पिछली पोस्ट (भाग 2) में हमने देखा हज़रत इब्राहीम अलैहि सलाम ने बुतपरस्त कौम को नसीहत के लिए बूतों से बगावत की, अब इस पोस्ट (भाग: 3) में गौर करेंगे ‘इब्राहिम अलैहि सलाम की बादशाह को इस्लाम की दावत‘ और आपको सजा के लिए तैयार की हुई ‘आग का ठंडा हो जाना‘।
बादशाह को इस्लाम की दावत और उसका मुनाज़रा:
अभी ये मशवरे हो ही रहे थे कि थोड़ा-थोड़ा करके ये बातें वक़्त के बादशाह तक पहुंच गई, उस जमाने में इराक के बादशाह का लक़ब नमरूद होता था और ये पब्लिक के सिर्फ बादशाह ही नहीं होते थे, बल्कि खुद को उनका रब और मालिक मानते थे और पब्लिक भी दूसरे देवताओं की तरह उसको अपना ख़ुदा और माबूद मानती और उसकी इस तरह पूजा करती थी, जिस तरह देवताओं की, बल्कि उनसे भी पास व अदब के साथ पेश आती थी, इसलिए कि वह अक्ल व शऊर वाला भी होता था और ताज व तख़्त का मालिक भी।
…… नमरूद को जब यह मालूम हुआ तो आपे से बाहर हो गया और सोचने लगा कि उस आदमी की पैग़म्बराना दावत व तब्लीग की सरगर्मियां अगर इसी तरह जारी रहीं तो यह मेरे मालिक होने, रब होने, बादशाह होने और अल्लाह होने से भी सब पब्लिक को दूर कर देगा और इस तरह बाप-दादा के मजहब के साथ-साथ मेरी यह हुकूमत भी गिर जाएगी, इसलिए इस किस्से का शुरू ही में ख़त्म कर देना बेहतर है।
यह सोचकर उसने हुक्म दिया कि इब्राहीम को हमारे दरबार में हाजिर करो। इब्राहीम अलैहि सलाम से मालूम किया कि तू बाप-दादा के दीन की मुखालफ़त किस लिए करता है और मुझको रब मानने से तुझे क्यों इंकार है?
…… इब्राहीम अलैहि सलाम ने कहा कि “मैं एक अल्लाह को मानने वाला हूँ, उसके अलावा किसी को उसका शरीक नहीं मानता। सारी कायनात और तमाम आलम उसी की मख्लूख हैं और वही इन सबका पैदा करने वाला और मालिक है। तू भी उसी तरह एक इंसान है, जिस तरह हम सब इंसान हैं, फिर तू किस तरह रब या ख़ुदा हो सकता है और किस तरह ये गूंगे-बहरे लकड़ी के बूत खुदा हो सकते हैं? मैं सही राह पर हूं और तुम सब ग़लत राह पर हो, इसलिए मैं हक़ की तब्लीग़ को किस तरह छोड़ सकता हूं और तुम्हारे बाप-दादा के अपने गढ़े हुए दीन को कैसे इख्तियार कर सकता हूं?”
नमरूद ने इब्राहीम अलैहि सलाम से मालूम किया कि अगर मेरे अलावा तेरा कोई रब है तो उसकी ऐसी खूबी बयान कर कि जिसकी कुदरत मुझमें न हो?
…… तब इब्राहीम अलैहि सलाम ने फ़रमाया, ‘मेरा रब वह है जिसके कब्जे में मौत व हयात है, वही मौत देता है और वही जिंदगी बनाता है।’ टेढ़ी समझ वाला नमरूद, मौत व हयात की हक़ीक़त से ना आशना कहने लगा, इस तरह मौत और जिंदगी तो मेरे क़ब्जे में भी है और यह कहकर उसी वक़्त एक बेकसूर आदमी के बारे में जल्लाद को हुक्म दिया कि उसकी गरदन मार दो और मौत के घाट उतार दो। जल्लाद ने फ़ौरन हुक्म पूरा किया और क़त्ल की सजा पाये हुए मुनिम को जेल से बुलाकर हुक्म दिया कि जाओ हमने तुम्हारी जान बख्शी की और फिर इब्राहीम की तरफ़ मुतवज्जह होकर कहने लगा- देखा, मैं भी किस तरह जिंदगी बख्शता और मौत देता हूं, फिर तेरे अल्लाह की ख़ास बात क्या रही?
…… इब्राहीम अलैहि सलाम समझ गए कि नमरूद या तो मौत और जिंदगी की असल हक़ीक़त नहीं जानता और या लागों और पब्लिक को ग़लतफ़हमी में डाल देना चाहता है, ताकि वे इस फ़र्क को समझ न सकें कि जिंदगी बख़्शना इसका नाम नहीं है बल्कि न से हां करने का नाम जिंदगी बख्शना है। और इसी तरह किसी को क़त्ल या फांसी से बचा लेना मौत का मालिक होना नहीं है। मौत का मालिक वही है जो इंसानी रूह को उसके जिस्म से निकाल कर अपने कब्जे में कर लेता है, इसलिए बहुत से फांसी की सजा पाए हुए और तलवार की जद में आए हुए लोग जिंदगी पा जाते हैं और बहुत से कल व फांसी से बचाए हुए इंसान मौत के घाट चढ़ जाते हैं और कोई ताक़त उनको रोक नहीं सकती और अगर ऐसा हो सकता तो इब्राहीम अलैहि सलाम से बातें करने वाला नमरूद गद्दी पर न बैठा होता, बल्कि उसके खानदान का पहला आदमी ही आज भी उस ताज व तख्त का मालिक नज़र आता, मगर न मालूम कि इराक के इस राज्य के कितने दावेदार जमीन के अन्दर दफ़न हो चुके हैं और अभी कितनों की बारी है।
…… फिर भी इब्राहीम अलैहि सलाम ने सोचा कि अगर मैंने इस मौके पर मौत और जिंदगी के बारीक फ़लसफ़े पर बहस शुरू कर दी, तो नमरूद का मक्सद पूरा हो जाएगा और लोगों को गलत रुख पर डालकर असल मामले को उलझा देगा और इस तरह मेरा नेक मक्सद पूरा न हो सकेगा और हक़ की तब्लीग के सिलसिले में भरी मफिल में नमरूद को लाजवाब करने का मौक़ा हाथ से जाता रहेगा, क्योंकि बहस व मुबाहसा और जदल व मुनाज़रा मेरा असल मक्सद नहीं है, बल्कि लोगों के दिल व दिमाग में एक अल्लाह का यक़ीन पैदा करना मेरा एक ही मक्सद है, इसलिए उन्होंने इस दलील को नज़रंदाज़ करके समझाने का एक दूसरा तरीका अपनाया और ऐसी दलील पेश की, जिसे सुबह व शाम हर आदमी आंखों से देखता और बगैर किसी मंतकी दलील के दिन व रात की जिंदगी में उससे दोचार होता रहता है।
इब्राहीम अलैहि सलाम ने फ़रमाया: में उस हस्ती को ‘अल्लाह’ कहता हूं जो हर दिन सूरज को पूरब से लाता और मग़रिब की तरफ़ ले जाता है, पस अगर तू भी इसी तरह खुदाई का दावा करता है, तो इसके खिलाफ़ सूरज को मगरिब से निकाल और मशरिक में छिपा। यह सुनकर नमरूद घबरा गया और उससे कोई जबाव न बन पड़ा और इस तरह इब्राहीम अलैहि सलाम की जुबान से नमरूद पर अल्लाह की हुज्जत पूरी हुई।
…… नमरूद इस दलील से घबराया क्यों और उसके पास इसके मुकाबले में ग़लत समझने की गुंजाइश क्यों न रही? यह इसलिए कि इब्राहीम अलैहि सलाम की दलील का हासिल यह था कि मैं एक ऐसी हस्ती को अल्लाह मानता हूं, जिसके बारे में मेरा अक़ीदा यह है कि यह सारी कायनात और इसका सारा निजाम उस ही ने बनाया है और उसने इस पूरे निजाम को अपनी हिक्मत के कानून में ऐसा कस दिया है कि उसकी कोई चीज़ मुक़र्रर जगह से पहले अपनी जगह से हट नहीं सकती है और न इधर-उधर हो सकती है। तुम इस पूरे निजाम में से सूरज ही को देखो कि दुनिया उससे कितने फायदे हासिल करती है। साथ ही अल्लाह ने उसके निकलने और डूबने का भी एक निजाम मुक़र्रर कर दिया है, पस अगर सूरज लाख बार भी चाहे कि वह इस निजाम से बाहर हो जाए तो इस पर उसे कुदरत नहीं है, क्योंकि उसकी बागडोर एक अल्लाह की कुदरत के कब्जे में है और उसको बेशक यह कुदरत है कि जो चाहे कर गुज़रे, लेकिन वह करता वही है जो उसकी हिक्मत का तकाज़ा है।
…… इसलिए अब नमरुद के लिए तीन ही शक्लें जवाब देने की हो सकती थीं, या वह यह कहे कि मुझे सूरज पर पूरी कुदरत हासिल है और मैंने भी यह सारा निज़ाम बनाया है, मगर उसने यह जवाब इसलिए नहीं दिया कि वह खुद इसका कायल नहीं था कि यह सारी कायनात उसने बनाई है और सूरज की हरकत उसकी कुदरत के कब्जे में है, बल्कि वह तो खुद को अपनी रियाया का रब और देवता कहलाता था और बस।
…… दूसरी शक्ल यह थी कि वह कहता, “मैं इस दुनिया को किसी की पैदा की हुई नहीं मानता और सूरज तो मुस्तकिल ख़ुद देवता है, उसके अख्तियार में खुद बहुत कुछ है, मगर उसने यह भी इसलिए न कहा कि अगर वह ऐसा कहता, तो इब्राहीम अलैहि सलाम का वही एतराज सामने आ जाता जो उन्होंने सबके सामने सूरज के रब होने के खिलाफ़ उठाया था कि अगर वह ‘रब’ है तो इबादत करने वालों और पुजारियों से ज़्यादा इस माबूद और देवता में तब्दीलियां और फना के असरात क्यों मौजूद हैं?’ ‘रब’ को फना और तब्दीली से क्या वास्ता? और क्या उसकी कुदरत में यह है कि अगर वह चाहे तो मुकर्रर क्फ्त से पहले या बाद निकले या डूब जाए?
…… तीसरी शक्ल यह थी कि इब्राहीम अलैहि सलाम के चैलेंज को कुबूल कर लेता और मगरिब से निकाल कर दिखा देता, मगर नमरूद चूंकि इन तीनों शक्लों में से किसी शक्ल में जवाब देने की कुदरत न रखता था, इसलिए परेशान और लाजवाब हो जाने के अलाया उसके पास कोई दूसरा रास्ता ही नहीं बचा।
…… ग़रज़ हज़रत इब्राहीम अलैहि सलाम ने सबसे पहले अपने वालिद आजर से इस्लाम के सिलसिले की बात कही, हक्क का पैग़ाम सुनाया और सीधा रास्ता दिखलाया। इसके बाद आम लोग और सब लोगों के सामने हक को मान लेने के लिए फ़ितरत के बेहतरीन उसूल और दलील पेश किए, नर्मी से, मीठी बातों से मगर मज़बूत और रोशन हुज्जत व दलील के साथ उन पर हक्क को वाजेह किया और सबसे आखिर में बादशाह नमरूद से मुनाजरा किया और उस पर रोशन कर दिया कि रब होने और माबूद होने का हक सिर्फ एक अल्लाह ही के लिए सबसे मुनासिब है और बड़े-से-बड़े शहंशाह को भी यह हक नहीं है कि वह उसकी बराबरी का दावा करे, क्योंकि वह और कुल दुनिया उसी की मख्लूख है और वजूद व अदम के कैद व बन्द में गिरफ्तार, मगर इसके बावजूद कि बादशाह, आजर और आम लोग, हज़रत इब्राहीम अलैहि सलाम की दलीलों से लाजवाब होते और दिलों में कायल, बल्कि बुतों के वाकिए में तो जुबान से इक़रार करना पड़ा कि इब्राहीम अलैहि सलाम जो कुछ कहता है, वही हक्क है और सही व दुरुस्त, फिर भी उनमें से किसी ने सीधे रास्ते को न अपनाया और हक़ कुबूल करने से बचते रहे और इतना ही नहीं, बल्कि इसके ख़िलाफ़ अपनी नदामत्त और जिल्लत से मुतास्सिर होकर बहुत ज़्यादा ग़ैज़ व ग़ज़ब में आ गए और बादशाह से रियाया तक सब ने एक होकर फैसला कर लिया कि देवताओं की तौहीन और बाप-दादा के दीन की मुखालफ़त में इब्राहीम को देहकती आग में जला देना चाहिए, क्योंकि ऐसे सख़्त मुज़रिम की सजा यही हो सकती है और देवताओं को हकीर समझने का बदला इसी तरह लिया जा सकता है।
आग का ठंडा हो जाना:
इस मरहले पर पहुंच कर इब्राहीम अलैहि सलाम की जद्दोजेहद का मामला खुला हो गया और अब दलीलों की ताकत के मुकाबले में माद्दी ताक़त व सतवत ने मुजाहरा शुरू कर दिया, बाप उसका दुश्मन, लोग उसके मुखालिफ़ और वक्त का बादशाह उसे परेशान करने को तैयार, एक हस्ती और चारों ओर मुखालफत की आवाज, दुश्मनी के नारे और नफ़रत व हकारत के साथ का बदला और ख़ौफ़नाक सजा के इरादे, ऐसे वक्त में उसकी मदद कौन करे और उसकी हिमायत का सामान कैसे जुटे?
…… मगर इब्राहीम अलैहि सलाम को न इसकी परवाह थी और न उसका इर। वह इसी तरह बे-ख़ौफ़ व ख़तर और मलामत करने वालों की मलामत से बेनियाज़, हक के एलान में मस्त और रुश्द व हिदायत की दावत में लगे हुए थे। अलबत्ता ऐसे नाजुक वक्त में जब तमाम माद्दी सहारे खत्म, दुनियावी असबाब नापैद और हिमायत व नुसरत के जाहिरी अस्वाब मफ्कूद हो चुके थे, इब्राहीम अलैहि सलाम को उस वक्त भी एक ऐसा बड़ा जबरदस्त सहारा मौजूद था, जिसको तमाम सहारों का सहारा और तमाम मददों का मदद करने वाला कहा जाता है और वह एक अल्लाह का सहारा था। उसने अपने जलीलुल क़द्र पैग़म्बर, कौम के बड़े दर्जे के हादी और रहनुमा को बे-यार व मददगार न रहने दिया और दुश्मनों के तमाम मंसूबों को ख़ाक में मिला दिया।
…… हुआ यह कि नमरूद और कौम ने इब्राहीम अलैहि सलाम की सजा के लिए एक मखसूस जगह पर कई दिन लगातार आग धहकाई यहां तक कि उसके शोलों से आस-पास की चीजें तक झुलसने लगीं। जब इस तरह बादशाह और क़ौम को पूरा इत्मीनान हो गया कि अब इब्राहीम के इससे बच निकलने की कोई शक्ल बाक्री नहीं रही, तब एक गोफन में इब्राहीम अलैहि सलाम को बिठा कर दहकती हुई आग में फेंक दिया गया।
….. उस वक़्त आग में जलाने की तासीर बख्शने वाले (अल्लाह) ने आग को हुक्म दिया कि वह इब्राहीम अलैहि सलाम पर अपने जलाने का असर न करे। नारी होते हुए और (आग के) अनासिर का मज्मूआ होते हुए भी उसके हक में सलामती के साथ सर्द पड़ जाए।
….. आग उसी वक्त हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम के हक में ‘बरदंव-व सलामा‘ बन गई और दुश्मन उनको किसी किस्म का नुक्सान न पहुंचा सके और इब्राहीम अलैहि सलाम दहकती आग में सालिम व महफूज दुश्मनों के नरगे से निकल गए।
मुख्तसर यह कि बदबख्त कौम ने कुछ न सुना और किसी भी तरह रुश्द व हिदायत को कुबूल न किया और इब्राहीम अलैहि सलाम की बीवी हज़रत सारा और उनके बिरादरजादा हज़रत लूत अलैहि सलाम के अलावा कोई एक भी ईमान नहीं लाया। तमाम कौम ने हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम को जला देने का फैसला कर लिया और दहकती आग में डाल दिया, लेकिन अल्लाह तआला ने दुश्मनों के इरादों को ज़लील व रुसका कर के हजरत इब्राहीम के हक़ में आग को ‘बरदंब व सलामा‘ बना दिया, तो अब हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम ने इरादा किया कि किसी दूसरी जगह जा कर पैग़ामे इलाही सुनाएं और हक़ की दावत पहुंचाएं और यह सोचकर ‘फ़िदान’ आराम से हिजरत का इरादा कर लिया।
तर्जुमा: ‘और इब्राहीम ने कहा, मैं जाने वाला हूं अपने परवरदिगार की तरफ, करीब ही वह मेरी रहनुमाई करेगा।’ [अस्साफ्फात 37:99]
यानी अब मुझे किसी ऐसी आबादी में हिजरत करके चला जाना चाहिए, जहां अल्लाह की आवाज़ हक़ पसन्द कान से सुनी जाए, अल्लाह की ज़मीन तंग नहीं है, यह नहीं और सही, मेरा काम पहुंचाना है, ‘अल्लाह अपने दीन की इशाअत का सामान ख़ुद पैदा कर देगा।
इंशाअल्लाह! अगली पोस्ट (भाग: 4) में हम हजरते इब्राहीम अलैहि सलाम का किलदानीयीन की ओर हिजरत, हाजरा (र.) की मुख़्तसर सीरत और परिंदो के इबरतनाक वाकिये पर गौर करेंगे।
To be continued …
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