हजरत मूसा अलैहि सलाम (भाग: 12)

हज़रत मूसा (अ.स.) और बनी इसराईल का ईज़ा पहुंचाना:

      पीछे के पार्ट्स में जिन वाक़ियों का ज़िक्र किया गया है उनसे यह बात साफ़ हो चुकी है कि बनी इसराईल ने हज़रत मूसा (अ.स.) को क़ौल और अमल दोनों तरीकों से बड़ी तक्लीफें पहुंचाईं, यहां तक कि बुहतान लगाने और तोहमत गढ़ने से भी बाज़ नहीं रहे, लेकिन क़ुरआन मजीद ने इन वाकियों के अलावा, जिनका ज़िक्र पीछे के पन्नों में हो चुका है, सूरः अहज़ाब और सूरः सफ़्फ़ में हज़रत मूसा (अ.स.) के साथ बनी इसराईल के तकलीफ पहुंचाने पर निंदा करते हुए कहा है।

      ऐ ईमान वालो! तुम उन बनी इसराईल की तरह न बनो, जिन्होंने मूसा को तकलीफ़ पहुंचाई। अल-अहजाब 69

      और जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि ऐ कौम! तू किस लिए मुझको तकलीफ़ पहुंचाती है, जबकि तुझको मालूम है कि मैं तुम्हारी ओर अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूं। अस सफ्फ 61:5

      इस बारे में बहस की गई है कि यहां जिस तकलीफ का ज़िक्र किया गया है, क्या उससे वही हालात मुराद हैं जो बनी इसराईल की सरकशी से मुताल्लिक हैं या उनके अलावा किसी ख़ास वाकिए की ओर इशारा है। 

      इस बहस में सही मस्लक यह है कि जब कुरआन ने हज़रत मूसा अलै० से मुताल्लिक तकलीफ़ के वाकिए को मुज्मल बयान किया है तो हमारे लिए भी यही मुनासिब है कि उसको किसी वाकिए से मुताल्लिक़ न करें और जिस हिक्मत व मस्लहत की वजह से अल्लाह ने उसको मुज्मल रखना मुनासिब समझा, हम भी उसी को काफ़ी समझें।

हज़रत मूसा की नुबूवत के ज़माने से मुताल्लिक दूसरे मामले

फ़िरऔन नई तहक़ीक़ की रोशनी में:

      मिस्री दारुल आसार के चित्रकार (मुसव्विर) और असरी और हजरी (पत्थरों और खंडरात के) नामी आलिम अहमद यूसुफ़ आफंदी की खोज का ख़ुलासा यह है कि यूसुफ़ जब मिस्र में दाखिल हुए हैं तो यह फ़िरऔन के सोलहवें ख़ानदान का जमाना था और उस फ़िरऔन का नाम ‘अबाबिल अब्बल’ था और जिस फ़िरऔन ने बनी इसराईल को मुसीबतों में डाला वह रामीसीस सेकंड (Ramesses II) हो सकता है। 

      यह मिस्र के हुक्मरानों का उन्तीसवां ख़ानदान था। हज़रत मूसा (अ.स.) उसके ज़माने में पैदा हुए और उनकी गोद में पले-बढ़े। रामीसीस सेकेंड ने इस डर से कि बनी इसराईल का यह शानदार कबीला, जो लाखों इंसानों पर मुश्तमिल था, अन्दरूनी बगावत पर उत्तर न आए, बनी इसराईल को मुसीबतों में मुब्तला करना ज़रूरी नहीं समझा, जिनका ज़िक्र तौरात और कुरआने हकीम में किया गया है।

      रामसीस सेकेंड ने अपने बुढ़ापे के ज़माने में अपने बेटे मरनिफ़ताह (Marineflah) को हुकूमत में शरीक कर लिया था, इसलिए मरनिफ़ताह ही वह फ़िरऔन हो सकता है जो नदी में डूबा। इस नतीजे की ताईद इससे होती हैं कि मिस्री दस्तूर के मुताबिक़ मरनिफ़ताह का अलग से मनबरा नहीं, बल्कि वह अठारहवीं खानदान के फ़िरऔन के मक़बरे में दफ़न किया गया।

समद्र से मिले फिरौन की लाश | रामसेस २
समद्र से मिले फिरौन की लाश | रामसेस २

      मिश्री अजाइबघरों में एक लाश आज भी महफूज़ है और मुहम्मद अददी की किताब ‘दवातुर्रसूल इलल्लाही’ के मुताबीक इस लाश की नाक के सामने का हिस्सा नहीं है। ऐसा मालूम होता है कि शायद दरियाई मछली ने खराब किया है और फिर उसकी लाश अल्लाह के फैसले के मुताबिक किनारे पर फेंक दी गई, ताकि – वह मेरे बाद आने वालों के लिए (अल्लाह का) निशान रहे। सूरह यूनुस 10:92

मोरिस बकाईए (Maurice Bucaille) का फ़ैसला करने वाला कौल:

      फ़िरऔन के ग़र्क हो जाने का वाक़िया बहुत से पुराने और नए तहकीक़ करने वालों के लिए बहस का मौजू बना रहा और अब तक बना हुआ है, बहुत सी किताबें लिखी जा चुकी हैं और लिखी जा रही हैं लेकिन ये सब उस वाक़िये की तारीख़ी और जुगराफ़ियाई (ऐतिहासिक और भौगोलिक) हैसियत पर ज़ोर देती हैं। 

      इस बारे में मोरिस बकाईए (Maurice Bucaille) मशहूर व मारूफ फ्रांसीसी मुसन्निफ़ (लेखक) ने अपनी किताब बाइबिल, कुरआन और सांइस (Bible, Quran and Science) में तफ्सीली बहस की है, जो देखने-पढ़ने वाले और ज़्यादा मालूमात के ख्वाहिशमंद हों, वे उस किताब से जिसका उर्दू तर्जुमा भी हो चुका है, रुजू कर सकते हैं। हम यहां सिर्फ कुछ बातें बयान करेंगे –

  • 1. हज़रत मूसा (अ.स.) रामीसिस सेकेंड के ज़माने में पैदा हुए और उसके यहां उन्होंने परवरिश पाई।
  • 2. रामीसिस सेकेंड का इंतिक़ाल हज़रत मूसा (अ.स.) के मदयन में ठहरने के ज़माने में हो गया।
  • 3. रामीसिस सेकेंड के बाद उसका बेटा मरनिफ़्ताह तख्त पर बैठा और लगभग बारह सौ साल कब्ल मसीह लाल सागर में डूबने वाला यही फ़िरऔन है। लाल सागर को किस जगह से पार किया गया, यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता।
  • 4. रामीसित सेकेंड और मरनिफ़्ताह दोनों की लाशें मिनी म्यूजियम में महफूज़ हैं। मोरिस बकाईए की बहस के खात्मे पर आखिरी लाइनें तवज्जोह के काबिल हैं।
  • 5. फ़ालके बह (समुद्र का फटना) का ज़माना अन्दाजा है कि बारह सौ साल क़ब्ल मसीह का है।

जादू और मज़हब:

1. जादू की कोई हक़ीक़त भी है या वह सिर्फ नज़र का धोखा है और बे-हक़ीक़त कोई चीज है?

      इसके बारे में अहले सुन्नत उलेमा की यह राय है कि जादू सच में एक हक़ीक़त है और नुक्सान पहुंचाने वाले असरात भी रखता है। अल्लाह तआला ने अपनी बड़ी हिक्मत को सामने रखकर उसमें इसी तरह नुक्सान पहुंचाने वाले असरात रख दिए हैं, जिस तरह ज़हर वगैरह में मगर यह नहीं है कि ‘जादू’ अल्लाह की कुदरत से बेनियाज़ होकर ‘अल्लाह की पनाह’ खुद बे नियाज़ है, खुद अपने आप असर रखने वाले चीज़ है, यह अक़ीदा ख़ालिस कुफ्र है।

2. इस्लामी फुकहा (विद्वानों) ने जादू के बारे में साफ़ किया है कि जादू के जिन आमाल में शैतान, गन्दी रूहें और गैरअल्लाह से मदद चाही जाए सौर उनको हाजत रवा करार देकर मंत्रों के ज़रिए उनको काबू में करने का काम किया जाए, तो वह शिर्क जैसा है और उस पर अमल करने वाला काफ़िर है। जिन अमलों में इनके अलावा दूसरे तरीके अख़्तियार किए जाएं और उनसे दूसरों को नुक्सान पहुंचाया जाए उनका करने वाला हराम और बड़े गुनाह का मुर्तकिब है।

मोजज़ा और जादू में फ़र्क –

      नबी और रसूल का असल मोजज़ा उसकी वह तालीम होती है, जो वे राहे हक़ से हटी हुई और मटकी हुई कौमों की हिदायत के लिए नुस्खा-ए कीमिया और दीनी और दुन्यवी फलाह व कामरानी के लिए बेनजीर कानून की शक्ल में पेश करता है।

      लेकिन आम इंसानी दुनिया की फ़ितरत इस पर कायम है कि वे सच्चाई और सदाक़त के लिए भी कुछ ऐसी चीजों के ख्वाहिशमन्द होते हैं जो लाने वाले के रूहानी करिश्मों से ताल्लुक रखती हों और जिनके मुकाबले से तमाम दुन्यवी ताक़तें आजिज़ हो जाती हों, क्योंकि उनके इल्म की पहुंच कैसी सच्चाई के लिए इसी को मेयार करार देती हैं।

      इसलिए यह ‘अल्लाह की सुन्नत’ जारी रही है कि वे नबियों और रसूलों को दीने हक की तालीम व पैग़ाम के साथ  एक या कुछ निशानियों (मोजज़ों) को भी अता करता है और जब वे मुबूवत के दावे के साथ बग़ैर (सबब) ऐसा ‘निशान दिखाता है, जिसका मुक़ाबला दुनिया की कोई ताकत नहीं की सकती तो उसका नाम ‘मोजज़ा’ होता है।

मरने के बाद की जिंदगी –

      कुरआन मजीद ने मरने के बाद की जिंदगी का आम कानून तो यह बताया है कि दुनिया की मौत के बाद फिर आखिरत की दुनिया ही के लिए दोबारा जिंदगी मिलेगी, लेकिन ख़ास “कानून’ यह है कि कभी कभी हिक्मत व मस्लहत के पेशेनज़र अल्लाह तआला इस दुनिया ही में मुर्दा को जिंदगी बख़्श दिया करता है और नबियों की मोजज़ो वाली जिंदगी में खुद कुरआनी गवाही के मुताबिक यह सच्चाई कई बार ज़ाहिर होकर सामने आ चुकी है।

      हज़रत मूसा (अ.स.) की नुबूवत के ज़माने में बनी इसराईल के सत्तर सरदारों के दोबारा जी उठने के मौके पर यह सूरत सामने आई कि उनके नामाकूल और गुस्ताखी वाले इसरार पर ‘रजआ’ के अज़ाब ने उनको मौत के घाट उतार दिया और फिर हज़रत मूसा (अ.स.) की इज्ज वाली दुआ पर अल्लाह की रहमत की वुसअत ने तरस खाया और इन जान से तंग इंसानों को दोबारा जिंदगी बना दी।

      इसी तरह गाय के ज़िब्ह करने के वाक़िए में मक्तूल को दोबारा जिंदगी बख्शी। इन वाकियों से मुताल्लिक हिक्मत व मस्लहत खुद अल्लाह ही बेहतर जानते हैं। इंसानी समझ तो इतना ही कह सकती है कि इसका मक़सद यह है कि मुतास्सिर होने वाले शुक्रगुज़ार हों और आगे इस किस्म की बेजा ज़िद को काम में न लाएं और अल्लाह के सच्चे फरमाबरदार बन्दे बनकर रहें। कुरआन के साफ़ और खुले बयान के बाद घटिया तावील गैर-जरूरी है।

मोजज़ों का ज़्यादा होना –

हज़रत मूसा (अ.स.) के नबी होने के ज़माने में मोजज़ों का ज़्यादा होना नज़र आता है, जिनको दो हिस्सों में बांटा जाता है –

  • 1. कुलजुम के पार करने से पहले, और
  • 2. कुलजुम के पार करने के बाद, 

कुलजुम के पार करने से पहले 

  • 1. असा (डंडा) 
  • 2. यदे बैज़ा (हाथ की सफ़ेदी)
  • 3. सिनीन (अकाल)
  • 4. फलों का नुक़सान 
  • 5. तूफ़ान 
  • 6. जराद (टिड्डी दल) 
  • 7. कुम्मल 
  • 8. जफ़ादेअ (मेंढ़क)
  • 9. दम (खून) 
  • 10. फ़लक़े बह (कुलजुम नदी का फट कर दो हिस्सों में हो जाना) 

कुलजुम पार करने के बाद 

  • 11. मन्न व सलवा 
  • 12. ग़माम (बादलों का साया) 
  • 13. इन्फ़िजारे उयून (पत्थर से चश्मों का बह पड़ना) 
  • 14. नतक़े जबल (पहाड़ का उखड़ कर सरों पर आ जाना) और 
  • 15. तौरात का नाज़िल होना

      ऊपर के ज़्यादा-से-ज़्यादा मोजज़ो के सिलसिले में यह भूलना नहीं चाहिए कि सदियों की गुलामी की जिंदगी बसर करने और छोटी खिदमतों में मश्गूल रहने की वजह से बनी इसराईल की नुमायां खूबियों को घुन लग गया था और मिस्रियों में रहकर मज़हर परस्ती और अस्नाम परस्ती ने उनकी अक़्ल और हवास को इस दर्जा मुअत्तल कर दिया था कि वे क़दम-कदम पर अल्लाह के एक होने और अल्लाह के हुक्मों में किसी करिश्मे का इन्तिज़ार करते रहते, इसके बगैर उनके दिल में यकीन व ईमान की कोई जगह न बनती थी। पस उनकी हिदायत के लिए दो ही शक्लें हो सकती थीं

      एक यह कि उनको सिर्फ समझाने-बुझाने के मुख्तलिफ़ तरीकों ही से हक के कुबूल करने पर तैयार किया जाता और पिछले नबियों की उम्मतों की तरह किसी ख़ास और अहम मौके पर आयतुल्लाह (अल्लाह की निशानी यानी मोजज़े का मुज़ाहरा पेश आता और दूसरी शक्ल यह थी कि उनकी सदियों की तबाह हुई इस हालत की इस्लाह के लिए रूहानी ताकत का जल्द-जल्द मुज़ाहरा किया जाए और हक़ और सच्चाई की तालीम के साथ-साथ अल्लाह तआला के तक्वीनी निशान (मोजज़े) इनके कुबूल करने और तसल्ली करने की इस्तेदाद को बार-बार ताक़त पहुंचाएं।

      पस इस कौम की पस्त ज़ेहनियत और तबाह हाली के पेशेनज़र अल्लाह की मस्लहत ने उनकी इस्लाह व तबियत के लिए यही दूसरी शक्ल अख्तियार की। ‘वल्लाहु अलीमुन हकीम०’ (अल्लाह ही जानने वाला और हिक्मत वाला है।)

      इंशा अल्लाह उल अजीज! अगले पार्ट 13 में हज़रत मूसा (अ.स.) और बनी इसराईल का ईज़ा पहुंचाने वाले वाकिये को तफ्सील में देखेंगे।

To be continued …