त और कठिन आजमाइश थी।‘ अब लड़के को छोड़ और तेरे पास जो यह मेंढा खड़ा है, उसको बेटे के बदले में जिब्ह कर, हम नेकों को इसी तरह नवाज़ा करते हैं। इब्राहीम अलैहि सलाम ने पीछे मुड़कर देखा तो झाड़ी के करीब एक मेंढा खड़ा है। हज़रत इब्राहीम अलैहि सलाम ने अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए उस मेंढे को जिब्ह किया।
यह वह ‘कुरबानी‘ है जो अल्लाह की बारगाह में ऐसी मकबूल हुई कि यादगार के तौर पर हमेशा के लिए मिल्लते इब्राहीमी का शिआर करार पाई
और आज ज़िलहिज्जा की दसयों तारीख को तमाम इस्लामी दुनिया में यह ‘शिआर’ उसी तरह मनाया जाता है।
काबा की बुनियाद:
हज़रत इब्राहीम अलैहि सलाम अगरचे फ़लस्तीन में ठहरे थे, मगर बराबर मक्का में हाजरा और इस्माईल अलैहि सलाम को देखने आते रहते थे। इसी बीच इब्राहीम अलैहि सलाम को अल्लाह का हुक्म हुआ कि ‘अल्लाह के काबे‘ की तामीर करो। हज़रत इब्राहिम अलैहि सलाम ने हज़रत इस्माईल अलैहि सलाम से जिक्र किया और दोनों बाप-बेटों ने अल्लाह के घर की तामीर शुरू कर दी।
एक रिवायत के मुताबिक बैतुल्लाह की सबसे पहली बुनियाद हज़रत आदम अलैहि सलाम के हाथों रखी गई और अल्लाह के फ़रिश्तों ने उनको वह जगह बता दी थी, जहां काबे की तामीर होनी थी, मगर हजारों साल के हादसों ने अर्सा हुआ उसको बे-निशान कर दिया था, अलबत्ता अब भी वह एक टीला या उभरी हुई जमीन की शक्ल में मौजूद था। यही वह जगह है, जिसको अल्लाह की वस्य ने इब्राहीम अलैहि सलाम को बताया और उन्होंने इस्माईल अलैहि सलाम की मदद से उसको खोदना शुरू किया तो पिछली तामीर की बुनियादें नज़र आने लगीं। इन्हीं बुनियादों पर बैतुल्लाह की तामीर की गई, अलबत्ता कुरआन पाक में पिछली हालत का कोई तज़किरा नहीं है।
दूसरी तरफ़ यह हक़ीक़त है कि इस तामीर से पहले तमाम कायनात और दुनिया के कोने-कोने में बुतों और सितारों की पूजा के लिए हैकल और मन्दिर मौजूद थे, पर इन सबके उलट सिर्फ एक ख़ुदा की परस्तिश और उसकी यकताई के इकरार में सरे नियाज़ झुकाने के लिए दुनिया के बुतकदों में पहला घर जो ख़ुदा का घर कहलाया, वह यही बैतुल्लाह है।
तर्जुमा – ‘बेशक सबसे पहला यह घर जो लोगों के लिए अल्लाह की याद के लिए बनाया गया, अलबत्ता वह है जो मक्का में है, वह है सर से पैर तक बरकत और दुनिया वालों के लिए हिदायतों (का सर चश्मा)। [आले इमरान 3:96]
इसी तामीर को यह शरफ हासिल है कि इब्राहीम जैसा जलीलल कर पैग़म्बर उसका मेमार है और इस्माईल जैसा नबी व जबीह उसका मजदूर बाप-बेटे बराबर उसकी तामीर में लगे हुए हैं और जब उसकी दीवारें ऊपर उठती हैं और बुजुर्ग बाप का हाथ ऊपर तामीर करने से माजूर हो जाता है तो कुदरत की हिदायत के मुताबिक एक पत्थर को बाड़ बनाया जाता है, जिसको इस्माईल अलैहि सलाम अपने हाथ से सहारा देते और इब्राहीम अलैहि सलाम उस पर तामीर करते जाते हैं। यही वह यादगार है जो ‘मकामे इब्राहीम‘ से जाना जाता है। जब तामीर इस हद पर पहुंची, जहां आज हजरे अस्वद नसब है तो जिब्रील अमीन ने उनकी रहनुमाई की और हजरे अस्वद को उनके सामने एक पहाड़ी से महफूज निकाल कर दिया, जिसको जन्नत का लाया हुआ पत्थर कहा जाता है, ताकि वह नसब कर दिया जाए।
अल्लाह का घर तामीर हो गया तो अल्लाह तआला ने इब्राहीम अलैहि सलाम को बताया कि यह मिल्लते इब्राहीमी के लिए (किबला) और हमारे सामने झुकने का निशान है, इसलिए यह तौहीद का मर्कज़ करार दिया जाता है। तब इब्राहीम व इस्माईल अलैहि सलाम ने दुआ मांगी कि अल्लाह तआला उनको और उनकी जुर्रियत (आल औलाद) को नमाज़ और जकात कायम करने की हिदायत दे और इस्तिकामत बरते और उनके लिए फलों, मेवों और रिज़क में बरकत दे और दुनिया के कोने कोने में बसने वाले गिरोह में से हिदायत पाए हुए गिरोह को इस तरफ़ मुतवजह करे कि वे दूर-दूर से आएं और हज के मनासिक अदा करें और हिदायत व रुश्द के इस मर्कज में जमा होकर अपनी जिंदगी की सआदतों से दामन भरें।
कुरआन मजीद ने बैतुल्लाह की तामीर, तामीर के वक्त इब्राहीम व इस्माईल की मुनाजात, नमाज कायम करने और हज की रस्मों को अदा करने के लिए शौक़ व तमन्ना के इजहार और बैतुल्लाह के तौहीद का मर्कज होने के एलान का जगह-जगह जिक्र किया है और नए-नए उस्लूब और तर्जे अदा से उसकी अज़्मत और जलालत व जबरूत को सूरः आलेइमरान 3:79, अल-बकरः 2 : 125-129 और अल-हज्ज 22: 26-33, 36:37 में वाजेह फ़रमाया है।
कुरआन में हज़रत इस्माईल का तज्किरा:
हज़रत इस्माईल अलैहि सलाम का जिक्र कुरआन मजीद में कई बार हुआ है। सूरः मरयम में उनके नाम के साथ उनके औसाफ़े जमीला का भी जिक्र किया गया है।
तर्जुमा – और याद कर किताब में इस्माईल का जिक्र था, वह वायदे का सच्चा था और था नबी और हुक्म करता था अपने आल को नमाज़ का और जकात का और था अपने परवरदिगार के नजदीक पसन्दीदा। [मरयम 19:54]
हज़रत इस्माईल की वफ़ात:
हज़रत इस्माईल अलैहि सलाम की उम्र जब एक सौ छत्तीस साल की हुई, तो उनका इंतिक़ाल हो गया, तारीखी रिवायात के मुताबिक़ हज़रत इस्माईल अलैहि सलाम की वफ़ात फलस्तीन में हुई और फ़लस्तीन ही में उनकी क़ब्र बनी। अरब तारीख के माहिरों के मुताबिक वह और उनकी वालिदा हाजरा बैतुल्लाह के क़रीब हरम के अन्दर दफ़न हैं। वल्लाहु आलम।
इंशा अल्लाह अगली पोस्ट में हम हजरत इसहाक अलैहि सलाम का जिक्र करेंगे।
To be continued …
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