हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम (भाग: 4)

      पिछली पार्ट ३ में हमने देखा ‘इब्राहिम अलैहिस्सलाम का बादशाह को इस्लाम की दावत‘ और आपको सजा के लिए तैयार की हुई ‘आग का ठंडा हो जाना‘। आईये इस पोस्ट में ‘इब्राहिम अलैहिस्सलाम की हिजरत, हाजरा (र.) की मुख़्तसर सीरत और परिंदो के जिन्दा होने वाले इबरतनाक वाकिये‘ पर गौर करते है।

किलदानीयीन की ओर हिजरत:

      बहरहाल हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपने बाप आज़र और क़ौम से जुदा होकर फरात के पच्छिमी किनारे के क़रीब एक बस्ती में चले गए जो आज किलदानीयीन के नाम से मशहूर है। यहां कुछ दिनों कियाम किया और हज़रत लूत अलैहिस्सलाम और हजरत सारा दोनों सफ़र में साथ रहे।  कुछ दिनों के बाद यहां से ‘हरान’ या ‘हारान’ की ओर चले गए और वहां ‘दीने इस्लाम‘ की तब्लीग शुरू कर दी, मगर इस मुद्दत में बराबर अपने बाप आजर के लिए बारगाहे इलाही में इस्तगफार करते और उसकी हिदायत के लिए दुआ मांगते रहे और यह कछ इसलिए किया कि वे निहायत दिल के नर्म, रहीम और बहुत ही नरम दिल और बुर्दबार थे।

      इसलिए आजर की ओर से हर किस्म की अदावत के मुजहरो के बावजूद उन्होंने आज़र से यह वायदा किया था कि अगरचे मैं तुझसे जुदा हो रहा हूं और अफ़सोस कि तूने अल्लाह की रुश्द व हिदायत पर तवज्जो न की, फिर भी मैं बराबर तेरे हक्क में अल्लाह की मगफिरत की दुआ करता रहूंगा। आखिरकार हज़रत इब्राहीम को अल्लाह की वह्य ने मुत्तला किया कि आज़र ईमान लाने वाला नहीं है और यह उन्हीं लोगों में से है जिन्होंने अपनी नेक इस्तेदाद को फ़ना करके खुद को उसका मिस्दाक़ बना लिया।

      अल्लाह ने मोहर लगा दी उनके दिलों पर और उनके कानों पर और उनकी आंखों पर परदा है।  अल-बक़रह 2:7

      हज़रत इब्राहीम को जब यह मालूम हो गया तो आपने आज़र से अपने अलग होने का साफ़ एलान कर दिया।

फ़लस्तीन की ओर हिजरत:

      हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम इस तरह तब्लीग़ करते-करते फ़लस्तीन पहुंचे। इस सफ़र में भी उनके साथ हजरत सारा, हज़रत लूत अलैहिस्सलाम और लूत की बीवी थीं। हज़रत इब्राहीम फलस्तीन के पच्छिमी हिस्से में ठहरे, उस ज़माने में यह इलाका कन्आनियों के इख़्तेदार में था, फिर करीब ही शीकम (नाबलस) में चले गए और वहां कुछ दिनों ठहरे रहे, इसके बाद यहां भी ज्यादा दिनों कियाम नहीं फ़रमाया और मगरिब की तरफ़ ही बढ़ते चले गए, यहां तक कि मिस्र तक जा पहुंचे।

हजरत हाजरा रजि० की मुख़्तसर सीरत:

      तमाम रिवायतों से इस कदर यकीनी मालूम होता है कि हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम से अपनी बीवी सारा और अपने भतीजे हजरत लूत अलैहिस्सलाम के साथ मिस्र तशरीफ़ ले गए। यह वह जमाना है जबकि मिस्र की हुकूमत ऐसे खानदान के हाथ में थी जो सामी नौम से ताल्लुक रखता था और इस तरह हज़रत इब्राहीम से नसबी सिलसिले में वाबस्ता था। यहां पहुंच कर इब्राहीम और मिस्र के फ़िरऔन के दर्मियान जरूर कोई ऐसा वाक़िया पेश आया जिससे उसको यकीन हो गया कि इब्राहीम और उसका ख़ानदान ख़ुदा का मतबल और बरगजीदा खानदान है।

      यह देखकर उसने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम और उनकी बीवी हज़रत सारा का बहुत एजाज़ किया और उनको हर किस्म के माल व मता से नवाजा और सिर्फ इसी पर इक्तिफ़ा नहीं किया बल्कि अपने क़दीम खानदानी रिश्ते को मजबूत और मुस्तहकम करने के लिए अपनी बेटी हाजरा को भी उनसे ब्याह में दे दिया, जो उस जमाने में रस्म व रिवाज के एतबार से पहली और बड़ी बीवी की खिदमतगुज़ार करार पाई। चुनांचे यहूदियों की एतबार वाली रिवायत के मुताबिक़ हज़रत हाजरा ‘शाहे मिन’ फ़िरऔन की बेटी थीं, लौंडी और बांदी नहीं थीं। तौरात का एक एतबार वाला मुफस्सिर बी सलूमलू इस्हाक किताबे में लिखता है:

      जब उसने (रक्कयून शाहे मिस्र ने) सारा की वजह से करामतों को देखा तो कहाः मेरी बेटी का इस घर में लौंडी होकर रहना दूसरे घर में मलका होकर रहने से बेहतर है। अरजुल कुरआन, भाग 2, पृ० 41

      दूसरे अरबी भाषा में हाजरा के मानी के लिहाज़ से क्रियास के करीब ज़्यादा यही है कि चूंकि यह अपने वतन मिस्र से जुदा होकर या हिजरत करके हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की शरीके हयात और हज़रत सारा की खिदमत गुजार बनीं, इसलिए हाजरा कहलाईं और तौरात में हाजरा को सिर्फ इसीलिए लौंडी कहा गया कि शाहे मिस्र ने उनको सारा और हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के सुपुर्द करते हुए यह कहा था कि वह सारा की खिदमत गुज़ार रहेगी, रद मतलब न था कि वह लौंडी (‘जारिया’ के मानी में) हैं।

परिंदो का ज़िंदा होने वाला इबरतनाक वाकिया:

      हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की जिंदगी के कुछ वाकिए उनके बेटों हज़रत इस्माईल और हजरत इसहाक़ से जुड़े हुए हैं। मुनासिब समझा गया कि इन वाकियों को उन दोनों नबियों के हालात में ही बयान किया जाए। यही हाल उन वाकियों का है जिनका ताल्लुक़ उनके भतीजे हजरत लूत अलैहिस्सलाम से है, अलबत्ता ‘हयात बादल ममात’ (मरने के बाद की जिंदगी) से मुताल्लिक़ वाकिया यहां बयान किया जाता है।

      हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को चीज्ञों की हक़ीक़त मालूम करने की तलाश और तलब का तबई जौक था और वह हर चीज़ की हक़ीक़त तक पहुंचने की कोशिश को अपनी जिंदगी का खास मक्सद समझते थे, ताकि उनके जरिए एक ही ज़ात (अल्लाह जल्न जलालुहू) की, हस्ती, उसके एक होने और उसकी मुकम्मल कुदरत के बारे में इल्मुल यकीन (यकीन की हद तक इल्म) के बाद हक्कुल यक़ीन (यक़ीन ही हक़) हासिल कर लें, इसलिए हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने ‘हयात बादल ममात’ यानी मर जाने के बाद जी उठने से मुताल्लिक़ अल्लाह तआला से यह सवाल किया कि वह किस तरह ऐसा करेगा?

      अल्लाह तआला ने इब्राहीम से फ़रमाया, ‘ऐ इब्राहीम! क्या तुम इस मस्अले पर यक़ीन और ईमान नहीं रखते?’
      इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने फ़ौरन जवाब दिया क्यों नहीं? मैं बिना किसी संकोच के इस पर ईमान रखता हूं, लेकिन मेरा यह सवाल ईमान व यक़ीन के खिलाफ इसलिए नहीं है कि मैं इल्मुल-यक़ीन के साथ-साथ ऐनुल-यकीन और हक्कुल यकीन (अगर किसी मसअले के बारे में दलील व बुरहान के जरिए ऐसा इल्म हासिल हो जाए कि शक व शुबहा जाता रहे तो इस कैफियत को इल्मुल यक़ीन कहा जाता है और इसका दूसरा दर्जा यह है कि इस इल्म के मुशाहदों और महसूसात से भी तौसीक़ हो जाए, तो उसको ऐनुल-यक़ीन का जाता है। इसके बाद तीसरा और आखिरी दर्जा हल्कुल-यकीन का है। यह वह कैफियत है, जब इस मसूअले से मुताल्लिक़ तमाम हक़ीक़तें वाजेह हो जाती हैं और आगे जुस्तजू की ख्वाहिश बाक़ी नहीं रहती) का ख्वास्तगार हूं। मेरी तमन्ना यह है कि तू मुझको आंखों से मुशाहदा करा दे कि ‘मौत के बाद की जिंदगी‘ की क्या शक्ल होगी?

      तब अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि –
      ‘अच्छा, अगर तुमको उसके मुशाहद की तलब है तो कुछ परिंदे लो और उनके टुकड़े-टुकड़े करके सामने वाले पहाड़ पर डाल दो और फिर फ़ासले पर खड़े होकर उनको पुकारो।’

      हज़रत इब्राहीम ने ऐसा ही किया। जब इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने उनको आवाज़ दी तो उन सबके टुकड़े अलग-अलग होकर फ़ौरन अपनी-अपनी शक्ल पर आ गए और जिंदा होकर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के पास उड़ते हुए चले आए। यह वाकिया, सूरः बक़रः की आयत 260 में बयान हुआ है।

हज़रत इब्राहीम की औलाद और उम्र:

      हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के बड़े बेटे हज़रत इस्माईल की विलादत के वक़्त उनकी उम्र सत्तासी (87) साल थी और दूसरे बेटे हज़रत इस्हाक़ की विलादत के वक्त उनकी उम्र पूरे सौ साल थी। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने हज़रत सारा और हज़रत हाजरा के अलावा एक और शादी की, जिनसे उनके यहां छह बेटे हुए। उनकी नस्ल अपनी मां के नाम पर बनी कतूरा कहलाई।

      हज़रत इब्राहीम की कुल उम्र एक सौ पचहत्तर साल हुई। वह हबरून (यरूशलम के करीब एक जगह) में मदफून (दफ़न किए गए) हैं।

      इंशा अल्लाह अगले पोस्ट में हम हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम का ज़िक्र करेंगे।

To be continued …