हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम

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ख़ानदान और बचपन

      हज़रत सुलैमान (अलै.) हज़रत दाऊद (अलै.) के बेटे हैं। अल्लाह ने उनको बड़ा अच्छा ज़ेहन दिया था और मुक़दमों के फ़ैसला करने में अपने ज़ेहन के इस्तेमाल का कमाल फ़ितरत ने शुरू ही से दे रखा था। चुनांचे उनके बचपन का वाकिया हज़रत दाऊद (अलै.) के ज़िक्र में बयान किया जा चुका है।

हज़रत दाऊद (अलै.) की विरासत

      तारीख लिखने वाले कहते हैं कि हज़रत सुलैमान (अलै.) जवानी को पहुंच चुके थे कि हज़रत दाऊद (अलै.) का इंतिकाल हो गया और अल्लाह तआला ने उनको नुबूवत और हुकूमत दोनों में हज़रत दाऊद (अलै.) का जानशीं बना दिया।

कुरआन मजीद में इर्शाद है –

तर्जुमा- ‘और सुलैमान दाऊद का वारिस हुआ। (नम्ल 16)

तर्जुमा- ‘और (दाऊद व सुलैमान) हर एक को हमने हुकूमत दी और इल्म (नुबूवत) दिया। (अल-अंबिया 79

हज़रत सुलैमान (अलै.) की खुसूसियतें

      हज़रत दाऊद (अलै.) की तरह अल्लाह तआला ने हज़रत सुलैमान (अलै.) को भी कुछ खुसूसियतों और इम्तियाज़ी बातों से नवाज़ा और अपनी नेमतों में से कुछ ऐसी नेमतें अता फरमाईं जो उनकी मुबारक जिंदगी की ख़ास बातें बनीं।

परिंदों की बोलियां समझना

कुरआन मजीद में इर्शाद है –

तर्जुमा- ‘और सुलैमान दाऊद का वारिस हुआ और उसने कहा कि है लोगो! हमको परिंदों की बोलियों का इल्म दिया गया है और हमको हर चीज़ बख़्शी गई है। बेशक यह अल्लाह का खुला हुआ फज़ल है।’ (नम्ल 16)

कुरआन के ऊपर के बयान से तो यह साबित होता है कि यह कोई आम बात न थी, बल्कि एक ऐसी नेमत थी जिसको निशान (मोजज़ा) कहा जाता है और वह बेशक परिंदों की बोलियां बोलने वाले इंसान की बातों की तरह समझते थे और यक़ीनन उनका यह इल्म दुन्यवी अस्वाब से ऊपर खालिस कुदरत के क़ानूनों के फ़ैज़ान का नतीजा था और एक ऐसी बख़्शिश और देन थी, जिसको अल्लाह का निशान कहना चाहिए, मगर जो इन जैसी पाक हस्तियों के लिए ख़ास है।

हवा पर काबू

कुरआन मजीद ने हज़रत सुलैमान (अलै.) के हवा पर कन्ट्रोल से मुताल्लिक जितना बयान किया है, वह यह है–

तर्जुमा- ‘और काबू में कर दिया सुलैमान के लिए तेज़ व तुंद हवा को कि उसके हुक्म से ज़मीन पर चलती थी, जिसको हमने बरकत दी थी और हम हर चीज़ के जानने वाले हैं।’ (अंबिया: 181

तर्जुमा- ‘और सुलैमान के लिए काबू में कर दिया हवा को कि सुबह से एक महीने की मुसाफ़त (दूरी) और शाम को एक महीने की मुसाफ़त (ते कराती)। (सबा: 12) 

तर्जुमा- और काबू में कर दिया हमने उस (सुलैमान) के लिए हवा को कि चलती है वह उसके हुक्म से, नर्मी के साथ, जहां वह पहुंचना चाहे। (साद: 36)

      ऊपर की आयतों में हज़रत सुलैमान (अलै.) के उस शरफ़ के बारे में तीन बाते  बयान की हैं –

      1.  एक यह कि ‘हवा‘ को हज़रत सुलैमान (अलै.) के हक़ में ‘सधा‘ दिया गया था।

      2. दूसरी यह कि ‘हवा‘ उनके हुक्म की इस तरह ताबे थी कि शदीद तेज़ व तुन्द होने के बावजूद उनके हुक्म से नर्म और धीरे-धीरे चलने की वजह से ‘राहत पहुंचने वाली’ हो जाती थी।

      3. तीसरी बात यह है कि नर्मरफ्तारी के बावजूद उसके तेज़ चलने का यह हाल था कि हज़रत सुलैमान (अलै.) का सुबह व शाम का जुदा-जुदा सफ़र एक शहसवार (घोड़सवार) की लगातार एक माह की तेज़ रफ्तार दूरी के जितना होता था, गोया ‘सुलैमान का तख़्त इंजन और मशीन जैसे ज़ाहिरी साधनों से कहीं आगे सिर्फ अल्लाह के हुक्म से एक बहुत तेज़रफ़्तार हवाई जहाज़ से भी ज़्यादा तेज़ मगर हल्केपन के साथ हवा के कांधे पर उड़ा चला जाता था। इसलिए हवाओं को काबू में करने के वाकिए को हज़रत सुलैमान (अलै.) की सच्ची नबूवत की ख़ास और नुमायां बातों में से एक बात मानते हुए बिना किसी तावील के सही मान लिया जाए और बेकार की तफ़्सील, तावील और इसराईली खुराफ़ात में न उलझा जाए।

जिन्नों और हैवानों को काबू में रखना

      हज़रत सुलैमान (अलै.) ने एक बार अल्लाह के दरबार में यह दुआ की –

तर्जुमा- ‘ऐ परवरदिगार! मुझको बख़्श दे और मेरे लिए ऐसी हुकूमत अता कर, जो मेरे बाद किसी के लिए भी मयस्सर न हो, बेशक तू बहुत देने वाला है। (साद 35)

      अल्लाह तआला ने उनकी इस दुआ को कुबूल फ़रमाया और एक ऐसी अजीब व ग़रीब हुकूमत अता की कि न इससे पहले किसी को नसीब हुई और ने इनके बाद किसी को मयस्सर आएगी। उनकी यह हुकूमत इंसानों के अलावा जिन्नों, हैवानों और हवाओं पर भी थी और ये सब अल्लाह के हुक्म से इनके ताबे और फ़रमाबरदार (अधीन और आज्ञापालक) थे। (जिन्न अल्लाह की मखलूक है। इनका जिक्र हज़रत आदम (अलै.) के ज़िक्र में हो चुका है।)

बैतुलमक्दिस की तामीर

      बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत अबूज़ार ग़िफ़ारी (अलै.) से रिवायत की गई एक सहीह मर्फूअ हदीस से यह मतलब लिया गया है कि जिस तरह हज़रत इब्राहीम (अलै.) ने मस्जिदे हराम की बुनियाद रखी और वह मक्का की आबादी की वजह बनी, हज़रत याकूब (अलै.) (इसराईल) ने मस्जिद बैतुलमक़्दिस की बुनियाद डाली और इसकी वजह से बैतुलमक्दिस की आबादी वजूद में आई, फिर एक लम्बे अर्से के बाद हज़रत सुलैमान (अलै.) के हुक्म से मस्जिद और शहर नए सिरे से बसाया गया और जिन्नों के क़ब्ज़े में होने की वजह से बेनज़ीर और शानदार तामीर वजूद में आई। जिन्न क़ौम ने हज़रत सुलैमान (अलै.) के लिए और भी तामीरें की जैसा कि कुरआन में ज़िक्र किया गया है –

तर्जुमा- ‘और शैतानों (सरकश जिन्नों) में से हमने काबू में कर दिए, वे जो उस (सुलैमान) के लिए समुद्रों में गोते मारते (यानी कीमती से कीमती समुद्री चीजें निकालते और इसके अलावा और बहुत से काम अंजाम देते और हम उनके लिए निगरां और निगहबान थे।’ (अंबिया : 62)

तर्जुमा- और जिन्नों में से वे थे जो उसके सामने खिदमत अंजाम देते थे उसके परवरदिगार के हुक्म से और जो कोई उनमें से हमारे हुक्म के ख़िलाफ़ टेढ़ापन दिखावे, हम उसको दोज़ख का अज़ाब चखाएंगे। वे उसके लिए बनाते थे जो कुछ वह चाहता था, किलों की तामीर, हथियार, तस्वीरें और बड़े-बड़े लगन जो हौज़ों की मानिंद थे और बड़ी-बड़ी देगें जो अपनी बड़ाई की वजह मं एक जगह जमी रहें। ऐ आले दाऊद! शुक्रगुज़ारी के काम करो और मेरे बन्दों में से बहुत कम शुक्रगुजार हैं। (सबा : 12-15)

तर्जुमा- और इकट्ठा किए गए सुलैमान के लिए उसके लश्कर जिन्नो में से, इंसानों में से, जानवरों में से और वे दर्जा-ब-दर्जा खड़े किए जाते हैं। (नम्ल : 17)

तर्जुमा- ‘और सधा दिए गए सुलैमान के लिए शैतान (सरकश . हर किस्म के काम करने वाले, इमारत बनाने वाले, दरिया में गोता लगान पर और वे सरकश से सरकश जो जकड़े होते हैं जंजीरों में। यह हमारी बख़्शिश व अता है, चाहे उसको बख्श दो या रोके रखो, तुमसे उसकी पूछताछ नहीं। (साद : 30-40)

      हज़रत सुलैमान (अलै.) के ज़माने की ये तामीरात जो जिन्नों के काबू में होने ही वजह से वजूद में आई, आज तक लोगों के हैरत की वजह है कि ऐसे भारी-भरकम पत्थर कहां से लाए गए, किस तरह लाए गए और किस तरह उनको बुलन्दियों पर पहुंचा कर एक दूसरे से मिला दिया गया।

तांबे के ज़ख़ीरे 

      इन शानदार इमारतों की तामीर के सिलसिले में कुछ तफ़्सीर लिखने वालों का कहना है कि अल्लाह तआला ज़रूरत के मुताबिक हज़रत सुलैमान (अलै.) के लिए तांबे को पिघला देता था, जबकि तांबे के चश्मों का भी ज़िक्र किया गया है। कुरआन ने इस हकीकत की कोई तफ्सील नहीं बयान की। 

हज़रत सुलैमान (अलै.) और मलिका सबा –

      कुरआन ने मलिका सबा के इस वाकिए को मोजजों की तरह ऐसे थोड़े में बयान किया है कि वाक़िये के बयान करने से जो हकीकी मक़सद है यानी ‘याददेहानी’, वह भी नुमायां रहे और वाकिए के अहम और जरूरी हिस्से भी ज़िक्र में आ जाएं और साथ ही यह भी मालूम हो जाए कि हज़रत सुलैमान (अलै.) को परिदों की बोली का इल्म’ दिए जाने का जो पहली आयतों में ज़िक्र है, उसकी गवाही के लिए यह दूसरा वाकिया है। यह वाकिया सूरः नम्ल की आयतें 36-44 में बयान हुआ है। (और मौलाना हिप्रचुर्रहमान साहब स्योहरवी ने इस तरह बयान किया है।) –

      एक बार दरबारे सुलैमानी अपनी पूरी शान के साथ चल रहा था। हज़रत सुलैमान (अलै.) ने जायज़ा लिया तो हुदहुद को अपनी जगह पर ग़ैरहाज़िर पाया। इर्शाद फ़रमाया – हुदहुद को मौजूद नहीं पाता। अगर वाकई गैर-हाजिर है तो उसकी यह बेवजह की गैरहाजिरी सख़्त सज़ा के क़ाबिल है। इसलिए या तो मैं उसको सख्त अज़ाब दूंगा या ज़िब्ह कर डालूंगा या फिर वह अपनी ग़ैरहाज़िर की माकूल वजह बताए।

      अभी ज़्यादा वक़्त नहीं गुजरा था कि हुदहुद हाज़िर हो गया और हज़रत सुलैमान (अलै.) के पूछ-ताछ करने पर कहने लगा कि मैं एक यक़ीनी इत्तिला लाया हूं, जिसकी आपको पहले से ख़बर नहीं है। वह यह कि यमन के इलाके सबा की एक मलिका रहती है और अल्लाह ने उसको सब कुछ दे रखा है औ उसकी सल्तनत का तख़्त अपनी खास खूबियों की वजह से बहुत ज़्यादा शानदार है।

      मलिका और उसकी क़ौम सूरज की पुजारी है और शैतान ने उनको गुमराह कर रखा है और वे कायनात के मालिक, परवरदिगारे आलम, जो अकेला है, जिसका कोई शरीक नहीं, की परस्तिश नहीं करते।

      हज़रत सुलैमान (अलै.) ने फ़रमाया- अच्छा, तेरे सच-झूठ का इम्तिहा अभी हो जाएगा, तू अगर सच्चा है तो मेरा यह ख़त ले जा और इसको उस तक पहुंचा दे और इंतिज़ार कर कि वे इसके बारे में क्या बातें करते हैं।

      मलिका की गोद में जब ख़त गिरा तो उसने पढ़ा और फिर अपने दरबारियों से कहने लगी कि अभी मेरे पास एक मुअज्जज़ (बहुत इज़्ज़तदार ख़त आया है, जिसमें यह लिखा है –

      ‘यह खत सुलैमान की ओर से अल्लाह के नाम से शुरू है जो बड़ मेहरबान है, रहम वाला है। तुमको हम पर सरकशी और सरबुलन्दी का इज़्हार  नहीं करना चाहिए और तुम मेरे पास अल्लाह की फ़रमांबरदार (मुस्लिम होकर आओ।’

      मलिका सबा ने खत की इबारत पढ़कर कहा- ऐ मेरे दरबारियो! तु जानते हो कि मैं अहम मामले में तुम्हारे मशवरे के बगैर कोई क़दम नई उठाती इसलिए अब तुम मशवरा दो कि क्या करना चाहिए?

      दरबारियों ने कहा कि जहां तक रोब खाने का ताल्लुक़ है तो इसके कतई तौर पर ज़रूरत नहीं क्योंकि हम ज़बरदस्त ताक़त और जंगी क़ुव्वत के मालिक हैं, रहा मशवरे का मामला तो फैसला आपके हाथ में है जो मुनासिब हो उसके लिए हुक्म कीजिए।

      मलिका ने कहा, बेशक हम ताक़त व शौकत वाले ज़रूर हैं लेकिन हज़रत सुलैमान (अलै.) के मामले में हमको जल्दी नहीं करनी चाहिए। पहले हमको उसकी ताकत व क़ुव्वत का अन्दाज़ा करना ज़रूरी है क्योंकि जिस अजीब तरीके से हम तक यह पैग़ाम पहुंचा है, वह यह सबक देता है कि हज़रत सुलैमान (अलै.) के मामले में सोच-समझ कर क़दम उठाना मुनासिब है। मेरा इरादा यह है कि कुछ क़ासिद रवाना करूं और वे हज़रत सुलैमान (अलै.) के लिए उम्दा और कीमती तोहफ़े ले जाएं।

      इस बहाने से वे उसकी शौकत और अज़्मत का अन्दाजा लगा सकेंगे और यह भी मालूम हो जाएगा कि वह हमसे क्या क्या चाहता है। अगर वह वाकई ज़बरदस्त क़ुव्वत का मालिक और शहंशाह है, तो फिर उससे हमारा लड़ना बेकार है। इसलिए कि ताक़त व शौकत के मालिक बादशाहों का यह दस्तूर है कि जब वे किसी बस्ती में फतह करते हुए और ग़लबा हासिल करते हुए दाखिल होते हैं, तो उस शहर को बर्बाद और इज़्ज़तदार शहरियों को ज़लील व ख़्वार करते हैं। इसलिए बेवजह बर्बादी मोल लेना क्या ज़रूरी है?

      जब मलिका-ए-सबा के क़ासिद तोहफ़े लेकर हज़रत सुलैमान (अलै.) की खिदमत में हाज़िर हुए तो उन्होंने फ़रमाया- तुमने और तुम्हारी मलिका ने मेरे पैग़ाम का मक़सद ग़लत समझा, क्या तुम यह चाहते हो कि इन तोहफों के ज़रिये ‘जिनको तुम बहुत कीमती समझ कर खुश हो‘ मुझको फुसलाओ, हालांकि तुम देख रहे हो कि अल्लाह तआला ने मुझको जो कुछ दे रखा है उसके मुक़ाबले में तुम्हारी यह कीमती दौलत बिल्कुल हेच है इसलिए तुम अपने तोहफे वापस ले जाओ और अपनी मलिका से कहो कि अगर उसने मेरे पैग़ाम की तामील नहीं की तो मैं ऐसी भारी-भरकम फ़ौज के साथ सबा वालों तक पहुंचूंगा कि तुम उससे बचाव करने और मुकाबला करने में कामियाब न होगे और मैं तुमको ज़लील व रुसवा करके शहर बदर कर दूंगा।

      कासिदों ने वापस जाकर मलिका-ए-सबा के सामने पूरी रिपोर्ट दी और हज़रत सुलैमान (अलै.) की शौकत व अज़्मत को जो कुछ देखा था, वह पूरे का पूरा सुनाया और बताया कि उसकी हुकूमत सिर्फ इंसानों पर ही नहीं बल्कि जिन्न और हैवान भी उनके फ़रमान के ताबे और सधे हुए हैं।

      मलिका-ए-सबा ने जब यह सुना तो तै कर लिया कि हज़रत सुलैमान (अलै.) से लड़ना अपनी हलाकत को दावत देना है। बेहतर यही है कि उसकी दावत मान ली जाए।

      हज़रत सुलैमान (अलै.) के मक्तूब गरामी (ख़त ) में यह जुमला था ‘वातूनी मुस्लिमीन‘ (अधीन बनकर मेरे पास आओ) चूकि मलिका सबा हज़रत सुलैमान (अलै.) के दीन व मज़हब को नहीं जानती थी इसलिए उसने लफ़्ज़ मुस्लिम को लफ़्ज़ के मानी में समझते हुए यह समझा कि जाबिर बादशाहों की तरह हज़रत सुलैमान (अलै.) का मक़सद भी यह है कि में उसकी फ़रमांबरदारी और शाने हुकूमत का एतराफ़ करते हुए उसके मातहत हो जाना कुबूल कर लूं। इसलिए उसने यह तय करके सफ़र करना शुरू कर दिया और हज़रत सुलैमान (अलै.) की खिदमत में रवाना हो गई।

      हज़रत सुलैमान (अलै.) को वह्य के ज़रिये मालूम हो गया कि मलिका-ए-सबा खिदमत में हाज़िर हो रही हैं तब आपने अपने दरबारियों को ख़िताब करके फ़रमाया कि मैं चाहता हूं कि मलिका-ए-सबा के यहां पहुंचने से पहले उसका शाही तख़्त उठाकर यहां ले आया जाए, तुममें से कौन इस खिदमत को अंजाम दे सकता है? यह सुनकर एक देव पैकर जिन्न ने कहा कि आपके दरबार बरखास्त करने से पहले मैं तख़्त को ला सकता हूं, मुझको यह ताक़त हासिल है और यह कि मैं उसके बेश बहा सामान के लिए अमीन हूँ, हरगिज़ खियानत नहीं करूंगा।

      देव पैकर जिन्न का यह दावा सुनकर हज़रत सुलैमान (अलै.) के वज़ीर ने कहा कि मैं आंख झपकते ही उसको आपकी खिदमत में पेश कर सकता हूं। हज़रत सुलैमान (अलै.) ने रुख फेरकर देखा तो मलिका सबा का तख़्त मौजूद पाया। फ़रमाने लगे! यह मेरे परवरदिगार का फ़ज़्ल व करम है। वह मुझको आज़माता है कि मैं उसका शुक्रगुज़ार बनता हूं या नाफरमान और सच तो यह है कि जो आदमी उसका शुक्रगुज़ार बनता है, वह असल में अपनी ज़ात ही को नफा पहुंचाता है और जो नाफरमानी करता है, तो अल्लाह उसकी नाफरमानी से बेपरवाह और बुजुर्गतर है और उसका वबाल खुद नाफरमानी करने वाले ही पर पड़ता है।

      अल्लाह तआला का शुक्र अदा करने के बाद हज़रत सुलैमान (अलै.) ने हुक्म दिया कि इस तख़्त की शक्ल में कुछ तब्दीली कर दी जाए। मैं देखना चाहता हूं कि मलिका-ए-सबा यह देखकर सच्चाई का रास्ता पाती है या नहीं।

      कुछ दिनों के बाद मलिका सबा हज़रत सुलैमान (अलै.) की खिदमत में पहुंच गई और जब दरबार में हाज़िर  हुई तो उससे मालूम किया गया क्या तेरा तख़्त ऐसा ही है?

      अक्लमंद मलिका ने जवाब दिया- ‘ऐसा मालूम होता है, मानो वही है।‘ यानी तख़्त की बनावट और मज्मूई हैसियत तो यही बता रही थी कि यह मेरा ही तख़्त है और थोड़ी-सी बनावट में तब्दीली इस यक़ीन में शक पैदा कर रही है इसलिए यह भी नहीं कह सकती कि यक़ीनन मेरा ही तख़्त है।

      मलिका-ए-सबा ने साथ ही यह भी कहा मुझको आपकी बेमिसाल ताकत व क़ुव्वत का पहले से इल्म हो चुका है इसलिए इताअतगुज़ार और फ़रमांबरदार बनकर खिदमत में हाज़िर हुई हूँ और अब तख़्त का यह हैरत में डाल देने वाला मामला तो आपकी बेमिसाल ताक़त का ताज़ा मुज़ाहिरा है और हमारी इताअत और झुकाव के लिए एक कोड़ा, इसलिए हम फिर एक बार आपकी खिदमत में वफ़ादारी और फ़रमांबरदारी ज़ाहिर करते हैं।

      मलिका ने यक़ीन कर लिया कि ‘कुन्ना मुस्लिमीन (हम फ़रमांबरदार है) कहकर हमने हज़रत सुलैमान (अलै.) के पैग़ाम की तामील कर दी और उस मक़सद को पूरा कर दिया और मलिका की शिर्क भरी जिंदगी और सूरजपरस्ती रोक बनी कि यह हज़रत सुलैमान (अलै.) के पैग़ाम की हक़ीक़त समझ सके और हिदायत का रास्ता मिल सके। इसलिए हज़रत सुलैमान (अलै.) ने मक़सद ज़ाहिर करने के लिए दूसरा दिलचस्प तरीक़ा इख़्तियार किया और उसकी तेज़ी और ज़हानत को भड़काया, वह यह कि उन्होंने जिन्नों की मदद से एक शानदार शीशमहल तैयार कराया था जो आबगीने की चमक, महल की ऊंचाई और अनोखी कारीगरी के लिहाज़ से बेनज़ीर था और उसमें दाखिल होने के लिए सामने जो सेहन पड़ता था उसमें बहुत बड़ा हौज़ खुदवा कर पानी से भर दिया था और शफ़्फ़ाफ़ आबगीनों और बिल्लौर के टुकड़ों से ऐसा नफ़ीस फ़र्श बनाया गया था कि देखने वाले की निगाह धोखा खाकर यह यकीन कर लेती थी कि सेहन में साफ़-शफ़्फ़ाफ़ पानी बह रहा है।

      मलिका-ए-सबा से कहा गया कि शाही महल में कियाम करे। मलिका महल के सामने पहुंची तो शफ़्फ़ाफ़ पानी बहता हुआ पाया, यह देखकर मलिका ने पानी में उतरने के लिए कपड़ों को पिंडुलियों से ऊपर उठाया तो हज़रत सुलैमान (अ.स.) ने फरमाया कि इसकी जरूरत नहीं, यह पानी नहीं है। सारे का सारा महल और उसका खूबसूरत आंगन चमकते हा आबगीने का है।

      मलिका की तेज़ी और सूझ-बूझ पर यह कड़ी चोट थी, जिसने सूरतेहाल समझने के लिए उसकी अक्ली ताकतों को जगा दिया और उसने अब समझा कि इस वक्त तक यह जो कुछ होता रहा है, एक जबरदस्त बादशाह की काहिराना ताक़तों का मुज़ाहिरा नहीं है बल्कि मक़सद मुझे यह बता देना है कि हज़रत सुलैमान (अलै.) को यह बेनजीर ताक़त और मोजज़े की यह शान किसी ऐसी हस्ती की दी हुई है जो चांद-सूरज, बल्कि कुल कायनात का अकेला मालिक है इसलिए हज़रत सुलैमान (अलै.) मुझसे अपनी ताबेदारी और फ़रमांबरदारी की मांग नहीं कर रहे बल्कि उस ‘अकेली ज़ात’ की इताअत व फरमाबरदारी की दावत देना उसका मक़सद है।

      मलिका के दिमाग में यह ख्याल आना था कि उसने फ़ौरन हज़रत सुलैमान (अलै.) के सामने एक शर्मिंदा और नादिम इंसान की तरह अल्लाह के दरबार में यह इकरार किया। पालनहार! आज तक अल्लाह के अलावा की परस्तिश करके मैंने अपने नफ़्स पर बड़ा जुल्म किया, मगर अब मैं भी हज़रत सुलैमान (अलै.) के साथ होकर सिर्फ एक अल्लाह पर ईमान लाती हूं जो तमाम कायनात का परवरदिगार है। और इस तरह हज़रत सुलैमान (अलै.) के पैग़ाम ‘वातूनी मुस्लिमीन’ की हकीकी मुराद तक पहुंच कर उसने दीन इस्लाम इख़्तियार कर लिया।

सबा की तहक़ीक़

      क़हतानी नस्ल की एक मशहूर शान सबा है। सबा अपने कबीले की बुनियाद डालने वाला था। यह अरब तारीख के माहिरों और नई तारीख के माहिरों की तहक़ीक़ है और नाम उमर या अब्दे शम्स था। यह आदमी बहुत बहादुर और हिम्मतों वाला इंसान था। उसने सबा हुकूमत की बुनियाद डाली। सबा की तरक्की का ज़माना, तहक़ीक करने वालों के नजदीक लगभग 1100 ईसा पूर्व समझा जाता है। सबा की हुकूमत का असल मर्कज़ अरब के दक्खिनी हिस्से यमन के पूर्वी इलाके में था और राजधानी का नाम मआरिख था। इसी को शहरे सबा भी कहते थे। इसकी सरहद हजरमौत तक फैल गई थी और दूसरी तरफ़ अफ़्रीक़ा तक भी इसका असर पहुंच चुका था (अंग्रेज़ी भाषा में इसको Sheba कहा जाता है)। कुरआन ने इस वाक़िये में मलिका का नाम नहीं बताया, मगर यहूदियों की इसराईली दास्तानों में इसका नाम ‘बिलकीस’ बताया गया है।

हुद हुद

      कुरआन ने बहुत साफ़ लफ़्ज़ों में बयान किया है कि हज़रत सुलैमान (अलै.) का क़ासिद हुदहुद परिंदा था। (हज़रत सुलैमान (अलै.) से मुताल्लिक़ ‘परिंदों, की बात समझने जैसे मोजज़े की रोशनी में हुद हुद के सिलसिले की ताचील की गुंजाइश बाक़ी नहीं रहती।)

सबा की मलिका का तख़्त 

      मलिका सबा के तख़्त की तारीफ़ हुदहुद की ज़ुबानी हो चुकी है और इस सिलसिले में हज़रत सुलैमान (अलै.) का मोजज़ा भी कुरआन में ज़िक्र किया गया है। (इस सिलसिले में तावीलों की बहस बेकार की बात मालूम होती है।) 

मलिका सबा का इस्लाम कुबूल कर लेना

      मलिका ने हज़रत सुलैमान (अलै.) के पैग़म्बराना जाह व जलाल को देखकर इस्लाम कुबूल कर लिया। इस मुकम्मल वाक़िए में हज़रत सुलैमान (अलै.) की यही एक ग़रज़ थी, जिसे उन्होंने अपने पहले ही ख़त में ज़ाहिर कर दिया था, मगर मलिका उस वक्त इस ग़रज़ को न पा सकी थी। 

मलिका-ए-सबा का हज़रत सुलैमान (अलै.) के साथ निकाह

      कुरआन और सहीह हदीसों में नफ़ी या इस्बात (निषेधात्मक या स्वीकारात्मक) दोनों हैसियतों से उसके बारे में कोई ज़िक्र नहीं है।

हज़रत सुलैमान (अ.स.) की वफ़ात

      कुरआन मजीद में हज़रत सुलैमान (अलै.) की वफ़ात का जो वाक़िया बयान हुआ है, उसका हासिल यह है कि हज़रत सुलैमान (अलै.) के हुक्म से जिन्नों की बहुत बड़ी जमाअत शानदार इमारत बनाने में लगी हुई थी कि सुलैमान (अलै.) को मौत का पैग़ाम आ पहुंचा, मगर जिन्नों को उनकी मौत की ख़बर नहीं हुई और वे अपनी ज़िम्मेदारियों के अदा करने में लगे रहे और एक मुद्दत के बाद जब दीमक ने उनकी लाठी को चाट कर इस तवाजुन (सन्तुलन) को ख़राब का दिया, जिसकी वजह से हज़रत सुलैमान (अलै.) लाठी से टेक लगाए खड़े नजर आते थे और वे गिर गए, तब जिन्नों को मालूम हुआ कि हज़रत सुलैमान (अलै.) का ज़माना हुआ इंतिक़ालहो गया था, मगर अफ़सोस कि हम मालूम न कर सके। काश कि हम ग़ैब का इल्म रख़ते तो अर्से तक इस मशक्कत व मेहनत में न पड़े रहते जिसमें हज़रत सुलैमान (अलै.) के ख़ौफ़ से मुब्तिला रहे।

      तर्जुमा- ‘और जब हमने उस (सुलैमान) की मौत का फ़ैसला कर दिया तो इन जिन्नों को उसकी मौत की ख़बर किसी ने नहीं दी, मगर दीमक ने, जो सुलैमान की लाठी चाट रही थी और अब सुलैमान (लाठी का तवाज़ुन (सन्तुलन) ख़राब होने की वजह से) गिर पड़ा तो जिन्नों पर ज़ाहिर हो गया कि वह ग़ैब का इल्म रख़ते होते तो इस सख़्त मुसीबत में मुब्तिला न रहते।’ (34-14)

      कहते हैं कि जिन्नों पर जब यह राज़ खुला तो तामीर मुकम्मल हो चकी थी, इसलिए जिन्नों को अफ़सोस रहा कि अगर वे गैबदां होते तो इससे बहुत पहले आज़ाद हो गए होते!

      इस जगह कुरआन का मक्सद जिस तरह हज़रत सुलैमान (अलै.) की वफ़ात के वाक़िए को ज़ाहिर करना है, उसी तरह बनी इसराईल को उनकी हिमाक़त (मूर्खता) पर तंबीह करना भी है कि उनके अक़ीदे के मुताबिक अगर जिन्न गैबदा होते तो वे अर्से तक हज़रत सुलैमान (अलै.) के ख़ौफ़ से बैतुलमक्दिस की तामीर या किसी दूसरे शहर की तामीर की परेशानियों में फसे न रहते।

      चुनांचे हज़रत सुलैमान (अलै.) की वफ़ात का जिस शक्ल में उनको इल्म हुआ उसके बाद ख़ुद शैतानों (जिन्नों) को भी यह मानना पड़ा कि हमारा रोबदान का दावा क़तई तौर पर ग़लत साबित हुआ।

हज़रत सुलैमान (अलै.) के वाक़ियों के मुताल्लिक़ तफ़्सीरी नुक़्ते

जिहाद के घोड़ों का वाक़िया 

      कुरान में यह वाक्रिया इस तरह लिखा हुआ है-

      तर्जुमा-‘और हमने दाऊद को सुलैमान (बेटा) अता किया। वह अच्छा बन्दा था, बेशक वह अल्लाह की तरफ़ बहुत रुजू होने वाला था, (उसका वाक़िया ज़िक्र के क़ाबिल है) जब उसके सामने शाम के वक़्त अस्तबल और तेज़ दौड़ने वाले हल्के घोड़े पेश किए गए तो वह कहने लगा. बेशक मेरी माल की मुहब्बत (जिहाद के घोड़ों की मुहब्बत) परवरदिगार के ज़िक्र ही में से है, यहां तक कि वे घोड़े नज़रों से ओझल हो गए। (हज़रत सुलैमान ने फ़रमाया) उनको वापस लाओ, फिर वह उनकी पिंडलियां और गरदने छूने और थपथपाने लगा। (साद : 32)

      [इन आयतों की तफ़्सीर में मुसन्निफ़ (लेखक मौलाना हिफ़्जुर्रहमान साहब) ने ख़ासी बहस के बाद इसे जरीर और इमाम राज़ी रह० के क़ौल के मुताबिक़ हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ि० (अलै.) से अली बिन अबी तलहा रज़ि० (अलै.) से जो  नक़ल तफ़्सीर की गई है, उसको तर्जीह के क़ाबिल और सही क़रार दिया है और वह बयान की जाती है।]

      ऊपर लिखी हर दो तफ़्सीरों से जुदा हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) की जो तफ़्सीर हज़रत अली बिन अबी तालिब (अलै.) के वास्ते से नक़ल की गई है कि उनमें न नमाज़ त होने का ज़िक्र है और न सूरज डूबने का मस्अला है

      और न घोड़ों के ज़िब्ह कर देने का वाक़िया बहस में आया है, बल्कि वाक़िए की शक्ल इस तरह बयान की गई है कि जिहाद की एक मुहिम के मौके पर एक शाम को हज़रत सुलैमान (अलै.) ने जिहाद के घोड़ों को अस्तबल से लाने का हुक़्म दिया, जब वे पेश किए गए, तो आपको चूंकि घोड़ों की नस्लों और उनकी निजी ख़ूबियों के इल्म का कमाल हासिल था, इसलिए आपने जब इन सबको असील, सुबुक रो, खुश रो (ख़ानदानी, हल्की चाल चलने वाले और देखने में खूबसूरत) और फिर बहुत बड़ी तायदाद में पाया, तो आपका चेहरा खिल उठा और फ़रमाने लगे, इन घोड़ों से मेरी यह मुहब्बत ऐसी माली मुहब्बत में शामिल है जो पालनहार के ज़िक्र ही का एक हिस्सा है।

      हज़रत सुलैमान  (अलै.) के इस ग़ौर व फ़िक्र के दार्मेयान घोड़े अस्तबल को रवाना हो गए। चुनांचे जब उन्होंने नज़र ऊपर उठाई तो वे निगाह से ओझल हो चुके थे। आपने हुक़्म दिया, उनको वापस लाओ। जब वे वापस लाए गए तो हज़रत सुलैमान (अलै.) ने मुहब्बत और जिहाद के हथियार (साधन) की हैसियत से इज़्ज़त व तौक़ीर की ख़ातिर उनकी पिंडुलियों और गरदनों पर हाथ फेरना और थपथपाना शुरू कर दिया और फ़न के एक माहिर की तरह उनको मानूस करने लगे। 

      गोया इस तफ़्सीर के मुताबिक़ आयत ‘इन्नी अहबबतु हुब्बल ख़ैरि अन ज़िक़्री रब्बी’ का तर्जुमा यह हुआ, ‘बेशक मेरी माल को मुहब्बत (जिहाद के घोड़ों की मुहब्बत) अल्लाह के जिक्र ही से है और ‘तवारत बिल हिजाब’ में तवारत की ज़मीर (सर्वनाम) ‘साफिनातुल जनाद‘ ही की तरफ़ है यानी जब घोड़े आंखों से ओझल हो गए और इस तरह ‘शम्स’ के महजूफ़ मानने की ज़रूरत नहीं रहती, ‘त-फ़-क़ बिस्सूकि वल आनाकि‘ में मस्ह के ‘छूने और हाथ फेरने के वही आम मानी हैं जो लुग़त में बहुत मशहूर हैं।

हज़रत सुलैमान (अलै.) की आज़माइश

      हज़रत सुलैमान (अलै.) की आज़माइश और अल्लाह तआला की तरफ़ से आज़माने का एक मुज्मल वाक़िया इस तरह ज़िक्र किया गया है-

      तर्जुमा- ‘और बेशक हमने सुलैमान को आज़माया और डाल दिया हमने उसकी एक कुर्सी पर एक जिस्म फिर वह अल्लाह की ओर रुजू हुआ, कहा, ऐ परवरदिगार! मुझको बख़्श दे।’ (साद : 24)

      इन आयतों में यह नहीं ज़ाहिर किया गया है कि हज़रत सुलैमान (अलै.) को जब आज़माइश पेश आई, तो वह क्या थी, सिर्फ इस क़दर इशारा है कि उनकी कुर्सी पर एक जिस्म डाल दिया गया। साथ ही हदीसों में भी उससे मुताल्लिक़ किसी तफ़सील का ज़िक्र नहीं है। (इस सूरत में हज़रत मौलाना हिफ़्जुर्रहमान स्योहारयी रह० ने तफ़्सीर लिखने वालों की रायों पर बहस के बाद जो कुछ लिखा है, वह यह है –

      इस वाक़िए से मुताल्लिक़ नसीहत और सबक़ के पहलू को बहुत साफ़ और नुमायां तौर पर बयान किया गया है और कुरआन मजीद के तज़करे से यही मक्सद मालूम होता है। इसलिए ‘हमको भी इस नसीहत के पहलू को सबक़ हासिल करने का ज़रिया बनाते हुए वाक़िए के इज़्माल  पर ही ईमान रखना चाहिए, अलबत्ता दिल के इत्मीनान के लिए इमाम राजी की तफ़सीर को इख़्तियार करना ज़्यादा मुनासिब है, जो नीचे लिखा जाता है –

      राज़ी की इस तफ़्सीर के मुताबिक़ ‘और बेशक हमने सुलैमान को आज़माया‘ में आज़माइश से मुराद ‘शदीद मरज़‘ है (और डाल दिया हमने कुरसी पर एक जसद) से सुलैमान का मरज़ की शिद्दत में बे-रूह जिस्म की तरह तख़्त पर पड़ जाना मक़्सूद है और ‘सुम-म अनाब‘ (फिर वह अल्लाहकी तरफ़ रुजू हुआ) से सेहत की जानिब रुजू हो जाना मुराद है, गोया आज़माइश का मक्सद यह था कि हज़रत सुलैमान (अलै.) ‘ऐनुल यकीन’ (विश्वास-चक्षु) के दर्जे में समझ लें कि इस हाकिमाना शान के बावजूद उनका न सिर्फ इक़्तिदार बल्कि जान तक अपने कब्ज़े में नहीं है, ताकि एक उलुल-अज़्म पैग़म्बर की तरह अल्लाह के सामने झुक जाएं और मरिफ़रत की तलब के ज़रिए बारगाहे इलाही से बुलन्द दर्जा और ज़्यादा सरबुलन्दी हासिल करें। (और यही हुआ भी) 

हज़रत सुलैमान (अलै.) की फ़ौज और चींटियों की घाटी

कुरआन में आता है –

      तर्जुमा- ‘और जमा हुई फौज सुलैमान के लिए जिन्नों, इंसानों और परिंदों (जानदारों) में से और वे दर्जा-ब-दर्जा करने के साथ आगे-पीछे चल रहे थे, यहां तक कि वे वादी नमल पहुंचे तो एक चींटी ने कहां, ऐ चींटियो! अपने घरों में घुस जाओ, ऐसा न हो कि बेख़बरी में सुलैमान और उसकी फौज तुम्हें पीस डाले। चींटी की यह बात सुनकर सुलैमान हंस पड़ा और कहने लगा ‘कि ऐ परवरदिगार! मुझको यह तौफ़ीक़ दे कि मै तेरा शुक्र अदा करूं जो तूने मुझ पर और मेरे मां-बाप पर इनाम किया है।’ (नमल 27: 17-18-19) 

      नमल की घाटी और चींटियों से मुताल्लिक़ बहुत से सवाल पैदा कि गए हैं और इन सवालों का जवाब इसराईली दास्तानों और यहूदी खुराफ़ात से दने की कोशिश की गई है। मगर ये सब बहसें बेकार की हैं, बे-सनद बल्कि बकवास हैं। कुरआन और रसूल की हदीसें इस किस्म की बेकार की चीजों से अलग हैं।

      इस वाक़िए के ज़िक्र से कुरआन मजीद का मक्सद यह है कि हज़रत दाऊद (अलै.) और हज़रत सुलैमान (अलै.) को अल्लाह तआला ने ‘परिंदों की बोली का इल्म’ अता फ़रमाया और यह उनकी अज़्मते शान का एक निशान है। यह इल्म दुनिया के आम इल्म की तरह नहीं था, बल्कि अल्लाह तआला की तरफ़ से उन दोनों बड़े दर्जे वाले नबियों के लिए ख़ास अता व बख़्शिश और निशान (मोजज़ा) था।

      चुनांचे इसी से मिला हुआ पहला वाक़िया नमल की वादी का ववान किया कि किस तरह हज़रत सुलैमान (अलै.) ने एक मामूली किस्म के जानदार की बातों को इस तरह सुन लिया जिस तरह एक इंसान दूसरे इंसान की बातें बेतकल्लुफ़ सुनता है और साथ ही यह ज़ाहिर कर दिया कि जब इस हैरत में डाल देने वाले इल्म के बारे में हज़रत सुलैमान (अलै.) को ऐनुल यक़ीन और हक़्क़ुल यकीन (भरपूर यक़ीन) का दर्जा हासिल हो गया तो उन्होंने एक अज़्म वाले पैग़म्बर की शान के मुताबिक़ अल्लाह के इस दिए हुए निशान पर शुक्र का इज़हार किया।

      वाज़ेह रहे कि इस वाक़िए की अहमियत का अन्दाज़ा इससे हो सकता है कि जिस सूरः में उसका ज़िक्र मौजूद है, अल्लाह ने उसका नाम हा ‘चींटी की सूरः‘ रखा है। ज्यादातर तारीख़ लिखने वालों की राय यह है कि. नमल की घाटी अस्कलान के क़रीब है जैसा कि इन्ने बतूता ने बयान किया है या बैते-जवरून और अस्कलान के दर्मियान. शाम (सीरिया) के नाम पर तफ़्सीर लिखने वाले बताते हैं।

मलिका-ए-सबा का तख़्त उठाकर लाने वाले की शख़्सियत 

      मलिका-ए-सबा के वाक्रिए में यह ज़िक्र हो चुका है कि जब हज़रत सुलैमान (अलै.) को यह मालूम हो गया कि मलिका-ए-सबा ख़िदमत में हाज़िर हो रही है तो आपने अपने दरबारियों को मुख़ातिब करके फ़रमाया, मैं चाहता हूं कि मलिका-ए-सबा के यहां पहुंचने से पहले उसका तख़्ते शाही उठाकर यहाँ ले आया जाए, तुममें से कौन इस ख़िदमत को अंजाम दे सकता है?

      यह सुनकर एक देव पैकर जिन्न ने कहा कि आपके दरबार बर्ख़ास्त करने से पहले मैं तख़्त को ला सकता हूं। जिन्न के इस दावे को सुनकर हज़रत सुलैमान (अलै.) के दरबारियों में से एक आदमी ने (जिसके पास किताब का इल्म था) कहा कि में आंख झपकते ही उसको आपकी ख़िदमत में पेश कर सकता हूं। इस वाक़िए से मुताल्लिक़ दो सवाल पैदा किए गए हैं –

      एक तो यह कि वह आदमी जिसके पास किताब का ‘इल्म‘ था, उसक नाम क्या था? और वह कौन था? उसका नाम आसिफ़ बिन बरख़या था और वह हज़रत सुलैमान (अलै.) का ख़ास मोतबर और क़ातिब (वज़ीर) था। हज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास (अलै.) से नक़ल किया गया है कि ज़्यादातर तफ़्सीर लिखने वालों ने इस क़ौल को तरजीह दी है।

      दूसरा सवाल यह है कि इल्मे किताब (किताब का इल्म) से क्या मुराद है? इस बारे में (लेखकः हज़रत मौलाना हिफ़्जुर्रहमान स्योहारवी रह० वे मुताबिक़) सही और तरजीह के क़ाबिल क़ौल यह है कि यह आदमी आसिफ़ हो या किसी और नाम वाला, हक़ीक़त में हज़रत सुलैमान (अलै.) का सहाबी और उनका बहुत क़रीबी था, जिस तरह सिद्दीक़े अकबर की शख़्सियत नबी अकरम की रिफ़ाक़त में नुमायां थी।

      इसी तरह यह हज़रत सुलैमान (अलै.) का रफ़ीक़ था और उनके शरफे सोहबत से उसको तौरात और ज़बूर और अस्मा और सिफ़ाते इलाह से मुताल्लिक़ असरार और हकीक़तों का ज़बरदस्त इल्म हासिल था। इसलिए जब जिन्नों में से एक ‘इफ़रीत‘ ने सबा के तख़्त को हाज़िर करने का दावा किया, तो अगरचे मक़्सद को हासिल करने के लिए यह मुद्दत भी काफ़ी थी, मगर हज़रत सुलैमान (अलै.) का ख़्याल यही रहा कि यह अमल ‘जिन्नो में से एक इफ़रीत‘ के जरिए नहीं होना चाहिए, ताकि उनकी पैग़म्बराना तवज्जो से वह ‘मोजज़ा‘ और ‘निशान‘ बनकर मलिका-ए-सबा के सामने पेश हो।

      आसिफ ने हज़रत सुलैमान (अलै.) की इस तवज्जोह को समझ कर, फ़ौरन ख़ुद को पेश किया और ‘इफ़रीत‘ की बयान की हुई मुद्दत से भी बहुत कम मुद्दत में हाजिर कर देने का वायदा कर लिया, क्योंकि उसको यक़ीन था कि हज़रत सुलैमान (अलै.) की मुबारक तवज्जोह इस एजाज़ को पूरा कर दिखाएगी और चूंकि मोजज़ा असल में अल्लाह तआला का अपना फ़ेल (काम) होता है जो नबी के हाथ पर ज़ाहिर किया जाता है, (जैसा कि पीछे के पन्नों में गुज़र चुका है) तो हज़रत सुलैमान (अलै.) ने अपनी नुबूवत की सदाक़त और रिसालत की अज़्मत के इस निशान को देखकर इन लफ़्ज़ों में अल्लाह का शुक्र अदा किया ‘हाज़ा मिन फ़ज़्ली रब्बी’ यानी जो कुछ भी हुआ उसमें आसिफ़ की या मेरी कोशिश और ताक़त का कोई दख़ल नहीं, बल्कि सिर्फ अल्लाह का फ़ज़्ल है, जिसने यह काम कर दिखाया।

हज़रत सुलैमान (अलै.) पर बनी इसराईल का बोहतान

      दूसरे इल्ज़ामों के अलावा बनी इसराईल ने एक इल्ज़ाम हज़रत सुलैमान (अलै.) पर यह भी लगाया कि वह जादू के हामिल और उसके ज़ोर पर ‘किंग सुलैमान’ थे और जिन्नों, इंसानों, जानवरों और परिंदों को क़ाबू में किए हुए थे। इस बारे में कुरआन मजीद ने वाज़ेह किया है –

      तर्जुमा- ‘और जब उन (बनी इसराईल) के पास अल्लाह की तरफ़ से रसूल आया जो तस्दीक़ कर रहा है उन इलहामी किताबों की जो उनके पास हैं, तो जो लोग (बनी इसराईल) किताब (तौरात) देने गए थे, उन्होंने अल्लाह की किताब (तौरात) को पीठ पीछे डाल दिया और (आपकी सच्चाई की ख़ुशख़बरी) के बारे में ऐसे हो गए, गोया वे जानते ही नहीं।

      (ये तो ये लोग हैं कि उन्होंने सुलैमान के ज़माने में उस चीज़ की पैरवी इख़्तियार कर ली थी जो शैतान पढ़ते थे और सुलैमान ने कुफ़्र नहीं किया था, लेकिन शैतानों ने कुफ़्र किया था कि जो लोगों को जादू सिखाते थे और वह (इल्म), जो बाबिल में हारूत व मारूत दो फ़रिश्तों पर नाज़िल किया गया और जिसको कि वे दोनों जब किसी को सिखाते थे तो यह कहकर सिखाते थे कि हम (तुम्हारे लिए) सख़्त आज़माइश हैं, इसलिए तुम (अब) कुफ़्र न करना, मगर वे (बनी इसराईल) इन दोनों से भी ऐसी बातें सीखते थे कि जिसके ज़रिए से मियां-बीवी के दर्मियान तफ़रीक़ पैदा हो जाए,

      हालांकि वे इसके ज़रिए से अल्लाह की मर्ज़ी के बग़ैर किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचा सकते (अलबत्ता) वे ऐसी घीज़ सीखते हैं जो (अंजामेकार) उनको नुकसान पहुंचाने वाली है और उनको हरगिज़ नफ़ा नहीं देगी और बेशुब्हा वे जानते हैं कि जिस शख्स ने उस शै (जादू) को खरीदा उसके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं है और जरूर यह चीज़ बहुत बुरी है, जिसके बदले में उन्होंने अपनी जान बेच डाली। काश! कि वे समझते (यानी वे समझने के बाद उससे बचते) और वह काम न करते जिसका नतीजा बुरा है।’ (अल-बक़र: 2 : 101, 103)

      ऊपर की आयतों में जिन हकीक़तों को वाज़ेह किया गया है, उनकी तफ़्सीर में तफ़्सीर लिखने वाले अलग-अलग ज़ौक़ रखते हैं। चुनांचे इस सिलसिले की तफ़सीरों में से हमने तर्जुमे में आम तफ़्सीर से जुदा रास्ता इख़्तियार किया है जो ‘अल्लाह की आयतों में एक आयत‘, आज के मुहक़्क़िक़ (तहक़ीक़ करने वाले) अल्लामा मुहम्मद अनवर शाह (नब्बरल्लाहु मर्कदहू) की तहकीक से ली गई है। हज़रत उस्ताद की तफ़्सीर का खुलासा यह है –

      ‘जब बनी इसराईल को शैतान ने जादू दिखाकर गुमराह कर दिया और वै शैतानों को ग़ेबदां यकीन करने लगे और वह यह ज़माना था कि हज़रत सुलैमान (अलै.) की वफ़ात हो चुकी थी और उस वक्त उनके दर्मियान अल्लाह का कोई नबी मौजूद नहीं था तो बनी इसराईल को हिदायत का रास्ता दिखाने और संभालने के लिए उस मोजज़ाना तरीके के मुताबिक़ जो सदियों से उनके लिए अल्लाह तआला की तरफ़ से विरासत वाली सुन्नत बना हुआ था, हारूत-मारूत दो फ़रिश्ते आसमान से नाज़िल किए गए,

      और उन्होंने बनी इसराईल को तौरात से लिए गए अल्लाह की सिफ़तों के नामों के भेद भरे मानी का ऐसा इल्म सिखाया जो ‘सहर‘ (जादू) के मुक़ाबले में मुमताज़ और सहर के नापाक असर से पाक था और इस वजह से एक इसराईली आसानी से यह समझा सकता है कि यह जादू है और यह ‘अलवी उलमिल है और जब वे फ़रिश्ते बनी इसराईल को ये उलूम सिखाते तो फिर उनको नसीहत करते कि अब जबकि तुम पर असल हक़ीक़त खुल गई और हक़ व बातिल के दर्मियान आंखों देखा मुशाहदा कर लिया तो अल्लाह की किताब के इल्म को पीठ पीछे डालकर फिर भी जादू की तरफ़ रुजू करोगे तो तुम बेशुबहा काफ़िर हो जाओगे।

      क्योंकि अल्लाह की हुज्जत तुम पर तमाम हो गई और अब तुम्हारे लिए कोई उज़्र बाक़ी नहीं रहा। गोया हमारा वुजूद तुम्हारे लिए एक आज़माइश है कि तुम हमारी तालीम के बाद शैतानों के ताले होकर ‘सहर‘ ही के शैदाई रहते हो या इससे ज़्यादा ज़बरदस्त और सच्ची बात अल्लाह की किताब के इल्म की पैरवी करते हो?

      लेकिन बनी इसराईल की टेढ़ी फ़ितरत ने इस मौके पर भी उनका साथ न छोड़ा और उन्होंने उस पाक ‘अलवी इल्म‘ (महत्वपूर्ण ज्ञान) को भी नाजायज़ और हराम ख्वाहिशों के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, जैसे शौहर बीवी के दर्मियान नाहक अलगाव वगैरह और इस तरह हक को बातिल के साथ मिला-जुला कर उसको भी एक करिश्मा बना दिया और हक व बातिल के साथ ग़लत करने या किसी पाक जुमले के ख़वास व असरात को नाजायज्ञ और हराम कामों में इस्तेमाल करने के बारे में हक उलेमा की खुली बातें मौजूद हैं कि यह भी जादू के कामों की शक्ल इख़्तियार कर लेता है और इसीलिए हराम और कुफ़्र है।

      थोड़े में अगर बयान किया जाए तो कहा जा सकता है कि कुरआन ने इस वाक़िए को जिस ग़रज के लिए बयान किया है, वह तो सिर्फ इस क़दर है कि बनी इसराईल का हज़रत सुलैमान (अलै.) की तरफ़ जादू (कुफ़्र) का जोड़ देना बोहतान और झूठ है।

ख़ुलासा 

      यह काम शैतानों का था, हज़रत सुलैमान (अलै.) का दामन उससे पाक है और यह कि बनी इसराईल ने शैतानों की पैरवी की और अल्लाह की किताब को पीठ पीछे डाल दिया, अगरचे हारुत व मारूत जो दो फ़रिश्ते थे और आसमान से नाज़िल किए गए थे, ताकि बनी इसराईल को तौरात से लिए गए अस्मा और सिफ़ाते इलाही के भेदों का इल्म सिखाएं।

      लेकिन बनी इसराईल शैतानों के ताबे होकर जादू ही के शैदाई बने रहे। कुरआन ने बाकी तफ्सीलों को नज़रअंदाज कर दिया है, इसलिए हमारे लिए उसके ‘थोड़े ही पर ईमान लाना काफ़ी है, क्योंकि तफ़्सील से दीन व मिल्लत का कोई मसला जुड़ा हुआ नहीं है।

सबक़ और खुलासा 

      1. पिछली उम्मतों ने अल्लाह के सच्चे दीन में अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशों के असर में आकर जहां और बहुत-सी घट-बढ़ की हैं, उनमें से एक शर्मनाक कांट-छांट अल्लाह के सच्चे पैग़म्बरों और बड़े अज़्म वाले रसूलों पर बोहतान लगाकर और उनकी जानिब बेहूदा और गन्दी बातों के जोड़ने का बेजा कदम उठाना भी है।

      और इस मामले में बनी इसराईल का क़दम सबसे आगे है। ये एक तरफ़ अल्लाह की एक बुजुर्ग हस्ती को नबी ओर रसूल भी मानते हैं और दूमरी तरफ़ बग़ैर किसी झिझक के शर्मनाक और गैर-अख़्लाक़ी बातें उनसे जोड़ देते हैं, जैसे हज़रत लूत (अलै.) और उनकी बेटियों का मामला साथ ही कुछ नबियों और रसूलों और अल्लाह के बड़े-बड़े पैग़म्बरों की रिसालत व नुबूवत से इंकार करके उन पर अलग-अलग क़िस्म के बोहतान और झूठे इल्ज़ाम लगाना फ़ख्र की बात समझते हैं, जैसे हज़रत दाऊद (अलै.) और हज़रत सुलैमान (अलै.) का मामला।

      कुरआन मजीद ने दीन के बारे में सच्चाई और हक़ के एलान का जो बीड़ा उठाया, धर्मों में सुधार के साथ दीने हक़ (इस्लाम) की जो हक़ीक़ी रोशनी अता की, उसके इन एहसानों में से एक बड़ा एहसान यह भी है कि जिन नबियों और रसूलों का उसने ज़िक्र किया है उनसे मुताल्लिक़ बनी इसराईल की खुराफ़ात और बेकार की बातों को दलीलों के साथ रद्द कर दिया और उनके मुक़द्दस दामन को लगाई गई गन्दगियों से पाक ज़ाहिर किया और इस तरह हक़ीक़त को सामने लाकर गन्दे लोगों की गन्दगी का पर्दा चाक कर दिया।

      2. हज़ार बार सबक़ लेने की यह बात कि जिस गुमराही को इसराईल ने इख़्तियार किया और कुरआन ने जिसको रोशन और खुली दलील के साथ रद्द कर दिया था, उस गन्दगी से हमारा दामन भी बचा न रह सका और कुरआन की साफ़ और रोशन राह को छोड़कर हमने बनी इसराईल की बिगड़ी रिवायतों को इस्लामी रिवायतों में जगह देनी शुरू कर दी।

      नबी अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक जगह इर्शाद फ़रमाया है कि – अहले किताब की जो रिवायतें कुरआन और इस्लाम की तालीम की ज़िद न हों, उनका नक़ल करना ठीक है, लेकिन हमने इस मुबारक इर्शाद की बुनियादी शर्त कि वह कुरआन और इस्लाम की तालीम के खिलाफ़ न हो को नज़रअंदाज़ करके हर क़िस्म की इसराईली रिवायतों को न सिर्फ नक़ल किया, बल्कि कुरआन की तफ़्सीर में उनको पेश करना शुरू कर दिया।

      नतीजा यह निकला कि एक ओर तो ग़ैर-मुस्लिमों ने इन रिवायतों को इस्लामी रिवायत बना दिया और उनमें रंग-रोगन चढ़ाकर इस्लाम की बेग़रज़ और पाक तालीम पर हमले शुरू कर दिए और अपने नापाक मक़्सद के लिए बहाना और हीला बना लिया और दूसरी ओर ख़ुद मुसलमानों में इलहाद व जंदका के अलमबरदारों ने इन रिवायतों की आड़ लेकर कुरआन और सही हदीसों से साबित और इल्मे यक़ीन (वहय इलाही) से हासिल हक़ीक़तों (मोजज़ों), इश्र व नश्र के वाकिए, जन्नत व जहन्नम की तफ़्सीलों से इंकार के लिए राह बना ली और हर ऐसे मक़ाम पर बेसनद यह कहना शुरू किया कि यह तो हमारे तफ़्सीर लिखने वालों ने आदत के मुताबिक़ इसराईली अक़ीदतों से ले लिया है, हालांकि इस वाक़िए के लिए ख़ुद कुरआन या हदीसे रसूल सल्ल० की क़तई नस्स (यकीनी बात) मौजूद होती है।

      ग़रज़ ये दोनों राहें ग़लत हैं-इस्लाम की तालीम के ख़िलाफ़ इसराईली रिवायतों को इस्लामियात, ख़ास तौर से कुरआन में जगह देना भी ग़लत राह और हलाक़ कर देने वाला कड़ा कदम है। चाहे वह कितनी ही नेक नीयती से क्यों न उठाया गया हो और इसी तरह इलहाद की दावत के लिए रिवायतों को इस तरह नक़ल करने का बहाना बनाकर कुरआन व हदीस की नस्स (बुनियादी बात) से इंकार या तफ़्सीर के नाम से उसकी व्याख्या में घट या बढ़  का क़दम भी इस्लामी तालीम को बर्बाद करना और उसकी रूप-रेखा को बिगाड़ देना है।

      सही और साफ़ (सीधा रास्ता) सिर्फ वह हे जो तहक़ीक़ करने वाले उलेमा ने अपनाया है कि वे एक तरफ़ कुरआन व हदीसं की नस्स को अपना ईमान यक़ीन करते और उनमें मुलहिंदाना तावील (बेखुदा) की रहनुमाई और बातों को बिगाड़ समझते हैं और दूसरी ओर कुरआन व हदीस के दामन को इस्राईलियत से पाक साबित करके हक़ीक़त की रोशनी को सामने लाते हैं।

      3. हुकूमत वाले नबियों और रसूलों और दुनिया के बादशाहों और हक्मरानों की ज़िंदगी में हमेशा साफ़ और वाज़ेह फ़र्क रहा और रहता है। पहली क़िस्म के लोगों की ज़िंदगी के हर पहलू और हर हिस्से में अल्लाह का ख़ौफ़, उसका डर, अद्ल व इंसाफ़, दावत व इर्शाद, ख़िदमते ख़ल्क़ (जन-सेवा) साफ़ नज़र आते हैं। वे किसी जायज़ मौके पर हाक़िमाना इक्तिदार का मुज़ाहिरा भी करते हैं तो उसमें घमंड और तकब्बुर की जगह अल्लाह के लिए बुग़्ज़ नज़र आता है। यानी उनका गुस्सा अपने लिए नहीं, अपने निजी फ़ायदे के लिए नहीं, बल्कि अल्लाह के कलिमे की बुलन्दी के लिए होता है। चुनांचे हज़रत यूसुफ़ (अलै.), हज़रत दाऊद (अलै.) और हज़रत सुलैमान (अलै.) की पाक ज़िंदगियों का पूरा दौर इस पर गवाह है और आख़िर लोगों की ज़िंदगी के हर शोबे में ज़ाती वक़ार (निजी प्रतिष्ठा) शख़्सी या जमाअती (व्यक्तिगत या दलगत) बरतरी (उच्चता) का प्रदर्शन, छोटों पर ज़ुल्म, बुनियाद और नीवं की तरह काम करते नज़र आते हैं।

      मिसाल के तौर पर अप फ़िरऔन अव्वल के इस एलान पर तवज्जोह फ़रमाइए, ‘अना रब्बुकुमुल आला’ (मैं तुम्हारा सबसे बड़ा पालनहार हूं, दूसरा कोई नहीं) और फिर हज़रत सुलैमान (अलै.) के इस ख़िताब पर नज़र कीजिए ‘अल्ला तालू अलै-य वातूनी मुस्लिमीन’ (मुझ पर बुलंदी ज़ाहिर कर और मुसलमान होकर मेरे पास हाज़िर हो ।) दोनों हिस्सों में हाकिमाना इक़्तिदार का मुज़ाहिरा मौजूद है। मगर फ़िरऔन के एलान में अल्लाह के साथ सरकशी, ख़ुदा की मख्लूक़ पर ज़ालिमाना अन्दाज़ और ख़ुदाई के दावे के लिए ‘मैं‘ (अह) जैसे मामले साफ़ दिखाई पड़ रहे थे और हज़रत सुलैमान (अलै.) के ख़िताब में मुखतब मुकाबले में सरबुलन्दी का इज़हार, ज़ाती वक़ार और शख़्सी सरबुलन्दी के लिए नहीं, बल्कि एक ख़ुदा के इर्शाद व तब्लीग़, अल्लाह के क़लमे और शिर्क में बेज़ारी के साथ तौहीद की दावत के लिए किया जा रहा है और यही फर्क है जो नबियों (अलैहिस्सलाम) की विरासत के ज़रिए हमेशा सही खिलाफत और दुन्यावी हुकूमत के दर्मियान नुमायां रहना चाहिए।

      4. जिस शख़्स की ज़िंदगी ख़ालिस अल्लाह की हो जाती है, अल्लाह तआला भी अपनी कुल कायनात को उसके लिए ताबे और मुसख़्ख़रर कर देते हैं और उसकी यह कैफियत हो जाती है कि उसका कोई कदम भी अल्लाह की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ नहीं उठता। अब अगर ऐसा शख्स कुछ ऐसे मामले कर दिखाता है जो आम दुन्यावी असबाब व वसाइल से बालातर होकर अमल में आए हैं, तो कम समझ और शक्की निगाहों वाले तो देखने और समझने की ज़हमत गवारा नहीं करते कि जिस हस्ती से ये आमाल हो गए हैं, वह अल्लाह की मर्ज़ी में खुद को फ़ना कर चुकी है इसलिए अल्लाह की बे-कैद कुदरत का हाथ उसके सर पर है और उसके इन आमाल (मोजज़ों) को भी कुदरत के आम कानूनों की तराजू में तौलकर उनके इंकार पर तैयार हो जाती है। यह रास्ता बेशक ग़लत और गुमराही का रास्ता है और साफ़ और रोशन ‘सीधा रास्ता’ वह है जिसको हमेशा इस्लाम के सोचने-समझने वाले कुरआन व हदीस की रोशनी में बयान करते चले आए हैं।

      5. शैतानी असरों में सबसे बुरा असर या शैतानी वस्वसा यह है कि मियां-बीवी के ख़ुशगवार ताल्लुक़ात में नफ़रत-दुश्मनी का ऐसा ज़हर मिला दिया जाए, जो उनके दर्मियान फूट पड़ने की वजह बने। यह इसलिए सबसे बुरा है कि इसके नतीजे झूठ, बोहतान, बदकलामी, बदअख़्लाक़ी और बेहयाई, यहां तक कि दूर तक फैले हुए होते हैं। यही वजह है कि शैतान को यह अमल बहुत महबूब है।

To be continued …