K. S. Ramakrushna (Philosophy Prof) About Islam

» NonMuslim View About Islam: प्रोफ़ेसर के॰ एस॰ रामाकृष्णा राव (अध्यक्ष, दर्शन-शास्त्र विभाग, राजकीय कन्या विद्यालय मैसूर, कर्नाटक)

‘‘पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) की शिक्षाओं का ही यह व्यावहारिक गुण है, जिसने वैज्ञानिक प्रवृत्ति को जन्म दिया। इन्हीं शिक्षाओं ने नित्य के काम-काज और उन कामों को भी जो सांसारिक काम कहलाते हैं आदर और पवित्राता प्रदान की। क़ुरआन कहता है कि इन्सान को ख़ुदा की इबादत के लिए पैदा किया गया है, लेकिन ‘इबादत’ (पूजा) की उसकी अपनी अलग परिभाषा है। ख़ुदा की इबादत केवल पूजा-पाठ आदि तक सीमित नहीं, बल्कि हर वह कार्य जो अल्लाह के आदेशानुसार उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने तथा मानव-जाति की भलाई के लिए किया जाए इबादत के अंतर्गत आता है।

इस्लाम ने पूरे जीवन और उससे संबद्ध सारे मामलों को पावन एवं पवित्र घोषित किया है। शर्त यह है कि उसे ईमानदारी, न्याय और नेकनियती के साथ किया जाए। पवित्र और अपवित्र के बीच चले आ रहे अनुचित भेद को मिटा दिया। क़ुरआन कहता है कि अगर तुम पवित्र और स्वच्छ भोजन खाकर अल्लाह का आभार स्वीकार करो तो यह भी इबादत है। – @[156344474474186:]
पैग़म्बरे इस्लाम मुहम्मद (सल्ल॰) ने कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को खाने का एक लुक़्मा खिलाता है तो यह भी नेकी और भलाई का काम है और अल्लाह के यहाँ वह इसका अच्छा बदला पाएगा।
पैग़म्बर की एक और हदीस है— “अगर कोई व्यक्ति अपनी कामना और ख़्वाहिश को पूरा करता है तो उसका भी उसे सवाब मिलेगा। शर्त यह है कि इसके लिए वही तरीक़ा अपनाए जो जायज़ हो।”

एक साहब जो आपकी बातें सुन रहे थे, आश्चर्य से बोले, “हे अल्लाह के पैग़म्बर वह तो केवल अपनी इच्छाओं और अपने मन की कामनाओं को पूरा करता है। आपने उत्तर दिया, ‘यदि उसने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अवैध तरीक़ों और साधनों को अपनाया होता तो उसे इसकी सज़ा मिलती, तो फिर जायज़ तरीक़ा अपनाने पर उसे इनाम क्यों नहीं मिलना चाहिए?’

धर्म की इस नयी धारणा ने कि, ‘धर्म का विषय पूर्णतः अलौकिक जगत के मामलों तक सीमित न रहना चाहिए, बल्कि इसे लौकिक जीवन के उत्थान पर भी ध्यान देना चाहिए; नीति-शास्त्रा और आचार-शास्त्र के नए मूल्यों एवं मान्यताओं को नई दिशा दी। इसने दैनिक जीवन में लोगों के सामान्य आपसी संबंधों पर स्थाई प्रभाव डाला। इसने जनता के लिए गहरी शक्ति का काम किया, इसके अतिरिक्त लोगों के अधिकारों और कर्तव्यों की धारणाओं को सुव्यवस्थित करना और इसका अनपढ़ लोगों और बुद्धिमान दार्शनिकों के लिए समान रूप से ग्रहण करने और व्यवहार में लाने के योग्य होना पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। यहाँ यह बात सतर्कता के साथ दिमाग़ में आ जानी चाहिए कि भले कामों पर ज़ोर देने का अर्थ यह नहीं है कि इसके लिए धार्मिक आस्थाओं की पवित्रता एवं शुद्धता को कु़र्बान किया गया है। ऐसी बहुत-सी विचारधाराएँ हैं, जिनमें या तो व्यावहारिता के महत्व की बलि देकर आस्थाओं ही को सर्वोपरि माना गया है या फिर धर्म की शुद्ध धारणा एवं आस्था की परवाह न करके केवल कर्म को ही महत्व दिया गया है।

इनके विपरीत इस्लाम सत्य आस्था एवं सतकर्म (के सामंजस्य) के नियम पर आधारित है। यहाँ साधन भी उतना ही महत्व रखते हैं जितना लक्ष्य। लक्ष्यों को भी वही महत्ता प्राप्त है जो साधनों को प्राप्त है। यह एक जैव इकाई की तरह है, इसके जीवन और विकास का रहस्य इनके आपस में जुड़े रहने में निहित है। अगर ये एक-दूसरे से अलग होते हैं तो ये क्षीण और विनष्ट होकर रहेंगे। इस्लाम में ईमान और अमल को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। सत्य ज्ञान को सत्कर्म में ढल जाना चाहिए। ताकि अच्छे फल प्राप्त हो सके।

‘जो लोग ईमान रखते हैं और नेक अमल करते हैं, केवल वे ही स्वर्ग में जा सकेंगे’ यह बात क़ुरआन में कितनी ही बार दोहराई गयी है। इस बात को पचास बार से कम नहीं दोहराया गया है। सोच-विचार और ध्यान पर उभारा अवश्य गया है, लेकिन मात्र ध्यान और सोच-विचार ही लक्ष्य नहीं है। जो लोग केवल ईमान रखें, लेकिन उसके अनुसार कर्म न करें उनका इस्लाम में कोई मक़ाम नहीं है। जो ईमान तो रखें लेकिन कुकर्म भी करें उनका ईमान क्षीण है। ईश्वरीय क़ानून मात्र विचार-पद्धति नहीं, बल्कि वह एक कर्म और प्रयास का क़ानून है। यह दीन (धर्म) लोगों के लिए ज्ञान से कर्म और कर्म से परितोष द्वारा स्थाई एवं शाश्वत उन्नति का मार्ग दिखलाता है।
लेकिन वह सच्चा ईमान क्या है, जिससे सत्कर्म का आविर्भाव होता है, जिसके फलस्वरूप पूर्ण परितोष प्राप्त होता है? इस्लाम का बुनियादी सिद्धांत ऐकेश्वरवाद है ‘अल्लाह बस एक ही है, उसके अतिरिक्त कोई इलाह नहीं’ इस्लाम का मूल मंत्र है। इस्लाम की तमाम शिक्षाएँ और कर्म इसी से जुड़े हुए हैं। वह केवल अपने अलौकिक व्यक्तित्व के कारण ही अद्वितीय नहीं, बल्कि अपने दिव्य एवं अलौकिक गुणों एवं क्षमताओं की दृष्टि से भी अनन्य और बेजोड़ है।’’
– ‘मुहम्मद, इस्लाम के पैग़म्बर’ मधुर संदेश संगम, नई दिल्ली, 1990

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